अष्ट महाद्वादशी

ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में श्रीसुत – शौनक संवाद में अष्ट महाद्वादशी के संबंध में वर्णित हुआ है कि,

उन्मीलनी व्यंजुली च त्रिष्पृशा पक्षवर्द्धिनी।
जया च विजया चैव जयन्ती पापनाशिनी।।
द्वादश्योऽष्टो महापुण्याः सर्वपापहरा द्विज।
तिथियोगेन जायन्ते चतस्रश्चापरस्तथा।
नक्षत्रयोगाच्च बलात् पापं प्रशमयन्ति ताः।।

हे द्विज ! उन्मिलनी, व्यंजुली, त्रिष्पृशा, पंचवर्द्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी यह अष्ट द्वादशियाँ महापवित्रा और निखिल पाप का हरण करने वाली हैं। उनमें प्रथम चार तिथि योग से एवं अवशिष्ट चार नक्षत्र योग से उत्पन्न होती हैं। ये समस्त द्वादशियाँ समस्त पापों को शान्त करती हैं। उन्मिलनी आदि समस्त द्वादशियाँ अतिशय पुण्यवर्द्धिनी हैं, विशेषकर शुक्ल पक्ष में अनुष्ठित होने से, वे अधिक फलदायक होती हैं। इन समस्त द्वादशियों का माहात्म्य न समझकर जो उक्त तिथि को व्रतोपवास में रत नहीं होते, वे अमृत पाकर भी उससे वंचित होते हैं। धर्मस्वरूप साक्षात श्रीहरि एकादशी रूप में विराजित हैं।

व्यंजुली और उन्मिलनी व्रत की उनके शरीर से तुलना की गई है। पुराणों में विद्वानों ने जो अष्ट महाद्वादशियों का वर्णन किया है, उसमें एक का भी तिरस्कार करने से पूर्व में संचित समस्त पुण्य ध्वंस हो जाते हैं। पद्मपुराण और मार्कण्डेय पुराणों में भगवान की उक्ति में दृष्टिगत होता है कि, जो अष्ट- महाद्वादशी व्रत के अनुष्ठान से विरक्त होते हैं, वे भगवत आज्ञा से महाप्रलय तक यमपुरी में वास करते हैं। अत: समस्त आत्म-मंगल लाभेच्छु व्यक्ति एकादशी तथा महाद्वादशी तिथियों के आगमन पर यथा विधि सम्मान प्रदान करने से एक ओर जैसे अवांछित दुःख और दुर्दशा से परित्राण (रक्षा) प्राप्त करेंगे, दूसरी ओर नित्यमंगल प्राप्ति के पथ पर वे अग्रसर हो पायेंगे। उल्लिखित इन अष्ट-महाद्वादशीयों को छोड़कर भी श्रीहरिभक्तिविलास ग्रन्थ में और भी दो द्वादशी व्रतोपवास का उल्लेख देखा जाता है। वे श्रवण द्वादशी एवं गोविन्द द्वादशी नाम से कथित हैं। इनका परिचय और माहात्म्य क्रमानुसार वर्णित हो रहा है।