दशावतार Articles

मत्स्य अवतार

दशावतारों के बीच में मत्स्य अवतार आदि अवतार हैं। श्रील कविराज गोस्वामी जी ने श्री चैतन्य चरितामृत की मध्यलीला के 20वें परिच्छेद में स्वयं रूप श्री कृष्ण एवं उनके अवतारों के संक्षिप्त दिग्दर्शन के प्रसंग में लिखा है कि – श्री कृष्ण के मुख्य छः प्रकार के अवतारों में लीलावतार भी हैं। लीलावतारों में आदि अवतार मत्स्यावतार हैं। श्री चैतन्य चरितामृत में असंख्य लीलावतारों की कथा का उल्लेख हुआ है। श्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने 20वें परिच्छेद के 245वें पयार के अनुभाष्य में 25 मुख्य लीलावतारों के बारे में लिखा है। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में भी अवतारों व उनके चरित्रों का वर्णन हुआ है।

“संकर्षण, मत्स्यादिक-दुइ भेद ताँर ।
संकर्षण- पुरुषावतार, मत्स्यादि – लीलावतार ।।”

( “लीलावतार कृष्णेर ना याय गणन।
प्रधान करिया कहि दिग्दर्शन ॥

(चै० च० मध्य 20-244 )

मत्स्य, कूर्म, रघुनाथ, नृसिंह, बामन।
वराहादि – लेखा यौर ना याय गणन ॥” –

( मध्य 297-298 ) अष्टादश पुराणों के अन्तर्गत ‘मत्स्य पुराण’ में मत्स्यावतार की कथा वर्णित हुई है। नैमिषारण्यवासी शौनकादि महर्षियों ने. जब श्रीलोमहर्षण सूत जी के पुत्र श्री उग्रश्रवा सूत जी से मत्स्यावतार की कथा सुनने की इच्छा प्रकट की तो सूतनन्दन जी ने इस प्रकार कहा-

“प्राचीन काल में रविनन्दन राजा मनु ने अपने पुत्र को राज्य भार सौंप कर 10 हज़ार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी । ब्रह्मा जी ने तपस्या से प्रसन्न होकर जब वरदान देने की इच्छा की तो राजा ने पितामह ब्रह्मा जी से प्रणतिपूर्वक प्रार्थना करते हुये कहा- “आप मुझे ये वरदान दें कि प्रलयकाल के समय जैसे मैं जगत् के प्राणियों की एवं जगत् की रक्षा कर सकूँ ।” ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्ध्यान हो गये। स्वर्ग से देवता लोग पुष्प वृष्टि करने लगे। इसके बाद एक दिन मनु अपने आश्रम में बैठ कर पितृ तर्पण कर रहे थे कि उसी समय एक शफरी (छोटी मछली) उनके हाथों में आ गयी। दयापरवश होकर उन्होंने उस छोटी सी मछली की रक्षा करने के लिये उसे अपने कमण्डलु में रख लिया। वह मछली एक रात में एक अंगुली जितनी बड़ी हो गई और कमण्डलु में कष्ट होने के कारण. वह राजा से आर्त्तनाद कर के बोली- ‘मेरी रक्षा कीजिये,’ ‘मेरी रक्षा कीजिये। तब मनु ने दयावश उसको एक मिट्टी के घड़े में रख दिया। मछली एक रात में ही तीन हाथ जितनी बढ़ गई और पुनः राजा से अपना दुःख प्रकट करते हुये कहने लगी- ‘मैं आपके शरणागत हूँ’, ‘मेरी रक्षा कीजिये’ ‘मेरी रक्षा कीजिये। तब मुनि ने उनको एक कड़ाही के जल में रखा। किन्तु उस स्थान में वह एक मुहूर्त्त में ही तीन हाथ बड़ी हो गई। मछली के पुनः प्रार्थना करने पर उसे एक सरोवर में उसके पश्चात् गंगा जी में, वहाँ पर भी अत्यन्त बढ़ जाने पर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालने पर उस मछली से सारा समुद्र घिर गया, सारा समुद्र मछली द्वारा व्याप्त हो जाने पर मनु भयभीत हो गये और चिन्ता करने लगे कि निश्चय ही यह भगवान् वासुदेव होंगे, नहीं तो इनका शरीर 20 अयुत (2 लाख) योजन कैसे विस्तृत हो सकता है ? मत्स्य रूप में अवतीर्ण हुये जानकर मनु ने भगवान् को प्रणाम किया। उसके प्रणाम करने पर, मत्स्य रूपी भगवान् उसको ( राजा को) अपने तत्त्व से अवगत कराते हुये बोले- “हे महीपते, यह पृथ्वी थोड़े ही समय में जल में प्लावित हो जायेगी। मैंने समस्त जीवों की रक्षा के लिये देवताओं द्वारा एक नाव तैयार करवाई है, तुम उसमें स्वेदज, उद्भिज और जरायुज आदि जितने प्रकार के अनाथ प्राणी हैं उन सब को रख कर जल्दी ही होने वाले जल-प्लावन से उनकी रक्षा करो। जब तेज़ आँधी का प्रवाह आये तो उस समय तुम नाव को मेरे सींग से बाँधकर रखना। इसके बाद समस्त जगत् के लय होने के पश्चात् तुम समस्त जगत् के प्रजापति बनोगे। इस प्रकार कृतयुग के प्रारम्भ में तुम सर्वज्ञ मन्वन्तराधिपति राजा बनोगे।”

इसके बाद कब प्रलय होगी व किस प्रकार से जीवों की रक्षा की जाएगी इत्यादि बातें पूछने पर मत्स्य भगवान् ने अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, पृथ्वी की अग्नि द्वारा दग्धावस्था एवं उसके पश्चात् अत्यन्त वर्षा के द्वारा त्रिलोक में पानी ही पानी होने की बात बताई। भगवान् के कहे अनुसार प्रलय काल आने पर कृंगवान मत्स्य रूप धारण कर भगवान् जनार्दन प्रादुर्भूत हुये। साँप रस्सी के रूप में मनु के पास आया। धर्मज्ञ मनु ने योगबल से सभी प्राणियों को आकर्षित करके उस नाव में सुरक्षित रख दिया एवं भुजंग (साँप) को मत्स्य के सींग के साथ बाँध दिया। मत्स्य भगवान्, ब्रह्मा, सोम, सूर्य, चारों लोक, पुण्य नदी नर्मदा, महर्षि मार्कण्डेय, भगवान् भव, वेद, पुराण एवं सभी विधायें मनु के पास आ गईं। मत्स्य भगवान् ने मनु को यह भी कहा कि चाक्षुष मनु की समाप्ति पर जब जगत् एकर्णवीकृत होगा तो वे ही एक बार फिर वेदों का उद्धार व प्रवर्तन करेंगे।

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के 24वें अध्याय में मत्स्य अवतार की कथा वर्णित है। राजा परिक्षित ने दशावतारों के आदि, मत्स्यावतार के सम्बन्ध में सुनने की इच्छा की तो श्री शुकदेव गोस्वामी जी ने इस प्रकार वर्णन किया।

“भगवन् श्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारकथामायां माया मत्स्य विडम्बनम् ॥” ”
( श्रीमद्भागवत 8 – 24-1 )

ब्रह्मा जी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं। ब्रह्मा जी का एक दिन भी कम समय का नहीं है। चारों युगों की अवधि इस प्रकार से कथित हुई है – कलियुग की परम आयु है 4 लाख 32 हजार सौर वर्ष, उसकी दुगुनी द्वापर, तिगुनी त्रेता एवं चार गुणी आयु सत्ययुग की है। इन चारों को मिलाने से एक चतुर्युग व दिव्य युग कहलाता है। इस प्रकार के 71 चतुर्युग या दिव्य युग बीतने पर एक मनु का राजत्व काल समाप्त होता है।

ब्रह्मा जी की रात्रि का परिमाण भी इसी प्रकार है। ब्रह्मा जी के दिन के गुज़रने पर या कल्पावसान होने पर नैमित्तिक प्रलय होती है।

दिन की समाप्ति का समय हो जाने पर ब्रह्मा जी को नींद आ रही थी और वे सोना चाहते थे कि तभी हयग्रीव नाम का दानव, ब्रह्मा जी के मुख से निःसृत वेदों का अपहरण करके प्रलय जल में प्रविष्ट हो गया। पुनः दिन के आरम्भ होने पर वेदों के अभाव में वे कैसे सृष्टि वर्धन करेंगे, ऐसा सोच ब्रह्मा जी विष्णु जी के शरणापन्न हुये । भगवान् विष्णु ने स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर के आदि में मत्स्य रूप से प्रकट होकर हयग्रीव दानव का निधन करके वेदों का उद्धार कर उन्हें ब्रह्मा जी को समर्पण किया।

“अतीत प्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे ।
हत्वासुरं हयग्रीवं बेदान् प्रत्याहरद्धरिः ।।”
( श्रीमद्भागवत 8/24/57 )

स्वायम्भुव मन्वन्तरीय प्रलय की समाप्ति पर उन्हीं श्री हरि ने हयग्रीव असुर का विनाश करके निद्रा से उठे ब्रह्मा जी को वेद प्रदान किये । मत्स्य भगवान् इस कल्प में दो बार अवतीर्ण हुए। एक तो स्वयम्भुव मन्वन्तर में उन्होंने हयग्रीव दानव का विनाश करके वेदों का उद्धार किया तथा तब बाद में चाक्षुष मन्वन्तर की समाप्ति के समय उन्होंने प्रकट होकर राजा सत्यव्रत के ऊपर कृपा की थी ।

आशुतोष देव के नवीन बंगला शब्द कोश में ब्रह्मा के एक दिन का परिमाण दिया है। 432,00,00,000 वर्ष उसको मन्वन्तर कहा जाता है 14 मनुओं के राजत्य काल के समाप्त होने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है।

श्री चैतन्य मठ से प्रकाशित श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के 24वें अध्याय के 37वें श्लोक के तथ्य में लघुभागवतामृत के वाक्य के विश्लेषण में इस प्रकार लिखा है

स्वायम्भुव मनु को अगस्त्य मुनि ने अभिशाप दिया था, जिसके कारण मन्वन्तर के बीच में ही प्रलय हो गई थी। इसी प्रलय का मत्स्य पुराण में वर्णन है। चाक्षुष मन्वन्तर में भगवान् की इच्छा से अकस्मात ही प्रलय हुई ये कथा विष्णु धर्मोत्तर में मार्कण्डेय ऋषि ने वज्र को सुनाई थी। मन्वन्तर की समाप्ति पर प्रलय नहीं होती है। चाक्षुष मन्वन्तर की समाप्ति पर भगवान् ने माया द्वारा सत्यव्रत को स्वप्न की तरह प्रलय दिखाई थी – ऐसा कह कर श्रीधर पाद ने मन्वन्तर की समाप्ति पर होने वाली प्रलय को स्वीकार नहीं किया।

भक्त को सुख देने के लिये भगवान् के लिये कुछ भी अकरणीय नहीं है। वस्तुतः भक्त ही भगवान् के आविर्भाव का मूल कारण हैं। भक्त की सेवा ग्रहण करने के लिये भगवान् असमर्थ्य की लीला प्रकाश करते हैं, भक्त सत्यव्रत की सेवा ग्रहण करने के लिये ही भगवान् ने पहले असमर्थ्य की लीला की थी।

चाक्षुष मन्वन्तर में ‘सत्यव्रत’ नाम के एक नारायण भक्त राजा ने सिर्फ जल पीकर कठोर तपस्या की थी। एक दिन जब सत्यव्रत कृतमाला नदी में तर्पण कर रहे थे कि उसी समय उन्होंने अन्जलि के जल में एक छोटी मछली देखी । द्राविड़ देश के अधिपति सत्यव्रत ने मछली को जल में फैंक दिया तो छोटी सी मछली बहुत कातर भाव से मुनि से बोली- हे दीनवत्सल राजन् ! मैं छोटी सी मछली हूँ मुझे बड़ी मछली खा लेगी, आपने यह जानते हुये भी मुझे कैसे नदी के जल में फैंक दिया।

मुझे बहुत डर लग रहा है। आप मेरी रक्षा कीजिये। मछली की इस प्रकार कातरोक्ति सुनकर राजा उसे अपने कमण्डलु में डालकर अपने आश्रम में आ गये। एक रात्रि में ही वह छोटी सी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि उसका कमण्डलु में रहना मुश्किल हो गया तो उसने निवेदन किया कि इस प्रकार कष्ट में रहने की उसकी इच्छा नहीं है, उसे बड़े पात्र में रखा जाये जिसमें वह इच्छानुसार चल फिर सके। तब मुनि ने उनको एक कड़ाही के जल में रखा। किन्तु उस स्थान में वह एक मुहूर्त्त में ही तीन हाथ बड़ी हो गई। मछली के पुनः प्रार्थना करने पर उसे सरोवर में अक्षय जलाशय में और अन्त में समुद्र में डाल दिया में गया। समुद्र में निक्षेप करते समय मछली सत्यव्रत राजा से मज़ाक करते हुए बोली- “समुद्र में तो महाबली मगरमच्छ आदि हैं, वे मुझे खा डालेंगे, मुझे यहाँ डालना उचित नहीं है।” मत्स्य के इस प्रकार रमणीय वाक्य सुनकर सत्यव्रत राजा समझ गये कि यह साधारण मत्स्य नहीं है। यह मत्स्य रूप में भगवान् हैं, वे बोले – आप मत्स्य रूप में तो मेरी वंचना कर रहे हैं, वास्तव में आप कौन हैं ? आप ने एक दिन में ही सौ योजन में फैले समुद्र को घेर लिया है। हमने कभी भी इस प्रकार का अद्भुत शक्तिशाली जलजन्तु नहीं देखा और न ही कभी सुना। निश्चय ही आप साक्षात् भगवान् हरि हैं। निखिल जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही आपने जलचर का रूप धारण किया है। यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियों के मंगल के लिये ही होते हैं तथापि आपने किस उद्देश्य के लिये ये मत्स्य रूप धारण किया है, कृपा कर के आप मुझे बतलाइये । ~ इसके उत्तर में मत्स्य रूपी भगवान् श्री हरि बोले- “आज के सातवें दिन त्रिलोकी प्रलय समुद्र में डूब जायेगी। उसी समय मैं आपके पास एक बड़ी नौका भेज दूंगा। तुम समस्त औषधियों और बीजों को नौका पर रखना तथा सप्त ऋषियों से घिर कर जल जन्तुओं के साथ इस वृहद् नौका पर चढ़ कर स्वच्छन्दतापूर्वक प्रलय समुद्र में विचरण करना। प्रबल वायु के वेग से जब नौका कांपेगी तो तब तुम वासुकी साँप के द्वारा नौका को मेरे सींग के साथ बाँध देना। मैं ऋषियों के साथ तुमको और नौका को खींच कर ब्रह्मा जी की रात समाप्त होने तक विचरण करता रहूँगा । उसी समय आप को मेरी महिमा मालूम पड़ेगी, ऐसा कह कर श्री हरि अन्तर्हित हो गये ।” उनके अन्तर्हित होने पर सत्यव्रत राजा श्री हरि के बताये समय की प्रतिक्षा करने लगे व कुशा के आसन पर बैठ कर ईशान कोणाभिमुखी (उत्तर, पूर्व दिशा की ओर मुख करके) हो कर मत्स्य भगवान् के पादपद्मों का ध्यान करने लगे। इसी समय उन्होंने देखा कि प्रचण्ड वर्षा से समुद्र ने पहले तट की भूमि को और फिर धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी को डूबो दिया । अत्यन्त भयभीत होकर राजा आश्रय की चिन्ता कर रहे थे कि तभी राजा ने देखा कि एक विशाल नौका उनके पास आ गई। औषधि लताओं को लेकर राजा सत्यव्रत श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ उस नौका पर चढ़ गये । ब्राह्मणों ने इस विपत्ति से उद्धार के लिये राजा को केशव का ध्यान करने के लिये कहा। राजा ने तन-मन से एक होकर ध्यान करने पर देखा कि प्रलय महासागर में एक शृंगधारी नियुत योजन (चार लाख कोस ) विशाल अपूर्व स्वर्ण के समान कान्ति वाले मत्स्य भगवान् आविर्भूत हो गये हैं। राजा ने वासुकी को रस्सी बनाकर मत्स्य के सींग के साथ बाँध दिया। उसके बाद राजा मत्स्य भगवान् का स्तव करने लगे। स्तव से संतुष्ट होकर भगवान् ने राजा को तत्वोपदेश दिया। मत्स्य विष्णु की कृपा से ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न राजा सत्यव्रत ने वर्तमान कल्प में वैवस्वत मनु ( श्राद्ध देव के रूप में) के रूप में जन्म ग्रहण किया।

“प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं विहित – वहित्रचरित्रमखेदम् ।
केशव धृत मीनशरीर जय जगदीश हरे ।”

(श्री जयदेव कृत दशावतार स्तोत्र का प्रथम श्लोक)

हे केशव ! वेद जब प्रलय समुद्र के जल में शोभायमान हो रहे थे तब आपने मीन (मछली) का शरीर धारण करके बिना किसी कष्ट के नौका के समान वेदों को धारण किया था; हे मत्स्य रूपधारी जगदीश्वर श्री हरि आपकी जय हो।