Gaudiya Acharyas

श्रील जगदीश पण्डित

“अपरे यज्ञपत्नौ श्रीजगदीश हिरण्यकौ।
एकादश्यां ययोरन्नं प्रार्थयित्वाघसत प्रभु:॥”
(गौ॰ग॰दी॰ 192 श्लोक)


आसीद ब्रजे चन्द्रहासो नर्तको रसकोविद:।
सः अयम् नृत्यविनोदी श्रीजगदीशाख्य:पण्डित:॥”   
(गौ॰ग॰दी॰ 143 श्लोक)

      श्रीकृष्ण लीला में जो याज्ञिक ब्राह्मण पत्नी थीं, वे ही श्रीजगदीश पण्डित व श्रीहिरण्य पण्डित के रूप में गौरलीला की पुष्टि के लिए आविर्भूत हुई थीं। ब्रज के रसकोविद चन्द्रहास नर्तक रूप में भी श्रीजगदीश पण्डित प्रभु की पूर्व लीला का परिचय प्रदत हुआ है। ये श्रीचैतन्य शाखा और नित्यानन्द शाखा दोनों शाखाओं में ही गिने जाते हैं।

     श्रीजगदीश पण्डित प्रभु भारत के पूर्वाञ्चल-गोहाटी (प्राग्ज्योतिषपुर) में आविर्भूत हुए थे। इनके पितृदेव श्रीकमलाक्ष भट्ट थे। श्रीजगदीश पण्डित के माता-पिता परम विष्णु-भक्ति-परायण थे। माता-पिता के अप्रकट होने के बाद श्रीजगदीश पण्डित प्रभु, अपनी पत्नी दु:खिनी और भाई हिरण्य पण्डित को साथ लेकर गंगा के किनारे रहने के लिए श्रीमायापुर में श्रीजगन्नाथ मिश्र के गृह के निकट में ही आ गए एवं वहीं पर रहने के लिए गृह का निर्माण करके अवस्थान करते रहे। श्रीजगन्नाथ मिश्र के साथ श्रीजगदीश पण्डित प्रभु की बड़ी अन्तरंग मित्रता थी। निमाई के प्रति श्रीजगन्नाथ मिश्र और शचीमाता का जिस प्रकार वात्सल्यभाव था, श्रीजगदीश पण्डित प्रभु और दु:खिनी माता का भी निमाई के प्रति उसी प्रकार का वात्सल्यभाव था। दु:खिनी माता निमाई को अपना दूध भी पिलाया करती थीं।

    यशोदानन्दन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही शचीसुत निमाई के रूप में आविर्भूत हुए थे। श्रीगौरांग महाप्रभु जी के पार्षदभक्तों के बिना निमाई को पुत्र रूप में स्नेह करने का परम सौभाग्य लाभ होना सम्भव नहीं हो सकता। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु श्रीमन्महाप्रभु जी के कितने प्रिय थे, यह उन्होंने अपनी बाल्यलीला में छल के द्वारा प्रदर्शित किया है। संकीर्तन पिता श्रीमन्महाप्रभु बाल्यलीला के छल से सबको हरिनाम कराते थे। शचीमाता और अन्यान्यसब स्त्रियाँ जब हाथ से ताली बजाकर हरिनाम कीर्तन करती थीं तब ही शिशु निमाई का क्रन्दन रूकता था।

    एक दिन एकादशी तिथि में श्रीजगन्नाथ मिश्र, श्रीशचीमाता एवं अन्यान्य सबके सब हरिनाम कीर्तन कर रहे थे, तब भी शिशु निमाई का रोना रुक नहीं रहा था तो वे अत्यन्त विचलित हो गए तथा स्नेहासिक्त होकर निमाई को कहने लगे –

    (“बच्चा तुइ कि चास, कि दिले तोर क्रन्दन थाम्बे बल”)।

   (अर्थात् बेटे! तू चाहता क्या है, क्या चीज़ दूं जो तू चुप हो जाए?)

   शिशु ने कहा- “आज एकादशी तिथि है तथा श्रीजगदीश पण्डित के घर में आज जो विष्णु नैवैद्य (भगवान का भोग) तैयार किया गया है वो ‘मैं’ खाना चाहता हूँ। उसको खाने से मेरा रोना बन्द हो जाएगा।”

    सुन कर तो श्रीजगन्नाथ मिश्र विस्मित हो गए, आज एकादशी तिथि है, ये इस बच्चे को कैसे मालूम हुआ? व एकादशी में श्रीजगदीश पण्डित ने विष्णु के नैवैद्य तैयार किए हैं, इसे कैसे पता लगा?

    तभी जगन्नाथ मिश्र जी श्रीजगदीश पण्डित के घर गये। उनके घर में विष्णु के नैवैद्य का विपुल आयोजन देख कर जगन्नाथ मिश्र आश्चर्यवान्वित हो गए। पुत्र के नैवैद्य ग्रहण की इच्छा एवं ग्रहण नहीं करने से उसका क्रन्दन रुकेगा नहीं ……. इत्यादि सब बात बतायी, निमाई विष्णु का नैवैद्य ग्रहण करना चाहता है अर्थात् खाना चाहता है, ये पुत्र के पक्ष में अकल्याणकर हो सकता है, इस प्रकार के भय की बात भी जगन्नाथ मिश्र ने व्यक्त की। नित्यपार्षद श्रीजगदीश पण्डित प्रभु ने अनुभव किया कि नन्दनन्दन श्रीगोपाल जी ने ही निमाई के रूप में ही इसे ग्रहण करने की इच्छा की है। उन्होंने कोई भी शंका वा द्विधा न करके साथ-साथ श्रीजगन्नाथ मिश्र को समस्त नैवैद्यअर्पण कर दिए। सारे नैवैद्य लेकर जगन्नाथ मिश्र जी घर आये और सारे के सारे नैवैद्य उन्होंने निमाई के आगे रख दिये। भक्त के प्रदत नैवैद्य पाकर शिशु का क्रन्दन रुक गया। निमाई परमानन्द के साथ उसको खाने लगे-

“जगदीश पण्डित आर हिरण्य महाशय।
यारे कृपा कैल बाल्ये प्रभु दयामय॥

एइ दुइ घरे प्रभु एकादशी दिने।
विष्णुर नैवेद्य मागि खाइल आपने॥”

                                   (चै॰च॰आ॰10/70-71)

    (दयामय गौरहरि जी ने अपनी बाल्यलीला में ही जिन पर कृपा की- वे हैं श्रीजगदीश पण्डित और हिरण्य महाशय, इन दोनों के घर में महाप्रभु जी ने एकादशी के दिन मांग कर विष्णु भगवान का नैवैद्य खाया था।)

 “जगदीश पण्डित हय जगत पावन।
 कृष्ण प्रेमामृत वर्षे येन वर्षाघन॥”

                                  (चै॰च॰आ॰ 11/30)

    (श्रीजगदीश पण्डित जगत को पावन करने वाले हैं, ये घने बादलों की तरह कृष्ण-प्रेम की वर्षा करते हैं।)

    श्रीचैतन्य भागवत आदि लीला के चतुर्थ अध्याय में ये लीला वर्णित है-

“भकतेर द्रव्य प्रभु काड़ि-काड़ि खाय।
अभक्तेर द्रव्य पाने उलटि ना चाय॥”

     (भक्त की वस्तु प्रभु छीन कर खाते हैं और अभक्त की वस्तु को मुड़कर देखना भी नहीं चाहते।)

     श्रीमन महाप्रभु जिस प्रकार श्रीजगदीश पण्डित प्रभु की विशुद्ध भक्ति के वशीभूत थे, श्रीमन्महाप्रभु के अभिन्न श्रीनित्यानन्द भी उसी प्रकार श्रीजगदीश पण्डित प्रभु के प्रेम में वशीभूत होकर उन्हें अपना निजजन मानकर उनसे अत्यन्त प्रीति करते थे। श्रीनित्यानन्द प्रभु, श्रीजगदीश पण्डित के प्राण थे।

“जगदीश पण्डित परम ज्योतिर्धाम।
सपार्षदे नित्यानन्द यार धन प्राण॥”

      श्रीनित्यानन्द प्रभु ने जब पानिहाटी में चिड़ादधि (दहि व चिड़वा) का महोत्सव किया था, उस समय श्रीजगदीश पण्डित प्रभु भी वहाँ उपस्थित थे।

    श्रीमन्महाप्रभु जी के निर्देश से परवर्तीकाल में श्रीजगदीश पण्डित प्रभु, कृष्ण-भक्ति और युगधर्म – हरिनाम- संकीर्तन के प्रचार के लिये नीलाचल गए थे। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, श्रीजगन्नाथ मिश्र तनय श्रीगौरहरि और श्रीजगन्नाथ एक ही तत्व हैं। पुरुषोतम धाम में श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन करके श्रीजगदीश पण्डित प्रभु प्रेम में आप्लावित हो गए तथा वहाँ से लौटते समय वे जगन्नाथ जी के विरह में व्याकुल हो गये। पुरी में लाख-लाख व्यक्ति श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन को जाते हैं, किन्तु लौटते समय क्या किसी को भी विरह-व्याकुलता देखी जाती है?

    हो सकता है किसी भाग्यवान जीव के वह भाव उदित हों। वास्तव में जिसके हृदय में वह विरह-व्याकुलता होती है, उसके प्रति ही श्रीजगन्नाथ देव की यथार्थ कृपा वर्षित हुई है, ऐसा प्रमाणित होता है, नहीं तो प्रमाणित नहीं होता कि उस पर जगन्नाथ जी की यथार्थ कृपा हुईअर्थात् श्रीजगदीश पण्डित प्रभु विरह-व्याकुल होकर क्रन्दन करते रहे तो श्रीजगन्नाथ देव जी ने कृपा परवश होकर स्वप्न में उन्हें निर्देश दिया कि वे उनका श्रीविग्रह लेकर सेवा करें। तत्कालीन महाराज को श्रीजगन्नाथ देव जी ने नव-कलेवर के समय उनका समाधिस्थ विग्रह श्रीजगदीश पण्डित को देने के लिए निर्देश दिया। महाराज,जगदीश पण्डित प्रभु से मिल कर अपने आपको सौभाग्यवान समझने लगे। उन्होंने श्रीजगन्नाथ देव जी का समाधिस्थ विग्रह, श्रीजगदीश पण्डित प्रभु को अर्पण किया। जगदीश पण्डित प्रभु ने श्रीजगन्नाथ देव जी से जिज्ञासा की कि वे उनके भारी विग्रह को किस प्रकार वहन करके ले जाएंगे तो श्रीजगन्नाथ देव जी ने उन्हें इस प्रकार निर्देश किया कि वे शोला की भांति हल्के हो जाएँगे और उन्हें नए वस्त्र द्वारा आवृत करके एक लाठी के सहारे कन्धों पर रख कर वहन करना होगा तथा जहाँ पर स्थापन करने की इच्छा हो, वहीं पर ही रखना होगा। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु अपने संगी ब्राह्मणों की सहायता से श्रीमूर्ति वहन करते हुए चक्रदह (पश्चिम बंगाल) के अन्तर्गत गंगा के तटवर्ती यशड़ा श्रीपाट में आकर उपस्थित हुए।

    श्रीजगदीश पण्डित प्रभु एक ब्राह्मण व्यक्ति के कन्धों पर श्रीजगन्नाथ देव को रख कर गंगा में स्नान-तर्पण के लिए गए कि अकस्मात श्रीजगन्नाथ देव अत्यन्त भारी हो गए। सेवक उन्हें कन्धे पर रखने में असमर्थ हो गया अत: उसने उन्हें ज़मीन पर उतार गया। जगदीश पण्डित प्रभु स्नान-तर्पण के बाद जब वापस आए तो जगन्नाथ जी का ज़मीन पर अवतरण देख कर समझ गए कि श्रीजगन्नाथ देव जी ने यहीं पर ही अवस्थान करने की इच्छा की है।

      चक्रदह एक एतिहासिक पवित्र स्थान है। पौराणिक युग में यह स्थान “रथवर्म” नाम से प्रसिद्ध था। द्वापर के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र श्रीप्रद्युम्न ने एक बार शम्बरासुर का इसी स्थान पर वध किया था। उसके बाद से इसने ‘प्रद्युम्न नगर’ नाम से प्रसिद्धि लाभ की, परवर्तीकाल में सगर वंश के उद्धार- के लिये श्रीभगीरथ जब गंगा जी को ला रहे थे तो उस समय उक्त स्थान में उनका रथ का पहिया (चक्र) धंस गया था इसलिए यह ‘प्रद्युम्न नगर’ चक्रदह नाम से प्रचारित हुआ। अब यह स्थान ‘चाकदह’ नाम से जाना जाता है।

   श्रीजगन्नाथ देव जी पुरुषोत्तम धाम से यशड़ा श्रीपाट में आ गए हैं – ये खबर जब चारों ओर प्रचारित हुई तो अगणित नर-नारी यशड़ा श्रीपाट में श्रीजगन्नाथ देव जी के दर्शन के लिए आने लगे। श्रीजगन्नाथ देव जी के यशड़ा श्रीपाट में रहने के कारण श्रीजगदीश पण्डित प्रभु ने अपने घर मायापुर में न जाकर यशड़ा में ही अवस्थान करने का संकल्प लिया। श्रीजगन्नाथ की मूर्ति पहले गंगा जी के किनारे एक वट वृक्ष के नीचे प्रतिष्ठित थी, बाद में गोयाड़ि कृष्ण नगर के राजा श्रीकृष्णचन्द्र के सहयोग से वहाँ पर एक मन्दिर निर्मित हुआ।

   उक्त मन्दिर के जर्जर होने पर उमेश चन्द्र मजूमदार महोदय जी की सहधर्मिणी मोक्षदा दासी ने श्रीमन्दिर का पुन: संस्कार किया। मन्दिर चूड़ा-रहित व साधारण ग्रह के आकार जैसा है।  श्रीमन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव, श्रीराधा बल्लभ जी व श्रीगौर गोपाल विग्रह विराजित हैं। जिस लाठी के सहयोग से श्रीजगदीश पण्डित जी पुरी से श्रीजगन्नाथ विग्रह लाए थे वह लाठी अब भी श्रीजगन्नाथ मन्दिर में सुरक्षित है। श्रीजगन्नाथ देव जी की सेवा के लिये भक्तगणों के दान से प्रचुर ज़मीन-जायदाद हुई थी परन्तु बाद में श्रीजगदीश पण्डित प्रभु के अधस्तन सेवायतगणों ने मन्दिर की परिचालना का खर्च चलाने के लिए धीरे-धीरे उन ज़मीनों को बेच दिया। यहाँ श्रीजगन्नाथ देव जी की रथयात्रा नहीं होती। परन्तु यहाँ श्रीजगन्नाथ देव जी की स्नान-यात्रा का उत्सव प्रतिवर्ष विशेष समारोह के साथ सम्पन्न होता है। बड़े विशाल मैदान में स्नान-यात्रा की श्रीवेदी है।

    श्रीजगन्नाथ जी की स्नान-यात्रा तिथि में वे मूल मन्दिर से उक्त वेदी पर शुभ विजय करते हैं अर्थात् आते हैं तथा वहीं पर स्नान-यात्रा महोत्सव सम्पन्न होता है। मैदान में मेला लगता है व वहाँ पर अगणित नर-नारियों की भीड़ होती है। यशड़ा में श्रीजगन्नाथ जी के मेले की प्रसिद्धि आज तक विद्यमान है।

     पाँच सौ साल पुराना जीर्ण दोलमंच भी है। श्रीराधा-बल्लभ जी उक्त दोल मंच पर शुभ विजय करते हैं अर्थात् विराजित होते हैं। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु और उनकी सहधर्मिणी के वात्सल्य प्रेम से आकृष्ट होकर श्रीगौरांग महाप्रभु और नित्यानन्द प्रभु जी ने यशड़ा श्रीपाट में दो बार शुभ पर्दापण किया था व इन अवसरों पर संकीर्तन विहार व महोत्सव भी किए।

   जिस समय श्रीमन महाप्रभु यशड़ा से नीलाचल में जाने के लिए उद्यत हुए थे तो दु:खिनी माता विरहकातरहोकर क्रन्दन करने लगीं तब महाप्रभु जी ने श्रीगौर गोपाल रूप में वहाँ विराजित रहने के लिए स्वीकार किया। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु ने गृहस्थ लीला का अभिनय किया था। श्रीरामभद्र गोस्वामी उनके पुत्र रूप में प्रकटित हुए थे।

कालना के सिद्ध भगवान दास बाबा जी महाराज ने कुछ दिन यशड़ा श्रीपाट में अवस्थान करके वहाँ भजन किया था। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु जी के तिरोभाव दिवस– पौषी शुक्ला तृतीया तिथि में यशड़ा श्रीपाट में वार्षिक महोत्सव होता है। श्रीजगदीश पण्डित की आविर्भाव तिथि पौषी शुक्ला द्वादशी है।

    श्रीजगदीश पण्डित जी के श्रीपाट की सेवा वर्तमान में श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के द्वारा परिचालित हो रही है। “श्री चैतन्य वाणी” पत्रिका के दूसरे वर्ष की नवम संख्या में उक्त सेवा प्राप्ति विषय निम्न रूप से वर्णित है। भक्ति-प्रेमवश्य, भक्त-वत्सल भगवान अपने भक्त की सेवा ग्रहण करने के लिए भला कौन से छल का अवलम्बन नहीं करते? भगवान एकान्त भाव से जिसे सेवा देना चाहते हैं, उसके लिए लीलामय श्रीहरि कितनी लीलाएँ प्रकट करते हैं, इसके बारे में क्या कह सकते हैं?

     जिन गोविन्द की लीला के लिए सैंकड़ों-सैंकड़ों लक्ष्मियाँ हमेशा तैयार रहती हैं, लीला में कभी-कभी उनको भी सेवकों का अभाव हो जाता है व ऐसा लगता है मानों उनकी सेवा में विघ्न हो रहा हो। श्रीगोवर्धनधारी गोपाल ने अपने प्रिय भक्त श्रीमाधवेन्द्र पुरीपाद की सेवा स्वीकार करने के लिए उनके पूर्व सेवकों को म्लेच्छों का भय दिखला कर उनके (सेवकों के) कन्धों पर चढ़ कर श्रीगोवर्धन पर्वत के ऊपर जंगल के अन्दर आगमन कियाव पुरीपाद जी की सेवा का इन्तज़ार करने के लिए वहाँ अवस्थान किया इत्यादि-

“बहु दिन तोमार पथ करि निरीक्षण।
कबे आसि माधव आमा करिबे सेवन॥”

                                       (चै॰च॰म॰4/39)

    (गोपाल जी माधवेन्द्रपुरी पाद जी को सम्बोधित करते हुये कहते हैं – हे माधवेन्द्र! मैं बहुत दिनों से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा था और सोच रहा था कि कब माधव आकर मेरी सेवा करेगा?)

     लीलामय श्रीहरि की इस प्रकार न जाने कितनी लीलाएँ हैं। श्रीनित्यानन्द प्रभु के पार्षद, श्रील जगदीश पण्डित ठाकुर एवं उनकी भक्तिमती पत्नी दु:खिनी माता के स्वहस्त सेवित श्री जगन्नाथ देव और श्रीगौर गोपाल विग्रहों ने जैसे उनकी सेवा ग्रहण की, ठीक इसी प्रकार एक अपूर्व लीला-ढंग से उन्होंने भक्तराज त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी की सेवा भी अयाचित भाव से अंगीकार की। श्रीजगदीश पण्डित प्रभु की वंश-परम्परा में अधस्तनगण श्रीविश्वनाथ गोस्वामी, श्रीशम्भुनाथ मुखोपाध्याय और श्रीमृत्युञ्जय मुखोपाध्याय महोदय आर्थिक अवस्था से उन्नत न थे। इसी कारण श्रीविग्रहों की नित्य-नैमितिक रूप से होने वाली सेवा-परिचालना व वार्षिक सेवानुष्ठान तथा जीर्ण होते मन्दिर का पुन: संस्कार न करवा पाने पर यशड़ा के पांचु ठाकुर महाशय और राणाघाट के श्रीसंतोष कुमार मल्लिक की प्रेरणा से गत सन 1962 में उनके द्वारा यशड़ा श्रीपाट की सेवा श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता ॐ 108 श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज विष्णुपाद जी के श्रीहस्तों में सम्पूर्ण रूप से समर्पण कर दी गयी। श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता ने सेवा ग्रहण करने के साथ-साथ श्रीमन्दिर के जीर्णोद्वार और नवीन गृह आदि निर्माण एवं लाइट इत्यादि की व्यवस्था के लिए बहुत रुपया खर्च किया।

    श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता अस्मदीय परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी ने यशड़ा श्रीपाट की सेवा प्राप्ति के बाद प्रथम वार्षिक महोत्सव के समय मैदान में बैठा कर हजारों-हजारों नर-नारियों का महाप्रसाद के द्वारा जिस भाव से स्वागत किया था व उससे जिस आनन्द का आप्लावन हुआ, उसे स्मरण करके आज भी सब पुलकित हो उठते हैं।