उनकी अपूर्व Adjustment

लगभग 10-20 वर्ष पहले हुई व्रज  मण्डल परिक्रमा में श्रील गुरु महाराज जी को काम्यवन में श्री गोपाल मन्दिर में न ठहरा कर श्री जगन्नाथ मन्दिर की प्रथम मंजिल के अत्यन्त संकरे से कमरे (मिआनी) में ठहराया गया था। छत बहुत नीचे थी। पंखा भी नहीं था और हवा आने के लिए कोई रास्ता भी नहीं था। सुबह-सुबह जब मैं श्रील गुरु महाराज जी को प्रणाम करने गया तो गुरु जी बैठे हाथ पँखा स्वयं चला रहे थे। उनसे ही पता चला कि सारी रात इसी प्रकार बैठ कर वे हाथ से पँखा करते रहे थे तथा सारी रात सो नहीं पाये थे।  बहरी दृष्टि से देखें तो इतने सारे बड़े-बड़े मठों के सर्वोच्च पदाधिकारी और इस प्रकार की असुविधा। पर गुरु जी के मुखारविन्द पर कोई उद्वेग नहीं था। सहिष्णुता भरी मुस्कान ने आसन लगा रखा था उनके श्रीमुख-मण्डल पर ।

 

श्रील गुरु महाराज जी को अपमान भी सहना पड़ता है, यह कभी चिन्ता भी नहीं कि थी मैंने सतीर्थों की तो बात ही छोड़ दीजिये गुरु जी के शिष्यों द्वारा उनके सम्मुख प्रत्यक्षतः उनकी अवमानना करते हुये देखने का दुर्भाग्य भी मेरा हुआ है। परन्तु मेरे गुरु जी की सहिष्णुता की भी कोई सीमा नहीं । मामूली मामूली से शिष्यों द्वारा प्रत्यक्ष अवमानना, उत्तर-प्रति-उत्तर व अभद्र व्यवहार से भी गुरु जी क्रोधित नहीं हुये। धन्य हो गया मैं ऐसे अदोषदर्शी गुरु को पाकर । ऐसी एक नहीं अनेकों घटनायें मेरी आखों के समक्ष हैं जब प्रत्यक्षत: श्रील गुरु महाराज जी की अवमानना की गई और उनके सामने ही सभा में कठोर कटाक्ष उन पर कसे गये व अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया। परन्तु गुरु महाराज जी ने लेश मात्र भी प्रतिक्रिया नहीं की। (उनके सतीर्थों का नाम लिखने में मुझे संकोच होता है कि कहीं अनाधिकार चेष्टा न हो जाये।)

 

हम लोगों ने श्रील गुरु जी का चरण आश्रय किया। अतः सदाचार आचरण के लिये हम लोग बाध्य हैं। परन्तु ऐसा होता नहीं है। गुरु महाराज जी को हमारा असदाचार व पापाचार भी सहना पड़ता है, झेलना पड़ता है। मैं अपनी बात बोलता हूँ। घर की बात तो जाने दीजिये मठ में जाकर मुझसे इस प्रकार का पापाचरण-दुराचरण हुआ है कि बाल पकड़ कर धक्के दे-दे कर मुझे मठ से निकाल देना चाहिये था। गुरु जी तो सर्वज्ञ हैं सब कुछ जानते हुये भी उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा बल्कि हरि कथा कहते हुये प्यार से समझाया। ऐसे कई उदाहरण मेरे समक्ष हैं जब श्रील गुरु महाराज जी को साक्षात् रूप से मुझ जैसे लोगों के दुराचरण के बारे में बताया गया । पर गुरु जी ने चुपचाप सुन कर बरदाश्त कर लिया। हमेशा उनका Positive Attitude ही रहा है। उनको यही कहते सुना गया कि संस्कार वश ऐसा हो गया है। उनकी इस सहिष्णुता व दयालुता को देख कर ही बहुत से लोगों में सुधार हुआ है।

 

ऐसी अनेकों घटनायें मेरे सामने हैं जब श्रील गुरु महाराज जी शारीरिक और मानसिक रूप से व्यथित हुये पर शान्त रह कर सहन किया उन्होंने। शिमला में खटमलों से भरे बिस्तरे पर, देहरादून में मच्छरों से भरे मंच पर वे प्रसन्न थे। तेज़ बुखार व पैरों में छाले होते हुए भी अविचलित रूप से चलते देखा है, मैंने उन्हें । घण्टों धूप में बिना पानी के अत्यंत प्यासे होते हुए भी अव्याकुल ही पाया मैंने उन्हें । उन्हें सोच और लघुशंका जाने के लिये घण्टों इन्तज़ार करते हुए मैंने देखा है। दूसरों की सुविधा ही देखते रहते हैं गुरु जी। उन्होंने अपने एक पत्र में पूज्यपाद राज कुमार जी को लिखा कि वे कालका मेल में दिल्ली से कलकत्ता जाते समय अत्यधिक भीड़ के कारण रास्ता नहीं मिलने से 10 घण्टे तक लघुशंका के लिये नहीं जा सके। गुरु महाराज जी का स्वभाव अत्यधिक Adjust करने का है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी गुरु जी आसानी से अपने आप को Adjust कर लेते हैं । “तत्तेनुकम्पां” श्लोक की शतप्रतिशत implication हमारे गुरु महाराज जी में है। सहिष्णु व्यक्ति ही हर हाल में Adjustment देखते हैं।

 

ऐसे तो गुरु महाराज जी कष्टों में रहते ही है। पर यात्रा में तो उनके कष्ट कई गुणा बढ़ जाते हैं। भीड़ भरे कलकत्ता रेलवे प्लेटफार्म पर सैकड़ों लोगों की धक्कमपेल में स्वयं Reservation Chart  देखते हुये खड़ाऊँ पहने उनके नंगे श्री चरणों पर लोगों के बूटों के प्रहार होते मैंने स्वयं देखा है। IInd Class  में यात्रा करते हुये भीड़ भरे डिब्बों में घण्टों सिमट कर बैठे हुये और समान का ध्यान भी स्वयं रखते हुऐ मैंने पाया है उन्हें । गाड़ी में भक्ष्य-अभक्ष्य खाते लोगों, ताश खेलते तथा सिगरेट का धुआं उड़ाते लोगों,  शराब की दुर्गन्ध फैलाते लागों में भी मैंने उनकी अपूर्व Adjustment  देखी है।

कुलदीप चोपड़ा, बठिंडा, पंजाब।