श्रील प्रभुपाद जी की पत्रावली

20 जनवरी 1935
श्री पुरुषोत्तम मठ, पुरी

यदि किसी की भगवान् में ठीक से भक्ति रहे तो उसके अन्दर असन्तोष रहने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता। इस पृथ्वी में भगवद्-सेवा विमुख होने के कारण ही हम कर्म-फल के चक्र में फँस गये हैं। इन्हीं कर्म फलों के कारण कभी हम भौतिक सुखों की और दौड़तें हैं तो कभी किसी के प्यार में फँस जाते हैं। ऐसे ही कर्म फलों के अधीन होकर हम कभी दु:खों के भंवर में उलझ जाते हैं तो कभी किसी के प्रति विद्वेष भाव को पाल लेते हैं।

भगवान् की सेवा ही हमारे जीवन का प्रयोजन है– यह ठीक से समझ में आ जाने पर संसार के तमाम क्लेश व सुखों की कामना हमारे अन्दर आ ही नहीं सकती।

तुम हमेशा भगवान की सेवा में अपने मन को लगाकर रखना, तब कोई भी तुम को नुक्सान नहीं पहुँचा सकता। चंचल रहकर या किसी के प्रति असन्तुष्ट भाव दिखाकर यदितुम दुनियाँ में रहोगे तो भगवान् की सेवा की रहस्यमयी बातें तुम्हारी समझ में ही नहीं आएँगी। तू-तू, मैं-मैं वाला वाक्-युद्ध या शारीरिक युद्ध अथवा मानसिक असन्तोष रूपी युद्ध तुमको भगवान श्रीहरि की सेवा नहीं करने देगा। इसलिए वृक्ष की तरह सहनशील होकर जैसी-तैसी परिस्थिति में भी सामन्जस्य बनाकर रखने से तुम्हारा मंगल होगा। श्रीगौरहरि जिस दिन तुम्हें कहीं और ले जाएँ, उस दिन की तुम प्रतीक्षा करना।

नित्याशीर्वादक
सिद्धान्त सरस्वती।