श्रील प्रभुपाद

“संसार में रहते समय नाना प्रकार की असुविधाएं आती हैं l किन्तु उन असुविधाओं में मोहित होना या असुविधा दूर करने की चेष्टा करना ही हमारा प्रयोजन नहीं है l यह असुविधाएँ पूर्ण रूप से दूर होने के बाद हमें क्या वस्तु प्राप्त होगी, हमारा नित्य जीवन कैसा होगा– यहाँ रहते हुए ही इसका परिचय लाभ करना आवश्यक हैl यहाँ पर जितनी प्रकार की आकर्षण ओर विकर्षण की वस्तुएँ हैं — जिन्हें हम चाहते हैं और नहीं चाहते हैं, इन दोनों का ही समाधान होना आवश्यक हैl कृष्ण पादपदम से जितना दूर रहेंगे , उतना ही आकर्षण ओर विकर्षण, हमें आकृष्ट करेंगेl इस जगत के आकर्षण ओर विकर्षण से परे होकर , अप्रकृत नाम में आकृष्ट होने से ही कृष्ण सेवा रस की कथा समझ में आ सकती है l”