Gaudiya Acharyas

श्रीनिवास आचार्य

नदिया जिले के अन्तर्गत अग्रद्वीप के उत्तर की तरफ चाखनदी ग्राम में 1441 शकाब्द में रोहिणी नक्षत्र युक्त वैशाखी पूर्णिमा के दिन श्रीनिवासाचार्य आविर्भूत हुए थे । इनके पिता श्रीगंगाधर भट्टाचार्य राढ़ीय ब्राह्मण थे । भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में इस प्रकार वर्णित हैं कि काटोया में श्रीमन महाप्रभु जी को सन्यास ग्रहण करते हुए दर्शन कर श्रीगंगाधर भट्टाचार्य जी ‘हा चैतन्य’ नाम बार-बार उच्चारण करते हुए निरन्तर अश्रु बहाते रहे थे । श्रीगंगाधर पंडित जी की इस प्रकार प्रेम में  उन्मत अवस्था को देखकर उस समय वह पर उपस्थित भक्तों ने महाप्रभु जी का प्रिय भक्त जान इनका नाम ‘चैतन्य दास’ रख दिया । श्री चैतन्य दास जी के हृदय में कोई कामना नहीं थी । अकस्मात उनके हृदय में पुत्र की कामना प्रबल हो उठी जिससे वे स्वयं भी आश्चर्यचकित हुए और ये बात अपनी पत्नी श्रीमती लक्ष्मी प्रिया को बतायी । लक्ष्मी प्रिया ने उन्हे नीलाचल जाकर श्रीमन महाप्रभु जी के समक्ष निवेदन करने का परामर्श दिया । श्री चैतन्य दास जी ने पत्नी के साथ नीलाचल की यात्रा की । रास्ते में याजीग्राम में लक्ष्मी प्रिया जी के पिता श्री बलराम विप्र जी के घर में कुछ दिन रहे  ।

    नीलाचल में श्रीमन महाप्रभु जी के श्री चरणों में उपस्थित होकर श्री चैतन्य दास जी कुछ निवेदन करते इससे पहले ही श्रीमन महाप्रभु जी उनके हृदय के अभिप्राय को समझ कर बोले कि “जगन्नाथ जी तुम्हारी इच्छा अवश्य ही पूरी करेंगे ।” वहाँ उपस्थित भक्त जब यह जानने को उत्सुक हुए कि क्या इच्छा पूरी करेंगे तो महाप्रभु जी ने गोविन्द को बुलवाकर सब को बताया कि श्रीचैतन्यदास के हृदय में पुत्र की कामना हुई हैं ।  इसके यहाँ ‘श्रीनिवास’ नामक पुत्र रत्न जन्म लेगा, जो कि मेरा अभिन्न स्वरूप होकर सब का आनंद वर्धन करेगा । श्रीरूप आदि के द्वारा मैं भक्ति-शास्त्र प्रकाशित करवाऊँगा एवं श्रीनिवास द्वारा ग्रंथ रत्नों का वितरण करवाऊँगा ।”  श्रीनिवास श्रीमन महाप्रभु जी के द्वितीय प्रकाश स्वरूप थे ।

“हेनई समये प्रभु गोविन्दे डाकिया ।

कहये गभीर नादे भावाविष्ट हइया ।

‘पुत्रेर कामना करि’ आइल ब्राह्मण ।

श्रीनिवास नाम तार हइबे नन्दन ।।

श्रीरूपादि द्वारे भक्ति शास्त्र प्रकाशिव ।

श्रीनिवास द्वारे ग्रन्थ  रत्न वितरिव ।।

मोर शुद्ध प्रेमेर स्वरूप श्रीनिवास ।

तारे देखि’ सर्वचिते बाड़िल उल्लास ।। ”

 –  भक्तिरत्नाकर 2 तरंग

    श्री चैतन्य महाप्रभु जी की अनुमति लेकर श्री चैतन्य दास घर लौट आए । शुभ मुहूर्त में पुत्र का जन्म हुआ । श्री चैतन्य दास जी ने साथ-साथ ही उसे श्रीगौरमहाप्रभु जी के चरणों में समर्पण कर दिया । क्रमश: श्री चैतन्य दास जी ने श्रीनिवास के अन्नप्राशन, नामकरण, चूड़ाकरण, उपनयन संस्कार आदि सुसंपन्न किए । श्रीगौरपार्षद श्री गोविन्द घोष एवं विशेष रूप से खण्डवासी श्री नरहरी सरकार ठाकुर और श्रीरघुनन्दन ठाकुर जी की कृपा और स्नेह प्रचुर रूप से श्रीनिवास जी के ऊपर वर्षित हुआ ।

      श्रीनिवास जी को अपने पिता जी के मुख से श्रीमन महाप्रभु जी का पावन चरितामृत और श्री कृष्ण जी की वृन्दावन लीला निरन्तर श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । श्रवण करते-करते पिता-पुत्र दोनों प्रेम से विहल हो उठते थे । श्रीनिवास की जननी श्रीनिवास को बहुत प्रकार से नाम संकीर्तन करवाती थी ।

   श्रीनिवास मातृ-पितृ-भक्ति परायण थे । श्रीनिवास जी ने श्री धनंजय वाचस्पति जी से व्याकरण,काव्य,अलंकार आदि शास्त्रों का अध्यन्न कर थोड़े दिनों में ही शास्त्रों में विशेष पारदर्शिता प्राप्त कर ली थी । तत्पश्चात कुछ दिनों के बाद ही इनका पितृ-वियोग हो गया । भक्त पिता के विरह से श्रीनिवास अत्यन्त कातर हो उठे | भक्तों ने अनेक प्रकार से उन्हे और उनकी जननी को सान्त्वना प्रदान की ।

    श्रीनिवास जी माता जी को साथ लेकर चाखन्दि से याजिग्राम में नाना जी के घर आ गए । श्रीनिवास जी के दर्शन कर गाँव के लोग बहुत ही आनन्दित हुए । कुछ दिन याजिग्राम में रहने के पश्चात श्रीनिवास जी श्री खण्ड में श्री नरहरि सरकार ठाकुर जी के श्री पदपद्मों में आ गए । श्रीमन महाप्रभु जी शीघ्र ही अपनी लीला संवरण कर सकते हैं, श्रील नरहरि सरकार ठाकुर जी से ऐसा संकेत मिलने पर श्रीनिवास जी श्रीमनमहाप्रभुजी के दर्शनों के लिए अत्यन्त व्याकुल हो उठे । पुन: याजिग्राम में आकर माता जी की आज्ञा लेकर वे तीव्रता से शुक्ला पंचमी  के दिन गौड़ीय भक्तों के साथ नीलाचल की ओर चल पड़े; किन्तु रास्ते में ही श्रीमन महाप्रभु जी के अप्रकट होने का संवाद सुनकर मूर्छित होकर गिर पड़े । मूर्च्छा टूटने के पश्चात जब इनहोने प्राण त्याग करने का संकल्प किया तो महाप्रभु जी ने स्वप्न में दर्शन देकर नीलाचल में जाने का आदेश दिया । नीलाचल में पहुँचने पर इन्हे स्वप्न में श्रीजगन्नाथ, श्रीबलदेव, श्रीसुभद्रा और पार्षदों सहित इन्हे महाप्रभु जी के दर्शन मिले । श्री गौर शक्ति श्री गदाधर पंडित गोस्वामी श्रीनिवास जी से मिलकर परमानन्द सागर में निमज्जित हो गए । इसके अतिरिक्त श्रीनिवास नीलाचल में श्री रामानन्द राय, श्री परमानंद पुरी, श्रीशिखि माहिति, श्रीसार्वभौम पंडित, श्रीवक्रेश्वर पंडित, श्रीगोविंद, श्रीशंकर, श्रीगोपीनाथ आचार्य इत्यादि प्रसिद्ध-प्रसिद्ध वैष्णवों से मिले और उनकी कृपा प्राप्त की  ।

      नीलाचल में कुछ दिन रहकर यह श्रील गदाधर पंडित गोस्वामी जी से श्रीमद भागवत श्रवण कर मोहित हो गए । इसके पश्चात श्रीगदाधर पंडित गोस्वामी जी की आज्ञा नीलाचल से गौड़ में वापसी के रास्ते में ये श्रीमन नित्यानन्द प्रभु और श्री अद्वैताचार्य प्रभु जी के अप्रकट होने का संवाद सुनकर विरह से विहल हो उठे और इनहोने पुन: प्राणों को त्यागने का संकल्प लिया किन्तु श्रीमन नित्यानन्द प्रभु और श्री अद्वैताचार्य जी ने स्वप्न में आकर इन्हे  सांतवना प्रदान की और प्राण त्याग के संकल्प से निवृत किया । नवद्वीप में पहुँच कर श्रीनिवास, श्रीमनमहाप्रभु जी के विरह में व्याकुल हो उठे । श्रीनिवास की इस प्रकार की अवस्था देखकर श्रीवंशीवदनानंद ठाकुर जी ने जगन्माता श्रीविष्णुप्रिया जी से प्रार्थना की । श्री विष्णुप्रिया देवी जी ने श्रीनिवास जी को दर्शन दिये और कृपा की । श्रीविष्णुप्रिया जी की तीव्र वैराग्य के साथ गौरभजन में निष्ठा को देखकर श्रीनिवास विस्मित हो गए । श्रीनिवास जी ने वहाँ पर स्वप्न में श्रीशची माता जी के दर्शन और कृपा भी प्राप्त की । तत्पश्चात वैष्णव कृपा प्राप्त करने के इच्छुक श्रीनिवास नवद्वीप, शान्तिपुर, खड़दह खानाकूल, कृष्णनगर, श्रीखण्ड इत्यादि – सारे गौड़ मण्डल में भ्रमण करते रहे । श्री गौर पार्षदों और श्री नित्यानन्द जी के पार्षद के सान्निध्य में आने का सुअवसर मिलने के कारण श्रीनिवास अपने आप को धन्य-धन्य समझने लगे । श्रीमुरारी, श्रीवास पण्डित, श्रीदामोदर, श्रीशुक्लाम्बर ब्रह्मचारी, श्रीगदाधर दास, श्री परमेश्वरी दास, श्रीजाहनवा देवी, श्रीवसुधा देवी, श्रीअभिराम ठाकुर, श्रीवीरभद्र  प्रभु, श्री नरहरि सरकार ठाकुर और श्री रघुनन्दन ठाकुर सभी ने श्रीनिवास जी की कृष्ण प्रेम विहल अवस्था को देखकर उन्हे वृन्दावन जाने के लिए उपदेश दिया । वृन्दावन जाने की अनुमति लेने के लिए श्रीनिवास माता जी के पास जाकर बार-बार प्रार्थना करने लगे । पुत्र के व्याकुल अन्त: करण को देखकर जननी ने जाने की अनुमति दे दी ।

     अग्रद्वीप, काटोया, मौरेश्वर, एकचाकाधाम होते हुये व काशी , अयोध्या, प्रयाग तीर्थ दर्शन करने के पश्चात बहुत दिनों बाद जब श्रीनिवास व्रज में आकर पहुंचे तो सुना कि श्रीरूप गोस्वामी, श्रीसनातन गोस्वामी, श्रीकाशीश्वर पण्डित गोस्वामी और श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी अप्रकट हो गए हैं और रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, और श्रीश्री जीव गोस्वामी जी अब भी प्रकट हैं । श्रीनिवास गोस्वामीत्रय के दर्शन और कृपा प्राप्त कर परम धन्य हो गए । श्रीनिवास, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी से दीक्षा लेकर श्रीजीव गोस्वामी जी के आश्रय में शास्त्रों का अध्यन्न करने लगे । श्रेजीव गोस्वामी जी ने स्नेह से भर कर श्रीनिवास को अपने आराध्य श्रीराधा दामोदर जी के पादपदमों में समर्पण कर दिया । श्रीनिवास जी ने श्रीराधाकुण्ड में श्री रघुनाथ दास गोस्वामी और श्री कविराज गोस्वामी जी से मिलकर उनकी कृपा भी प्राप्त की  । श्रीनिवास जी से ‘उज्ज्वलनीलमणि’ के श्लोकों की व्याख्या सुनकर श्रील जीव गोस्वामी जी को परम संतोष मिला तब उन्होने श्रीनिवास को ‘आचार्य’ नरोतम को ‘ठाकुर’ और दुखी कृष्णदास जी को ‘श्यामानन्द’ की पदवी प्रदान की थी । जीव गोस्वामी जी के निर्देशानुसार श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने नित्यसिद्ध गौरपार्षद श्रील राघव गोस्वामी जी के साथ माथुरमण्डल की परिक्रमा एवं दर्शन किए थे ।

   श्रीश्री जीव गोस्वामी व प्रमुख वैष्णवों के आदेश से श्रील निवासाचार्य प्रभु, श्रील नरोत्तम ठाकुर और श्रील श्यामानन्द प्रभु ने अग्रहायण शुक्ल पंचमी तिथि को मथुरा के एक धनाडय व्यक्ति के द्वारा दिये गए बक्से में गोस्वामियों के ग्रन्थरत्न लेकर बैलगाड़ी की सहायता लेकर गौड़ देश की ओर शुभ यात्रा आरंभ की । विपत्तियों से भरे लंबे रास्ते को पार कर जब वे हिन्दु राज्य ‘वनविष्णुपुर’ में आकार पहुंचे तब थोड़े निश्चिंत हुए।  इधर वन के रास्ते से आते समय चारों तरफ ये बात फैल गयी कि एक महाजन बहुमूल्य धन-रत्न लेकर पुरी जा रहे हैं | ये संवाद जब वनविष्णुपुर के दस्यु राजा वीर हम्बीर ने सुना तो उसने अपने ज्योतिषी को कहा कि वह गणना करके बताए कि ये संवाद ठीक हैं कि नहीं ?  ज्योतिषी ने गणना करके बताया कि एक महाजन धन-रत्न से पूर्ण गाड़ी लेकर आ रहा हैं । वीर हम्बीर ने डाकुओं को बिना किसी को मारे उस धनरत्न को अपहरण करने का आदेश दिया  । राजा द्वारा आदेश मिलने पर कार्य में सिद्धि की प्राप्ति के लिए डाकुओं ने चंडी पूजा की । गुप्तचरों को भेजने से उन्हे मालूम हुआ कि जो लोग धन रत्न लाये हैं वे भोजन के पश्चात अत्यंत थकावट के कारण निद्रा के आगोश में हैं । डाकुओं ने उसे चंडी की कृपा और सुनहरा अवसर समझ कर ग्रन्थों के सन्दूक को बहुमूल्य रत्नों से भरा सन्दूक समझ कर अपहरण कर लिया  और राजा के पास पहुंचा दिया । विशाल सन्दूक को देखकर व ये सोच कर राजा बहुत आनन्दित  हुआ कि बहुत सा धन मिल जाएगा । किन्तु सन्दूक खोलने पर उसमे केवल ग्रन्थ ही ग्रन्थ देखकर राजा आश्चर्यचकित हो गया । ग्रन्थरत्नों के दर्शन से उसका चित निर्मल हो गया । राजा ने ज्योतिषी को कहा कि तुम्हारी गणना तो ठीक नहीं हुई । इस पर उसने कहा कि मैंने तो जितनी बार देखा, अमूल्य रत्न ही देखे । आश्चर्य की बात हैं कि यह कैसे झूठ हो गया, कुछ समझ नहीं आता । ग्रन्थ रत्नों के दर्शन से निर्वेद प्राप्त और अनुतप्त राजा ‘ग्रन्थाचार्य’ के दर्शनों के लिए व्याकुल हो उठा एवं स्वप्न में उनके दर्शन पाकर आश्वस्त हो गया । इधर श्रीनिवास आचार्य प्रभु, श्री नरोतम ठाकुर और श्री श्यामानन्द प्रभु जब प्रात: काल उठे तो ग्रन्थों वहाँ न देखकर अत्यन्त व्याकुल हो उठे और बहुत खोजने पर भी जब ग्रन्थ नहीं मिले तो उन्होने प्राण त्यागने का संकल्प लिया । स्थानीय आदिवासीगण तीनों वैष्णव-आचार्यों का दुख देखकर व अनुमान लगाकर राजा की निन्दा करने लगे कि ये कार्य दस्यु राजा वीर हम्बीर का ही हो सकता हैं । श्रीनिवास आचार्य प्रभु को एक व्यक्ति के माध्यम से मालूम हुआ कि विष्णुपुर के राजा ने ही ये काम किया हैं । उसी के यहाँ ग्रन्थ रत्नों के मिलने की सम्भावना हैं । इस सम्भावना की बात सुनकर ग्रन्थरत्न पाने की आशा से तीनों ने प्राण त्याग का संकल्प त्याग दिया । ग्रन्थ रत्नों की खोज के लिए श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने वनविष्णुपुर में ही ठहरने का कार्यक्रम बनाया । उन्होने श्रील नरोतम ठाकुर जी को खेतुरी में और श्रील श्यामानन्द प्रभु को उत्कल देश में भेज दिया । वनविष्णुपुर में रहते समय कृष्ण बल्लभ नामक एक ब्राह्मण के पुत्र से श्रीनिवासाचार्य प्रभु को ये मालूम पड़ा कि राजा वीर हम्बीर की श्रीमद भागवत सुनने में विशेष रूचि हैं । वह प्रतिदिन श्रीमद भागवत का श्रवण करता हैं । एक दिन श्रीनिवास आचार्य प्रभु उस ब्राह्मण को लेकर वहाँ पहुंचे जहां राजा प्रतिदिन भागवत पाठ श्रवण करता था । राजा उस ब्राह्मण से श्रीनिवासाचार्य प्रभु जी के परम भागवत होने का परिचय पाकर एवं उनके महापुरुषोचित व्यक्तित्व और रूप लावण्य को देखकर अत्यन्त विस्मित हुआ और उनके प्रति आकृष्ट हो गया । राजा ने उनसे श्रीमद भागवत श्रवण करने की इच्छा प्रकट की तो श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने अपने ग्रंथ रत्नों के उद्धार रूपी उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वीकार कर लिया और प्रतिदिन श्रीमद भागवत का पाठ और व्याख्या करने लगे । श्रीनिवास आचार्य प्रभु जी के सुमधुर कण्ठ से श्रीमद भागवत की अपूर्व व्याख्या सुनकर राजा मोहित हो गया । श्रीनिवास आचार्य प्रभु जी ने श्रीमद भागवत पाठ और कीर्तन व श्रील नरोत्तम ठाकुर और श्रील श्यामानन्द प्रभु ने मुख्य रूप से कीर्तन के द्वारा ही प्रचार किया था | उनके कीर्तनों के विशेष सुर थे जिनको सुनने मात्र से ही चित आकृष्ट और प्राण-मन मतवाले हो उठते थे |

     श्रील निवास आचार्य प्रभु, श्रील नरोतम ठाकुर और श्रील श्यामानन्द प्रभु जी के गानों के सुरों के नाम थे : क्रमश: मनोहर साही , गराणहाटि और रेणेटि । वीर हम्बीर राजा ने श्री निवास आचार्य प्रभु जी के रहने के लिए एक निर्जन आवास स्थान निर्दिष्ट कर दिया ।  एक दिन इस निर्जन आवास में राजा वीर हम्बीर को अकेले देख श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने गोस्वामियों द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रकाश और उनके अपहरण का सारा वृतांत यथावत सुना डाला,जिसे सुनकर राजा वीर हम्बीर अपने किए पर पश्चाताप करने लगा और उसने ग्रन्थों का सन्दूक लाकर श्रीनिवास आचार्य प्रभु को दे दिया । ग्रन्थों के मिलने पर श्रीनिवास आचार्य प्रभु अति आनन्दित हुये-जैसे उनके प्राण वापिस लौट आए हो । उन्होने साथ-साथ श्री वृन्दावन में एवं श्रील नरोतम ठाकुर और श्रील श्यामानन्द प्रभु जी जहां थे,वही व्यक्तियों को भेज कर यह शुभ संदेश पहुंचाया ।

      क्रमश: वीर हम्बीर राजा और उसके पारिवारिकजनों ने श्री निवास आचार्य प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर कायमन वाक्य से अर्थात सर्वतोभाव से गुरु सेवा में जीवन का उत्सर्ग कर दिया | राजा वीर हम्बीर का दीक्षा का नाम हुआ श्रीचैतन्य दास |

      कुछ दिनों के बाद श्रीनिवास आचार्य प्रभु वनविष्णुपुर से याजिग्राम में अपने नाना के स्थान पर आ गए एवं वहाँ से काटोया, नवद्वीप इत्यादि स्थानों में भ्रमण के लिए निकल पड़े । श्रीनिवास आचार्य प्रभु खंडवासी भक्त श्रील नरहरि सरकार ठाकुर जी के  विशेष अनुगत एवं जननीदेवी के प्रति भक्ति परायण और अनुरक्त थे । जननी की पुत्र के विवाह के लिए व्याकुल होने की बात मालूम होने पर श्रील नरहरि सरकार ठाकुर ने श्रीनिवास आचार्य प्रभु को विवाह के लिए आदेश भेजा । इससे पहले भी श्रीनिवास आचार्य प्रभु को स्वप्न में विवाह के लिए श्रीअद्वैताचार्य जी का आदेश मिला था । श्रीनिवास आचार्यप्रभु मन-मन में लज्जित होने पर भी श्री अद्वैताचार्य प्रभु , जननी देवी और सरकार ठाकुर के आदेश का उल्लंघन करने पर असमर्थ थे । इसलिए उन्होने विवाह करना स्वीकार कर लिया ।  याजिग्राम के निवासी श्रीगोपाल चक्रवर्ती महोदय की भक्तिमती कन्या ‘श्री ईश्वरी’ के साथ विवाह कार्य सुसम्पन्न हुआ । श्रीमन महाप्रभु जी के भक्तों के अतिमर्त्य चरित्र वैशिष्टय को साधारण बुद्धि से समझना बहुत कठिन हैं । भक्त और भगवान के एकान्त शरणागत व्यक्ति ही उनकी कृपा से उनकी महिमा को समझने में समर्थ हो सकता हैं । इसके पश्चात श्रीनिवास आचार्य प्रभु जी ने गोस्वामियों के रचित ग्रन्थों के तात्पर्य शिष्यों को समझने के लिए कुछ दिन अध्यापन का कार्य किया । श्रीनिवास आचार्य प्रभु के एक प्रधान शिष्य थे – खंडवासी  भक्त श्रीचिरंजीव सेन के पुत्र श्रीराम चन्द्र कविराज । श्रील जीव गोस्वामी प्रभु जी ने श्रीराम चन्द्र के कवित्व से सन्तुष्ट होकर उन्हे कविराज की उपाधि प्रदान की थी ।श्रील नरोतम ठाकुर जी के साथ श्रीरामचन्द्र कविराज जी का विशेष घनिष्ठ संबंध था ।श्रील नरोतम ठाकुर जी ने गाया हैं :“दया कर श्रीआचार्य प्रभु श्रीनिवास | रामचन्द्र संग मांगे नरोत्तम दास ।”

    श्रील शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी,  श्रील दास गदाधर और श्रील नरहरि सरकार ठाकुर द्वारा प्रकट लीला संवरण करने पर एवं द्विज हरिदास आचार्य जी के अप्रकट होने पर पुन: विरह से व्याकुल श्रीनिवास आचार्य प्रभु वृन्दावन में गए थे ।  वहाँ पर श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी, श्रील भूगर्भ गोस्वामी, श्रील लोकनाथ गोस्वामी और श्री जीव गोस्वामी जी के साथ उनका साक्षात्कार हुआ था । गोस्वामियों के स्नेहपूर्ण वचनों से श्रीनिवास आचार्य प्रभु का विरह संतप्त हृदय शीतल हो गया । श्रीराम चन्द्र कविराज और श्रीश्यामानन्द प्रभु भी व्रज में श्रीनिवास आचार्य प्रभु से मिले थे ।

वृन्दावन से वापिस आने के पश्चात श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने श्रील दास गदाधर, श्रीखण्ड में श्रील नरहरि सरकार ठाकुर के एवं कांचनगड़िया में द्विज हरिदास आचार्य जी के विरह महोत्सव में योगदान किया था ।

 श्रील निवास आचार्य जी द्वारा कांचनगड़िया से बुधरिग्राम में शुभ पर्दापण करने पर श्री रामचन्द्र कविराज और श्री गोविन्द कविराज ने उनके भव्य स्वागत की व्यवस्था की थी ।

   श्री लोकनाथ गोस्वामी जी के निर्देशानुसार श्रील नरोतम ठाकुर वृन्दावन से खेतुरी में वापिस आ गए । उसी समय फाल्गुनी पूर्णिमा तिथि को खेतुरी में स्थित श्रीमन्दिर में संकीर्तन के सहयोग से श्रीगौरांग, श्रीवल्लभी कान्त, श्री व्रजमोहन, श्रीकृष्ण, श्री राधकान्त और श्री राधा रमण जी की सेवा प्रकट हुई । श्रीनिवास आचार्य प्रभु ने श्री विग्रहों का महाभिषेक और पूजा सम्पन्न की थी । इस महान अनुष्ठान में श्री जाहनवा देवी भी उपस्थित थी । श्री जाहनवा देवी जब श्री ब्रजमण्डल के दर्शनों के उपरांत गौड़ देश वापस आई थी तो उसी समय काटोया में श्रीनिवास आचार्य प्रभु जी ने श्रीजाहनवा देवी जी के दर्शन किए थे एवं उन्हे लेकर याजिग्राम गए थे ।

 श्रील निवास आचार्य प्रभु जी ने श्रीनरोत्तम ठाकुर और शिष्य श्री रामचन्द्र कविराज को साथ लेकर नवधा-भक्ति के पीठ स्वरूप श्री नवद्वीप धाम की परिक्रमा की थी । श्रील रघुनंदन ठाकुर जी का तिरोभाव होने पर श्रीनिवास आचार्य पुन: विरह सागर में डूब गए एवं श्रीखण्ड में जाकर उन्होने विरह महोत्सव में योगदान भी दिया था । विरहोत्सव के पश्चात वे विरह-व्याकुल हृदय से याजिग्राम में आ गए । बाद में वहाँ से वन विष्णुपुर पहुंचे । राजा वीर हम्बीर, उनका परिजनवर्ग और विष्णुपुर वासी भक्तवृन्द श्रीनिवास आचार्य जी के दर्शन पाकर परमानन्दित हुये ।

यहाँ पर फिर श्रीनिवास आचार्य प्रभु जी ने स्वप्न में श्री गौरांग महाप्रभु जी द्वारा श्री राघव चक्रवर्ती की कन्या श्री गौरांग प्रिया देवी से विवाह करने का आदेश प्राप्त किया । इस तरफ राघव चक्रवर्ती और उनकी सहधर्मिणी श्रीयुत माधवी देवी भी अपनी कन्या को सत्पात्र को देने के लिए व्याकुल हो उठे । उन्हे भी स्वप्न में आदेश मिला कि वे अपनी कन्या को श्री निवास आचार्य को समर्पित कर दें । पुन: आदेश प्राप्त होने पर श्री श्रील निवास आचार्य प्रभु जी ने दूसरा विवाह किया । शुद्ध भक्त में भक्त और भगवान कि इच्छा पूर्ति को छोड़ और कोई उद्देश्य न होने के कारण उनकी इच्छा पूरी करने के लिए वे सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं । उनके इन कार्यों में सांसारिक ‘काम’ की गंध भी नहीं होती । श्रीमन महाप्रभु जी के शक्त्याविष्ट अवतार श्रीनिवासाचार्य प्रभु के अलौकिक चरित्र के वैशिष्ट्य को उनकी कृपा के बिना वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता ।