Gaudiya Acharyas

श्रीअद्वैत आचार्य

2023 श्री अद्वैत आचार्य आविर्भाव | श्री अद्वैत आचार्य जन्म वर्षगाँठ का दिन  माउंटेन वियू , California, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिये

व्रजे आवेशरुपत्वाद्वयूहो योऽपि सदाशिवः।
स एवाद्वैतगोस्वामी चैतन्याभिन्न विग्रहः॥

(गौ. ग. दी. 76)

जो व्रज के आवरण रूप से नियुक्त है तथा जो सदाशिव व्यूह नाम से प्रसिद्ध है-वे ही अद्वैत गोस्वामी जी हैं। आप श्रीचैतन्य महाप्रभु जी से अभिन्न शरीर हैं।

यश्र्च गोपालदेहः सन् व्रजे कृष्णस्य सन्निधौ।
ननर्त्त श्रीशिवातन्त्रे भैरवस्य वचो यथा॥
एकदा कार्तिक मासि दीपयात्रा महोत्सवे।
सरामः सहगोपालः कृष्णोऽनृत्यत् यत्नवान्॥
निरीक्ष्य मद्गुरुदेवो गोपभावाभिलाषवान्।
प्रियेण नर्त्तितुमारब्धश्र्चक्रभ्रमणलीलया॥
श्रीकृष्णस्य प्रसादेन द्विविधोऽभूत् सदाशिवः।
एकस्तत्र शिवः साक्षादन्यो गोपाल विग्रहः॥

(गौ. ग. दी. 77-80)

अर्थात् इन्होंने ग्वाले का रूप धारण करके व्रज में श्रीकृष्ण के सामने नृत्य किया था। इस सम्बन्ध में शिवतन्त्र में भैरव जी का वाक्य है कि एक बार कार्तिक मास में दीप-यात्रा महोत्सव के समय बलराम जी तथा सदाशिव जी के ग्वाले के रूप के साथ श्रीकृष्ण जी ने भी खूब नृत्य किया था। यह देख कर मेरे गुरुदेव शंकर जी ने गोप-भावाभिलाषी होकर चक्र की तरह घूमते हुये चक्र-भ्रमण लीला में श्रीकृष्ण के नज़दीक नृत्य करना आरम्भ कर दिया था। श्रीकृष्ण की कृपा से सदाशिव जी ने भी दो प्रकार के रूप ग्रहण किए थे—एक तो साक्षात् शिव था अन्य ग्वाला रूप।

श्रीअद्वैत तत्व के सम्बन्ध में श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत नामक ग्रन्थ में श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी जी की निजी डायरी से प्रमाण उल्लेख करते हुए इस प्रकार लिखा है—

महाविष्णुर्जगतकर्त्ता मायया यः सृजत्यदः।
तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरेः॥
अद्वैतं हरिणाद्वैताचार्यं भक्तिशंसनात्।
भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये॥

(चै.च.आ. 1/12-13)

मैं उन भक्तवर श्रीअद्वैत आचार्य ईश्वर का आश्रय ग्रहण करता हूँ। जो महाविष्णु, माया द्वारा इस जगत् की सृष्टि करते हैं, उन जगत् कर्त्ता के ही अवतार हैं—ईश्वर अद्वैत आचार्य जी। हरि से अभिन्न तत्व होने के कारण ही उनका नाम “अद्वैत” है तथा भक्ति शिक्षक होने के कारण उन्हें “आचार्य” कहा जाता है।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा है—”महा विष्णु जी, माया की दो वृत्तियों में, अर्थात् दो रूपों में विराजमान हैं। प्रथम तो वह है जहाँ महाविष्णु जी प्रकृतिस्थ होकर जगत् के निमित्त कारण है, वह ही विष्णु रूप है, द्वितीय स्वरूप में प्रधानस्थ होकर वे रुद्र रूप में श्रीअद्वैत हैं।”

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने अद्वैत आचार्य जी के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है—श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु महाविष्णु हैं। ये आचार्य हैं। परिचालन करने में विष्णु जी का आचरण मंगलमय हैं। वे तमाम मंगलों की खान हैं। जगत्-जंजाल में फंसे जीव इन शुद्ध, नित्य, पूर्ण, मुक्त तथा मंगल स्वरूप विष्णु जी (अद्वैताचार्य जी) को न समझ पाने के कारण ही आत्मा की वृत्ति-भक्ति से वन्चित हैं। श्रीअद्वैत आचार्य जी का एक नाम कमलाक्ष भी है।

जगत्-मंगल अद्वैत, मंगल गुणधाम।
मंगलचरित्र सदा, मंगल यार नाम॥
महाविष्णुर अंश अद्वैत गुणधाम।
ईश्वरेर अभेद तेंह अद्वैत पूर्णनाम॥
वैष्णवेर गुरु तेंह जगतेर आर्य।
दुइ नाम मिलने हैल अद्वैताचार्य॥
कमल नयनेर तेंह याते अंग, अंश।
‘कमलाक्ष ‘ बलि धरे नाम अवतंस॥

(चै.च.आ. षष्ट परिछेद-9, 25, 29, 30)

श्रील वृन्दावन दास ठाकुर जी ने श्रीअद्वैत आचार्य को वैष्णवाग्रगण्य के रूप में व शंकर जी के रूप में वर्णन किया है—

सेइ नवद्वीपे वैसे वैष्णवाग्रगण्य।
‘अद्वैत आचार्य’ नाम, सर्वलोके धन्य॥
ज्ञान-भक्ति-वैराग्येर गुरु मुख्यतर।
कृष्णभक्ति बाखनिते येहेन शंकर॥

(चै.भा.आ. 2/78-79)

(अर्थात् उस नवद्वीप में वैष्णवाग्रगण्य श्रीअद्वैताचार्य जी भी निवास करते हैं। वे सभी लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य की शिक्षा देने वाले अद्वितीय गुरु हैं॥ श्रीकृष्ण-भक्ति का वर्णन करने के लिये तो वे श्रीमहादेव जी के समान हैं।)

श्रीअद्वैत आचार्य जी शुक्ला-सप्तमी तिथि में, वारेन्द्र ब्राह्मण वंश में, श्रीकुबेर पण्डित व श्रीमती नाभा देवी को अवलम्बन करके श्रीहट्ट के निकटवर्ती नवग्राम में आविर्भूत हुए थे।

‘बंग देशे श्रीहट्ट निकट नवग्राम।
कुबेरपण्डित 1 तथा नृसिंह सन्तान॥
कुबेरपण्डित भक्तिपथे महाधन्य।
कृष्णपादपद्म बिना ना जानये अन्य॥
तैछे तार पत्नी नाभादेवी पतिव्रता।
जगतेर पूज्या, येंहो अद्वैतेर माता॥

(भक्ति रत्नाकर 5/2 41-43)

(अर्थात् बंग देश में श्रीहट्ट के निकट नवग्राम है जहाँ कुबेर पण्डित व नृसिंह की सन्तान रहती है। जिनमें श्रीनृसिंह भादुड़ी श्रीअद्वैताचार्य जी के ससुर हैं तथा श्रीकुबेर पण्डित जी अद्वैताचार्य जी के पिता हैं, जो कि भक्ति पथ में काफी अग्रसर हैं। संसार में रहते हुये भी इनका ऐसा भाव है कि ये कृष्णा पादपद्म के अलावा कुछ भी नहीं जानते। जिस प्रकार श्रीकुबेर पण्डित जी श्रीकृष्ण के परम भक्त हैं उसी प्रकार उनकी पत्नी श्रीनाभा देवी भी परम भक्त हैं तथा जगत पूज्या हैं। ये ही श्रीअद्वैत जी की माता हैं।)

‘माघे शुक्ला तिथि, सप्तमीते अति,
उखलाय महा आनन्द सिन्धु।
नाभागर्भ धन्य, करि अवतीर्ण,
हैल शुभक्षणे, अद्वैत-इन्दु॥
कुबेर पण्डित, हैया हरषित,
नाना दान द्विज-दरिद्रे दिया।
सूतिका मन्दिरे, गिया धीरे-धीरे
देखि पुत्र मुख जुड़ाय हिया॥
नवग्रामवासी, लोक धाया आसि
परस्पर कहे ना देखि हेन।
किवा पुण्यफले, मिश्र वृद्ध काले,
पाइलेन पुत्र रत्न येन॥
पुष्प वरिषण, करे सुरगण
अलक्षित रीति उपमा नहु॥
जय-जय ध्वनि, भरल अवनी,
भने घनश्याम मंगल बहु॥

(भक्ति रत्नाकर 12 तरंग 1759-1762)

(अर्थात् माघ मास की शुक्ला सप्तमी को उत्ताल तरंगयुक्त महानन्द सागर में नाभागर्भ को धन्य करते हुये शुभ क्षण में श्रीअद्वैताचार्य रूपी चन्द्रमा का अवतरण हुआ। पुत्र हुआ सुनकर कुबेर पण्डित जी के हर्ष का ठिकाना न रहा। उन्होंने ब्राह्मणों और गरीबों को बहुत सा दान किया, वे दबे कदमों से सूतिका घर में गये तथा पुत्र के मुख दर्शन करके उन्होंने अपने दिल को ठंडा किया। नवग्राम वासियों को जब मालूम हुआ तो वे दौड़ते हुये कुबेर जी के घर आये और आपस में चर्चा करने लगे कि देखो न जाने कौन से पुण्य के प्रभाव से इन्होंने वृद्धावस्था में ऐसा सुन्दर पुत्र-रत्न प्राप्त किया। श्रीघनश्याम दास जी कहते हैं कि वहां पर जैसा हो रहा है उसकी तो उपमा ही नहीं है; देवता लोग भी अलक्षित भाव से पुष्प वर्षा कर रहे हैं तथा ऐसा लगता है जैसे सारा भुवन ही जय-ध्वनि से भर गया हो।)

श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में श्रीअद्वैत आचार्य जी का आविर्भाव स्थान श्रीहट्ट लाउर ग्राम उल्लिखित हुआ है। वहाँ पर यह भी लिखा है कि श्रीअद्वैत प्रभु लाउर ग्राम से नवहट्ट ग्राम में एवं वहाँ से शान्तिपुर में आकर बसे थे। नवद्वीप में भी उनका घर था। उनका आविर्भाव 1438 (1355 शकाब्द) में हुआ था। अद्वैत आचार्य जी का पूर्व नाम श्रीकमलाक्ष (श्रीकमलाकान्त) वेदपंचानन था। शकाब्द 1480 में इन्होंने प्रकट लीला की अर्थात् ये 125 वर्ष तक प्रकट रहे।

श्रीजाह्नवा माता जी के दीक्षित शिष्य श्रीनित्यानन्द दास जी द्वारा लिखित श्रीप्रेम-विलास ग्रन्थ में श्रीअद्वैत आचार्य जी का आविर्भाव स्थान शान्तिपुर निर्देशित हुआ है। शान्तिपुर में फूलवाटी ग्राम के रहने वाले पण्डित श्रीशान्ताचार्य जी से वेदादिशास्त्र अध्ययन करने के बाद आपको आचार्य की उपाधि दी गयी।

श्रीअद्वैत मंगल, श्रीअद्वैत विलास तथा सीता चरित्र इत्यादि अनेकों बंगला भाषा में लिखे ग्रन्थों में श्रीअद्वैत आचार्य जी का पावन चरित्र वर्णन हुआ है—

सेओया शत वर्ष प्रभु रहि धराधामे।
अनन्त अर्बुद लीला कैला यथाक्रमे॥

(अद्वैत विलास)

कुबेर पण्डित एवं नाभा देवी जी द्वारा अन्तर्ध्यान लीला करने के बाद श्रीअद्वैत आचार्य जी माता-पिता के पारलौकिक कृत्य सम्पन्न करने के लिए गया-यात्रा के बहाने घर से निकले और सभी तीर्थों का भ्रमण कर आए। तीर्थ यात्रा के समय जब आप श्रीधाम वृन्दावन पहुँचे, वहॉँ श्रीकृष्ण आराधना में जब आप निमग्न थे तो आपको मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण नवद्वीप में प्रकटित होंगे। तीर्थ-भ्रमण के समय ही मिथिला(बिहार) में विद्यापति जी के साथ अद्वैत अचार्य जी का साक्षात्कार हुआ। विद्यापति जी के साथ अद्वैत आचार्य जी का जो मिलन प्रसंग है वह श्रीअद्वैत विलास नामक ग्रन्थ में बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णित हुआ है। वृन्दावन से गौड़ देश में लौटने के पश्चात् आप कुछ दिन नवद्वीप में ठहर कर तब शान्तिपुर गए। बहुत दिनों के बाद श्रीअद्वैत अचार्य जी का दर्शन करके विरह कातर शान्तिपुरवासी कृत-कृतार्थ हो उठे।

सभी विष्णु तत्व श्री, भू तथा नीला या लीला—इन तीन शक्तियों से युक्त होते हैं। श्रीअद्वैत आचार्य जी ने अपने स्वरूप की सम्पूर्णता को प्रकाशित करने के लिए शक्ति ग्रहण की लीला की। विप्रश्रेष्ठ श्रीनृसिंह भादुड़ी की दो कन्याएँ—श्रीसीतादेवी तथा श्रीदेवी श्रीअद्वैत आचार्य की पत्नी हुई।

आचार्येर भार्या दुइ जगत् पूजिता।
सर्वत्र विदित नाम श्रीआर सीता॥

(भक्ति रत्नाकर 12-1785)

योगमाया भगवती गृहिणी तस्य साम्प्रतम्।
सीतारूपेणावतीर्णा ‘श्री’ नाम्ना तत्प्रकाशतः॥

(गौ. ग. दी. 86)

अर्थात् भगवती योगमाया श्रीअद्वैत आचार्य की पत्नी सीता देवी के रूप में तथा ‘श्री’ शक्ति श्रीदेवी के रूप में अवतीर्ण हुई।

श्रीअद्वैत आचार्य जी दो स्थानों पर रहते थे—शान्तिपुर में तथा नवद्वीप-मायापुर में श्रीवास पण्डित जी के घर के पास।

विष्णु भक्ति शुन्य जगत् वासियों की अशेष संसार-यन्त्रणा देख कर जब कि श्रीअद्वैत आचार्य जी का हृदय व्यथित हो उठा तो वे कृपा परवश होकर उन्हें गीता व भागवतादि शास्रों के तात्पर्य स्वरूप श्रीकृष्ण- भक्ति की शिक्षा देने लगे। इन्हीं दिनों श्रील माधवेन्द्र पुरी जी को स्वप्न में गोपालजी का आदेश मिला और वे उस आदेशानुसार गोवर्धनधारी गोपाल जी की सेवा हेतु मलयज चन्दन लेने के लिए गौड़ देश जा रहे थे। गौड़ देश से पूरी जाते समय ही वे रास्ते में श्रीअद्वैत आचार्य जी के घर शान्तिपुर आए थे। श्रीमाधवेन्द्र पुरीपाद जी की अलौकिक प्रेम चेष्टायें देख कर श्रीअद्वैत आचार्य जी ने उनसे दीक्षा-ग्रहण की। यद्यपि श्रीअद्वैत आचार्य जी भगवत्-तत्व हैं, उन्हें गुरु ग्रहण की कोई आवश्यकता नहीं थी परन्तु गुरु-ग्रहण की अत्यावश्यकता की शिक्षा देने के लिए उन्होंने माधवेन्द्र पुरीपाद जी से दीक्षा-ग्रहण करने का लीलाभिनय किया।

शान्तिपूरे आइला अद्वैताचार्येर घरे।
पूरीर प्रेम देखी’ आचार्य आनन्द अन्तरे॥
ताँर ठाञि मन्त्र लैल यत्न करिञा।
चलिला दक्षिणे पुरी ताँरे दीक्षा दिञा॥

(चै.च.म. 4 /110-111)

विश्वम्भर गौरांग महाप्रभु जी भक्ति रूपी कल्पवृक्ष के माली भी हैं तथा दाता-भोक्ता रूप से मूल वृक्ष भी हैं। श्रीनवद्वीप धाम में ही सर्वप्रथम इस वृक्ष का आरोपण हुआ। रोपित हो जाने के बाद पुरुषोत्तम धाम व श्रीधाम वृन्दावन आदि स्थानों पर इस प्रेम फलोद्यान की वृद्धि हुई। श्रीमाधवेन्द्र पूरीपाद जी इस भक्ति कल्पवृक्ष के प्रथम अंकुर है। उनके शिष्य श्रीईश्वर पुरी के रूप में यह अंकुर पुष्ट हुआ। महाप्रभु जी माली होते हुए भी एक अन्य रूप में अपनी अचिन्तय शक्ति के प्रभाव से वृक्ष के स्कन्ध (तना) बने। महाप्रभु रूपी मूल स्कन्ध से फिर श्रीअद्वैत व श्रीनित्यानन्द रूपी दो स्कन्ध निकले—

वृक्षेर ऊपरे शाखा हइला दुइ स्कनध।
एक ‘अद्वैत’ नाम, आर ‘नित्यानन्द’॥

(चै.च. आ. 9/21)

श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी के अंग श्रीअद्वैत व श्रीनित्यानन्द जी है तथा उपाँग हैं—श्रीवासादि भक्तवृन्द। श्रीमन् महाप्रभु जी ने इन अंग व उपाँग के सहित अवतीर्ण होकर जग में हरि-भक्ति का प्रचार किया। स्वयं भगवान् श्रीगौरांग महाप्रभु जी के आविर्भाव से पहले ही अद्वैत आचार्य जी ने अपने गुरु वर्ग के साथ अवतीर्ण होकर देखा कि कलियुग की प्रथम संध्या में ही भविष्य में होने वाले आनाचारों की प्रबलता है तथा सारा जगत् कृष्ण-भक्ति शून्य है। इस अवस्था में कोई भी अंशावतार इस जगत् में अवतीर्ण होकर इस जगत् का मंगल करने में समर्थ नहीं हो सकता। “साक्षात् स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के अवतीर्ण होने से ही जगत् का कल्याण होगा”—इस प्रकार की चिन्ता करके श्रीअद्वैत आचार्य जी गंगाजल व तुलसी के द्वारा श्रीकृष्ण के पदपद्मों की पूजा करते हुए उन्हें ही अवतीर्ण करवाने के लिए हुँकार करने लगे। श्रीअद्वैत आचार्य की प्रेम-हुँकार से ही गोलोकपति श्रीहरि की अवतीर्ण होने की इच्छा हुई—

गंगाजले तुलसी मंजरी अनूक्षण। कृष्णपादपद्म भावि’ करे समर्पण॥
कृष्णेर आह्वान करे करिया हुँकार। एमते कृष्णेर कराइल अवतार॥
चैतन्येर अवतारे एइ मुख्य हेतु। भक्तेर इच्छाय अवतारे धर्म सेतु॥

(चै.च.आ. 3/107-109)

(अर्थात् अद्वैताचार्य जी हमेशा कृष्ण पादपद्मों का स्मरण करते हुये उनमें गंगा जल व तुलसी मंजरी अर्पण करते हैं तथा हुँकार करते हुये श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर आवतीर्ण करवाने के लिये आवाहन करते हैं। इस प्रकार करके ही उन्होंने कृष्ण को इस धराधाम पर अवतीर्ण करवाया। वैसे देखा जाये तो श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के अवतरण का ये ही मुख्य कारण हैं। हमेशा ही धर्म रक्षक भगवान्अपने भक्त की इच्छा को पूरा करने के लिये अवतरित होते हैं)

अद्वैत आचार्य शान्तिपुरे विलसय।
श्रीचैतन्य अभिन्न देह रसेर आलय॥
ये आनिल श्रीकृष्णचैतन्य अवनीते।
याहार निर्मल यशः व्यापिल जगते॥
श्रीगौर अभिन्न तनु अद्वैत आमार।
जगत जननी सीता घरनी याँहार॥
ये आनिल गोराचाँदे हुँकार करिया।
गाओयाय गौरांगगुण भुवन भरिया॥

(भक्ति रत्नाकर 12/3753-56)

(अर्थात् श्रीअद्वैत-आचार्य जी शान्तिपुर में रहते हैं। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की अभिन्न देह ही हैं तथा रस के तो घर ही हैं। सारे विश्व में उनका ऐसा यश है कि ये ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी को पृथ्वी पर लेकर आये। हमारे अद्वैताचार्य श्रीगौराभिन्न तनु हैं। जगत् जननी सीता ठाकुरानी इनकी पत्नी हैं। ये ही हुँकार के साथ गौराङ्ग महाप्रभु जी को लाये तथा सारे संसार से श्रीगौराङ्ग गुण गवाया।)

जय-जय श्रीअद्वैताचार्य दयामय।
याँर हुँकारे गौर अवतार हय॥
ताँहार चरणे येवा लइल शरण।
से जन पाइल गौर-प्रेम महाधन॥

(भक्ति रत्नाकर 12/ 3761-3764)

तुलसी-मंजरी-सहित गङ्गाजले।
निरवधि सेवे कृष्णे महा कुतूहले॥
हुंकार करये कृष्ण-आवेशेर तेजे।
ये ध्वनि ब्रह्माण्ड भेदि’ वैकुण्ठेते बाजे॥
ये प्रेमेर हुंकार शुनिञा कृष्णनाथ।
भक्तिवशे आपने ये हइला साक्षात्॥

(चै. भा. आ. 2/81-83)

श्रीमन् महाप्रभु जी के आविर्भाव से पूर्व ही माघी शुक्ला त्रयोदशी में राढ़ देश के एकचक्रा धाम में श्रीहाड़ाई पण्डित व पद्मावती को वात्सल्य रस की सेवा प्रदान करते हुए श्रीबलदेवाभिन्न श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु अवतीर्ण हुए। इधर नवदीप-मायापुर में श्रीशची व जगन्नाथ मिश्र जी की आठ कन्याओं ने जब एक के बाद एक अन्तर्धान की लीला की तो उसके बाद वहाँ नित्यानन्दाभिन्न श्रीविश्वरूप जी का आविर्भाव हुआ। तत्पश्चात् फाल्गुनी पूर्णिमा में चन्द्रग्रहण के बहाने नवदीप-मायापुर में श्रीकृष्ण-संकीर्तन के साथ संकीर्तनपिता अवतारी श्रीगौरचन्द्र जी उदित हुए। श्रीगौरचन्द्र जी के आविर्भाव के बाद श्रीअद्वैत आचार्य जी की अनुमति लेकर उनकी स्त्री श्रीसीता देवी बालक-शिरोमणि गौर-गोपाल के दर्शनों के लिए उपहार लेकर नवदीप-मायापुर पहुँची तथा वहाँ जाकर उन्होंने धान व दूर्वा-घास इत्यादि को गौर गोपाल के सिर के ऊपर रख कर बालक को आशीर्वाद दिया—

अद्वैत-आचार्य-भार्या,
जगत् पूजिता आर्या,
नाम ताँर ‘सीता ठाकुराणी’।
आचार्येर आज्ञा पाञा,
गेला उपहार लञा।
देखिते बालक शिरोमणि॥

(चै. च. आ. 13/112)

नवदीप-मायापुर में संस्कृत विद्यालय की स्थापना करके श्रीअद्वैत आचार्य जी ने शास्त्रानुशीलन की लीला प्रकट की। महाप्रभु जी के बड़े भाई श्रीविश्वरूप जी प्रातः गंगा स्नान करने के बाद प्रतिदिन अद्वैत-सभा में शास्र श्रवण करने के लिए जाते थे। अद्वैत आचार्य जी जब अपने इष्टदेव की पूजा में होते तो विश्वरूप जी सभा में उपस्थित भक्तों को सर्वशास्रों का तात्पर्य कृष्ण-भक्ति ही है—भली-भाँति समझा देते। विश्वरूप जी की शास्र व्याख्या सुन कर अद्वैत आचार्य जी को विश्वरूप जी के प्रति ऐेसी प्रीति उमड़ती कि वे अपने इष्टदेव को पूजा को छोड़कर उन्हें आलिंगन करने आ जाते।

संसार अनित्य है तथा मनुष्य जीवन का एकमात्र कृत्य कृष्ण-भजन करना है—ऐसा विचार कर विश्वरूप जी ने संसार का परित्याग करने का संकल्प लिया। अपनी माता द्वारा भेजे जाने पर बालक निमाई प्रतिदिन अपने बड़े भाई विश्वरूप को भोजन के लिए बुलाने आते। श्रीअद्वैत आचार्य जी निमाई के अपूर्व रूप का दर्शन करके मोहित हो जाते परन्तु ये नहीं समझ पाते कि ये ही उनके आराध्य परमतत्व इष्टदेव हैं। माता पिता उनके विवाह की तैयारियाँ कर रहे हैं, यह देख कर विश्वरूप जी ने संसार त्याग कर दिया तथा संन्यास ग्रहण करके श्रीशंकरारण्य नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीशची माता एवं जगनाथ मिश्र तथा भक्त लोग विश्वरूप जी के विरह में क्रन्दन करने लगे। यद्यपि श्रीअद्वैत प्रभु भी विरह-कातर हुए. तब भी सभी को यह कहकर सान्त्वना प्रदान करते कि शीघ्र हो कृष्णचन्द्र प्रकटित होंगे तथा सभी भक्तों के दुःखों को दूर करेंगे।

श्रीविश्वरूप के द्वारा गृह त्याग करके संन्यास लेने से श्रीशची माता व श्रीजगन्नाथ मिश्र जी भयभीत हो गए कि कहीं प ढ़ -लिख कर निमाई भी ऐसा न करे। अतः उन्होंने निमाई की पढ़ाई बन्द करवा दी। बाद में निमाई की दत्तात्रेय भाव से कही वाणी सुन कर व उससे शिक्षा लेकर उन्होंने दोबारा निमाई की पढ़ाई शुरू करवा दी। उपनयन संस्कार के बाद जब निमाई विद्या रस में नीमग्न थे तो उन्हीं दिनों श्रीजगन्नाथ मिश्र अन्तर्धान हो गए। कालान्तर में श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु तीर्थ-भ्रमण के बाद नवद्वीप में आकर श्रीगौरसुन्दर जी से मिले। जिन दिनों विद्याविलासी गौरसुन्दर जी के साथ बल्लभतनया श्रीलक्ष्मी देवी जी के शुभ विवाह की लीला सम्पादित हुई ,उन दिनों श्रीअद्वैत आचार्य नवद्वीप-मायापुर में अपने घर में शास्रालोचना व कृष्ण कथा-कीर्तन करते थे। वैष्णवों के प्रिय सुकण्ठ कीर्तनीया श्रीमुकुन्द से कृष्ण-कीर्तन सुनकर श्रीअद्वैत आचार्य जी तथा सभी वैष्णव परमोल्लसित होते। इसी मध्य एक दिन श्रील ईश्वर पुरीपाद जी नवदीप में आकर अद्वैत-भवन में उपस्थित हुए। श्रीअद्वैत आचार्य ईश्वर पुरी जी के अपुर्व तेज को देख कर समझ गए कि ज़रूर ये वैष्णव संन्यासी होंगे। बाद में श्रीईश्वर पुरीपाद जी के साथ गौरांग महाप्रभु जी का मिलन हुआ—

हेनकाले नवद्वीपे श्रीईश्वरपुरी।
आलेन अति अलक्षित वेश धरि’॥
कृष्णरसे परम विह्वल महाशय।
एकान्त कृष्णेर प्रिय अति दयामय।
तानवेशे ता’ने केह चिनिते ना पारे।
दैवे गिया उठिलेन अद्वैत मन्दिरे॥
(चै.भा.आ. 11/70-72)

नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जी यशोहर ज़िले के बूढ़न ग्राम में आविर्भूत हुए। बाद में गंगा के किनारे रहने की भावना से फुलिया-शान्तिपुर आए तथा अद्वैत आचार्य जी से मिले।

गया से वापस आने के बाद श्रीगौर सुन्दर जी की कृष्ण विरह जनित उत्कण्ठा की व उनके प्रेम विकार की बात सुन कर श्रीअद्वैत आचार्य व श्रीवासादि भक्तों को अति आनन्द हुआ।

श्रीवास भवन में एक दिन महाप्रभु जी ने नित्यानन्द जी को व्यास पूजा करने के लिए इशारा किया। नित्यानन्द जी की इच्छा से श्रीव्यास पूजा का आयोजन हुआ। श्रीव्यास पूजा के अधिवास दिवस में महाप्रभु जी ने नित्यानन्द जी का बलदेव स्वरूप दिखाया तथा नाड़ा-नाड़ा कह कर अद्वैत को बुलाने के छल से अपने अवतार –मर्म को प्रकाशित किया—

अद्वैतेर लागि’ मोर एइ अवतार।
मोर कर्णे बाजे आसि’ नाड़ार हुँकार॥
शयने आछिनु मुञि क्षीरोद-सागरे।
जागाई’ आनिल मोरे नाड़ार हुँकारे॥

(चै. भा. अ. 9/297-98)

(अर्थात् अद्वैताचार्य जी की वजह से ही मेरा ये अवतार हुआ है। आज भी मेरे कानों में उसकी हुँकार गूँज रही है। मैं तो बड़े आराम से क्षीरसागर में सो रहा था, इन्हीं अद्वैताचार्य की हुँकारों ने मुझे जगा दिया।)

श्रीवास जी के आंगन में श्रीव्यास पूजा की समाप्ति के बाद श्रीमन्महाप्रभु जी ने ईश्वरावेश में श्रीवास पण्डित जी के छोटे भाई श्रीरामाई पण्डित (श्रीराम पण्डित) को अपनी प्रकाश वार्ता बताने के लिये अद्वैत आचार्य जी के पास भेजा। महाप्रभु जी ने श्रीराम पण्डित को कहा कि वे उन्हें जाकर कहें—“श्रीअद्वैत आचार्य जी का जिस गोलोकपति श्रीहरि को धराधाम में अवतीर्ण कराने के लिए गंगाजल व तुलसी देकर पुजा करके कातरता-पूर्वक आवाहन किया था वे गोलोकपति अवतीर्ण हो चुके हैं। श्रीनित्यानन्द प्रभु जी भी नवद्वीप मे शुभागमन कर चुके हैं। अतः: श्रीअद्वैत आचार्य जी अपनी स्री सहित व पूजोपकरणों के साथ तुरन्त श्रीवास आंगन में उपस्थित हों।”

महाप्रभु जी के निर्देशानुसार रामाई पण्डित ने अद्वैत आचार्य जी के पास पहुंच कर सब बातें उन्हें बतायी।……… रामाई पण्डित से महाप्रभुजी की प्रकाशवार्ता सुन कर अद्वैत आचार्य प्रभु जी ने अपनी पत्नी सीता देवी, पुत्र श्रीअच्युतानन्द एवं अन्यान्य अनुचर वर्ग के साथ महाप्रभु जी के पादपद्मों में उपस्थित होने के लिए यात्रा तो की लेकिन महाप्रभु जी की परीक्षा लेने के लिए नन्दन आचार्य के घर में छुप गए तथा रामाई को कहा कि वे उनके छुपने के बारे में महाप्रभु जी से कुछ न बतायें। सर्वान्तर्यामी विश्वम्भर महाप्रभु जी सब जान गए। सभी के सामने वे विष्णु –सिंहासन पर बैठ गये और अपने ऐश्वर्य रूप को प्रकट करने लगे। उस समय नित्यानन्द जी ने छत्र धारण कर लिया तथा गदाधर आदि भक्त लोग नाना प्रकार की सेवाओं में व्यस्त हो गए। महाप्रभु जी ने शीघ्रातिशीघ्र अद्वैताचार्य को बुलाने के लिए रामाई को नन्दनाचार्य के भवन पर भेजा। महाप्रभु जी सब जान गए हैं—ऐसा समझकर अद्वैत आचार्य जी आनन्द में विभोर हो गए तथा अपनी स्री के साथ महाप्रभु जी के पादपद्मों में उपस्थित हुए। अद्वैत आचार्य जी ने महाप्रभु जी को दण्डवत् प्रणाम किया तथा महाप्रभु जी का महा-ऐश्वर्य दर्शन करके स्तम्भित हो गए। उन्होंने महाप्रभु जी के चरण धोये, पंचोपचार से उनकी पूजा की तथा निम्न मन्त्र द्वारा उन्हें प्रणाम किया—

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥

(चै.च.म. 13/77)

महाप्रभु जी ने अद्वैत आचार्य जी को नृत्य करने का आदेश दिया। महाप्रभु जी का आदेश पाकर अद्वैत आचार्य जी नृत्य करने लगे। उनका उद्दण्ड नृत्य देख कर सभी भक्त चमत्कृत हो उठे।

श्रील कविराज गोस्वामी जी ने लिखा है—

एक महाप्रभु, आर प्रभु दुइजन।
दुइ प्रभु सेवे महाप्रभुर चरण॥
एइ तिन तत्त्व,-‘सर्वाराध्य’ करि’, मानि।
चतुर्थ ये भक्ततत्त्व-‘आराधक’ करि’ जानि॥
श्रीवासादि यत कोटि-कोटि भक्तगण।
‘शुद्धभक्त’ तत्त्वमध्ये ताँ सबाय गणन॥
गदाधर-पण्डितादि प्रभुर ‘शक्ति’ अवतार।
‘अंतरंग भक्त’ करि’ गणन याँहार॥

(चै. च.आ. 7/14 -17)

पंचतत्व के अंतर्गत श्रीगौरांग महाप्रभु जी—भक्त रूप, श्रीनित्यानन्द प्रभु—भक्त स्वरूप तथा श्रीअद्वैत आचार्य जी—भक्त अवतार (प्रभु तत्त्व या विष्णु तत्त्व) हैं। महाविष्णु जी का अवतार होते हुए भी चूँकि उन्होंने भक्त भाव अंगीकार किया इसलिए अद्वैत-आचार्य जी को भक्तावतार कहते हैं। क्योंकि श्रीगौरांग, श्रीनित्यानन्द तथा अद्वैत आचार्य जी ईश्वर तत्त्व हैं इसलिए उनके चरणों में तुलसी अर्पित होती है। अद्वैत आचार्य जी की कृपा के बगैर श्रीचैतन्य महाप्रभु एवं श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की सेवा प्राप्त नहीं होती—

दया कर सीतापति अद्वैत गोसाञि।
तब कृपाबले पाइ चैतन्य निताई॥

(श्रील नरोत्तम ठाकुर महाशय)

श्रीअद्वैत आचार्य जी की महिमा व लीला श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी द्वारा लिखित श्रीचैतन्य चरितामृत में, श्रील वृन्दावन दास ठाकुर जी की श्रीचैतन्य भागवत् में, श्रीनरहरि ठाकुर जी द्वारा रचित श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रंथ में तथा से श्रीअद्वैत विलास आदि विभिन्न ग्रन्थों में विस्तृत रूप से वर्णित हुई है। जो लोग विस्तारित भाव से श्रीअद्वैत आचार्य जी के चरित्र व महिमा को जानना चाहते हैं, उन्हें उपरोक्त ग्रन्थ विशेष भाव से अध्ययन करने होंगे। यहाँ पर उन सभी की आलोचना करना सम्भव नहीं है। यहाँ पर तो हम सिर्फ प्रधान-प्रधान लीला वैशिष्ट्य को स्मरण करने की चेष्टा कर रहे हैं।

नामचार्य हरिदास ठाकुर जी, रघुनाथ दास गोस्वामी जी के पिता गोवर्धन मजूमदार व ताऊ हिरण्य मजूमदार के चन्दापुर में स्थित घर में नाम महिमा कीर्तन के बाद शान्तिपुर के पास ही फुलिया ग्राम में आकर रहने लगे। वे वहाँ एक निर्जन गुफा में रहकर हरिनाम करते थे व श्रीअद्वैत आचार्य जी की इच्छा से उनके घर भिक्षा (भोजन) करते थे। हरिदास ठाकुर जी को श्रीअद्वैताचार्य जी द्वारा प्रदत्त अन्न ग्रहण करने में संकोच होता था। लोक-शिक्षक अद्वैत आचार्य जी ने यह दिखाने के लिए कि उनका आचरण शास्र-सम्मत है तथा इस सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए कि हरिदास ठाकुर जैसे वैष्णव को भोजन करवाना करोड़ ब्राह्मणों को भोजन के बराबर हो जाता है, केवलमात्र वैष्णव तथा ब्राह्मणों का भोज्य श्राद्ध-पात्र2 हरिदासठाकुर जी को अर्पण कर दिया। वैष्णव जिस भी कुल में आविर्भूत हों, वे वहीं पर सभी के वन्दनीय व पूज्य हैं, ये बात श्रीअद्वैताचार्य जी की लीला-वैशिष्ट्य से भली-भाँति जानी जाती है—

अद्वैत आचार्य कहेन,“तुमि ना करिह भय।
सेइ आचरिव, जेइ शास्रमत हय॥
तुमि खाइले हय कोटि ब्राह्मण भोजन।
एत बलि’ श्राद्धपात्र कराइला भोजन॥

(चै.च.अ. 3/219-220)

हरिदास ठाकुर शाखार अभ्दुत चरित।
तिनलक्ष नाम तिँहो लयेन अपतित॥
ताँहार अनन्त गुण, कहि दिग्मात्र।
आचार्य गोसाञि याँरे भुंजाय श्राद्धपात्र॥

(चै.च.आ. 10/43-44)

महाविष्णु जी के अवतार श्रीअद्वैताचार्य जी को अवलम्बन करके छः पुत्रों का जन्म हुआ। लेकिन उन्होंने अपने पुत्रों को दो प्रकार से निर्देशित किया-सार ग्राही और असार ग्राही। अद्वैताचार्य जी के अनुगत किन्तु श्रीगौर हरि से विमुख पुत्र आसार ग्राही हैं। श्रीगौरांग महाप्रभु जी में आसक्त व उनमें ( महाप्रभुजी में) अनन्य प्रीतियुक्त पुत्र सारग्राही हैं। अद्वैतआचार्य जी के सारग्राही पुत्र श्रीअच्युतानन्द, श्रीकृष्णा मिश्र तथा श्रीगोपाल मिश्र हैं जबकि बलराम, स्वरूप और जगदीश असार ग्राही पुत्र है। यहाँ पर सार ग्राही पुत्रों की चावलयुक्त धान से तथा असार ग्राही पुत्रों की चावल रहित धान से तुलना की गई है।

जो श्रीअद्वैत प्रभु को वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ समझकर सेवा करते हैं उन्हें ही वैष्णव कहा जाएगा तथा जो श्रीअद्वैत प्रभु को विषयजातिय कृष्णा बुद्धि करके तथा श्रीगौरसुन्दर जी को आश्रय-जातीय भक्त समझेंगे वे कभी भी कृष्ण पादपद्मों की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे।
(चै.भा.म. 10/162 गौड़ीय भाष्य में दृष्टव्य)

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीअद्वैताचार्य जी को गीता के तात्पर्य की शिक्षा दी थी—

अद्वैतेरे बलिया गीतार सत्य पाठ।
विश्वम्भर लुकाइल भक्तिर कपाट॥

(चै.भा.म.10/166)

भगवान् से, गुरु-वर्ग व वैष्णवों से शासन लाभ होना अर्थात् उनके द्वारा दण्ड का मिलना या सज़ा का मिलना जीवों के लिए अतिशय मंगल की व सौभाग्य की बात है। इस शिक्षा के लिए एक अभ्दुत लीला की अवतारणा की जाती है जो चैतन्य चरितामृत की आदि लीला के 17वें परिच्छेद में वर्णित है। उक्त चरितामृत के अमृत प्रवाह भाष्य में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा है—अद्वैताचार्य जी महाप्रभु जी के गुरु व श्रीईश्वर पुरी के गुरु भाई थे। इस दृष्टि से महाप्रभु जी अद्वैत आचार्य के प्रति गुरुवत् भक्ति करते थे (यद्यपि मूल में अद्वैताचार्य जी महाप्रभु जी के दास हैं।) अद्वैताचार्य जी महाप्रभु जी के इस प्रकार गौरव प्रदान के कार्य से दुःखीत होकर उनसे दण्ड प्रसाद लेने के लिए शान्तिपुर गए तथा वहाँ जाकर कुछ दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों के पास योग-वशिष्ठ की ज्ञान-मार्गीय व्याख्या करने लगे। महाप्रभु जी ने जब सुना कि शान्तिपुर में अद्वैताचार्य जी ज्ञान-मार्गीय व्याख्या सुना रहे हैं तो वे क्रोधाविष्ट होकर शान्तिपुर पहुँचे उन्होंने अद्वैताचार्य जी की जम कर पिटाई की। सजा प्राप्त करके अद्वैताचार्य जी बोले—“देखो! आज मेरी इच्छा पूरी हो गयी और ऐसा कह कर नाचने लगे। महाप्रभुजी कृपणतापूर्वक मुझे गुरु समझते थे परन्तु आज उन्होंने अपना दास व अपना शिष्य जानकर मुझे मायावाद रूप दुर्गति से बचाने के लिए चेष्टा की”—अद्वैताचार्य जी की इस भंगी को देख कर महाप्रभुजी लज्जित होकर उनके ऊपर प्रसन्न हो गए।

आचार्य गोसाञिरे प्रभु करे गुरुभक्ति।
ताहाते आचार्य बड़ हय दुःखमति॥
भङ्गी करि’ ज्ञानमार्ग करिल व्याख्यान।
क्रोधावेशे प्रभु ताँरे कैल अवज्ञान॥
तबे आचार्य गोसाञिर आनन्द हइल।
लज्जित हइया प्रभु प्रसाद करिल॥

(चै.च.आ. 17/66-68)

पूर्वे महाप्रभु, मोरे करेन सम्मान।
दुःख पाइ’ मने आमि कैलुं अनुमान॥
मुक्ति-श्रेष्ठ करि’ कैनु वशिष्ठ व्याख्यान।
क्रुद्ध हइया प्रभु मोरे कैल अपमान॥

(चै. च.आ. 12/39-40)

सभी जीवो के प्रति दयार्द्रचित रहने वाले श्रीअद्वैत आचार्य जी के प्रति शची माता के कटाक्ष को भी महाप्रभु जी ने क्षमा न करने की लीला का प्रदर्शन करके सभी को वैष्णव-अपराध से सावधान किया है। वात्सल्य रस की सेविका साक्षात् यशोदा देवी की अभिन्न स्वरूपा, शची माता का अपराध जहाँ माफ नहीं हो रहा है वहाँ औरों की तो बात ही क्या है? इस लीला में यह भी दिखाया गया है कि जिस वैष्णव के चरणों में अपराध हुआ हो; उसी वैष्णव से क्षमा माँगने पर ही उस वैष्णव-अपराध से छुटकारा मिलता है।

विश्वरूप जी ने श्रीअद्वैत आचार्य जी की पाठशाला में शास्र-अध्ययन करते हुए यह निश्चय करके संन्यास ले लिया कि संसार अनित्य है तथा मनुष्य जन्म का एकमात्र कृत्य हरिभजन करना है। विश्वरूप के संन्यास ले लेने से शची माता विरह-संतप्त तो अवश्य हुई किन्तु वैष्णव-अपराध की आशंका से श्रीअद्वैत आचार्य को कुछ ना बोलीं तथा “मेरा पास मेरा एक और पुत्र निमाई तो है”—यह कहकर अपने मन को समझाने लगी, परन्तु बाद में जब श्रीमन्महाप्रभु जी निज शक्ति लक्ष्मीप्रिया का परित्याग करके हमेशा श्रीअद्वैत आचार्य जी के पास रहने लगे तो शची माता ने, निमाई भी सन्यास न ले-ले; इस डर से, मन ही मन में यह कहकर कटाक्ष किया था कि ये—

‘अद्वैत’ ‘अद्वैत’ नहीं द्वैत है।
“के बले, ‘अद्वैत,’-द्वैत ए बड़ गोसाईं॥
चन्द्रसम एक पुत्र करिया बाहिर।
एहो पुत्र ना दिलेन करिवारे स्थिर॥
अनाथिनी मोरे त’ काहारो नाहि दया।
जगते ‘अद्वैत,’ मोहे से ‘द्वैत माया’॥

(चै.भा.म. 22/114-116)

शची माता कहती हैं कि कौन कहता है कि ये अद्वैत है। ये गोसाई तो बड़ा ही भेदभावकारी द्वैत है। इसने चन्द्रमा के समान मेरे पुत्र को घर से निकाल दिया और इस दूसरे को भी टिकने नहीं देता। मुझ अनाथिनी पर किसी को भी तो दया नहीं आती। ये भले ही सारे जगत् वासियों के लिए अद्वैत हो परन्तु मेरे लिए यह द्वैत-माया ही है।

शची माता ने श्रीअद्वैत आचार्य के प्रति मन ही मन जो कटाक्ष किया उसे कोई नहीं जान पाया लेकिन सर्वान्तर्यामी श्रीगौरहरि सब समझ गए।श्रीवास आंगन में जिस समय महाप्रभु जी के सात प्रहर तक अपना भगवत् स्वरूप प्रकाशित करके व बिना किसी लुकाछिपी के दर्शन देकर सभी भक्तों को कृतार्थ किया, उसी समय श्रीवास जी ने महाप्रभु जी से प्रार्थना की कि वे अपना यह अपूर्व ऐश्वर्य-स्वरूप शची माता को भी दिखायें।

महाप्रभु जी ने कहा—”माता का श्रीअद्वैत आचार्य जी के चरणों में अपराध है, इसलिए उन्हें मैं ये रुप नहीं दिखायूँगा।” भक्तों से सारी बात जानकर साथ-साथ शची माता ने श्रीअद्वैत आचार्य जी से क्षमा प्रार्थना की। परमेश्वर गौरहरि को जिन्होंने गर्भ में धारण किया, उन शची माता के अपराध की बात सुनकर अद्वैताचार्य जी शची माता का गुणगान करते-करते ब्रह्म-ज्ञान-शून्य हो गए। तभी शची माता ने अद्वैताचार्य की चरण-धूलि अपने मस्तक पर धारण कर ली। ऐसा होने पर श्रीगौरहरि प्रसन्न हो गए और उन्होंने शची माता को अपने ऐश्वर्य रूप का दर्शन करवाया। यहाँ पर एक और शिक्षणीय विषय है, वह ये कि वैष्णव के अन्दर कभी भी अभिमान नहीं होता। स्वयं भगवान् श्रीगौरहरि को गर्भ में धारण करके भी शची माता को कोई अभिमान न था। निजकृत अपराध की बात सुनने के साथ-साथ उन्होंने बिना किसी हिचक के अद्वैताचार्य जी के पास जाकर क्षमा माँगी।

श्रीवास भवन में तथा भागीरथी के किनारे हुए नगर-संकीर्तन के समय अद्वैताचार्य जी महाप्रभु जी के संगी हुए थे।

कृष्णा राम मुकुन्द मुरारि वनमाली।
सबे मिली’ गाय हइ’ महाकुतूहली॥
नित्यानन्द गदाधर धरिया बेड़ाय।
आनन्दे अद्वैतसिंह चारिदिके धाय॥

(चै.भा.म. 23/29-30)

भागीरथी तीरे प्रभु नृत्य करि’ याय।
आगे पीछे ‘हरि’ बलि’ सर्वलोके गाय॥
आचार्य गोसाईं आगे जन कत लैञा।
नृत्य करि’ चलिलेन परमानन्द हैञा॥

(चै.भा.म. 23/202-203)

काटोया में केशव भारती जी से संन्यास लेने के बाद जब श्रीमन्महाप्रभु जी श्रीकृष्णा-प्रेम में विह्नल होकर वृन्दावन की ओर धावित हुए तो श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु महाप्रभु जी की वह अपूर्व संन्यास मूर्ति नवद्वीपवासी भक्तों को दिखाने के लिए बहुत चातुरी के साथ बालकों के माध्यम से उन्हें वृन्दावन की बजाय शान्तिपुर की ओर ले आए। यमुना जी के भ्रम में गंगा जी का दर्शन करके महाप्रभुजी उल्लसित हो उठे। इस खबर को सुन कर कि नित्यानन्द जी के माध्यम से महाप्रभु जी गंगा के किनारे आ गए हैं, तुरन्त अद्वैताचार्य जी वस्त्रादि लेकर नाव के द्वारा वहाँ पहुंच गए। अद्वैताचार्य जी को देखकर महाप्रभुजी आश्चर्यचकित होकर कहने लगे कि वे वृन्दावन में हैं, तुम्हें कैसे मालूम हुआ? आप जहाँ हैं, वहीं वृन्दावन है तथा गंगा जी का ही पश्चिम प्रभाव यमुना जी हैं’—अद्वैताचार्य जी की इस प्रकार की उक्तियों से महाप्रभुजी समझ गए कि उन्हें शान्तिपुर के पश्चिम भाग में, गंगा के दूसरी ओर लाया गया है। महाप्रभु जी को स्नान करवा कर व उन्हें पहनने के वस्रादि देकर अद्वैताचार्य जी उन्हें अपने घर शान्तिपुर ले आए।

शान्तिपुर में महाप्रभु जी की आगमन का संवाद सुन कर शची माता व नवद्वीपवासी भक्त अद्वैताचार्य जी के घर पर इकट्ठे हो गए। सभी ने श्रीमन्महाप्रभु जी की अपूर्व संन्यास मूर्ति दर्शन कर विरह-व्यञ्जित सुख का आस्वादन किया अर्थात् सभी-भक्तों ने महाप्रभुजी का सन्यास रूप दर्शन करके ऐसा सुख का आस्वादन किया जिसमें फिर कुछ समय बाद बिछुड़ जाने का दुःख भी मिश्रित था। श्रीअद्वैतशक्ति श्रीसीता ठाकुरानी ने महाप्रभु जी व नित्यानन्द प्रभु जी को बत्तीस गुच्छे वाले केले के पेड़ में लगने वाले केले के पत्तों में अन्न व व्यंजनादि परोस कर दिए। सीता ठाकुरानी द्वारा परोसे अन्न-व्यंजनादि को दोनों ने ग्रहण किया तथा भोजन करते समय नित्यानन्द प्रभु जी का अद्वैताचार्य जी से बहुत मज़ाक हुआ। यह प्रसंग श्रीचैतन्य- चरितामृत की मध्य लीला के तृतीय परिछेद में विस्तृत भाव से वर्णित हुआ है। पुत्र विरह-दुःख को हटाने के लिए महाप्रभुजी ने माता शची देवी के द्वारा पकायी रसोई का भी भोजन किया। सब भक्तों के एकत्रित हो जाने तथा महोत्सव के कारण,शान्तिपुरस्थ अद्वैत-भवन, वैकुण्ठ पूरी में बदल गया।

आनन्दे नाचये सबे बलि’ ‘हरि’ ‘हरि’।
आचार्य मन्दिर हैल श्रीवैकुण्ठपूरी॥

(चै.च.म. 3/156)

शान्तिपुर में भक्तों से विदाई लेते समय श्रीमन् महाप्रभु जी ने शची माता को प्रबोधन देने के लिए उनकी इच्छा अनुसार नीलाचल में रहने के लिए यात्रा प्रारम्भ की तो अद्वैताचार्य एवं नवद्वीपवासी भक्त लोग महाप्रभु जी के अदर्शन से विरह संतप्त हो उठे। शकाब्द 1431 में महाप्रभु जी ने नीलाचल (उड़ीसा) की ओर यात्रा की। श्रीमन् महाप्रभु जी के दर्शनों की आकांक्षा से लगभग तीन वर्ष बाद भक्त लोग चातुर्मास में रथ-यात्रा के समय सर्वप्रथम गौड़ देश से नीलाचल गए थे—

प्रथम वत्सरे अद्वैतादि भक्तगण।
प्रभुरे देखिते कैला नीलाद्रि-गमन॥
रथयात्रा देखि’ ताँहा रहिला चारिमास।
प्रभु नृत्य-गीत परम उल्लास॥
विदाय समय प्रभु कहिला सबारे।
प्रत्यब्द आसिबे सबे गुण्डिचा देखिबारे॥
प्रभु-आज्ञाय भक्तगण प्रत्यब्द आसिया।
गुण्डिचा देखिया जान प्रभुरे मिलिया।

(चै. च. म. 1/46-49)

अन्त के 24 वर्षों में से प्रथम छः वर्ष तो महाप्रभु जी के पुरुषोत्तम धाम में आने-जाने में लग गए। बाकी 18 वर्ष, वे एकान्त भाव से पुरुषोत्तम धाम में रहे। प्रथम छ: वर्ष के गमनागमन काल में जब भक्त लोगों को ये संवाद मिलता कि इस वर्ष रथ-यात्रा के समय महाप्रभु जी पुरुषोत्तम धाम में ही हैं तो वे उनसे मिलने के लिए गौड़ देश से आ जाते। अन्त के 18 वर्ष महाप्रभु जी एकान्त भाव से नीलाचल में रहे, इसलिए प्रतिवर्ष ही भक्त लोग पुरी आते तथा चार महीने वहीं ठहरते—

वृन्दावन हैते जदि नीलाचल आइला।
आठार वर्ष ताँहा वास, काँहा नाहि गेला॥
प्रतिवर्ष आइसेन ताँहा गौड़ेर भक्तगण।
चारि मास रहे प्रभुर सङ्गे सम्मिलन॥

(चै.च.म. 1/249-250)

अद्वैत, नित्यानन्द, मुकुन्द श्रीनिवास।
विद्यानिधि, वासुदेव, मुरारी,-जत दास॥
प्रतिवर्षे आइसे सङ्गे, रहे चारिमास।
ताँ-सबा लञा प्रभुर विविध विलास॥

(चै.च.म. 1/255-56)

“श्रीरथयात्रार आसि’ हइल समय।
नीलाचले भक्त-गोष्ठी हइल विजय॥
ईश्वर आज्ञाय प्रति वत्सरे-वत्सरे।
सबे आइसेन रथयात्रा देखिवारे॥
आचार्यगोसाञी अग्रे करि’ भक्तगण।
सबे नीलाचल प्रति करिला गमन॥

(चै.भा.अ. 8/4-6)

श्रीरथयात्रा का समय आ पहुँचा, अतः नीलाचल में भक्त मण्डली का आगमन हुआ। क्योंकि स्वयं महाप्रभु जी की भक्तों को आज्ञा थी कि सब प्रत्येक वर्ष रथयात्रा दर्शन करने के लिये आया करें इसलिये आचार्य गोसाईं को आगे कर के सब भक्तों ने नीलाचल की ओर प्रस्थान किया

श्रीअद्वैताचार्य जी प्रतिवर्ष चातुर्मास काल में भक्तों के साथ नीलाचल आकर श्रीनरेन्द्र सरोवर की जलकेलि लीला में, गुण्डिचा मन्दिर के मार्जन की सेवा में तथा श्रीजगन्नाथ देव जी के रथ-यात्रा उत्सव में श्रीमन् महाप्रभु जी के साथ रहते थे। श्रीअद्वैताचार्य जी के साथ उनके सारग्राही पुत्रों में से श्रेष्ठ गौरगत प्राण श्रीअच्युतानन्द भी होते थे—ऐसा कि रथ के आगे कीर्तन कर रहे सात सम्प्रदायों में से छटे सम्प्रदाय (शान्तिपुर के आचार्य की टोली) को उस सम्प्रदाय के प्रधान अच्युतानन्द जी की उपस्थिति से जाना जाता है। रथ के आगे प्रथम सम्प्रदाय के नर्तक होते थे—श्रीअद्वैताचार्य जी तथा मूल कीर्तनिया थे—श्रीस्वरूप दामोदर। श्रीअद्वैताचार्य के सारग्राही पुत्रों में से श्रीगोपाल मिश्र का नाम भी रथ-यात्रा में आने वालों में उल्लिखित हुआ है। तीसरे वर्ष गौड़ देश से जो भक्त लोग आए थे उनके साथ महाप्रभु जी की सेवा के लिए द्रव्यादि लेकर श्रीअद्वैताचार्य जी की पत्नी भी आयी थीं।

आइ स्थाने भक्ति करि’ विदाय हइया।
चलिला अद्वैतसिंह भक्त-गोष्ठी लैया॥
ये ये द्रव्ये जानेन प्रभुर पूर्व प्रीत।
सब लैला सबे प्रभुर पूर्व भिक्षार निमित्त।
सर्वपथे संकीर्तन करिते-करिते।
आइलेन पवित्र करिया सर्वपथे॥
उल्लासे जे हरिध्वनि करे भक्तगण।
शुनिया पवित्र हैल त्रिभुवन-जन॥
पत्नी-पुत्र-दास-दासीगणेर सहिते।
आइलेन परानन्दे चैतन्य देखिते॥

(चै.भा.अ. 8/39-43)

अद्वैताचार्य जी के पुत्र श्रीगोपाल मिश्र का अलौकिक चरित्र श्रीचैतन्य चरितामृत की आदि लीला के बारहवें परिच्छेद में कविराज गोस्वामी जी ने वर्णन किया है। गोपाल मिश्र गुण्डिचा मन्दिर में महाप्रभु जी के सम्मुख नृत्य करते रहे। उनका अद्भुत नृत्य व भाव देख कर महाप्रभु जी और अद्वैताचार्य जी बड़े प्रसन्न हुए। गोपाल नृत्य करते-करते मूर्च्छित होकर गिर पड़े। शरीर में जान नहीं है, देख कर अद्वैताचार्य जी वेदनाकृत हो गए तथा पुत्र को गोद में लेकर नृसिंह मन्त्र जप करने लगे। विभिन्न मन्त्र पाठ करने पर भी जब बालक गोपाल के शरीर में प्राण न आए तो वैष्णव लोग दुःखित होकर क्रन्दन करने लगे। भक्तों का क्रन्दन देख कर भक्तार्तिहर महाप्रभु जी ने—“उठह गोपाल, बलि हरि-हरि”—कह कर गोपाल का हृदय स्पर्श किया। महाप्रभु जी का स्पर्श होते ही गोपाल उठ बैठा। गोपाल को जीवित देखकर सभी भक्त हरि ध्वनि के द्वारा आनन्द प्रदर्शित करने लगे।

श्रीअद्वैताचार्य जी के किंकर श्रीकमलाकान्त विश्वास द्वारा आचार्य को ईश्वर रूप में स्थापन करके उनके लिए राजा प्रताप रुद्र से धन माँगने पर महाप्रभु जी ने उसे बहुत डाँटा। डाँट खाने के बाद वह बहुत दु:खी हुआ। उसे दु:खी देख श्रीअद्वैताचार्य जी ने उसे समझाया कि महाप्रभु जी से दण्ड का मिलना बड़े सौभाग्य की बात है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य-चरितामृत की आदि लीला के बारहवें परिच्छेद में वर्णित इस प्रसंग के अमृत प्रवाह भाष्य में इस प्रकार लिखा है—”कमलाकान्त ने अद्वैत आचार्य को ‘ईश्वर’ के रूप में स्थापन करते हुए, राजा से धन माँगा। इस प्रकार के कार्य से महाप्रभु जी बहुत असन्तुष्ट हुए। यद्यपि आचार्य ईश्वर हैं परन्तु ईश्वर होने पर भी जगत्-शिक्षक रूप में उनकी मानव-लीला ही प्रसिद्ध है। ऋण-ग्रस्त होकर राजा से धन माँगना आचार्य-आदि के लिए शर्म की बात है। धन की लालसा करना तो पहले ही सर्वतोभाव से त्यजनीय है और फिर उसमें किसी भी विदेशी राजा से उधार उतारने के लिए धन माँगना और भी गलत है-ऐसा करने से धर्म की हानि होती है। राजा स्वभावतः विषयी व्यक्ति होता है। विषयी व्यक्ति का अन्न खाने से चित्त मलिन हो जाता है | चित्त मलिन होने से कृष्ण-स्मृति का अभाव हो जाता है तथा कृष्ण-स्मृति के अभाव में जीवन निष्फल हो जाता है—इसलिए सभी लोगों के लिए यह निषिद्ध है; विशेषतः धर्माचार्यों के लिए तो यह विशेष रूप से निषिद्ध है। नामोपदेश करना-आचार्य का कर्तव्य है, किन्तु धन लेकर जो नामोपदेश करते हैं वे ‘नामोपदेष्टा’ पद के योग्य नहीं है, बल्कि नामापराधी हैं। ऐसे में तो यह विशेष रूप से निषिद्ध है। आचार्य द्वारा हरिनाम के बदले रुपये लेने से लोक-लज्जा होती है तथा धर्म की कीर्ति का भी बहुत नुकसान होता है।

तृतीय वर्ष में महाप्रभु के भक्तों का गौड़देश से नीलाचल आगमन:-

महाप्रभु जी शैशवकाल में जो-जो चीजें भोजन करना अच्छा समझते थे, उन-उन द्रव्यों को लेकर जब भक्त लोग पुरी में पहुँचे तो भक्तवत्सल महाप्रभु जी ने उनके द्वारा प्रदत्त सब द्रव्यों का प्रेम के साथ भोजन किया। एक दिन अद्वैताचार्य प्रभु द्वारा विशेष रूप से आमन्त्रित होकर महाप्रभु भोजन करने के लिये उनके घर भी गये। अपनी पत्नी द्वारा रसोई के कार्य के लिये आवश्यक पदार्थ आदि सजा देने से अद्वैताचार्य जी ने स्वयं रसोई की। अद्वैताचार्य जी के हृदय की आकांक्षा थी कि वे अकेले महाप्रभु जी को अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करवायें। उस दिन हुआ भी ऐसा ही, दैववशतः मौसम खराब होने एवं आँधी-तूफान होने के कारण महाप्रभु जी के साथ जो संन्यासी भोजन करने आते थे, उनमें से कोई भी नहीं आ पाया। अकेले महाप्रभु जी को आया देख अद्वैताचार्य जी ने आनन्द से महाप्रभु जी को बहुत प्रकार के व्यन्जन भोजन करवाये। चूँकि इंद्रदेवता ने वर्षा इत्यादि करके अद्वैताचार्य जी की इच्छा पूरी होने दी इसलिये अद्वैताचार्य जी ने कृष्ण के सेवक के रूप में उनका स्तव किया। श्रीमन्महाप्रभु जी अद्वैताचार्य के मनोभावों को समझ गये और उनकी महिमा कीर्तन करते हुये बोले—जिनकी इच्छा स्वयं कृष्ण पूरी करते हैं, इन्द्र उनकी आज्ञा का पालन करेंगे, इस में आश्चर्य की क्या बात है?
(चै.भा.अ. 9/60-72)

स्वयं श्रीमन्महाप्रभु जी ने अद्वैताचार्य जी की गुण-महिमा कीर्तन करते हुये उनके तत्त्व को प्रकाशित किया है—

‘अद्वैताचार्य गोसाञि ‘साक्षात् ईश्वर’।
ताँर सङ्गे आमार मन हइल निर्मल॥
सर्वशास्रे कृष्णभक्त्ये नाहि जाँर सम।
अतएव ‘अद्वैत-आचार्य’ ताँर नाम॥
जाँहार कृपाते म्लेछेर हय कृष्ण भक्ति।
के कहिते पारे ताँर वैष्णवता शक्ति॥‘

(चै.च.अ 7/17-19)

(अर्थात् अद्वैताचार्य जी साक्षात् ईश्वर हैं। उनके साथ रहकर मेरा मन भी निर्मल हो गया है। तमाम शास्रों को उलटने से मालूम पडता है कि कृष्ण-भक्ति में उनकी बराबरी का कोई नहीं है इसीलिये तो उनका नाम अद्वैताचार्य (ऐसा आचार्य जिसके बराबर और दूसरा न हो) है। औरों की बात छोड़ो, उनकी कृपा से तो मलेच्छ के अन्दर भी कृष्ण-भक्ति उदित हो जाती है। अत: उनकी वैष्णवता की महिमा भला कौन वर्णन कर सकता है?)

श्रीमन्महाप्रभु जी ने पुरी में अद्वैताचार्य और श्रीनित्यानन्द प्रभु से श्रीरूप गोस्वामी और श्रीसनातन गोस्वामी जी का मिलन करवाया और उनसे उन्हें आशीर्वाद भी दिलवाया था।

श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने अद्वैताचार्य जी की कृपा से ही महाप्रभु जी के उच्छिष्ट प्रसाद को प्राप्त किया था। रघुनाथ दास गोस्वामी जी के पिता श्रीगोवर्धन मजूमदार ने निष्कपटता पूर्ण अद्वैताचार्य जी की सेवा की थी। उनके सम्बन्ध से ही रघुनाथ दास गोस्वामी जी महाप्रभु जी के कृपा पात्र हुये—

ताँर पिता सदा करे आचार्य-सेवन।
अतएव आचार्य ताँरे हैला परसन्न॥
आचार्य-प्रसाद पाइल प्रभुर उच्छिष्ट-पात।
प्रभुर चरण देखे दिन पाँच सात॥

(चै.च.म. 16/225-26)

पुरी से विदाई के समय श्रीअद्वैताचार्य के प्रति महाप्रभु जी ने जो कहा, उससे जाना जाता है कि अद्वैताचार्य जी महाप्रभु जी के कितने प्रिय हैं—

आइलेन आचार्य-गोसाञि मोरे कृपा करि’।
प्रेम-ऋणे बद्ध आमि, शुधिते ना पारि॥
मोर लागि’ स्री-पुत्र-गृहादि छाड़िया।
नाना दुर्गम पथ लङ्घि’ आइसेन धाञा॥
आमि एइ नीलाचले रहि जे बसिया।
परिश्रम नाहि मोर सबार लागिया॥
सन्यासी मानुष मोर, नाहि कोन धन।
कि दिया तोमार ऋण करिमु शोधन??॥
देह मात्र धन तोमाय कैलुँ समर्पण।
ताँहा बिकाई जाँहा बेचिते तोमार मन॥

(चै.च.अ. 12/70 -74)

(अर्थात अद्वैत-आचार्य जी भी मुझ पर कृपा करने के लिये यहाँ आने का कष्ट उठाते हैं। मैं उनके प्रेम का ऋणी हूँ-इस ऋण को मैं कभी नहीं चुका सकता। मेरे लिये ही ये अपनी स्री व पुत्रादि को छोड़कर व इतने दुर्गम पथ को तय करके यहाँ दौड़े चले आते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो यहीं नीलाचल में रहता हूँ, आप सब के लिये मैं कोई परिश्रम नहीं करता। मैं तो सन्यासी हूँ, मेरे पास तो धन इत्यादि भी नहीं है, फिर कैसे आप का ऋण चुकाऊँगा। हाँ, ये शरीर रूपी धन मेरे पास ज़रूर है-इसे मैं आपके समर्पित करता हूँ आप इसे जहाँ चाहे बेच सकते हैं,)

श्रीअद्वैताचार्य जी जब नदिया से शान्तिपुर में वापस आये तो महाप्रभु जी द्वारा पहले भेजे हुये जगदानन्द जी से उनका साक्षात्कार हुआ। जगदानन्द को देखकर अद्वैताचार्य जी परम उल्लसित हुये। जगदानन्द जी नदिया से पुरुषोत्तम धाम वापस जाते समय अनुमति लेने के लिये जब अद्वैताचार्य जी के पास गये तो अद्वैताचार्य जी ने जगदानन्द पण्डित के हाथ एक पहेली लिखकर भेजी। अद्वैताचार्य जी की पहेली का अर्थ महाप्रभु जी को छोड़कर और कोई भी न समझ सका। पहेली इस प्रकार थी—

प्रभुरे कहिह आमार कोटि नमस्कार।
एइ निवेदन ताँर चरणे आमार॥
बाउलके कहिह-लोक हइल बाउल।
बाउलके कहिह-हाटे या विकाय बाउल॥
बाउलके कहिह-काये नाहिक आउल।
बाउलके कहिह-इहा कहियाछे बाउल॥

(चै.च.अ. 19/19-21)

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने इस पहेली का तात्पर्य अमृत प्रवाह भाष्य में लिखा है—”महाप्रभु जी को कहना कि लोग प्रेम में उन्मत हो गये हैं, अब हाट में प्रेम रूपी चावल बेचने का कोई स्थान नहीं है। महाप्रभु जी को कहना कि आउल अर्थात् प्रेमोन्मत्त बाउल संसार के कार्यों में नहीं है। महाप्रभु जी को कहना कि प्रेमोन्मत्त होकर ही अद्वैत ने ये बात कही है। तात्पर्य ये है कि प्रभु के आविर्भाव का जो तात्पर्य था वह सम्पूर्ण हो गया है। अब प्रभु की जो इच्छा, वही हो। श्रीवासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य ने स्वरचित ‘श्रीअद्वैत-द्वादश नामस्रोत्र’, ‘श्रीअद्वैताष्टकम’ और ‘श्रीअद्वैताष्टोत्तरशतनाम स्रोत्र’ में श्रीअद्वैताचार्य जी की महिमा वर्णन की है। माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को (जो कि श्रीअद्वैत सप्तमी तिथि के रूप में प्रसिद्ध है) अवलम्बन करके महाविष्णु के अवतार श्रीअद्वैताचार्य जी की शुभाविर्भाव लीला हुई।


1 श्रीकुबेर पण्डित —
महादेवस्य मित्रं यः श्रीकुबेर गह्यकेश्वरः।
कुवेरपण्डितः सोऽद्य जनकोऽस्य दिगम्बरः॥

विद्याम्बर गह्मकेश्वर कुबेर, जो महादेव जी के मित्र थे। वे ही अभी कुबेर पण्डित अर्थात् महादेव जी (अद्वैत जी) के पिता है।
(गौ. ग. 81)

2 श्राद्ध पात्र-श्राद्ध के दिन गृहस्त वैष्णवों के लिए नियम है की वे सभी प्रकार के खाद्य द्रव्य भगवान् को निवेदन करके वैष्णव व ब्राह्मण को भोजन करवाये। अद्वैतप्रभु जी के घर जब ऐसा श्राद्ध दिवस आया तो उन्होंने वह श्राद्ध पात्र (अप्राकृत-ब्राह्मण-गुरु समझकर) हरिदास जी को खिलाया।

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