अपरा एकादशी कथा

इस ज्येष्ठ कृष्ण-पक्षीय ‘अपरा’ नामक एकादशी के व्रत की कथा ब्रह्माण्ड पुराण के युधिष्ठिर-श्रीकृष्ण संवाद में वर्णित है।
इस ग्रन्थ में इस प्रकार का वर्णन आता है कि एक बार महाराज युधिष्ठिर जी ने भगवान श्रीकृष्ण जी से पूछा – हे जनार्दन! ज्येष्ठ कृष्ण-पक्षीय एकादशी का क्या नाम है व इस व्रत की क्या महिमा है – आप कृपा करके मुझे बतायें।

महाराज युधिष्ठिर जी के प्रश्न के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – महाराज युधिष्ठिर! लोगों के कल्याण के लिये आपने बड़ा अच्छा प्रश्न पूछा है। सचमुच ये एकादशी बहुत ही पुण्यदायक और बड़े-बड़े पापों के ढेरों को खत्म करने वाली है। ये एकादशी असीम फलों को प्रदान करने वाली है। इसीलिए इस एकादशी का नाम ‘अपरा’ है।

देवपुराधिपति महाभागवत् महाराज रुक्मांगद ने अपने राज्य में एक सुन्दर पुष्पोद्यान लगाया। यह उद्यान इतना मनोरम था कि लोगों के लिये वह एक दर्शनीय-स्थल बन गया। उस उद्यान में आने वाले लोग वहाँ आकर वहाँ खिले हुए फूल तोड़-तोड़ करके ले जाते थे। परिणामस्वरूप राजा को एक भी फूल मिलना मुश्किल हो गया। फूलों के अभाव में वह उद्यान उजाड़-वीरान हो जाता। उद्यान की ऐसी दुर्दशा देखकर राजा बहुत उदास हो गया। राजा ने चौकीदारों की संख्या बढ़ा दी। लोगों ने फूल तोड़ने बन्द कर दिये किन्तु फूलों की चोरी होती ही रही, कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत सारे उपाय किये परन्तु कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि अब फूलों की चोरी करने वाले मनुष्य तो थे नहीं कि पकड़ में आ सकें। वे तो थे- स्वर्ग के देवी-देवता और अप्सरायें, इसलिए वे पकड़ में नहीं आ सके।

अन्त में राजा ने अपने कुलपुरोहित से इस समस्या के समाधान के लिये कुछ करने की प्रार्थना की। कुलपुरोहित ने इसका समाधान बताते हुए कहा कि यदि सायंकाल में उद्यान के सभी पौधों के आसपास, भगवान विष्णु का चरणामृत या भगवान के विग्रह के गले से उतारी हुई प्रसादी माला के फूल या भगवान के चरणों में चढ़े पुष्पों को बिखेर दिया जाये तो सम्भव है कि चोरों को पकड़ा जा सकेगा।

रात्री होने पर स्वर्ग के देवी-देवता एवं अप्सरायें रोज़ की तरह उस उद्यान में उतर आयीं। उनमें से एक अप्सरा का पाँव पौधों के आस-पास बिखरे भगवान के चरणों में चढ़े पुष्पों के ऊपर जैसे ही पड़ा उसके सारे पुण्य उसी समय समाप्त हो गये। उसकी वापस स्वर्ग जाने की सारी शक्ति भी खत्म हो गई। अन्य देवता व देवियाँ पहले तो उसे देखते रहे परन्तु उसे साथ ले जाने का कोई उपाय न देख हताश होकर, उसे उसी असहाय अवस्था में छोड़ कर वापस स्वर्ग में चले गये, वह बेचारी अकेली रह गई क्योंकि पुण्यों के समाप्त हो जाने से वह उड़ान नहीं भर सकी तथा वापस स्वर्ग नहीं जा सकी। अपने साथियों से बिछुड़ जाने पर तथा इस मृत्युलोक में व्याप्त जरा, व्याधि आदि दुखों के बारे में सोच-सोच कर कि हाय, मुझे अब इस मृत्युलोक में रहना पड़ेगा, दुखी होकर रोने लगी।

प्रातः होते ही उद्यान के चौकीदारों व मालियों ने उसे देखा तो वे उसके दिव्य तेज व अद्वितीय रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने राजमहल में जाकर राजा को खबर दी। राजा वहाँ आया व उसने भी उस अप्सरा को देखा। उसके आलौकिक रूप को देखते ही वह उसके प्रति दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों की कल्पना कर बैठा तथा इसी भावना से राजा ने उसे नमस्कार किया।

अप्सरा को रोते हुए देखकर राजा को बड़ी दया आई। राजा ने पूछा – देवी! आप क्यों रो रही हैं? आपको क्या कष्ट है?

उस अप्सरा ने सारा वृतान्त कह सुनाया और कहा कि मैं स्वर्ग वापस जाना चाहती हूँ क्योंकि मनुष्य-लोक में बुढ़ापा बहुत जल्दी आ जाता है। शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। विषय भोग भी इच्छानुसार भोगे नहीं जा सकते। महाराज! यदि आपकी प्रजा का कोई भी स्त्री अथवा पुरुष मुझे अपनी एक एकादशी का फल दान दे देगा तो में वापिस जा सकती हूँ। एक एकादशी के फल से मैं एक कल्प काल तक स्वर्ग का दिव्य सुख भोग सकती हूँ।

राजा रुक्मांगद को एकादशी के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उसने अपने राजगुरु से पूछा तो उन्होंने भी अनभिज्ञता प्रकट की और कहा इस एकादशी व्रत के बारे में मैं आज ही सुन रहा हूँ। जब कुलगुरु को ही पता नहीं तो भला प्रजा को कैसे पता होता। राजा ने अपने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो नागरिक एक एकादशी व्रत का फल देगा उसको ईनाम दिया जायेगा। जब तीन-चार दिन तक कोई भी नागरिक आगे नहीं आया तो ईनाम की राशि बढ़ाते-बढ़ाते आधे राज्य तक कर दी किन्तु अनुकूल परिणाम नहीं आया तो अप्सरा ने मन ही मन यमराज के गणक चित्रगुप्त को स्मरण किया। चित्रगुप्त जी की प्रेरणा से अप्सरा को मालूम पड़ा कि राजा के राज्य में एक सेठ है जिसकी स्त्री ने एक बार मज़बूरी से एकादशी व्रत किया था।

सेठ का पता व परिचय बताते हुए अप्सरा ने राजा को उस सेठ के बारे में कहा कि एक दिन यूँ ही उस सेठ की स्त्री वैसे ही घूमते-घूमते अपने घर के पास ही एकांत में बने गोदाम में वहाँ रखे सामान को देखने चली गयी, सेठ के नौकरों को मालूम न था की सेठानी अन्दर गोदाम में है। वे तो सेठ के बुलाने पर गोदाम के दरवाज़े का ताला लगा कर चले गये।

नौकर तो चले गये परन्तु सेठानी वहीं बन्द रह गयी उसने काफी दरवाज़ा पीटा पर उस एकान्त में किसी ने वह आवाज़ न सुनी। परेशान सेठानी क्या करती; रात में वहीं सो गयी, यह सोचकर कि सुबह कोई तो गोदाम खोलेगा, परन्तु सेठानी का भाग्य ऐसा कि अगले दिन दुकान की छुट्टी थी। सो गोदाम की तरफ कोई आया ही नहीं। भूख प्यास से सेठानी व्याकुल हो गयी। इधर सेठ और उसके घरवाले सभी परेशान, उन्होंने बहुत ढूँढा पर मिलती कैसे, वह वहाँ थी ही नहीं। गोदाम की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया क्योंकि सेठानी वहाँ जाती ही नहीं थी। उस दिन तो वह यूं ही कौतुहल-वश चली गयी थी।

छुट्टी से अगले दिन जब सेठ के नौकरों ने किसी सामान के लिये दरवाज़ा खोला तो अन्दर बेहोशी की हालत में सेठानी को गिरा पाया। ये खबर तुरन्त सेठ को दी गयी। सेठ पड़ोस के वैद्य को साथ ले आया। पानी का छींटा मारकर व उसके हाथ-पैरों की मालिश करके उसे होश में लाया गया तथा उसके लिये भोजन की व्यवस्था की गयी। धीरे-धीरे सेठानी अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगी। संयोग से जिस दिन सेठानी गोदाम देखने गयी, वह दशमी तिथि थी व उसके अगले दिन एकादशी। इस तरह उस सेठानी के द्वारा अनजान में परम पवित्र एकादशी का व्रत हो गया।

अप्सरा से पूरी बात सुनकर राजा ने अपने मन्त्री व सैनिकों को उस सेठ को व उसी स्त्री को ससम्मान लिवा लाने को कहा। सेठ-सेठानी के आने पर उन्होंने राजा को व उस अप्सरा को प्रणाम किया और कहा कि आपके मन्त्रियों ने हमें सारी बात बता दी है, अब आप आज्ञा करें कि हमें क्या करना होगा।
अप्सरा ने सेठानी से कहा कि यदि आप कृपा करके अपने इस व्रत का फल मुझे संकल्प पढ़कर दान दे दोगी तो मैं इस व्रत के पुण्य के प्रताप से स्वर्ग वापस जा सकती हूँ। तब राजा ने अपने राजगुरु के द्वारा सेठानी से संकल्प करा कर स्वर्ग की देवी को दिला दिया तो वह देवी राजा व सेठ-सेठानी को धन्यवाद व सभी का आभार प्रकट करती हुई स्वर्ग को चली गई। राजा ने अपनी घोषणा के अनुसार सेठानी को अपना आधा राज्य दे दिया। महाराज रुक्मांगद को इस घटना को प्रत्यक्ष देखने से पूर्ण विश्वास हो गया कि एकाशी का बहुत महात्म्य है, इसकी बहुत महिमा है। एक दिन राजा ने यह विचार किया कि इतनी पुण्यदायिनी और कल्याणकारी एकादशी का व्रत मेरे राज्य के प्रत्येक नागरिक को अवश्य ही करना चाहिए। अतः उसने इसे नियमित रूप से लागू कर दिया।

राजा ने कहा-
अष्टवर्णाधिको मत्योर्धशीति नैव पूय् र्यते। यो भुंक्ते मामके ——————————पक्ष्योरुभयोरपी ॥
(नारदीय पुराण)
अर्थात् जिनकी उम्र आठ वर्ष से अधिक अथवा अस्सी साल से कम है, ऐसा कोई व्यक्ति यदि मेरे राज्य में एकादशी के दिन अन्न-भोजन करेगा तो मैं उसको मृत्यु दण्ड दूँगा या फिर मैं उसे अपने राज्य से निकाल दूँगा। इसलिए स्त्री हो या पुरुष, सभी को शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की दोनों एकादशी तिथियों में उपवास ज़रूर करना होगा। यह नियम मेरे पुत्र, पिता-माता, पत्नी, मित्र, रिश्तेदार कोई भी हों, सभी के लिये लागू होगा। न करने पर सभी को दण्ड दूँगा। इस प्रकार की घोषणा, राजा ने अपने पूरे राज्य में ढिंढोरा पिटवा कर करा दी। राजा के इस आदेश को मानते हुए उस राज्य के सभी लोग एकादशी व्रत पालन करते हुए वैकुंठ को जाने लगे।

ब्रह्मपुराण में लिखा है कि यह एकादशी बहुत पुण्य देने वाली है। महापाप नाश करने वाली है। अनन्त फल देने वाली है। ब्रह्म-हत्या, गौहत्या, भ्रूणहत्या, पर-स्त्री-गमन, झूठ बोलना, झूठी गवाही देना, किसी की झूठी प्रशंसा करना, कम तोलना, वेद पढ़ने व पढ़ाने के नाम पर दूसरों को ठगना व काल्पनिक ग्रन्थ लिखना आदि बहुत से बड़े-बड़े पाप इस व्रत से समाप्त हो जाते हैं।

ठग, झूठे-ज्योतिषी व झूठे डाक्टर भी झूठी गवाही देने के समान पापी हैं परन्तु ये व्रत इन सब दोषों को समाप्त कर देता है। यदि क्षत्रिय अपने क्षत्रिय धर्म को त्यागकर युद्ध से भाग खड़ा होता है अथवा कोई शिष्य अपने गुरु से भिक्षा लेकर भ्रमवश फिर उसी गुरु की निन्दा करने लग जाता है तो उसे जो पाप लगते हैं, वे सभी इस एकादशी के व्रत को पालन करने से नष्ट हो जाते हैं।

हे राजन्! इस एकादशी की महिमा इतनी है कि पवित्र कार्तिक मास में तीन दिन प्रयागराज में स्नान करने का, मकरराशि में जब सूर्यदेव अवस्थान कर रहे हों, ऐसे माघ मास में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगमस्थली पर स्नान करने से, काशी में शिवरात्रि का व्रत करने से व गया में विष्णु पादपद्दमों में पिण्ड दान करने से जो फल मिलता है, वही फल इस एकादशी के व्रत से अनायास ही मिल जाता है। हे राजन्! यह व्रत पाप रूपी वृक्षों को काटने को तीखी कुल्हाड़ी की तरह, पापों को भस्म करने के लिए दावानल की तरह, पाप रूपी अन्धकार को मिटाने के लिए तेजोमय सूर्य की तरह तथा पाप रूपी मृग के लिए सिंह स्वरूप है। हे राजन्! अपरा एकादशी के दिन श्रद्धापूर्वक यह व्रत करने के साथ-साथ जो त्रिविक्रम भगवान विष्णु जी का अर्चन करता है, उसका परम मंगल होता है व मृत्यु के पश्चात विष्णुलोक को प्राप्त करता है। सिंह राशि में वृहस्पति की स्थिति में गौतमी नदी में स्नान, कुंभपर्व में केदारनाथ जी के दर्शन, बद्रीनाथधाम की यात्रा, दर्शन और सेवा, सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र स्नान तथा स्नान के समय हाथी, गाय, घोड़े व सोने तथा भूमि के दान का जो फल है वह सब ‘अपरा’ एकादशी के पालन से स्वतः ही मिल जाता है, यहाँ तक कि इसका महात्म्य सुनने से भी बहुत पुण्य मिलता है।