Gaudiya Acharyas

श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

“नम ॐ विष्णुपादाय रूपानुगप्रियाय च ।
श्रीमते भक्ति दयित माधव स्वामि नामिने ॥
कृष्णाभिन्न – प्रकाश श्रीमूर्तये दीनतारिणे ।
क्षमागुणावताराय गुरवे प्रभवे नम: ॥
सतीर्थ प्रीति सद्धर्म गुरु प्रीति प्रदर्शिने ।
ईशोद्यान प्रभावस्य प्रकाशकाय ते नम: ॥
श्रीक्षेत्रे प्रभुपादस्य स्थानोद्धार सुकीर्तये ।
सारस्वत गणानन्द सम्वर्द्धनायते नम: ॥”
“श्रीभक्तिदयित नामाचार्य वर्यम् जगद्गुरुम् ।
वन्दे श्रीमाधवं देवं गोस्वामी प्रवरं प्रभुम्॥”
विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ एवं श्री गौड़ीय मठ समूह के प्रतिष्ठाता, नित्यलीला प्रविष्ट परमहंस ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ‘प्रभुपाद’ जी के प्रियतम पार्षद, श्रीकृष्णचैतन्य – आम्नाय धारा के दशम अधस्तन एवं अखिल भारतीय श्री चैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के प्रतिष्ठाता, अस्मदीय गुरु पादपद्म, परमहंस परिव्राजकाचार्य, ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज विष्णुपाद जी, शुक्रवार, 18 नवम्बर,सन् 1904 (3 अग्रहायण 1311 बंगाब्द )की एक परम पावन तिथि अर्थात् उत्थान एकादशी को प्रात: 8 बजे पूर्व बंगाल (वर्तमान बंगला देश ) में फरीदपुर जिले के कांचन-पाड़ा नामक गाँव में एक दिव्य बालक के रूप में प्रकट हुए ।
जिस प्रकार ‘उत्थान एकादशी’ के दिन परम करुणामय, परमानन्द स्वरूप श्रीहरि की जागरणलीला सब जीवों के लिए मंगलदायक और आनन्दवर्धक होती है, उसी प्रकार त्रिताप से पीड़ित जीवों के सौभाग्य से श्रीहरि के प्रियतम जन एवं करुणामय मूर्ति हमारे परमाराध्यतम श्रील गुरुदेव भी सब जीवों के वास्तविक मंगल के लिए एवं उनके उल्लास वर्धन हेतु ‘उत्थान एकादशी’ को आविर्भाव हुए। ये ही नहीं, वैराग्य की पराकाष्ठा की मूर्ति, हमारे परमेष्ठि गुरुपाद पद्म परमहंस – वैष्णव श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी ने भी इस शुभ तिथि को ही भगवान की नित्यलीला में प्रवेश किया था – ये भी अति विशेष रहस्यपूर्ण बात है।
कांचनपाड़ा गाँव, भेदार गंज ठाणे के अन्तर्गत पद्मावती नदी के मुख की ओर स्थित है। यहाँ पर वातावरण अत्यन्त पवित्र एवं रमणीय है। प्रेम भक्ति प्रदान करने के लिए इस नदी की महिमा खूब सुनने में आती है। जागतिक विचार से बहुत से लोग इस नदी को बहुत अच्छा नहीं समझते, इसे कीर्तिनाशा कहते हैं क्योंकि इस नदी के बहाव में अब तक अनेक गाँव और शहरों का अस्तित्व ही खत्म हो चुका है।
ये वही नदी है जहां पतित पावनश्रीमन् नित्यानन्द प्रभु जी ने स्नान करने के पश्चात् श्रील नरोतम ठाकुर जी के लिए प्रेम संरक्षण किया था। इसलिए आज भी लोग इस स्थान को ‘प्रेमतली’ के नाम से पुकारते हैं। अब भी पद्मावती नदी के किनारे पर प्रेमतली नाम का गाँव है। परमाराध्यतम् श्रील गुरुदेव जी की माता जी के मामा जी का घर इसी गाँव में था। बंगला देश के बनने के बाद कांचनपाड़ा गाँव का वह रमणीय परिवेश और बाहरी दर्शन अब उस प्रकार दृष्टिगोचर नहीं होता।
श्रील गुरुदेव जी की माता जी के मामा लोग प्रसिद्ध धनी व्यक्ति थे। वे वहाँ के तालुकदार होने पर भी गाँव में उनकी एक बड़े जमींदार के समान मर्यादा थी ।
तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें‘राज चक्रवर्ती’ की उपाधि से विभूषित किया था । बन्द्योपाध्यायवंश के होने पर भी परवर्ती काल में वे ‘चक्रवर्ती बाड़ी’ रूप से प्रसिद्ध हुए । आपका गाँव एक प्रगतिशील तथा ब्राह्मण प्रधान गाँव था ।
श्रील गुरुदेव के मामा लोग भी इसी कांचनपाड़ा गाँव में रहते थे इसलिए कांचन पाड़ा को श्रीगुरुदेव के मामा का घर भी कहते हैं।
श्रील गुरुदेव जी के पूर्वाश्रम के पितृवंश का परिचय इस प्रकार मिलता है– आपके पितामह श्री चण्डी प्रसाद देवशर्मा बन्द्योपाध्याय थे और आपके पिता जी का नाम श्री निशिकान्त देवशर्मा बन्द्योपाध्याय था। आपके पिता जी का घर ढाका के भराकर गाँव में था जो विक्रमपुर परगना के टेंगिबाड़ी थाने के अन्तर्गत था । आपके पिता जी तथा दादा जी विक्रमपुर में प्रसिद्ध स्वधर्म निष्ठ थे। श्री गुरुदेव जी की माता जी का नाम श्रीमती शैवालिनी देवी था। वह परम भक्तिमती और देव- द्विज– साधु सेवा परायण थीं। जब श्री गुरुदेव चार वर्ष के हुए तो आपका अपने पिता जी से वियोग हो गया । तब आपकी माता जी आपको लेकर अपने भाइयों के घर चली आईं और वहां ही आपका पालन-पोषण करने लगी । यहाँ आपको मामा लोगों का बहुत प्यार मिला । पिता जी ने इनका नाम श्री हेरम्ब कुमार बन्द्योपाध्याय रखा था परन्तु आपको सभी स्नेह परवश होकर गणेश नाम से पुकारते थे ।
शैशव काल से ही श्रील गुरुदेव जी में दूसरे बालकों की अपेक्षा अनेक असाधारण गुण प्रकाशित थे । आप कहीं भी किसी अवस्था में भी झूठ नहीं बोलते थे, बल्कि दूसरे बालकों को भी सत्य बात कहने के गुण और असत्य बात कहने के दोष बतलाते थे। बालक के इन असाधारण आचरणों को देख कर सभी आश्चर्यान्वित होते थे ।
शैशव काल से ही आप में संसार के विषयों के प्रति उदासीन भाव प्रकटित था । आप हमेशा अपना जीवन सुचारु रूप से नियन्त्रित रखते थे तथा दूसरे बालकों को भी संयम युक्त जीवन बिताने के लिए उत्साहित करते थे; अन्यान्य बालकों की अपेक्षा आप में चारित्रिक वैशिष्ट्य का असाधारण गुण था। आप स्वयं दु:ख और कष्ट सहकर भी दूसरों के दु:ख तथा असुविधाओं को दूर करते थे। बाल्यकाल से ही आपके हृदय की विशालता तथा ज्ञान की प्रसारता को देख अनेक लोग ये कहते थे कि अवश्य ही ये बालक भविष्य में कोई असाधारण व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष होगा। आपकी माता जी से मैंने सुना है कि जब आप बालक थे तो आपको अच्छी वस्तुएं खाने के लिए देने पर आप उन वस्तुओं को उपस्थित बालकों में बाँट देते थे; यदि वस्तु बच जाती तब स्वयं ग्रहण करते।
विद्यार्थी काल में भी आपके अध्यापक आपकी ज्ञानयुक्त बातें सुनकर विस्मित हो जाते थे । एक घटना इस प्रकार हुई – एक बार दोस्तों के साथ खेलकूद प्रतियोगिता केसमय दौड़ में आप सबसे आगे निकल गए परन्तु एक वृक्ष से टकरा गए जिससे आपके शरीर में बहुत सी चोटें आ गयीं और खून की धाराएं बहने लगीं तो सह-प्रतियोगी बालकों ने ये बात आपके अध्यापक को बताई । सभी बालक आपको चोट लगने की बात सुनकर तुरन्त घटना स्थल पर दौड़े चले आए और आपको उठाकर आपके घावों को साफ करने व दवाई लगाने लगे तथा अनेक प्रकार से आपको समझाने लगे ताकि आपको अधिक कष्ट महसूस न हो। तब आपने उनसे कहा –“ आप मेरे विषय में ज़्यादा चिन्ता न करें, मैं शीघ्र ही ठीक हो जाऊँगा। भगवान जो भी करते हैं, सब मंगल के लिए ही करते हैं । मेरे तो आँख, नाक, कान सभी नष्ट हो जाने थे परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मेरे पूर्व जन्मों के बुरे कर्मों का फल और भी खराब था, परन्तु भगवान की कृपा के कारण वैसा हुआ नहीं।” बालक के मुख से ये अति अद्भुत ज्ञान की बात सुनकर अध्यापकों ने तत्काल सभी के सामने यह घोषणा की कि यह बालक सामान्य बालक नहीं है।
उच्च श्रेणियों में पढ़ते समय आपने दरिद्र बालकों की सहायता के लिए बहुत परिश्रम करके एक पुस्तकाल्य (Library)और बिना मूल्य की पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी की थी ।
रूप- लावण्ययुक्त सुदृढ़ देह , स्वभाव में मधुरता , अद्भुत न्यायपरायणता और सहनशीलता आदि गुण स्वाभाविक ही आप में थे । इसलिए बाल्यावस्था, किशोरावस्था, यौवनावस्था में सदा ही आपको प्रधान नेतृत्व पद प्राप्त होता रहा।
आपको नेतृत्व की प्राप्ति प्रार्थना करके या वोट द्वारा प्राप्त नहीं होती थी बल्कि स्वाभाविक ही अपने गुणों के प्रभाव से प्राप्त हो जाती थी । आपके गुणों से आकृष्ट होकर सब लोग,सभी अवस्थाओं में आपको नेता चुनकर सुख अनुभव करते थे । वास्तविकता यही थी कि उनकी स्वाभाविकी गुरुता, आदर्श प्रियता और योग्यता ही सदैव उनको नेतृत्व पद प्रदान करती थी । सुपुरुष तथा दीर्घाकृति रहने के कारण आप यौवनकाल में खेलों में बहुत ही निपुण थे । इसलिए खिलाड़ी भी सदा आपको अपना कप्तान बना लेते थे । नाटक आदि में भी अभिनय करने की भी आपमें अत्यन्त अद्भुत कुशलता थी जिससे आपको इस क्षेत्र में भी नेतृत्व पद प्राप्त होता रहा। इस प्रकार कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जिसमें आपको स्वाभाविक ही दक्षता और प्रवीणता प्राप्त नहीं हुई। यही नहीं, समस्त परोपकारी संस्थाओं में भी नेता के रूप में आप ही उनकी परिचालना करते रहे। देश की स्वाधीनता के आन्दोलन में भी आपने अपने आप को नियोजित किया था।
श्रीगुरुदेव आदर्श मातृ भक्त थे। आपकी माता जी आपको अपने पास बिठाकर विभिन्न शास्त्र-ग्रन्थों का स्वयं पाठ करती थी एवं आपके द्वारा भी पाठ कराती थीं । इस प्रकार वह धर्मपरायण माता, आपका धर्म विषय में तथा ईश्वर आराधना में उत्साह बढ़ाती थीं। नियमित रूप से प्रतिदिन गीता पाठ करते-करते आपको 11 वर्ष की आयु में ही सारी गीता कण्ठस्थ हो गयी थी। श्रीगुरुदेव जी की शिक्षा कांचनपाड़ा ग्राम तथा भट्ट ग्राम में हुई थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसके बादआप कलकत्ता आ गए। कलकत्ता आने पर हृदय में भगवान के लिए विरह-व्याकुलता बहुत तीव्र हो गई। आपके पूर्वाश्रम के सम्बन्धी श्रीनारायण मुखोपाध्याय आपको आपके कमरे में व्याकुलता से भगवान को पुकारते हुए और रोते हुए देखा करते थे। उस समय आप दिन में एक बार ही खाना खाते थे और सब समय भगवान के चिन्तन में बिताते थे।
एक रात श्रीगुरुदेव जी ने एक अपूर्व स्वप्न देखा कि नारद ऋषि जी ने आकर आपको सांत्वना दी तथा मन्त्र प्रदान किया और कहा इस मन्त्र के जप से तुम्हें सबसे प्रिय वस्तु की प्राप्ति होगी ….. परन्तु स्वप्न टूट जाने के पश्चात् बहुत चेष्टा करने पर भी वह सारा मन्त्र आपको याद नहीं हो पाया। मन्त्र भूल जाने पर आपके मन और बुद्धि में अत्यन्त क्षोभ हुआ और दु:ख के कारण आप मोहित हो गए। सांसारिक वस्तुओं से उदासीनता चरम सीमा पर पहुँच गई और आपने संसार को त्याग देने का संकल्प लिया। उस समय आपकी माता जी दुर्गापुर में रहती थीं। आप अपनी माता जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ‘दुर्गापुर’- पहुँच गए। आपकी भक्तिमती माता जी ने भी आपके संकल्प में बाधा नहीं दी। तब क्या था – भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा को लेकर व संसार को त्याग कर आपने हिमालय की ओर प्रस्थान किया। लोहा जिस प्रकार चुम्बक द्वारा खींचे जाने पर किसी बाधा की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जब आत्मा में भगवान का तीव्र आकर्षण उपस्थित होता है तब जगत का कोई भी बन्धन या बाधा उसको रोकने में समर्थ नहीं होती।
हृदय में तीव्र इच्छा को लेकर आप हरिद्वार आ गए। यहाँ से अकेले ही बिना किसी सहायता के हिमालय पर्वत पर चले गए। जंगलों से घिरे हुए निर्जन पहाड़ पर तीन दिन और तीन रात भोजन और निद्रा का त्याग करके आप एकाग्रचित होकर, अत्यन्त व्याकुलता के साथ मत्त होकर भगवान को पुकारते रहे । भगवान के दर्शनों की तीव्र इच्छा होने के कारण आपका बाह्य ज्ञान जैसे लुप्त प्राय: हो गया था। उसी समय वहां आकाशवाणी हुई , आप जहाँ पहले रहते थे वहाँ आपके होने वाले श्रीगुरुदेव जी का आविर्भाव हो चुका है, इसलिए आप अपने स्थान को वापस लौट जाओ- दैववाणी के आदेश को शिरोधार्य करके आप हिमालय से नीचे हरिद्वार आ गए । यहाँ आपने कुछ दिन ठहरने का निश्चय किया । यहीं पर एक दिन एक साधु पुरुष से आपकी भेंट हो गई । उनको आपने अपनी दैववाणी की कथा सुनाई और उन्हें उपदेश करने की प्रार्थना भी की, तो उन्होंने भी आपको घर लौट जाने की सम्मति दी और कहा कि वहां ही आपको श्री सद्गुरु की प्राप्ति होगी । तब आपने यह निश्चय किया कि कुछ दिन पवित्र तीर्थ-स्थान हरिद्वार में ठहर कर वापस कलकत्ता जाऊँगा । परन्तु दैवचक्र से कुछ दिन हरिद्वारमें रहने की अभिलाषा में विघ्न आ उपस्थित हुआ। घटना क्रम में उन्हीं दिनों हिन्दीभाषी क्षेत्र का रहने वाला धनी व्यक्ति जो अपनी धर्म-पत्नी को साथ लेकर तीर्थ-स्नान व दर्शन करने आया था, की आपसे उस समय भेंट हुई जब आप ब्रह्मकुण्ड में स्नान करके आ रहे थे । आपकी यौवनावस्था और सुन्दरता को देखकर दोनों आकर्षित हुए और उन्होंने आपको बहुत से फल और मिठाई भेंट की तथा आपको अपने वास स्थान पर चलने के लिए बार-बार प्रार्थना की । प्रतिदिन इसी प्रकार भेंट देने और बार-बार अनुरोध करने पर, सदाचारता के नाते आप एक दिन उनके घर चले गए। सेठ और सेठानी ने आपको बहुत सी खाने की वस्तुएं दी और आपके साथ बहुत प्यार और स्नेह का व्यवहार किया तथा बाद में यह प्रस्ताव रखा कि यदि आप उनके प्रतिपाल्य पुत्र बन जाए; (क्योंकि उनके कोई संतान न थी) तो आप उनकी सारी सम्पत्ति के अधिकारी बन सकते हैं।
आपके समक्ष वे ऐसा प्रस्ताव रखेंगे, आपने कभी सोचा भी न था । मन-ही-मन आपने चिन्ता की – “मैं तो संसार छोड़कर आया हूँ, परन्तु माया मुझे एक अन्य तरीके से आकर्षण करना चाहती है।” आपने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और आप उनके वास-स्थान से चले आए । किन्तु सेठ-सेठानी आपके प्रति इतने स्न्हाविष्ट हो गए थे कि वे प्रतिदिन आपके पास जाकर अपना प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए हठ करने लगे । जिस हृदय में भगवान को पाने की निष्कपट इच्छा व तीव्र व्याकुलता हो तो उस हृदय को जगत का कोई भी प्रलोभन खींच नहीं सकता, परन्तु जो विषयों की अभिलाषा रखते हैं ऐसे पुरुषों द्वारा इस प्रकार विपुल सम्पत्ति का अधिकारी बनने के सुअवसर का परित्याग सम्भव नहीं है। हृदय में भोगों की आकांक्षा न होने एवं श्रीभगवान की आराधना की निष्कपट तीव्र इच्छा होने के कारण आपने इस प्रस्ताव को विपदायुक्त समझा और उसे ग्रहण न करके हरिद्वार में अधिक ठहरने की इच्छा को छोड़ कर कलकत्ता वापस आ गए। यह घटना लगभग 1925 की है।
इसी वर्ष श्रीलगुरुदेव अपने बचपन के दोस्त श्रीनारायण चन्द्र मुखोपाध्याय आदि के साथ श्रीमायापुर धाम में पहुँचे। वहीं श्री चैतन्य मठ में आपने श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के प्रथम दर्शन किए। श्रील प्रभुपाद जी के महापुरुषोचित अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर आप उनकी ओर आकृष्ट हुए थे । उस समय हरिकथा कहते-कहते श्रील प्रभुपाद जी ने आपको कहा था कि श्री विग्रहों का दर्शन करना ठीक बात है। किन्तु दर्शन करने से पहले दर्शन करने का तरीका सीखना होगा। काम नेत्रों के द्वारा दर्शन नहीं होते हैं, प्रेम नेत्रों के द्वारा देखना होगा। उसी दिन एस.एन. घोष अपनी पत्नी सहित श्रील प्रभुपाद जी से दीक्षित हुए थे।
मायापुर से कलकत्ता वापस आकर आप प्रतिदिन नियमित रूप से श्रील प्रभुपाद जी के पास नम्बर 1 उल्टाडांगा, जंक्शन रोड पर स्थित मठ में हरिकथा सुनने के लिए जाने लगे। वैष्णव सेवा द्वारा हरिभजन में आने वाली सब बाधायें दूर होंगी और शीघ्र ही भगवद् कृपा की प्राप्ति होगी, इस विचार से आप गुप्त रूप से वैष्णव सेवा के लिए मठ में बहुत सा द्रव्य भेजने लगे। उन दिनों आपने विभिन्न शास्त्रों के अध्यन्न की लीला भी प्रकाशित की। श्रील प्रभुपाद जी के मुखारविन्द से श्रीमहाप्रभु जी की शिक्षा और सिद्धान्त सुन कर, उसे अधिक युक्तिसंगत जानकर हृदयंगम् कर लिया। 4 सितम्बर,सन् 1927, श्री राधाष्टमी की शुभ तिथि को उल्टाडांगा,जंक्शन रोड पर स्थित श्रीगौड़ीय मठ में प्रभुपाद जी का चरणाश्रय लेते हुए श्रीहरिनाम और दीक्षा मन्त्र ग्रहण किया।दीक्षित होने के बाद आप हयग्रीव दास ब्रहमचारी नाम से परिचित हुए। आपकी दीक्षा के समय वैष्णव-होम इत्यादि आचार्यदास देवशर्मा महोदय जी ने किया था।
दीक्षा ग्रहण के कुछ समय बाद ही श्रील गुरुदेव कृष्ण व कार्ष्ण (भक्त) की सेवा में सम्पूर्ण रूप से आत्मनियोग करने के लिए मठवासी हो गए। आप आजीवन ब्रह्मचारी थे अर्थात् गृह परित्याग करते हुए नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा बृहद्व्रती रूप से आपने मठ में प्रवेश किया था। आपकी ऐकान्तिक गुरु-निष्ठा, विष्णु-वैष्णव सेवा के लिए सदैव तत्परता और सेवाओं में बहुमुखी योग्यता ने आपकी बड़े थोड़े समय में ही श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के पार्षद के रूप में गिनती करवा दी । आपकी आलस्यरहित महा-उद्यम-युक्त सेवा-प्रचेष्टा तथा सब कार्यों में आपकी सफलता को देख कर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद कहा करते थे कि आपमें अद्भुत Volcanic Energy है ।
श्रील प्रभुपाद जी के विराट प्रतिष्ठान को चलाने के लिए व पाश्चात्य देशों में श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करने के लिए बहुत अधिक खर्चा हुआ करता था, जो कि भिक्षा द्वारा संग्रह किया जाता था। संग्रहकारियों में हमारे श्रील गुरुदेव जी भी एक श्रेष्ठ संग्रहकारी थे। जिन लोगों को भी आपकी रमणीय गौर-कान्ति युक्त श्रीमूर्ति का दर्शन तथा आपके श्रीमुख से हरिकथामृत पान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वे लोग आपके प्रति आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सके। आपके दर्शन मात्र से बहुत से लोग अपने अन्दर आपको सेवा देने की स्वत: प्रेरणा प्राप्त कर सेवा देने को उतावले हो जाते थे । बहुत से लोग आपके द्वारा कुछ सेवा प्रदान किए जाने का आग्रह भी किया करते । श्रील प्रभुपाद जी के निर्देशानुसार मद्रास में दीर्घकाल तक अवस्थान करते हुए आपने मद्रास गौड़ीय मठ की ज़मीन संग्रह एवम् श्रीमन्दिर, साधु निवास, सत्संग-भवन निर्माण आदि विषयों में मुख्य रूप से यत्न किया था । इस कार्य के लिए आपने अपने ज्येष्ठ सतीर्थ (बड़े गुरु भाई) परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज और परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति हृदय वन महाराज जी से विशेष प्रेरणा ली थी । इन सब कार्यों में होने वाले खर्चों के लिए आपने विपुल प्रचेष्टा की थी, इसलिए मद्रास के प्रधान-प्रधान व्यक्ति आपके साथ विशेष भाव से परिचित हो गए थे ।
जनसाधारण में भगवद् स्मृति उदय कराने के लिए श्रील प्रभुपादजी ने कलकत्ता, ढाका, पटना, काशी आदि विशेष-2 स्थानों में सद्शिक्षा प्रदर्शनियों की व्यवस्था की, भारत के विभिन्न स्थानों में एवं विदेश में भी मठ एवं प्रचार केन्द्रों की स्थापना की, श्री ब्रजमण्डल परिक्रमा और नवद्वीपधाम परिक्रमा के आयोजन किए, विभिन्न शहरों व ग्रामों में श्रीचैतन्य वाणी का प्रचार व नगर-संकीर्तन शोभा–यात्राओं की व्यवस्था की,श्रीमन् महाप्रभु जी के पदाँकपूत स्थानों की स्मृति संरक्षण हेतु भारत के विभिन्न स्थानों में पादपीठों की स्थापना की, व लुप्त तीर्थों का उद्धार किया, शुद्ध भक्ति शास्त्रों का प्रचार किया तथा दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक पारमार्थिक पत्रिकाओं की विभिन्न भाषाओं में प्रकाशन की व्यवस्था की, इस प्रकार श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी के प्रचार के लिए श्रील प्रभुपाद ने जो महान उद्योग किया था, हमारे श्रील गुरुदेव ने उन सभी सेवाओं में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। अधिकांश क्षेत्रों में श्रील प्रभुपाद जी श्रील गुरुदेव को पूर्व व्यवस्था के लिए पहले भेजते थे। श्रील प्रभुपाद जी को श्रीगुरुदेव जी के प्रति इस प्रकार दृढ़ आस्था व विश्वास था कि इन्हें किसी भी कार्य में भेजने से वह अवश्य ही सुचारु रूप से सम्पादित होगा। आन्ध्र प्रदेश में राजमहेन्द्री ज़िले के अन्तर्गत गोदावरी नदी के किनारे गोष्पद-तीर्थ के समीप ही श्रीमन् महाप्रभु के अन्तरंग पार्षद श्री रायरामानन्द जी की स्मृति संरक्षण हेतु श्रील प्रभुपाद जी ने जिस ‘श्री रामानन्द गौड़ीय मठ’ की स्थापना की थी, उसके लिए ज़मीन संग्रह और मठ निर्माणादि के कार्यों में श्रील गुरुदेव जी ने मुख्य रूप से चेष्टा की थी।
श्रील गुरुदेव जी की मूर्ति परम सुन्दर थी। आपका व्यक्तित्व अलौकिक था व आपका व्यवहार अतीव माधुर्यपूर्ण था। आप में अति आधुनिक युक्तियों और अकाट्य शास्त्र-प्रमाणों के द्वारा समझाने की ऐसी क्षमता थी कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी आपके वशीभूत हो जाता था व आपको सन्तुष्ट कर सकने पर अपने को कृतार्थ समझता था। श्रील प्रभुपाद जी की मनोभीष्ट सेवा ही श्रील गुरुदेव जी का ध्यान, ज्ञान, जप व सर्वस्व था। सेवा कार्य के बिना खाये व बिना सोए प्राणपन से जिस प्रकार आपने परिश्रम किया, आधुनिक युग के सेवक उस सेवा परिश्रम की कल्पना भी नहीं कर सकते। आपका अपने गुरुदेव के प्रति जिस प्रकार ऐकान्तिक व निष्कपट आनुगत्यथा, वह एक आदर्श है। आप अपने गुरुदेव जी के निर्देश के बगैर कभी भी किसी काम में उत्साही नहीं होते थे। चूंकि आप श्रील प्रभुपाद जी के पादपद्मों में सर्वतोभाव से प्रपन्न हुए थे, इसलिए श्रील प्रभुपाद जी ने भी आपमें अपनी समस्त शक्ति का संचार किया था ।
श्रील गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद जी के कितने आस्था-भाजन, प्रिय व अन्तरंग सेवक थे, वह आसाम प्रदेश के सरभोग गौड़ीय मठ में हुए श्रीश्रीगुरु गौरांग गांधर्विका-गिरिधारी जी के विग्रह प्रतिष्ठा उत्सव के अवसर पर कही गयी प्रभुपाद जी की उक्तियों से जाना जाता है। अपने प्रकट-काल में प्रभुपाद जी ने जिन 64 मठों की स्थापना की थी उनमें से आसाम प्रदेश के अन्तर्गत कामरूप ज़िला (वर्तमान में वरपेटा ज़िला के अन्तर्गत) सरभोग स्थित श्री गौड़ीय मठ भी एक है । श्रील प्रभुपाद जी ने गुरुदेव जी को उनके ज्येष्ठ सतीर्थ त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज तथा श्री जानकी बल्लभ आदि सेवकों के साथ महोत्सव की पूर्व व्यवस्था आदि के लिए सरभोग भेजा। उस समय गुरुदेव जी के ज्येष्ठ गुरु भाई त्रिदण्डि स्वामी श्री भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी के ऊपर मठ का दायित्व था। मठ में पहुँच कर वे यह देख कर विस्मित हो गए कि वहां महोत्सव की कुछ भी व्यवस्था नहीं हुई थी । श्रील गुरुदेव जी का ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व था कि वे किसी कार्य का दृढ़ संकल्प लेने के बाद पीछेनहीं हटते थे और न ही कभी निरुत्साहित होते थे । हुआ भी ऐसा ही । श्रील प्रभुपाद जी के अपने निजजनों के साथ मठ में पहुँचने से पहले ही श्रील गुरुदेव ने कठिन परिश्रम से प्रभुपाद व उनके पार्षदों के ठहरने के लिए अस्थायी व्यवस्था कर दी।
15 मार्च सन् 1936 को प्रात: 06:30 बजे जब श्रील प्रभुपाद अपने निजजनों,जिनमेंश्रीमद् कुंज बिहारी विद्याभूषण प्रभु, श्रीरमानन्द विद्यारत्न प्रभु,श्रीमद् वासुदेव प्रभु,श्रीमद् कीर्तनानन्द ब्रह्मचारी,श्रीमद् सज्जन महाराज तथा श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी के नाम मुख्य हैं – के साथ सरभोग रेलवे-स्टेशन पर पहुँचे तो, श्रील गुरुदेव तथा स्थानीय भक्तों द्वारा उनका खूब धूमधाम के साथ स्वागत किया गया । श्रील प्रभुपाद तीन दिन वहां रहे। इन दिनों मठ में रोज़ महोत्सव होता रहा – जिसमें सैंकडों-सैंकड़ों नर-नारियों को नाना प्रकार के प्रसाद से परितृप्त किया जाता रहा।
दूसरे दिन श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा का समय आया। श्रीविग्रह प्रतिष्ठा की समस्त व्यवस्था का सेवा भार श्रील प्रभुपाद जी ने श्रीमद्भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज जी पर दिया था। उन्होंने श्री श्रीगुरुगौरांग गांधर्विका-गिरिधारी जी के विग्रहों को मन्दिर के अन्दर पुष्प मालादि के द्वारा सुसज्जित करके रख दिया ।
शुभ मुहूर्त के समय अर्थात् प्रात:10 बजे जब श्रील प्रभुपाद जी ने मन्दिर में प्रवेश किया और देखा कि सभी विग्रह सुसज्जित हैं तो श्रीविग्रहों को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए बोले-‘श्री विग्रह तो प्रकाशित ही हैं।’ श्रील प्रभुपाद जी के ये वाक्य सुनकर पूज्यपाद श्रीमद्भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज अनुतप्त हो उठे और सोचने लगे कि श्रील प्रभुपाद जी को जो करना था वह मैंने ही कर दिया, इसमें अवश्य ही मेरा अपराध हुआ है । इसके बाद श्री श्री गुरु-गौरांग-गांधर्विका–गिरिधारी जी के श्रीविग्रह संकीर्तन, वैष्णव होम आदि वैष्णव स्मृति के विधानानुसार महामहोत्सव के साथ प्रतिष्ठित हुए।
विग्रह-प्रतिष्ठा-उत्सव के अन्त में वहाँ के मठ रक्षक, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी ने श्रील गुरुदेव जी से अनेक बार अनुरोध किया कि वे प्रभुपाद जी को बताएँ कि – “निमानन्द प्रभु जी, जिन्हें विग्रह-प्रतिष्ठा-उत्सव की सारी व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी, वह उन्होंने नहीं निभाई।”
प्रभुपाद जी को सुन कर सुख नहीं होगा, ऐसा सोचकर पहले तो श्रीलगुरुदेव उनकी बात को टालते रहे परन्तु श्रीमद् भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी के बार-बार अनुरोध करने पर, अपने बड़े गुरु-भाई के वाक्य की मर्यादा रक्षा करने के लिए – जब प्रभुपाद जी टहल रहे थे और आप उनके पीछे-पीछे चलकर पंखा करते हुए मक्खियाँ उड़ा रहे थे – उस समय और बात करते-करते अपने पूज्यपाद आश्रम महाराज जी की बात भी कह दी। घटना सुनकर श्रील प्रभुपाद जी क्रोधित हो उठे और उन्होंने आपको डांटा।
मेरी बात से श्रील प्रभुपाद जी को सन्तोष नहीं हुआ- ऐसा सोचकर श्रीलगुरुदेव जी का हृदय संतप्त (दु:खी) हो उठा। परन्तु तुरन्त ही अपने भावों को बदलते हुए श्रील प्रभुपाद स्नेह सूचक वाक्यों से श्रील गुरुदेव जी की प्रशंसा करने लगे। अपनी प्रशंसा सुनकर श्रील गुरुदेव जी को सुख नहीं हुआ। कारण, गुरुदेव जी ने सोचा कि श्रील प्रभुपाद जी को आशंका हुई कि शायद मैं उनकी डांट सहन नहीं कर सकूँगा। श्रील प्रभुपाद जी श्रील गुरुदेव जी को अनेक मूल्यवान उपदेश देते हुए प्रकारान्तर से ये बताने लगे कि वे उनके अन्तरंग प्रियजन हैं। श्रील प्रभुपाद जी ने सबसे पहले ही कहा –‘अत चाओ केन, आर कष्ट पाओ केन’। अमुक व्यक्ति इतनी सेवा करेगा, इस प्रकार आशा करना ठीक नहीं हैं क्योंकि गुरु सेवा के जितने भी कार्य हैं वे सब तुम्हारे हैं। उसमें दूसरा यदि कोई सेवा करता है तो उसके लिए तुम्हें उसका कृतज्ञ रहना होगा। देखो, कृष्ण की गृहकत्री (Majordomo) श्रीमती राधिका जी हैं। श्रीमती राधिका जी समझती हैं कि कृष्ण की सभी सेवाएं उनकी ही करणीय हैं। यदि कोई किसी सेवा में उनकी कुछ सहायता करता है तो वे उसके पास कृतज्ञ रहती हैं। यहां श्रील प्रभुपाद जी का हृदयगत भाव ये है कि उनकी सब सेवाएं श्रील गुरुदेव द्वारा ही करणीय हैं। यदि कोई उसमें उनकी किसी प्रकार सहायता करता है तो वो उनके कृतज्ञ रहें। श्रील प्रभुपाद जी के उक्त वाक्यों द्वारा श्रील गुरुदेव उनके अन्तरंग निजजन हैं, स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है। श्रील प्रभुपाद जी की जिस प्रकार आजानुलम्बित बाहु, दीर्घाकृति, गौरकान्ति तथा सौम्य मूर्ति थी, श्रील गुरुदेव जी की भी उसी प्रकार आजानुलम्बित बाहु, दीर्घाकृति, गौरकान्ति और सौम्य मूर्ति थी, जिसे देख अनेक लोगों को श्रील गुरुदेव जी के प्रति श्रील प्रभुपाद जी के पुत्र होने का भ्रम होता था।
शरणागति की महिमा को समझाने के लिए श्रील गुरुदेव अपने आश्रित वर्ग को उपदेश देते समय सरभोग गौड़ीय मठ की बात अक्सर कहा करते थे। वे कहते थे कि सरभोग गौड़ीय मठ में श्रीविग्रह प्रतिष्ठा के समय श्रील प्रभुपाद जी ने जो करना था वह गलती से पूज्यपाद श्रीधर महाराज जी द्वारा पहले ही सम्पन्न कर दिये जाने के कारण श्रीधर महाराज मन ही मन बहुत चिन्तित हो उठे थे कि उनका गुरु-चरणों में अपराध हो गया है। (अत: उन्होंने गुरुदेव जी को अपने मन की अशान्ति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि वे प्रभुपाद जी के पादपद्मों में मेरी ओर से क्षमा याचना करें और कहें कि अज्ञानता वश ही उनसे ये अपराध हो गया है।)
श्रील गुरुदेव जी ने पूज्यपाद श्रीधर महाराज का अनुरोध पत्र द्वाराश्रील प्रभुपाद जी के चरणों में निवेदन किया। श्रील प्रभुपाद जी ने उसके उत्तर में लिखा –‘शरणागत का कभी भी अपराध नहीं होता।’शरणागत की त्रुटि शरण्य नहीं देखते, हमेशा सुधार करते हैं, कारण, शरणागत केवल शरण्य की सेवा के लिए, अन्य मतलब रहित समर्पितात्मा है; जबकि अन्य अभिलाषाओं से युक्त अशरणागत का कदम-कदम पर अपराध होने की आशंका है।

पश्चिम देशों में प्रचार के लिए भेजने का प्रस्ताव
पाश्चात्य देशों में भी श्रीमन्महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार हो- श्रील प्रभुपाद का इस प्रकार आग्रह होने से उन्होंने श्रील गुरुदेव जी को इस कार्य के उपयुक्त समझकर उन्हें भेजना निश्चित किया।
श्रील प्रभुपाद जी के निर्देशानुसार श्रील गुरुदेव तथा अन्य दो सेवकों के फोटो खींचे गए तथा पासपोर्ट की व्यवस्था भी हो गयी। विदेश में प्रचार के लिए जाना जब पूरी तरह से निश्चित हो गया तभी राजर्षि कुमार शरदिन्दु नारायण राय जी ने प्रभुपाद जी को कहा- विलायत परियों का देश है। वहां कम उम्र के सुन्दर युवक को भेजना मैं उचित नहीं समझता हूँ। किसी वयस्क व्यक्ति को भेजना उचित होगा । श्रील प्रभुपाद जी ने राजर्षि शरदिन्दु की बात को गम्भीरता से लिया और श्रील गुरुदेव की बजाए श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज जी को भेजना निश्चित किया तथा श्रील गुरुदेव जी को विदेश प्रचार में होने वाले खर्चे के संग्रह करने की आज्ञा दी । श्रील गुरुदेव जी को मन-मन में आशंका थी कि श्रील प्रभुपाद अब अधिक दिन प्रकट नहीं रहेंगे । इसलिए जब उन्हें विदेश में भेजना निश्चित हुआ था तो वे इसी चिन्ता में व्याकुल रहते थे कि जब वे वापस आएंगे तो पता नहीं उन्हें श्रील प्रभुपाद जी के दर्शन हो सकेंगे कि नहीं । जब श्री राजर्षि शरदिन्दु नारायण के परामर्श से श्रील प्रभुपाद जी ने उनका विदेश जाना रोक दिया तो श्रील गुरुदेव इसमें अपना मंगल अनुभव करने लगे ।
आप में भक्ति-सिद्धान्तों के प्रतिकूल विचारों को खण्डन करने, भक्ति के अनुकूल विचारों को स्थापन कर समझाने की अति-अद्भुत क्षमता एवं आपका अमानी-मानद स्वभाव देखकर श्रील प्रभुपाद जी ने आपको 4 अक्तूबर सन् 1936 में बंगाल के श्रेष्ठ पंडित श्री पंचानन तर्करत्न, जो कि नेहाटी भट्ट पल्ली में रहते थे, के साथ साक्षात्कार करने के लिए भेजा। पंडित श्रीपंचानन तर्करत्न महोदय का ब्राह्मण व पंडित अभिमान अत्यन्त प्रबल था । उन्होंने श्रील प्रभुपाद जी के शास्त्र युक्ति सम्मत देववर्णाश्रम धर्म विचार की तीव्र समालोचना की थी । तर्करत्न की इस प्रकार गलत समालोचना से अनेक श्रेय प्रार्थी जीवों का अकल्याण हो सकता है, इस आशंका से ही श्रील प्रभुपाद जी ने श्रीगुरुदेव जी को यह दायित्व दिया था । पंचानन तर्करत्न महोदय ब्राह्मण को छोड़ और किसी को भी मर्यादा नहीं देते थे । इसलिए श्रील प्रभुपाद जी ने श्रील गुरुदेव को अपने पूर्वाश्रम के श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल का परिचय व नाम बतलाने को कहा, यहां तक कि प्रभुपाद जी ने आपको वैष्णव चिन्हों से रहित होकर जाने को कहा ।
प्रभुपाद जी के निर्देश को शिरोधार्य करके आप निश्चित तिथि को प्रात: 8:30 बजे नेहाटी काठालपाड़ा निवासी श्री प्रफुल्ल कुमार चट्टोपाध्याय के साथ श्री पंचानन तर्करत्न महाशय के घर पहुँचे। वहां पर सर्वप्रथम आपका साक्षात्कार उनके योग्य पुत्र श्री जीव न्यायतीर्थ (एम.ए.) के साथ हुआ। बाद में तर्करत्न महाशय की आपके साथ लगभग दो घण्टे जो शास्त्रालोचना करने से उन्हें जो अभिज्ञता हुई वह आपने बातचीत के प्रसंग में अपने आश्रित वर्ग (शिष्यों) को भी बताई। आपने कहा, “श्री पंचानन तर्करत्न महोदय का अगाध पांडित्य था, इसमें कोई सन्देह नहीं। बहुत से शास्त्रों के श्लोक उनको कण्ठस्थ थे परन्तु सिद्धान्त-विषय में वे अनेक स्थानों पर सुसमाधान न दे सके, वे विचार करते-करते blind lane में पहुंच कर प्रश्नों के सही उत्तर देने में असमर्थ हो गए थे।”
इतने बड़े पंडित होते हुए भी ऐसा कैसे हुआ? इस सम्बन्ध में बोलते हुए श्रील गुरुदेव जी ने कहा कि पंडित महाशय का शुद्ध भक्त संग या वास्तविक साधु संग नहीं हुआ था। शुद्ध साधु के आनुगत्य व उनके संग को छोड़कर सिद्धान्त विषय में पारंगति नहीं हो सकती।
श्री पंचानन तर्करत्न के साथ श्रील गुरुदेव जी की जो दीर्घ आलोचना हुई थी, उसके मुख्य-मुख्य विषय श्री गौड़ीय मठ में प्रकाशित ‘पारमार्थिक’ साप्ताहिक पत्रिका के 15वें वर्ष की 13वीं तथा 15वीं संख्या में प्रकाशित हुये थे, जो कि उस समय श्रील प्रभुपाद जी के निर्देशानुसार बंगला भाषा में प्रकाशित होती थी ।
यह सन् 1930 की बात है, जब श्रील प्रभुपाद जी प्रकट थे । श्रीप्रभुपाद जी के प्रकट काल में कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्री कृष्ण-जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में विशाल धर्म-सम्मेलन होता था जो कि एक महीने तक चलता था। इस सम्मेलन में प्रतिदिन कोई न कोई विशिष्ट व्यक्ति सभापति का आसन ग्रहण करता था। उक्त धर्म सम्मेलन में भारत के विख्यात वैज्ञानिक डा॰ सी॰ वी॰ रमन के छात्र भी श्री गौड़ीय मठ के विद्वान स्वामियों के प्रवचनों को सुनने के लिए आते थे। एक दिन सभी छात्र मिल कर श्रील प्रभुपाद जी के पास गए और उन्होंने निवेदन किया कि हम देखते हैं कि आपके इस धर्म सम्मेलन में प्रतिदिन कलकत्ता के किसी न किसी विशिष्ट व्यक्ति को सभापति के आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित किया जाता है परन्तु हमारे अध्यापक डा॰ सी॰ वी॰ रमन जी को निमन्त्रित नहीं किया जाता। ऐसा क्यों? उनका नाम तो सारे विश्व में विख्यात है।
छात्रों की बात सुनकर श्रील प्रभुपाद जी ने कहा कि उनको निमन्त्रण करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है । ऐसा कह के श्रील प्रभुपाद जी ने हमारे गुरुदेव जी को निर्देश दिया कि वे डा॰ सी॰ वी॰ रमन जी को धर्म-सम्मेलन में सभापति पद ग्रहण करने के लिए निमन्त्रण दें।
श्रील गुरुदेव जी डा॰ रमन जी से मिलने पहले उनके घर गए परन्तु डा॰ रमन उस समय घर पर नहीं थे। उनकी स्त्री ने बताया कि इस समय वे सरकुलर रोड पर स्थित अपनी Laboratory (गवेषणागार) में होंगे। श्रीमती रमन का जवाब सुनकर श्रील गुरुदेव जी एक चपरासी के साथ, जो कि श्रीमती रमन ने ही श्रील गुरुदेव जी के साथ भेजा था, डा॰ रमन जी की लेबोरेटरी पर पहुँचे। डा॰ रमन जी के साथ जब श्रील गुरुदेव जी का साक्षात्कार हुआ, उस समय वे अपनी लेबोरेटरी की दूसरी मंज़िल में स्थित एक बड़े हाल के कोने में बैठे हुए अकेले ही कुछ गवेषणा कर रहे थे। डा॰ रमन बंगला या हिन्दी अच्छी तरह नहीं जानते थे, इसलिए श्रील गुरुदेव जी की उनके साथ अंग्रेज़ी में ही बातचीत हुई।
सर्वप्रथम डा॰ रमन जी ने श्री गुरुदेव जी से उनके आने का कारण पूछा तो श्री गुरुदेव जी ने कहा – “कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्री कृष्ण-जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में मासव्यापी धर्म-सम्मेलन होता है, जिसमें प्रतिदिन कलकत्ता के कोई न कोई विशिष्ट सज्जन सभापति का आसन ग्रहण करते हैं। आप भी एक दिन सभापति के आसन को अलंकृत करें, ये ही हमारी प्रार्थना है।”
श्रीगुरुदेव जी की बात सुन कर डा॰ रमन जी ने कहा – “तुम्हारे केष्ट्विष्ट को (यानि कृष्ण-विष्णु को) मैं नहीं मानता हूँ, इन्द्रियोंद्वारा जो प्रत्यक्ष नहीं होती, ऐसी काल्पनिक वस्तुओं के लिए मैं समय नहीं दूंगा। मेरा समय बहुत कीमती है। हाँ, विज्ञान या शिक्षा के विषय में कोई सभा होने से मैं जा सकता हूँ।”
श्रील गुरुदेव : आपके छात्र प्रतिदिन बाग बाज़ार स्थित गौड़ीय मठ में स्वामी जी लोगों के भाषण सुनने के लिए आते हैं। उसी सभा में हम कलकत्ता के विशिष्ट व्यक्तियों को सभापति बनाते हैं। आपके छात्रों की ही इच्छा है कि एक दिन आप भी सभापति का आसन ग्रहण करें। अपने गुरुदेव जी के निर्देशानुसार मैं आपको निमन्त्रण देने आया हूँ। आप हमारी प्रार्थना को मंजूर कर लीजिये।
डा॰ रमन : क्या तुम अपने भगवान को दिखा सकते हो? यदि दिखा सको, तो जाऊँगा।
[जिस हाल (Hall) में बातचीत हो रही थी, उस हाल की एक ओर कोई भी खिड़की या दरवाजा नहीं था, सिर्फ एकलम्बीदीवार थी जिसके दूसरी ओर पूरा उत्तरीकलकत्ता था] ।
श्रील गुरुदेव :अपने सामने खड़ी इस दीवार के पीछे मैं कुछ नहीं देख पा रहा हूँ, यदि मैं कहूँ कि इस दीवार के पीछे कुछ नहीं है, तो क्या मेरी बात सच होगी ?
डा॰ रमन : तुम नहीं देख सकते हो, परन्तु मैं अपने यंत्र के द्वारा देख लूंगा।
श्रील गुरुदेव : यन्त्र की भी तो एक सीमा है। जितनी दूर यन्त्र की योग्यता है, माना, वहां तक आपने देख लिया परन्तु उसके बाद कुछ नहीं है – ऐसा कहना क्या सच होगा?
डा॰ रमन : हो या न हो, लेकिन इसके लिए मैं समय नहीं दूंगा। मेरे Sense Experience में न आने तक मैं उस विषय में ध्यान नहीं दूंगा। क्या तुम भगवान को दिखा सकते हो? यदि दिखा सको तो मैं समय दूंगा।
श्रील गुरुदेव : आपने जो वैज्ञानिक सत्य अनुभव किये हैं, आपके छात्र यदि आपसे ये प्रश्न करें कि पहले हमें वैज्ञानिक सत्य का अनुभव कराओ बाद में हम आपकी शिक्षा की ओर ध्यान देंगे, तब आप उन्हें क्या कहेंगे?
डा॰ रमन : (उच्च स्वर से) I shall make them realized; (मैं उन्हें अनुभव करा दूंगा) ।
श्रील गुरुदेव : न, पहले आप अनुभव करा दें, बाद में वे आपके पास शिक्षा ग्रहण करेंगे ?
डा॰ रमन : नहीं, जिस पद्धति को अवलम्बन करके मैंने वैज्ञानिक सत्यों का अनुभव किया है, वही पद्धति उन्हें भी ग्रहण करनी होगी। (No, they are to come to my process through which I have realized the truth) पहले उन्हें फलाँ विषय को लेकर B.Sc. पढ़नी होगी, उसके बाद M.Sc.करनी होगी। उसके बाद यदि पांच-छ: साल वह मेरे पास पढ़ें, तब मैं उनको समझा सकता हूँ।
श्रील गुरुदेव : आपने जो बात कही, क्या भारतीय ऋषि-मुनि लोग उस बात को नहीं कह सकते? (कि) उन्होंने जिस पद्धति से आत्मा-परमात्मा–भगवान को अनुभव किया है, आप भी उसी पद्धति को अवलम्बन करके देखें कि भगवान को अनुभव किया जा सकता हैं या नहीं?आप तो अपने उपलब्ध वैज्ञानिक सत्य को अपने छात्रों को अनुभव नहीं करा पा रहे हैं। वैज्ञानिक सत्य अनुभव करने के लिए उन्हें आपका तरीका अपनाना पड़ रहा है। इसलिए जिस उपाय से भगवान की उपलब्धि होती है आप भी उसी उपाय को ग्रहण करके देखो- होती है या नहीं? यदि उपलब्धि न हो तो आप छोड़ देना परन्तु पहले ही आप कैसे मना कर रहे हैं।
डा॰ रमन : (कोई जवाब न दे सके)।

कुछ समय पश्चात् डा॰ रमन कहने लगे कि वे कृष्ण सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, वहां जाकर वे क्या कहेंगे? इस विषय को जो जानते हैं उन्हें निमन्त्रण करना अच्छा है।
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श्रील गुरुदेव जी का प्रत्युत्पन्नमतित्व एवं उपस्थित बुद्धि इस प्रकार थी कि उनके सामने कोई अयुक्ति की बात कहकर टिक नहीं सकता था। केवल तथाकथित पांडित्य के द्वारा ये असाधारण योग्यता सम्भव नहीं है। जो शिष्य गुरुदेव के प्रति समर्पित – आत्मा हैं, जिन्होंने गुरुदेव जी की कृपा से सत्य वस्तु को साक्षात अनुभव कर लिया है, गुरु शक्ति के प्रभाव से वे एक प्रकार की ऐसी ईश्वरीय शक्ति प्राप्त कर लेते हैं जिसके सामने भगवद्-अनुभूतिरहित व्यक्तियों की बुद्धिमता नहीं चल पाती ।
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श्रील प्रभुपाद जी ने आश्रित शिष्यों को आश्रय विग्रह (गुरूपादपद्म) के आनुगत्य में रहते हुए, एक ही उद्देश्य से एक साथ रहकर रूप-रघुनाथ जी की वाणी का प्रचार करने का उत्साह प्रदान किया था। श्रील प्रभुपाद जी के अप्रकट होने के बाद जो लीला प्रदर्शित हुई, उसे देखकर अनर्थयुक्त, अदूर दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों में ये भावना आ सकती है कि इन घटनाओं से श्रील प्रभुपाद जी की आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ है। परन्तु, मंगलमय श्रीहरि जी की इच्छा से जो होता है मंगल के लिए होता है। पारमार्थिक जीवन का यह मूल विषय ध्यान में न रहने के कारण हम दु:खी होते हैं। श्रीभगवान की इच्छा न होने से कुछ भी नहीं हो सकता। दूसरी ओर चूंकि भगवान मंगलमय हैं, अत: उनकी इच्छा से जो भी होता है,उसमें मंगल अवश्य ही निहित होता है। किसी भी विराट उद्देश्य की पूर्ति के लिए भगवान की इच्छा से एक के बाद एक जो घटनाएँ होती हैं, बहुत से अदूर दृष्टि वाले व्यक्ति उन्हें समझ नहीं पाते हैं।
“पृथ्वी ते आछे यत नगरादिग्राम ।
सर्वत्र प्रचार हइवे मोर नाम ॥”
श्रीमन्महाप्रभु जी की उपरोक्त वाणी की सत्यता को दिखाने के लिए श्रीमन्महाप्रभु व उनकी अभिन्न प्रकाशमूर्ति श्रील प्रभुपाद जी की इच्छा से ही ऐसा हुआ अर्थात् श्रील प्रभुपाद जी ने सारी पृथ्वी में महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार कराने के लिए अपनी कृपा शक्ति संचारित की तथा दिग्विजयी शिष्यों को अलग-अलग रहकर प्रचार करने की प्रेरणा प्रदान की। श्रील प्रभुपाद जी ने जगत का मंगल करने के उद्देश्य से ही ऐसा किया। वे आचार्य शक्ति सम्पन्न अपने शिष्यों को एक ही स्थान में आबद्ध रखकर उनकी योग्यता को एवं प्रचार की व्यापकता को संकुचित नहीं करना चाहते थे। आज श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित शिष्यों की अलौकिक शक्ति के प्रभाव से सारी पृथ्वी में श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी प्रचारित,समादृत व गृहीत होने के कारण श्रीमन् महाप्रभु जी की भविष्यवाणी सार्थक हो रही है।
यदि वे (प्रभुपाद जी के कृपा शक्ति संचारित शिष्य) गुरु-आनुगत्य रहित अनर्थयुक्त जीव होते तो उनके द्वारा इस प्रकार का व्यापक प्रचार सम्भव नहीं था । भगवान के उद्देश्य के बारे में न जानने वाले दुर्भागे व्यक्ति ही एक की वन्दना व एक की निन्दा करके परमार्थ पथ से गिर जाते हैं व अपराध रूपी दलदल में फस जाते हैं ।श्रील प्रभुपाद जी के सभी पार्षदों ने अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार श्रील प्रभुपाद जी की आज्ञा पालन करने के लिए निष्कपट यत्न किया व कर रहे हैं । उनके निष्कपट प्रचार के फल स्वरूप ही आज बहुत से दुर्भाग्यशाली बद्ध जीवों ने श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा के प्रति आकृष्ट होकर भक्ति-सदाचार ग्रहण करते हुए शुद्ध भाव से श्री कृष्ण भजन में नियोजित होकर अपने जीवन को धन्य किया है।
सन् 1942 में जब श्रील गुरु महाराज जी का संन्यास नहीं हुआ था,अर्थात् संन्यास के कुछ समय पूर्व आप अपने गुरु भाइयों- पूज्यपाद त्रिदण्डी स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज और पूज्यपाद त्रिदण्डी स्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त गोस्वामी महाराज जी के साथ मेदिनीपुर शहर में आए तो आप लोगों के प्रचार से वहां श्रीगौड़ीय मठ की स्थापना हुई । श्रील गुरु महाराज जी ने व उनके गुरु भाइयों ने जब मेदिनीपुर में शुद्ध भक्ति का प्रचार आरम्भ किया तो श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शुद्ध भक्ति शिक्षा को सुन कर वहां के अनेकों विशिष्ट नर-नारियों ने महाप्रभु जी की बतायी शिक्षा पद्धति से भजन करने का दृढ़संकल्प लिया । इसके फलस्वरूप थोड़े दिनों में ही वहां के जाने-माने धनी व्यक्ति अपने शहर में श्रीगौड़ीय मठ की एक शाखा खोलने के लिए उत्साहित हुए । इन्हीं लोगों की सहायता से ही मेदिनीपुर शहर के शिव बाज़ार में प्राप्त ज़मीन के साथ एक विशाल दो मंज़िला मठ स्थापित हुआ। इन व्यक्तियों में विशेष रूप से श्री गोवर्धन पिड़िमहोदय उल्लेखनीय हैं। कारण, इस सेवा के साथ-साथ वे किस प्रकार से श्रीगौड़ीय मठ के साथ जुड़ गए, किस प्रकार उनके जीवन में अद्भुत मोड़ आया; सब कुछ छोड़-छाड़ कर किस प्रकार से उन्होंने श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण भक्तों की सेवा की – ये सब इतिहास जो हमने अपने गुरु महाराज जी से सुना, वो निम्न प्रकार से है–
एक दिन श्रील गुरु महाराज जी ने अपने सभी गुरु भाइयों के आगे प्रस्ताव किया कि हमें यहां के धनी व्यक्ति श्री गोवर्धन पिड़ि महोदय से मिलना चाहिए व उनसे मठ के लिए कुछ सेवा लेनी चाहिए ।
आपके इस प्रस्ताव को सुन कर स्थानीय लोगों ने कहा- नहीं, वो बहुत ही कंजूस व्यक्ति है, किसी भिखारी को भी एक पैसा नहीं देता। यदि आप उनके पास जाएंगे तो वे आपका अपमान भी कर सकता है। अत: आप कभी भी उसके पास मत जाना। सबकी बात सुनने के बाद, सभी को समझाते हुए श्रील गुरुदेव जी ने कहा- “साधु का मान-अपमान क्या होता है? चलो मान लिया गोवर्धन पिड़ि बहुत कंजूस है, तब तो साधु को अवश्य ही चेष्टा करनी चाहिए कि वह कंजूस न हो बल्कि एक सज्जन व्यक्ति बने। अच्छे व्यक्ति को अच्छा बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती; यदि खराब व्यक्ति को अच्छा बनाया जा सके, तभी तो प्रचार का सही फल समझा जाएगा।”
एक दिन श्रील गुरुदेव जी श्री गोवर्धन जी के पास पहुँच गये। आपको देखते ही गोवर्धन जी खड़े हो गए, उन्होंने आपका स्वागत किया व बैठने के लिए उपयुक्त आसन भी प्रदान किया। आने का कारण पूछने पर आपने कहा कि मेदिनीपुर शहर में श्रीगौड़ीय मठ का प्रचार केन्द्र खुल रहा है – ये बात बताकर आपने श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षा के माध्यम से उन्हें समझाया कि किस प्रकार जीवों का वास्तविक मंगल हो सकता है। आपके श्रीमुख से प्रभावशाली हरिकथा सुन कर श्री गोवर्धन जी बहुत प्रभावित हुए व उत्साह भरे स्वर में बोले- “हमारे गृह देवता राधा-कृष्ण ही हैं, यहाँ प्रतिदिन उनकी सेवा-पूजा होती है। यदि आप उनका दर्शन करना चाहें तो चलें।”
गोवर्धन जी का उत्साह देखकर हाँ, क्यों नहीं, कहकर आप गोवर्धन जी के साथ उनके घर के ऊपर बने मंदिर में गये।श्री राधा-कृष्ण के मनोरम विग्रह को देखकर आप बहुत प्रसन्न हुए व गोवर्धन जी से कहने लगे – “हमारे आराध्य भी राधा-कृष्ण जी हैं परन्तु अभी तक हमारे मठ में राधा-कृष्ण जी के विग्रह स्थापित नहीं हुए हैं। यदि आप इन विग्रहों को देकर हमें इनकी सेवा प्रदान कर दें तो हम बहुत खुश होंगे व आपके कृतज्ञ रहेंगे।”
आपकी बात सुनकर श्री गोवर्धन जी ने कहा- “यह तो हमारे गृह देवता हैं। यहां तो इनके नाम से बहुत सी सम्पत्ति है। इन्हें आपके मठ में सेवा-पूजा के लिए हम कैसे दे सकते हैं? हाँ, यदि आप अपने मठ के लिए कहीं और से विग्रह ले आए तो मैं उनका खर्चा दे सकता हूँ।”
गोवर्धन जी की बात सुनकर आपने कहा, गौड़ीय मठ के विग्रह तो जयपुर से आते हैं।
कोई बात नहीं, जो खर्च होगा वो मैं दूंगा – गोवर्धन जी ने कहा ।
मठ में आकर गोवर्धन जी से हुई सारी बातचीत आपने अपने गुरु भाईयों को बताई। सारी घटना सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। कंजूस कहलाने वाले गोवर्धन जी ने ही विग्रहों को जयपुर से लाने का, उनकी प्रतिष्ठा का, उनके अलंकारों का एवं विग्रहों के प्रतिष्ठा – समारोह में हुए उत्सवादि का सारा खर्चा दिया। इतना ही नहीं, जब उन्हें हरिकथा सुनने के लिए निवेदन किया गया तो उन्होंने प्रतिदिन हरिकथा सुनने के लिए मठ में आना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिदिन के सत्संग के प्रभाव से धीरे-धीरे उन्हें संसार की असारता का अनुभव होने लगा व साथ ही साथ उन्हें ये भी लगा कि वास्तव में भगवान का भजन करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र कर्तव्य है व हरिभजन से ही नित्य शांति लाभ हो सकती है। इन सब बातों को विचार करते हुए उन्होंने अपनी सभी गंदी आदतों को छोड़ दिया व शुद्ध भक्ति के सदाचार को अवलम्बन करके मठ से हरिनाम-मन्त्र आदि लेकर हरिभजन का दृढ़ संकल्प लिया। श्री गोवर्धन बाबू के इस प्रकार के परिवर्तन को देख कर स्थानीय लोग बहुत विस्मित और उल्लसित हुए ।
एक दिन गोवर्धन बाबू की धर्म पत्नी मठ में आयी और गुरुदेव जी को प्रणाम करती हुई व्याकुल भाव से कहने लगी – “आप लोगों की कृपा से मेरे पति में परिवर्तन हुआ है। हमारी सारी अशांतियाँ दूर हो गयी हैं।”
इस प्रकार श्रील गुरु महाराज जी को देखकर कितने लोग उनकी ओर आकर्षित हुए, आपके सुमधुर व्यवहार से कितने लोग मुग्ध हुए व कितने लोगों के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ – इसका एक छोटा सा नमूना उपरोक्त घटना से उल्लखित हुआ ।
संन्यास लेने से कुछ समय पूर्व आप ज़िला बांकुड़ा के केथेर डांगा, उन्दा झान्टिपहाड़ी व बांकुड़ा इत्यादि तथा मेदिनीपुर ज़िले के गड़वेंता आदि विभिन्न स्थानों पर शुद्ध भक्ति का प्रचार करने के लिए गए थे। आपके व्यक्तित्व, आदर्श चरित्र तथा आपके श्रीमुख से वीर्यवती कथा सुनकर वहां के बहुत से नर-नारी श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के प्रति आकृष्ट हुए।जब आप प्रचार में थे तो उस समय श्री कृष्ण केशव ब्रहमचारी,श्रीमद् राम गोविन्द ब्रहमचारी, श्री कुंज लाल प्रभु और श्री हरि विनोद प्रभु इत्यादि गुरु भाई प्रचार में आपके सहायक के रूप में थे। ‘केथेर डांगा’ में श्री राधा गोविन्द सीट एवं ‘उन्दा’ में श्री अविनाश पाल जी ने भी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी के प्रचार में सहायता की थी । यद्यपि श्रील प्रभुपाद जी की आपको त्रिदण्ड सन्यास देने की इच्छा थी परन्तु भिक्षा आदि कार्यों में कुशल व व्यस्त रहने के कारण आप सन्यास नहीं ग्रहण कर पाये । श्रील प्रभुपाद जी की अन्तर्धान लीला के बाद पूज्यपाद श्रीकुंजबिहारी विद्याभूषण प्रभु, पूज्यपाद भक्ति प्रकाश अरण्य महाराज; पूज्यपाद भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज, पूज्यपाद श्री भक्ति सर्वस्व पर्वत महाराज, पूज्यपाद श्री भक्ति प्रसून बोधायन महाराज, श्री कृष्ण केशव ब्रहमचारी तथा श्री सुन्दर गोपाल ब्रहमचारी आदि गुरु भाइयों के विशेष अनुरोध से आप शुद्ध भक्ति प्रचार के अनुकूल त्रिदण्ड संन्यास लेने के कृतसंकल्प हुए ताकि प्रभुपाद जी की इच्छा की भली – भांति पूर्ति हो सके । अत: सन् 1944 फाल्गुनी पूर्णिमा को गौर आविर्भाव तिथि पर अपने श्री टोटा गोपीनाथ जी के मंदिर (श्री पुरुषोत्तम धाम, उड़ीसा) में अपने गुरूभाई परिव्राजकाचार्यत्रिदण्डी स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी से सात्वत विधान के अनुसार त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया । तब आपकी उम्र 40 वर्ष की थी । संन्यास के बाद आप परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज जी केनाम से प्रसिद्ध हुए। आपके संन्यास के समय पूज्यपाद कुंज बिहारी विद्याभूषण प्रभु, पूज्यपाद श्री परमानन्द विद्यारत्न प्रभु, पूज्यपाद श्री पर्वत महाराज तथा पूज्यपाद श्री बोधायन महाराज आदि गुरु भाई उपस्थित थे ।
श्री पुरुषोत्तम धाम में त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण करने के बाद, श्री श्यामानन्द गौड़ीय मठ में शुभ पर्दापण करने पर विश्ववैष्णव राजसभा द्वारा आप विशेष रूप से सत्कारित हुए। श्री विश्ववैष्णव राजसभा से जो लिखित अभिनन्दन पत्र आपको प्राप्त हुआ था उसमें आपकी निर्भीकता, सत्साहस एवं प्रचार में जन-साधारण को मुग्ध करने की क्षमता तथा इसके इलावा सर्वोपरि श्रील प्रभुपादजी के आनन्द-वर्धनकारी व वैष्णव-प्रीति आदि महान गुणावली कीर्तित हुई।
गुरु-निष्ठा तथा गुरुदेव जी के वैभव (गुरु भाइयों) में प्रीति आपका एक आदर्श थी। श्रील प्रभुपाद जी के अप्रकट हो जाने के बाद यदि कभी आपने गुरु भाई किसी विपरीत परिस्थिति पड़ जाते थे तो आप हमेशा अपने सुख-दु:ख की चिंता न करके उनकी सेवा करने के लिए उनके पीछे खड़े हो जाते थे । उस समय मठ की बाहरी अवस्था अनुकूल न होने के कारण व उस विपरीत परिस्थिति से सामञ्जस्यन बिठा पाने के कारण प्रभुपाद जी के बहुत से योग्य-योग्य शिष्य मठ छोड़ कर वापस घर जाने की सोच रहे थे तो आपने बड़ी मुश्किल से उनको समझा-बुझाकर मठ में रखा। यहां तक कि, जो गुरु भाई घर चले गए थे उनके घर जा-जा कर स्वयं क्लेश सहन करते हुए भी उन्हें किसी तरह से समझा- बुझा कर वापस मठ में लाये । वे जिस-जिस को घर से वापस लाये थे उनमें से कोई-कोई तो आज भी आचार्य पद पर अधिष्ठित हैं।
जिस प्रकार श्री कृष्ण के वैभव (कृष्ण भक्तों) में प्रीति द्वारा ही श्री कृष्ण प्रीति का यथार्थ प्रमाण पाया जाता हैं,उसी प्रकार गुरुदेव जी का वैभव (गुरु भाइयों) में प्रीति द्वारा ही गुरु प्रीति की पराकाष्ठा होती है। श्रील गुरुदेव जी की उनके भाईयों में प्रीति की पराकाष्ठा उनके आदर्श जीवन के शेष मुहूर्त तक सुस्पष्ट रूप से अभिव्यक्त थी।
संन्यास ग्रहण करने के बाद श्री गुरुदेव जी ने सम्पूर्ण भारत में शुद्ध भक्ति का प्रचार तो किया ही, इसके इलावा वे बंगला देश में भी उसके स्वतन्त्र होने से कुछ पहले व बाद में भी जाते रहे । जब आप बंगला देश में शुद्ध भक्ति के प्रचार के लिए जाते थे तो अक्सर आपके साथ श्री मिहिर प्रभु, श्री संकर्षण प्रभु, श्री कृष्ण केशव ब्रहमचारी, श्री राम गोविन्द ब्रहमचारी, श्री त्रैलोक्य प्रभु, श्रीमहेन्द्र प्रभु, श्री ब्रह्म, श्री प्यारीमोहन ब्रहमचारी, श्री यज्ञेश्वर दास बाबा जी महाराज आदि होते थे । आपके वहां के मैमन सिंह ज़िले में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी का खूब प्रचार किया । इस ज़िले के बालिहाटी, ढाका, नवाबगंज, कलाकोपा ग्राम, जामुकि, पाकुल्ला तथा चूड़ाइन आदि स्थान मुख्य थे – जहां आपने प्रचार किया ।
प्रचार के दिनों में आप भाग्यकुल की राजबाड़ी में तथा कलाकोपा के श्री शम्भू साहा के घर में भी ठहरे थे । नवाबगंज (ढाका) के कॉलेज में आपके प्रवचन को सुनकर वहां के अध्यापक लोग बहुत प्रभावित व विस्मित हुए थे तथा आपके असाधारण व्यक्तित्व की ओर आकर्षित हुए थे ।
बाघराय की एक दरिद्र महिला भक्त, श्रीमती कुसुम कुमारी देवी की अद्भुत वैष्णव-सेवा प्रवृत्ति देखकर सभी चमत्कृत हो उठे थे । हुआ ऐसा कि जब गुरु महाराज जी अपनी प्रचार पार्टी के साथ बंगला देश पहुंचे तो उक्त महिला ने गुरु महाराज जी से अनेक बार अनुनय – विनय की कि वे इस बार उसके घर ठहरें । गरीब महिला का भक्ति भाव देखकर गुरु महाराज जी ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । अपने घर में ठहरा कर उक्त गरीब महिला ने जिस भाव से सभी वैष्णवों की खूब सेवा की, वह धनी घरों में भी देखने को नहीं मिलती । बाद में पता चला कि उक्त महिला ने अपना वह मकान, जिसमें वह स्वयं रहती थी किसी को बेच दिया था और उसी पैसे से गुरु वैष्णवों की सेवा की । जिसको उसने मकान बेचा उससे इस बात की अनुमति ले ली थी कि जब तक गुरु वैष्णव लोग यहां रहेंगे तो वे उचित व्यवहार करेंगे, महात्माओं के चले जाने के बाद वे मकान पर कब्ज़ा कर सकते हैं । बिक्री किए गए मकान में ही उक्त गरीब महिला ने श्रीगुरु व वैष्णवों की सेवा की । उसने सेवा का सुयोग प्राप्त करने के लिए ही आर्ति के साथ, यह जानते हुए भी कि उसके बाद वृक्ष के नीचे रहने वाले रास्ते के भिखारियों की तरह रहकर उसे अपनी बाकी ज़िंदगी बितानी पड़ेगी – प्राणपन से सेवा की । गुरु महाराज जी को जब यह सब मालूम पड़ा तो वे अत्यन्त दु:खित और मर्माहत हो उठे ।
श्री गुरु महाराज जी ने जब उस महिला से इस विचार-रहित कार्य को करने का कारण पूछा तो महिला ने कहा- “वैष्णव-सेवा द्वारा ही जीव का वास्तविक मंगल होता है। क्या पता फिर अपने इस जीवन में कभी गुरु-वैष्णव-सेवा का ऐसा स्वर्ण अवसर मिलेगा कि नहीं? सो, मैंने अपने जीते-जीते व सामर्थ्य रहते-रहते ये अतिशय शुभ कार्य पूरा कर लिया है । अब मृत्यु भी हो जाए मुझे कोई दु:ख नहीं होगा ।
महिला की बात सुनकर गुरु महाराज जी विस्मित हो उठे और सोचने लगे कि हृदय में वैष्णव-सेवा की ऐसी प्रवृत्ति होना दुर्लभ है ।
इस घटना के कुछ समय पश्चात् कुसुम कुमारी देवी ने गुरु महाराज जी से हरिनाम-मन्त्र आदि ग्रहण किया व बाकी का अपना जीवन श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की जन्मलीला भूमि श्रीधाम मायापुर के योगपीठ में बिताया । वहां पर उसने ऐकांतिक निष्ठा द्वारा गौर भजन का कठोर व्रत लिया व उस व्रत के अन्तर्गत तीव्र भजन करते-करते उस महिला ने अपने शरीर को छोड़ दिया व स्वधाम को प्राप्त हो गयी ।
श्री गुरु महाराज जी अपने आश्रितों को हरिकथा सुनाते समय आदर्श वैष्णव-सेवा एवं गौरांग निष्ठा का दृष्टांत देने के लिए अक्सर कुसुम कुमारी की बात सुनाया करते थे।
मैमन सिंह ज़िला के अंतर्गत जामुकी पाकुल्ला स्थित उच्च अंग्रेज़ी विद्यालयके प्रांगण में हुई एक विराट धर्म-सभा के आयोजन के अवसर पर श्री महाराज जी ने जो योगदान किया था – उसका उल्लेख श्रील गुरुदेव जी हरिकथा प्रसंग में करते थे –
बात उस समय की है जब पूर्व पाकिस्तान स्वतन्त्र राष्ट्र हो चुका था। कॉलेज के प्रांगण में एक विराट धर्म-सभा का आयोजन हुआ । सभा में उपस्थित श्रोताओं में कॉलेज के अनेक छात्र, अध्यापक तथा हिन्दू-मुसलमान जाति के बहुत से नर-नारी उपस्थित थे । स्थानीय पुलिस विभाग के कुछ मित्र भाव वाले व्यक्ति गुरुदेव जी के पास आए । उन्होंने कहा- “देखिये स्वामी जी! अब तो पूर्व पाकिस्तान स्वाधीन राष्ट्र बन चुका है; यहां की सरकार आपकी प्रत्येक गतिविधि व भाषण पर नज़र रख रही है । स्वामी जी का ये वाक्य पाकिस्तान के स्वार्थ के विरुद्ध है – पाकिस्तान सरकार के पास गया बस इतना वाक्य ही आपको जेल में डलवा देगा।” पुलिस द्वारा दी गयी चेतावनी से व कई पुलिस ऑफिसरों को सभा में बैठे देख गुरुदेव जी थोड़ा चिन्तित हुए कि यदि किसी भी कारण को दिखाकर ये मुझे जेल में बन्द कर देते हैं तो वहां भक्ति-सदाचार के प्रतिकूल वस्तु के संस्पर्श में रहने की आशंका है ।
विभिन्न प्रकार के श्रोता होने के कारण भाषण के दौरान किसी न किसी का पक्ष तो ज़रूर होगा ही । इस आशंका से अपना भाषण प्रारम्भ करने से पूर्व श्रोताओं को निवेदन करते हुए गुरु जी ने कहा – “देखिए ! भाषण सुन कर यदि किसी के मन में कोई शंका उत्पन्न हो तो वह भाषण के अन्त में पूछ सकता है, भाषण के बाद प्रश्नों के उत्तर के लिए 15-20 मिनट रखे जाएंगे परन्तु यदि भाषण में व्यक्त किए गए विचारों के इलावा किसी का प्रश्न हो तो वह मेरे वास स्थान पर आ सकता है । भाषण के बीच में कोई भी प्रश्न न करे । आपके ऐसा करने से सभी श्रोताओं को सुख नहीं होगा ।” आपने अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ही था कि लगभग आधे घण्टे बाद ही एक मौलवी साहब जिनके हाथ में एक उर्दू की किताब थी, अपने स्थान पर खड़े हो गए और प्रश्न करने लगे कि हिन्दुओं में जो बुत परस्तवाद है अर्थात् हिन्दू लोग जो बुत (मूर्ति) पूजा करते हैं, क्या युक्ति है इसकी ?
सभा के बीच में मौलवी साहब के प्रश्न से अनेकों श्रोता अप्रसन्न हुए और उन्होंने गुरुदेव जी को प्रश्न का उत्तर न देने के लिए कहा । परन्तु गुरुदेव जी ने मौलवी साहब के प्रश्न का स्वागत किया और कहा कि मौलवी साहब ने जो प्रश्न किया है, वह एक अच्छा प्रश्न है । सभी को इसका उत्तर सुनना चाहिए । वे जो विषय बोल रहे हैं, उन्हें इससे अलग नहीं होना होगा बल्कि प्रश्न का उत्तर देने से वक्तव्य विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा । अत: वे मौलवी साहब के प्रश्न का सभा में ही उत्तर देंगे ।
गुरुदेव जी ने मौलवी साहब के प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व उनको ही एक प्रश्न कर दिया – “मौलवी साहब ! आप खुदा को मानते हैं या नहीं ?”
गुरुदेव जी द्वारा इस प्रश्न पूछने पर मौलवी साहब ने कहा – निश्चय ही मानता हूँ ।
गुरुदेव जी ने दुबारा प्रश्न पूछा – खुदा की कोई शक्ति हैं या नहीं ?
उत्तर में मौलवी साहब ने कहा – खुदा सर्वशक्तिमान है ।
मौलवी साहब के जवाबों को सुन कर गुरुदेव जी हंसते हुए कहने लगे – मौलवी साहब ने तो अपने आप ही अपने सवाल का जवाब दे दिया ।
‘सर्वशक्तिमान’ शब्द के गंभीर तात्पर्य को न समझ पाने के कारण ही मौलवी साहब की समझ में नहीं आया कि उनके प्रश्न का उत्तर कैसे हो गया है । तभी आपने मौलवी साहब को व अन्यान्यलोगों को समझाने के लिए एक उदाहरण देते हुए कहा – कपड़े सिलने वाली एक छोटी सुई में, जिसके अन्दर 90 नम्बर का धागा भी सुगमता से न घुस पाता हो, क्या मौलवी साहब का खुदा उस सुई के छेद से मैमन सिंह ज़िले के विशाल हाथी को इस पार से उस पार ला सकता है या नहीं बशर्ते कि हाथी के शरीर में ज़रा सा भी ज़ख्म न होने पाए, उसका एक बाल भी न टूटे ।
मौलवी साहब को चुपचाप देख कर आपने कहा – मौलवी साहब के खुदा में कितनी शक्ति है, मैं नहीं जानता। लेकिन जिसको मैं भगवान मानता हूँ, उनके लिए सब कुछ संभव है।
कर्त्तुमकर्त्तुमन्यथाकर्त्तुं य: समर्थ: स एव ईश्वर: ।
भगवान सर्वसमर्थ हैं । वे सब कुछ कर सकते हैं, वे किए हुए को उल्टा कर सकते हैं, उल्टे किए हुए को फिर पलट सकते हैं । उन सर्वशक्तिमान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है । सर्वशक्तिमान सब कुछ करने में समर्थ हैं । हम जो-जो शक्ति भगवान में स्थापित करेंगे, उस-उस शक्ति से ही भगवान युक्त होंगे, ऐसे में उन्हें सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते हैं । हमारी कल्पना के अन्दर और बाहर समस्त शक्ति वाले तत्त्व को ही सर्वशक्तिमान कह सकते हैं । जब एक बार भगवान को सर्वशक्तिमान मान लिया तो वह उस कार्य को कर सकते हैं और उस कार्य को नहीं कर सकते हैं, ऐसी बात कहने का हमारा अधिकार नहीं है । सर्वशक्तिमान अपने भक्त की इच्छा को पूर्ण करने के लिए जिस किसी मूर्ति को धारण करके तथा जिस किसी भी स्थान पर आ सकते हैं । यदि कहें कि वे ऐसा नहीं कर सकते तो भगवान को सर्वशक्तिमान कहना निरर्थक है । मनुष्य कर्त्तारूप से मिट्टी द्वारा,धातु द्वाराअर्थात् पंचमहाभूत द्वारा जो निर्माण करेंगे; अथवा जड़ीय मन द्वारा साकार व निराकार जो भी चिन्ताकरेंगे – सब जड़ ही होगी । उसको ही बुत (पुतुल) कहा जाएगा । सनातन धर्म में बुत पूजा की व्यवस्था नहीं है । सनातन धर्म पालन करने वाले ‘श्रीविग्रह’ की आराधना करते हैं । भक्त के प्रेम में वशीभूत होकर सर्वशक्तिमान भगवान जो विशेष मूर्ति ग्रहण करते हैं; उसको ही श्रीविग्रह कहते हैं । ‘श्रीविग्रह’ और ‘पुतुल’ (बुत) में ज़मीन-आसमान का अन्तर है । श्रीविग्रह चिदानन्दमय साक्षात भगवान ही हैं । भगवान की माया से मोहित कामातुर बद्ध जीव श्रीविग्रह का चिन्मय स्वरूप दर्शन करने में असमर्थ होते हैं । यहां तक कि यदि भगवान साक्षात उनके सामने उपस्थित हो जाएं तो भी वह उनको भगवान रूप से पहचान नहीं सकेंगे । शुद्ध भक्ति नेत्रों द्वारा ही भगवत अनुभूति हो सकती है । भगवान के दर्शनों के लिए जो योग्यता चाहिए, उसको अर्जित किए बिना भगवत-दर्शन नहीं होता है ।
आसाम के नर-नारियों में साधुओं के प्रति श्रद्धा व उनके हृदयों की सरलता को देख कर श्रील प्रभुपाद जी की आसाम में शुद्ध भक्ति प्रचार करने की इच्छा थी । यहां तक कि उनहोंने इस महान कार्य के लिए श्री गुरु महाराज जी को निर्देश भी दिया था । इसी निर्देश को स्मरण करते हुए श्री गुरु महाराज जी ने संन्यास ग्रहण एवं बंगला देश में शुद्ध भक्ति का प्रचार करने के पश्चात् अपनी प्रचार पार्टी के साथ सरभोग, ज़िला कामरूप (अब ज़िला बरपेटा) में शुभ पर्दापण किया । उस समय आपकी पार्टी में श्री भुवन प्रभु, श्री उद्धारण प्रभु तथा श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रहमचारी प्रभु थे । प्रभुपाद जी के अप्रकट हो जाने के बाद सरभोग श्री गौड़ीय मठ की परिचालना व्यवस्था के परिवर्तन होने की वज़ह से तथा वहां पर ठहरने की असुविधा के कारण गुरु महाराज जी श्रीमन् कृष्ण केशव प्रभु के पूर्व आश्रम के बड़े भाई के घर पर ही ठहर गये थे । बहुत वर्षा होने के कारण उस समय चारों ओर पानी ही पानी दिखाई देता था । सड़कों पर घुटने-घुटने तक व कहीं-कहीं इससे भी अधिक पानी था । यहां तक कि घरों में भी पानी भरा हुआ था । अत: बिस्तर इत्यादि समान बैलगाड़ी में रख कर लाया गया व सभी पानी के बीच ही पैदल चल कर आये, सभी के ठहरने के लिए व शौचादि के लिए बांसों के ऊँचे-ऊँचे मचान बनाए गये । शौचादि के लिए मचान, रहने वाले मचान से कुछ दूरी पर बनाया गया था । ऐसी परिस्थितियों में रसोई का सारा कार्य श्रीमद् कृष्ण केशव प्रभु जी की पूर्वाश्रम की भक्तिमती व सेवा परायण माता जी ने किया। उन्होंने पानी के मध्य ही तमाम प्रकार के अन्न, व्यंजनादि रसोई करके वैष्णव-सेवा की यथोपयुक्त व्यवस्था की ।
एक ओर तो चारों ओर पानी ही पानी- ऐसी अवस्था में रहना, खाना व शौचादि जाना सभी कष्टप्रद था तो दूसरी ओर उन्हीं दिनों में जापान के साथ युद्ध आरम्भ हो चुका था । जापानी सेना बर्मा देश को पार करके आसाम की सीमा पर पहुँच गयी थी । इधर अंग्रेजों के अधीन भारतीय सेना, आसाम की सीमा से लगे गावों को भारतीय सेना के ठहरने के लिए खाली करवा रही थी । सेना जिन गावों को खाली करवाकर उनमें ठहरने की व्यवस्था कर रही थी उनमें श्रीमद् केशव प्रभु जी के पूर्वाश्रम का घर भी था जिसमें गुरु महाराज जी अपनी पार्टी के साथ ठहरे हुए थे । अत: श्री गुरु महाराज जी को वह घर छोड़ना पड़ा और वे अपनी प्रचार पार्टी के साथ सरभोग के पास ही के एक गांव में ठहर गये । इतना कष्ट होने पर भी श्री गुरु महाराज जी निराश नहीं हुए । अपने गुरु जी के आदेश को पालन करने के लिए व कृष्ण विमुख जीवों का कल्याण करने के लिए आप जिस किसी त्याग को स्वीकार करने व क्लेश को वरण करने से कभी भी विमुख नहीं हुए – ये सब घटनाए हमारे लिए उद्धारण-स्वरूप हैं ।
इस प्रकार की असुविधाओं के होते हुए भी सात दिन के प्रचार के बाद श्रीगुरु महाराज जी सरभोग में ही श्री गोपाल प्रभु के घर ठहर गये । वहां के अवस्थान काल में स्थानीय विद्यालय के अध्यापक व विशिष्ट व्यक्ति श्री चिन्ताहरण पाटगिरी महोदय के घर पर प्रतिदिन “श्रीमद् भागवत” पाठ की व्यवस्था हुई । सरभोग प्रचार के समय जिन्होंने श्रीगुरु महाराज जी का चरणाश्रय ग्रहण किया था उनमें श्री गोपाल दासाधिकारी एवं उनकी पत्नी, श्री शिवानन्द दासाधिकारी, श्री खगेन दासाधिकारी व अच्युतानन्द दासाधिकारी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जिन दिनों श्री गुरु महाराज जी श्री चिन्ताहरण पाटगिरी जी के घर में हरिकथा करते थे, उन्हीं दिनों एक स्थानीय युवक श्री कमलाकान्त गोस्वामी प्रतिदिन श्री गुरु महाराज जी से हरिकथा सुनने आता था । हरिकथा सुनते-सुनते वह श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा के प्रति इतना आकृष्ट हुआ कि घर-द्वार छोड़ कर प्रचार पार्टी के साथ ही सहयोग देने लगा । श्रीचिन्ताहरण जी के घर में प्रोग्राम समाप्त होने के बाद श्री गुरु महाराज जी श्री शिवानन्द प्रभु व उनके बहनोई के विशेष आग्रह पर भवानीपुर-तापा में ठहरे । कमलाकान्त गोस्वामी भी गुरुदेव जी के साथ तापा आ गया । कमलाकान्त के पिता जी श्री घनकान्त गोस्वामी जैसे-तैसे वहां पहुंच गये व अपने लड़के को खूब डांटने लगे एवं ज़बरदस्ती उसे घर ले गये । श्री घनकान्त गोस्वामी में वहां के प्रचलित ब्राह्मण संस्कार प्रबल थे । इसलिए वे गौड़ीय मठ के दैववर्णाश्रम धर्म का समर्थन नहीं कर पाये । उन्होंने विचार किया कि गौड़ीय मठ का भोजन करने के कारण उनके पुत्र की जाति नष्ट हो गयी है । अत: अपने पुत्र को प्रायश्चित कराने के लिए उन्होंने कमलाकान्त को घर से बाहर ही रखा । जिन दिनों कमलाकान्त गुरु महाराज जी से हरिकथा सुनने आते थे तो उन्हीं दिनों उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में आविर्भूत श्री गुरुदेव जी से हरिकथा प्रसंग में ब्राह्मणों व वैष्णवों में अन्तर व वैष्णवों की सर्वोत्तमता सुनी थी । उन्होंने ये भी सुना हुआ था कि वैष्णव (भगवान का भक्त) तो किसी भी कुल में व किसी भी जाति में आ सकता है । इन्हीं शुद्ध भक्ति सिद्धान्तों को श्रवण करने के कारण वह समझ नहीं पा रहा था कि उसने गौड़ीय वैष्णवों के द्वारा, जिनका आचरण व व्यवहार शास्त्र विधि के अनुसार है – तैयार किया हुआ या दिया हुआ भोजन किया तो इसमें उसने क्या दोष किया? अत: पिता के द्वारा किया गया वैष्णव-मर्यादा हानिकर व्यवहार कमलाकान्त को सहन नहीं हुआ और वह वैष्णव-अपराध से छुटकारा पाने के लिए अगले दिन ही दुबारा घर छोड़कर श्री गुरु महाराज जी के चरणों में उपस्थित हो गया । उस समय श्रीगुरु महाराज जी तापा नामक स्थान पर ही थे । तापा गांव सरूपेटा रेलवे स्टेशन के नज़दीक ही है,यद्यपि कमलाकान्त ने श्री गुरु महाराज जी से हरिनाम-दीक्षा देने की प्रार्थना की थी परन्तु परिवार के लोग बाधा उपस्थित कर सकते हैं – ऐसा सोचकर श्री गुरु महाराज जी ने उन्हें वहां पर हरिनाम इत्यादि देना उचित न समझा । यहां के ही एक धनी मारवाड़ी व्यक्ति ने श्री गुरुदेव जी के प्रति आकृष्ट होकर श्री चैतन्य वाणी के प्रचार व वैष्णव सेवा के लिए आन्तरिक भाव से यत्न किया था ।
शिवानन्द प्रभु गृहस्थ में रहते हुए भी विषय-विरक्त थे । ये ज़्यादातर समय ध्यान-धारणादि में व्यतीतकरते थे। पिता ने अपने पुत्र को स्वेच्छा से श्री गुरु सेवा के लिए समर्पित किया हो, ऐसे उदाहरण कम ही देखे जाते हैं परन्तु उन्हीं दिनों श्री शिवानन्द ने अपने पुत्र श्री लोकेश को श्री श्रीगुरु गौरांग की सेवा में नियोजित करने के लिए श्री गुरु-पादपद्म में समर्पित किया था । अत: वहीं श्री तुलाराम बाबू के घर पर श्रीशिवानन्द प्रभु का भान्जा श्रीलोहित तथा पुत्र श्रीलोकेश श्रीगुरुदेव जी के हरिनामाश्रित हुए । कुछ समय पश्चात् यानि कि आसाम से कलकत्ता वापस आने के कुछ दिन पहले मेदिनीपुर मठ में श्रीलोहित, श्रीलोकेश व कमलाकान्त की मन्त्र-दीक्षा भी हुई जिससे वे क्रमश: श्रीललिता चरण ब्रहमचारी, श्रीलोकनाथ ब्रहमचारी व श्रीकृष्ण प्रसाद ब्रहमचारी नाम से पहचाने जाने लगे । कई वर्षों के बाद जब श्री गुरु महाराज जी के द्वारा इन तीनों का संन्यास वेश हुआ तो तीनों क्रमश: त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिललित गिरि महाराज, त्रिदण्डि स्वामी भक्तिसुहृद दामोदर महाराज एवं त्रिदण्डि स्वामी भक्तिप्रसाद आश्रम महाराज के नामों से प्रसिद्ध हुए ।
कलकत्ता वापस आने से पूर्व श्रील गुरु महाराज जी गोहाटी (आसाम) में कुछ दिन रहे । उन दिनों श्रीमद् कृष्ण केशव प्रभु व श्री चिन्ताहरण पाटगिरि जी की विशेष सेवा प्रचेष्टा से श्रील गुरु महाराज जी वहां के अनेकों विशिष्ट व्यक्तियों के पास जाने का व उन्हें हरिकथापरिवेशन करने का सुयोग प्राप्त कर सके । जिन विशिष्ट व्यक्तियों से श्री गुरु महाराज जी मिले, उनमें आसाम के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गोपीनाथ बड़दलई, श्री दुर्गेश्वर शर्मा, श्री कुमुदेश्वर गोस्वामी, श्री भुवन गोस्वामी, श्री कनकेश्वर गोस्वामी, श्री रोहिणी चौधरी, श्री नवीन बड़दलई, श्री गिरजादास, श्री धीरेन देव, श्री चरित्र बाबू तथा श्री नरेन्द्र बाबू इत्यादि मुख्य थे । श्री गोपीनाथ बड़दलई जी, जो कि आसाम के मुख्यमंत्री थे, के निवास पर भागवत पाठ की व्यवस्था हुई थी । श्री गुरु महाराज जी के श्रीमुख से शुद्ध भक्ति सिद्धान्त सम्मत एवं सुयुक्तिपूर्ण श्रीमद् भागवत की अपूर्व हृदयग्राही व्याख्या सुन कर सभी श्रोता मुग्ध हो जाते । एक दिन श्री गोपीनाथ बड़दलई भागवत पाठ के समाप्त होने पर श्री गुरु महाराज जी की भागवत व्याख्या की हार्दिक प्रशंसा करते हुए कहने लगे –“आपसे भागवत पाठ सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि आपके भागवत पाठ का उददेश्य एवं महात्मा गांधी जी के भाषणों का उददेश्य एक ही है । आप भी अनेक शास्त्र – प्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा बहुत कुछ समझाने के बाद सभी से कृष्ण नाम करवाते हैं और गांधी जी भी अपने भाषणों में अनेक प्रसंग सुना कर अन्त में सभी को ‘रामधुन’ करवाते हैं । आप दोनों का ही उदेश्य है – सभी को हरिनाम करवाना । मैं तो आप दोनों में कोई भी अन्तर नहीं देखताहूँ – आपका इस सम्बन्ध में क्या मत है, मैं जानना चाहता हूँ।”
श्री गोपीनाथ बड़दलई की श्री गुरुदेव जी के प्रति श्रद्धा व प्रीति होने की वजह से श्री गुरु महाराज जी ने सोचा कि यदि अब इन्हें अप्रीतिकर सत्य बात कही जाये तो ये सहन न कर पायेंगे । कई बातें सत्य होने से भी वह सभी को, सभी समय नहीं कही जा सकती । इसलिए, विद्वान व्यक्ति ग्रहण करने का अधिकारी देखकर, उसके अधिकार के अनुसार ही उसे उपदेश देते हैं ।
श्रील गुरु महाराज जी ने मुस्कराते हुए सरी बड़दलई को कहा – “यदि आप नाराज़ न हो तो मैं अपना अभिमत व्यक्त करूँ?”
उत्तर में श्री गोपीनाथ बड़दलई ने कहा –‘ आपके मूल्यवान उपदेशों को सुनकर हम कृतार्थ हुए हैं । हमने इस प्रकार की ज्ञान से परिपूर्ण भागवत व्याख्या कभी किसी से नहीं सुनी थी । आप हमारे मंगल के लिए कुछ कहें और हम असन्तुष्ट हों, ये हो ही नहीं सकता । आप स्वच्छन्दतापूर्वक अपना अभिमतव्यक्ति कर सकते हैं ।’
तब श्रील गुरुदेव जी ने कहा – जब मैं पूर्वाश्रम में था तो तब कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन से भी जुड़ा हुआ था । उस समय साबरमती से कांग्रेस की ‘Young India’ नामक एक अंग्रेज़ी पत्रिका प्रकाशित होती थी । मैं उस पत्रिका को पढ़ता था । उसमें एक बार एक लेख में मैंने पढ़ा था कि गांधी जी ने किसी स्थान पर अपने भाषण में, अपने देशवासियों को अपना देश-प्रेम जताने के लिए कहा था कि यदि ज़रूरत पड़े तो वे देश के लिए अपनी अत्यन्त प्रिय ‘रामधुन’का भी परित्याग कर सकते हैं। श्री गुरु महाराज जी ने कहा कि जहां तक मुझे याद है, पत्रिका में लिखा था –I can Sacrifice ‘Ramdhun for my Country, किन्तु हम लोग ठीक इसके विपरीत हैं –We Can Sacrifice Country For Ramdhun ‘हमारे आराध्य ‘राम’किसी के लिए नहीं हैं; वे स्वयं अपने लिये हैं एवं समस्त वस्तुएं उनके लिये हैं । पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी ‘Absolute’ को इसी प्रकार की संज्ञा दी है –‘Absolute is for itself and by itself.’ हम लोग It God नहीं कहते । हमारे भगवान परम पुरुष ‘He God’ हैं । इसलिए हम लोग कहते हैं कि ‘Absolute is for Himself and by Himself.’ भगवान से ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड आते हैं; भगवान में ही उनकी स्थिति है तथा भगवान के द्वारा ही उनका संरक्षण होता है – इसलिए अनन्त करोड़ विश्व ब्रह्माण्ड भगवान के लिए हैं । भगवान की आराधना करने के लिये भगवद्तत्व को समझने की ज़रूरत है ।
श्री गोपीनाथ बड़दलई श्रील गुरुदेव जी के असामान्य व्यक्तित्व से इस प्रकार आकृष्ट हुए थे कि उन्होंने अपने संकल्प की बात गुरुदेव जी के समक्ष व्यक्त कि की वे संसार को छोड़कर मठ में रहेंगे तथा सर्वतोभाव से अपने आपको भागवत सेवा में लगाएंगे; परन्तु दुर्भाग्यवशत: उनके मित्रों ने उन्हें उस समय राजनीति से संन्यास न लेने दिया परन्तु कुछ समय बाद उनका देहान्त हो जाने की वजह से वे अपने संकल्पानुसार कार्य न कर सके । राजनीति एक ऐसा चक्र है कि जिसमें घुस जाने से उससे छुटकारा पाना बहुत मुश्किल है ।
गोहाटी के कई विशिष्ट व्यक्ति श्री गुरुदेव जी के व्यक्तित्व से व उनकी वाणी से बहुत प्रभावित हुए जिससे गोहाटी से बाहर व वहां के स्थानीय लोगों पर प्रचार का बहुत प्रभाव पड़ा । गोहाटी में प्रचार करने के बाद श्रील गुरुदेव जी वापस कलकत्ता आ गए ।
सन् 1947 में श्रील गुरुदेव जब पुन: आसाम प्रचार में आए तो आसाम के महकुमा सदर (आजकल नाम है ग्वालपाड़ा ज़िला सदर) ग्वालपाड़ा के ही रहने वाले श्री गौड़ीय मठ के आश्रित गृहस्थ भक्त श्री राधामोहन दासाधिकारीजी के विशेष निमन्त्रण पर एक बार फिर श्री गुरु महाराज जी ग्वालपाड़ा में गये । उस समय उनके साथ पार्टी में जो-जो थे उनमें उल्लेखनीय हैं –श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रहमचारी, श्री माधवानन्द ब्रहमचारी तथा रथारूढ़ दास ब्रहमचारी । प्रचार के दौरान श्रील गुरु महाराज जी अन्यान्य वैष्णवों के साथ श्री राधारमण प्रभु के घर में ठहरे और शहर के विभिन्न स्थानों में धर्म सभा का आयोजन किया गया ।
स्थानीय हरि सभा में जो विशेष आयोजन हुआ, उसके सभापति हुए थे वहां के विशेष वकील क्षीरोदसेन महोदय । इनके इलावा वहां के विशिष्ट व्यक्ति व Govt Pleader श्री कामाख्याचरण सेन तथा Pleader of Mechpada State श्री प्रिय कुमार गुहराय आदि शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति, सभाओं में विशिष्ट व्यक्तियों के रूप में उपस्थित हुए थे । वहां के श्री धीरेन्द्र कुमार गुहराय के पुत्र श्री कामाख्या चरण, जो बाद में श्री कृष्ण बल्लभ ब्रहमचारी एवं उसके पश्चात्श्रीमद् भक्तिबल्लभ तीर्थ महाराज के नाम से परिचित हुए की श्री गुरु महाराज जी से प्रथम मुलाकात श्री राधामोहन प्रभु के घर पर ही हुई थी । श्री कामाख्या चरण वे उनके दोस्त श्री देवव्रत (रवि) तावजिज्ञासु होकर श्री गुरु महाराज जी के पास श्री राधामोहन जी के घर आये। अपने बन्ध के साथ श्री कामाख्याचरण जी भगवत-प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ के निर्देशन की प्रार्थना से युक्त अन्त: करण के साथ जब गुरु महाराज जी के पास आये, उस समय वे (श्रीगुरु महाराज जी) एक खाट पर बैठे थे । दोनों ने महाराज जी को प्रणाम किया । प्रणाम करते समय श्री कामाख्याचरण को ऐसा अनुभव हुआ कि उन पर श्री गुरु महाराज जी के शुभ-आशीर्वाद की वर्षा हो रही है । ऐसा अनुभव करके वे पुलकित हो उठे । इसी समय उन्होंने श्री गुरुदेव जी से इस प्रकार का एक प्रश्न पूछा – “हरिनाम करते-करते मेरे मन में ऐसी भावना होती है कि जैसे थोड़ी देर बाद ही उनको भगवान के दर्शन होंगे और फिर संसार में जिन-जिन के प्रति प्रीति सम्बन्ध है – उन्हें छोड़कर चला जाना पड़ेगा – इसी आशंका से उस समय हरिनाम बंद हो जाता है, वह हरिनाम जैसे बंद न हो , उसके लिए मैं आपके उपदेश की प्रार्थना करता हूँ।”
यद्यपि प्रश्न स्वल्पमेधाप्रसूत तथा गुरुत्त्व-रहित था, तथापि उत्साह प्रदान करने के लिए श्रील गुरुमहाराज जी ने प्रश्न की प्रशंसा की व एक उदाहरण देकर समझाते हुए कहा – कीचड़ व दुर्गन्ध से युक्त एक कच्चा तालाब था जो कि बतखों (पाति हंसो) का विहार स्थान था । वे उस गंदगी में रहकर कीचड़ में रहने वाले शामूक, गुगली व केंचुवे आदि प्राणियों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे । एक दिन उन्होंने देखा कि आकाश में काफी ऊंचाई पर उनके जाति-भाई हंस उड़ कर जा रहे हैं । वे हंस देखने में बहुत सुन्दर थे, आकार में भी बड़े थे व उनके पंख भी बड़े विचित्र व मनोहर थे । बतखों ने इस प्रकार विचार किया कि उड़ने वाले ये हंस जहां रहते हैं, निश्चय ही वह स्थान अत्यन्त रमणीक होगा । यदि हमको भी उनके साथ रहना मिलता तो हमारा चेहरा भी सुन्दर हो जाता एवं हम भी परम सुखी हो सकते थे ।
आकाश में उड़ने वाले हंस, जाति से राजहंस थे । वे समुद्र में गये थे और अभी लौटकर मानसरोवरमें जा रहे थे । जब बतख अत्यन्त करुण भाव से उन्हें देख रहे थे तो एक राजहंस को बतखों की दुरावस्था देख कर दया आ गयी । वह आकाश में घूम-घूम कर ज़मीन पर उतरने लगा । बतख राजहंस का अपूर्व प्रकाण्ड रमणीक चेहरा देख कर आश्चर्यान्वितहो गये। वे हंस से, जहां वे रहते हैं, उन्हें भी वहां ले चलने के लिए प्रार्थना करने लगे । राजहंस ने कहा- आप सभी को इस दुर्गन्ध वाले स्थान से उद्धार करने के लिए ही मैं आया हूँ । जब राजहंस ने उन बतखों को अपने साथ चलने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी मजबूरी बताते हुये कहा कि वे ज़्यादा ऊपर नहीं उड़ सकते । बतखों की मजबूरी समझ कर राजहंस को और भी दया आ गयी । उसने अपने दर्याद्रचित से कहा कि आप मेरी पीठ पर चढ़ जाइये, मैं आप सबको ले जाऊँगा । राजहंस की बात सुनकर सारे बतख चिन्तित हो उठे व आपस में काफी देर तक विचार – विमर्श करते रहे और राजहंस से पूछने लगे कि वे उन्हें जहां ले जा रहे हैं वहां खाने के लिए शामूक, गुगली व केंचुवे इत्यादि प्राणी मिलते हैं कि नहीं ?
उत्तर में राजहंस ने कहा कि वे हिमालय के मान-सरोवर में रहते हैं । वहां इस प्रकार की गन्दी चीज़ें नहीं होतीं । वहां पर तो वे कमल के मृणाल का भोजन करते है । राजहंस की बात सुन कर बतखों के मुख से चीख निकल गयी । वे घबराहट के साथ कहने लगे कि वहां क्या खाकर ज़िन्दा रहेंगे …….. । अन्त में यह निर्णय हुआ कि वे राजहंस के साथ नहीं जाएंगे । बतखों की इतर आसक्ति ही राजहंसों के रमणीक स्थान में जाने के लिए बाधक बनी । ठीक इसी प्रकार भगवान की बहिरंगा माया द्वारा रचित नश्वर देह व देह सम्बन्धी व्यक्तियों के प्रति आसक्ति ही भगवान के पास जाने के लिए बाधक स्वरूप होती है । भगवान निर्गुण, मंगलमय व परमानन्द स्वरूप हैं । उनका धाम भी उसी प्रकार का है वहां पर गन्दी – घृणित व नाशवान वस्तुओं का अधिष्ठान नहीं है । जो भगवान के लिए अन्य वस्तुओं की आसक्ति को नहीं छोड़ सकते, भगवान के अतिरिक्त अन्यान्य मायिक वस्तुओं को जो जकड़ कर रखना चाहते हैं, वे कभी भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते । भगवान और माया दो विपरीत वस्तुएं हैं । साधु-संग के द्वारा भगवान व उनकी भक्ति को छोड़ कर अन्यान्य वस्तुओं की मांग से छुटकारा न मिलने तक जीवों का यथार्थ मंगल नहीं हो सकता ।
“ततो दु:संगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासंगमुक्तिभि: ॥”
भा॰ 11/26/26
अतएव बुद्धिमान व्यक्ति दु:संग को परित्याग करके सत्संग करेंगे और साधु लोग अपने साधु-उपदेशों के द्वारा उनकी भक्ति की तमाम प्रतिकूल वासनाओं का छेदन करेंगे ।
श्रीमद् राधामोहन प्रभु, श्री श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ‘प्रभुपाद’ जी के दीक्षित शिष्य थे । वे दीक्षित होने के बाद ‘श्रीराधामोहन ब्रहमचारी’ के नाम से श्री औडिया मठ में कुछ दिन रहे थे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश होने के बाद वे श्री राधामोहन दासाधिकारी के नाम से श्री गौड़ीय मठाश्रित व्यक्तियों में परिचित हुये । उनकी भजन-निष्ठा एवं भक्ति सिद्धान्त विषयों में पारंगति देखकर ग्वालपाड़ा अंचल के भक्त लोग उनमें बहुत श्रद्धा करते थे । शहर के स्थानीय व्यक्तियों में वे ‘राममोहन दा’ नाम से परिचित थे। वे श्री कामाख्या चरण (श्रीमद्भक्ति बल्लभ तीर्थ) के पूर्वाश्रम के चाचा के ऑफिस में काम करते थे, गांव के सम्बन्ध से भी उन्होंने श्रीमद्भक्ति बल्लभ तीर्थ के परमार्थिक कल्याण के लिए जो स्नेह प्रदर्शन किया व यत्न किया, उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती । श्रीमद्भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज जी के गौड़ीय मठ में आने के मूल पथ-प्रदर्शक गुरु के रूप में वे ही थे । उनके लिए उन्हें न जाने कितनी कटुक्तियां सहन करनी पड़ी व न जाने कितने लोगों द्वारा की गयी विरुद्ध समालोचना का सामना उन्हें करना पड़ा । श्रील गुरु महाराज जी के साथ श्री कामाख्याचरण का जो पत्रालाप होता था , उसका उत्तर भी राधामोहन प्रभु के घर के पते पर ही आता था । राधामोहन प्रभु की भक्तिमती सहधर्मिणी एवं उनके परिजन वर्ग का स्नेह-ऋण अपरिशोधनीय है अर्थात् उनके स्नेह के ऋण को उतारा नहीं जा सकता ।
श्रील गुरु महाराज जी ने अपने स्नेहपूर्ण कृपा – आशीर्वाद रूप पत्रों में श्रीभक्ति बल्लभ तीर्थ के प्रश्नों के उत्तर देते हुए तमाम संशयों को मिटाया तथा श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा लिखित “जैव धर्म” ग्रन्थ का अध्ययन करने का उपदेश दिया था । जैव धर्म ग्रन्थ का पाठ करने से श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ के बहुत दिनों के संचित संशयों का निवारण हो गया था । निवृतिमार्गी, एकान्त पारमार्थिक जीवन धारण करने वालों के लिए सरकारी नौकरी करना उचित नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति मार्ग में, घर में रहकर भजन करने की इच्छा होने पर सरकारी नौकरी करना ठीक है – इस प्रकार का उपदेश भी पत्र द्वारा श्रील गुरु महाराज जी ने प्रदान किया था । घर के परिवेश में रहकर भजन सम्भव नहीं होगा – ऐसा विचार कर श्रीभक्ति बल्लभ तीर्थ ने गृह-त्याग का संकल्प लिया।
हमारे परम गुरु-पादपद्म नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर, जो कि श्री चैतन्य मठ एवं श्री गौड़ीय मठ समूह के प्रतिष्ठाता थे, ने भी अपने पार्षदों के साथ ग्वालपाड़ा शहर में पर्दापण किया था । उनके निर्देशानुसार उनके ही आश्रित गृहस्थ शिष्य पूज्यपाद श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर हुलूकान्दा पहाड़ के ऊपर रमणीय स्थान में ‘श्रीप्रपन्नाश्रम’ नामक श्री गौड़ीय मठ की एक शाखा स्थापित हुई थी परन्तु सेवकों के अभाव में वे अनेकों असुविधाओं के कारण वह शाखा धीरे-धीरे लुप्त हो गयी । परवर्ती काल में जब श्रीमद् शरत कुमार नाथ जी ने ग्वालपाड़ा के मठ की स्थापना के लिए मकान सहित ज़मीन देने की इच्छा व्यक्त की तो श्रील प्रभुपाद जी का अभिप्राय समझ कर श्रील गुरु महाराज जी ने उनकी ज़मीन व मकान को लेने की स्वीकृति दे दी तथा वहां पर श्री चैतन्य गौड़ीय मठ की एक शाखा स्थापित कर दी ।
श्रील गुरुदेव जी ने ग्वालपाड़ा एवं कामरूप ज़िले के भक्तों के आमन्त्रण पर जिन-जिन स्थानों पर शुभ पर्दापण किया उनमें बिजनी, भाटिपड़ा, हाउली, बरपेटा इत्यादि स्थान उल्लेखनीय हैं । हाउली में जो धर्म सभा हुई थी उसमें हिन्दू व मुसलमान परिवार के सहस्त्राधिक नर-नारी उपस्थित थे । प्रवचन के बीच में श्रोताओं की ओर से प्रश्न उठ सकते हैं, इस आशंका से श्रील गुरु महाराज जी ने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में ही कह दिया कि यदि किसी का कोई प्रश्न हो तो वह प्रवचन के बीच में न पूछे । प्रश्नों के उत्तर के लिए सभा के बाद 15-20 मिनट का समय दिया जायेगा । इतना कहना पर भी प्रवचन के बीच में एक मौलवी साहब ने प्रश्न किया – “क्या आत्मा-परमात्मा को किसी ने देखा है ? आप आत्मा-परमात्मा की बात कहकर दुनिया को धोखा नहीं दे रहे हैं – इसका प्रमाण क्या है?”
मौलवी साहब का प्रश्न सभा के नियम के प्रतिकूल था, इसलिए उनके प्रश्न से श्रोता नाराज़ हो गये और उन्होंने श्री गुरु महाराज जी को प्रश्न का उत्तर देने के लिए मना कर दिया । परन्तु उक्त प्रश्न का उत्तर न देने से शायद अज्ञ व्यक्ति यह न समझें कि इसका उत्तर ही नहीं, अत: श्रील गुरुदेव जी ने सभा में ही मौलवी साहब के प्रश्न का उत्तर दिया ।
मौलवी साहब के हाथ में एक पुस्तक थी। श्रील गुरुदेव जी ने मौलवी साहब से पूछा – आपके हाथ में जो पुस्तक है, उसका क्या नाम क्या है ?
मौलवी साहब पुस्तक को किताब कहते हैं व किताब का नाम बताते हैं ।
बंगला, आसामी, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी इत्यादि भाषाओं का ज्ञान व आँखें ठीक होने पर भी वे (श्री गुरु महाराज) उस किताब का ‘वो’ नाम नहीं देख प रहे हैं – क्यों ? मौलवी साहब मुझे धोखा नहीं दे रहे हैं, इसका क्या प्रमाण है?– श्रील गुरुदेव जी ने पूछा ।
श्रील गुरु महाराज जी के प्रश्न को सुनकर मौलवी साहब के आसपास जो लोग बैठे थे उन्होंने भी किताब को अच्छी तरह से देखा और श्रील गुरु महाराज जी से कहा कि मौलवी साहब जो किताब का नाम बता रहे हैं वह ठीक है ।
इसके उत्तर में श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि आप सब लोग एक साथ मिल कर मुझे धोखा दे रहे हो ।
मौलवी साहब कुछ आश्चर्यान्वित हुये और उन्होंने जानना चाहा कि श्रील गुरुदेव क्या देख रहे हैं व उनके इस प्रकार बोलने का अभिप्राय क्या है ?
तो श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि मैं तो देखता हूँ कि कोई एक कौवा स्याही पर बैठा रहा होगा । बाद में वही आपकी इस किताब के ऊपर बैठ गया होगा , ये उसी के पैरों के निशान हैं ।
श्रील गुरुदेव के इस प्रकार के मंतव्य को सुन कर मौलवी साहब ने कहा कि आप निश्चय ही उर्दू नहीं जानते होंगे।
श्रील गुरु महाराज जी ने स्वीकार किया कि हाँ, मैं उर्दू नहीं जानता हूँ ।
मौलवी साहब ने कहा तब आप उर्दू लेख को कैसे समझ सकोगे ? आपको उर्दू सीखनी होगी तब आप भी देख पाओगे कि इस किताब का नाम वही है जो मैं बता रहा हूँ ।
श्रील गुरुदेव जी ने मौलवी साहब की बात पर ही मौलवी साहब को समझाते हुए कहा कि बहुत सी भाषाएं जानते हुए भी, बहुत साज्ञान होने पर भी, उर्दू भाषा को समझने के लिये उर्दू ज्ञान आवश्यक है, आँखों की दृष्टि शक्ति ठीक रहने पर भी,दृष्टि शक्ति के पीछे उर्दू का ज्ञान न रहने पर उर्दू शब्द के रूप को व अर्थ को समझा नहीं जा सकता, देखा नहीं जा सकता, उसी प्रकार दुनियाँदारी की बहुत सी अभिज्ञता व योग्यता रहने पर भी, आत्मा व परमात्मा को समझने की विशेष योग्यता जब तक अर्जित नहीं हो जाती, तब तक आत्मा व परमात्मा की अनुभूति नहीं होती ।
दर्शन भी दो प्रकार का होता है – वेद दृक् व माँस दृक्अर्थात् ज्ञानमय दर्शन व माँसमय दर्शन। माँसमय नेत्रों से अर्थात् जड़ नेत्रों से जड़, वस्तु छोड़ कर अन्य वस्तु नहीं देखी जा सकती। जड़ातीत,इन्द्रियातीत वस्तु जब स्वयं प्रकाशित होती है तो उसके कृपा-आलोक से ही उसे दर्शन किया जा सकता है । शरणागत के हृदय में ही तत्त्व वस्तु का आविर्भाव होता है ।
हाउली में कुछ व्यक्ति जो श्रील गुरुदेव जी के चरणाश्रित होकर भक्ति सदाचार को ग्रहण करते हुए विहित भजन करने के लिए व्रती हुए उनमें श्री रामेश्वर वर्मन का नाम उल्लेखनीय है जो दीक्षित होने के बाद श्री रामेश्वर दासाधिकारी के नाम से परिचित हुए ।
श्रील प्रभुपाद जी के निर्देश को स्मरण करते हुए श्रील गुरु महाराज जी प्रतिवर्ष ही आसाम में जाते थे एवं अपने गुरु भाइयों एवं त्यागी व गृहस्थ शिष्यों के सहित आसाम के शहरों व गांवों में श्री चैतन्य महाप्रभु की वाणी का प्रचार करते थे । वहां पर प्रचार करने से वहां के सैंकड़ों नर-नारी भक्ति सदाचार ग्रहण करते हुए श्रील गुरुदेव जी के चरणाश्रित हुए । कई-कई क्षेत्रों में अत्यन्त प्रतिकूल अवस्था आने पर भी आप अविचलित होकर निर्भीक भाव से प्रचार करते थे । श्री कृष्ण में समर्पितात्मा महाभागवत लोग सर्वत्र निश्चिन्त भाव से विचरण करते रहते हैं, कोई भी प्रतिकूल अवस्था उनकी हरिसेवा की प्रवृत्ति को रोक नहीं सकती क्योंकि वह अहैतुकी है, इसलिए अप्रतिहता है ।
“तथा न ते माधव तावका: क्वचिद्
भ्रश्यन्ति मार्गात् त्वयि बद्ध सौहृदा: ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया
विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥”
भा॰ 10/2/33
अर्थात् माधव के स्तवकारी, माधव के अनन्याश्रित भक्त हो जाने पर वे कभी भी भक्ति पथ से च्युत नहीं होते। वे तो माधव के द्वारा रक्षित होकर विघ्नकारियों के सिर पर पैर रखकर सर्वत्र निश्चिन्तता से विचरण करते हैं ।
जीवों के दु:खों से कातर होकर श्रील गुरुदेव उनके आत्यन्तिक मंगल के लिये व उन्हें कृष्णोन्मुख करने के लिये अनेक कष्ट सहन करते हुए कभी पैदल व कभी बैलगाड़ी में भ्रमण करते थे । जिन-जिन स्थानों में आपका शुभ पर्दापण हुआ, उनमें जितना मुझे स्मरण है, उसका विवरण निम्न प्रकार से है :-
1. ज़िला ग्वालपाड़ा के – ग्वालपाड़ा, धुवड़ी, वासुगाउँ, विलासी पाड़ा, काशी कोटरा, सिदली, आगिया,देपालचूँ, बड़दामाल, लक्ष्मीपुर,कृष्णाई तथा सुदुनई इत्यादि ।
2. ज़िला कामरूप (वर्तमान कामरूप व बड़पेटा) के – गोहाटी, सरभोग, चकचका बाज़ार, केतकी बाड़ी, हाउली, बड़पेटा, बड़पेटा रोड, पाठशाला चिहूँ, विजनी, रंगिया, नलवाड़ी, जालाहघाट, भाटिपड़ा, उन्निकुड़ी तथा आमिनगाऊँ इत्यादि स्थान ।
3. ज़िला दरं के –तेजपुर, टांला, बिन्दुकुड़ि, रांगा, टंकुयाजुलि,मंगलदै।
4. ज़िला काच्छाड़ के – शिलचर, हाइलाकन्दि, शिलं एवं शिव सागर इत्यादि ।
आसाम के आदिवासी लोग अधिकतर भागवतम् धर्मावलम्बी हैं। श्री शंकर देव, श्री माधव देव, श्री दामोदर देव एवं श्री हरिदेव इत्यादि वैष्णव आचार्यों ने वहां पर भागवत धर्म का प्रचार किया । श्री शंकर देव सम्प्रदाय के तब के श्रेष्ठ आचार्य (जिन्हें आसाम में सत्राधिकारी कहा जाता है) श्री नारायण देव मिश्र, परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी में बहुत श्रद्धा करते थे । श्रील गुरुदेव जी ने जब बड़पेटा में शुभ पर्दापण किया तब स्कूल व कॉलेज में जो धर्म सभाओं का आयोजन हुआ उनका पौरोहित्य किया था श्री नारायण देव मिश्र जी ने ।
आपके अगाध पाण्डित्य व व्यक्तित्व को देखकर श्री नारायण देव मिश्र आपकी ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुए थे । वे आपको अपने मकान में भी ले गए थे । आप बड़पेटा में श्री अमिय कान्तिदास राय और श्री हरे कृष्णदास के घर में ठहरे थे । श्रील गुरुदेव जी से दीक्षा होने के बाद श्री अमिय कान्तिदास व श्रीहरे कृष्णदास, श्री अघदमन दास व श्री हरिदास नाम से परिचित हुए थे । सन्1945 में जब आपने बड़पेटा में शुभ पर्दापण किया तब आप श्री अमिय कान्ति दास राय के घर में ठहरे थे । उस समय आपकी प्रचार पार्टी में श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रहमचारी, श्री गोपाल कृष्ण दासाधिकारी, श्री त्रैलोक्य नाथ ब्रजवासी, श्री माधवानन्द ब्रजवासी तथा श्री भुवन मोहन दासाधिकारी थे ।
चिहूँ के प्रसिद्ध नामी व्यक्ति श्रील जीवेश्वर गोस्वामी भी श्रील गुरुदेव जी के असामान्य व्यक्तित्व से आकृष्ट हुए । उन्होंने गुरुदेव जी के सामने ही अपने हृदय के विचारों को व्यक्त करते हुए कहा था कि वे आसाम प्रदेश के किसी गृहस्थ तेजस्वी प्रचारक से रूढ़भाषा (कर्कश भाषा) में अन्य सम्प्रदाय के विचारों का खण्डन सुनकर अत्यन्त क्षुब्ध हुए थे परन्तु आपसे शुद्ध भक्ति के विरुद्ध अपसिद्धान्तों का दूरीकरण सुन कर दु:खी तो हुए ही नहीं बल्कि सुखी हुए हैं। आपकी कथा में जिस प्रकार का माधुर्य था वह महापुरुषोचित, अलौकिक व्यक्तित्व के द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।
श्रील गुरुदेव जी के द्वारा विपुल प्रचार के फलस्वरूप उनके प्रकटकाल में ही आसाम में तीन मठ संस्थापित हो चुके थे । जिसमें सर्वप्रथम मठ तेजपुर में, उसके बाद गोहाटी में एवं अन्त में ग्वालपाड़ा में एक मठ की संस्थापना हुई ।
वास्तविक गुरुत्त्व या भकतत्त्व को प्राकृत किसी भी प्रयास से ढका नहीं जा सकता। जगत के जीवों के प्रति अधिकतर कल्याण का प्रसारण करने के लिये बाहरी रूप से प्रतिकूलता का वातावरण पैदा कर श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रील गुरुदेव जी को संकुचित अवस्था से ऊपर निकाल कर आत्मसात् किया ताकि वह नि:संकोच श्रीमन्महाप्रभु जी की शुद्धभक्ति धर्म की वाणी का सर्वत्र प्रचार कर सकें । अधिक आयु में श्रीचैतन्य मठ से बाहर आकर भी उन्होंने भारत में सर्वत्र विशाल रूप से प्रचार करते हुये असंख्य नरनारियों को श्रीमन्महाप्रभु जी द्वारा आचरित और प्रचारित शुद्ध भक्ति धर्म की ओर आकर्षित किया तथा थोड़े समय में ही भारत के विभिन्न स्थानों पर विशाल-2 मठों की स्थापना की । अलौकिक शक्ति के बिना इस प्रकार के महान दायित्वपूर्ण कार्य थोड़े समय में कभी भी सम्भव नहीं हो सकते । स्वप्रकाशित सूर्य को जैसे बादलों का छोटा सा टुकड़ा ढक नहीं सकता उसी प्रकार जहां पर गुरुत्त्व वास्तविक रूप में प्रकाशित है उसे भी किसी प्रकार मात्सर्यपूर्ण प्रतिकूलता से आवृत नहीं किया जा सकता । जो ऐसा करने का प्रयास करता है वह अपराध रूपी कीचड़ में धंस जाता है । श्रीलगुरुदेव जी के श्रीमुख से नि:सृत वीर्यवती हरिकथा श्रवण से आकृष्ट होकर कलकत्ता के दो विशिष्ट व्यक्ति श्रीमनिकण्ठ मुखोपाध्याय एवं होम्योपैथिक फैक्लटि के प्रैजिडेन्ट डा. एस.एन. घोष प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मठ की सेवा परिचालना और उनकी वृद्धि के कार्यों में श्रील गुरुदेव जी के दाएं हाथ के रूप में खड़े रहे थे । श्रीलगुरुदेव जी की सौम्य मूर्ति, उनके व्यक्तित्व और उनकी हरिकथा से आकृष्ट होकर कलकत्ता के विशिष्ट अधिवक्ता श्री जयन्त कुमार मुखोपाध्यायजी श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के लिये निष्कपट चेष्टा में लग गये ।
थोड़े ही दिनों में श्रीलगुरुदेव जी ने बहुत से मठ, शिक्षाकेन्द्र, ग्रन्थागार, धर्मार्थ चिकित्साल्य और शुद्धभक्तिग्रन्थों का प्रचार करने के लिये प्रैसों की स्थापना की।

श्रील गुरुदेव जी द्वारा प्रतिष्ठित मठों की तालिका
1) श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ,मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल)
सन् 1942
परमाराध्य श्रील गुरुदेव एवं उनके गुरु भाइयों पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज जी एवं पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त महाराज दोनों के प्रयास से इस मठ की स्थापना हुई थी।
2) श्रीगौड़ीय मठ,पो. तेजपुर(आसाम) सन् 1948
3) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, पल्टन बाजार,गोहाटी(आसाम)सन् 1953
4) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, 86 ए,रासबिहारी एविन्यु,कलकत्ता-26सन् 1955
5) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,ईशोद्यान,श्रीमायापुर नदिया (प॰ बंगाल) सन् 1956
6) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,सर्वेश्वर हवेली वृन्दावन (उ॰प्र )सन् 1956
7) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,गोयाड़ि बाजार, कृष्णनगर नदिया सन् 1960
8) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, मथुरा रोड,वृन्दावन, ज़िला-मथुरा सन् 1960
9) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, 35 सतीश मुखर्जी रोड,
कलकत्ता- 26
पुराने घर में प्रवेश सन् 1961
नव मन्दिर में प्रवेश सन् 1967
10) श्री गौड़ीय सेवाश्रम, मधुवन महोली पो. जि॰ मथुरा (उ॰प्र॰)
नव मन्दिर में प्रवेश सन् 1961
11) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ उर्दुगली, पाथरघाटी,हैदराबाद(आन्धप्रदेश) सन् 1962
12) श्रील जगदीश पण्डित का श्रीपाट,पो. यशड़ा,सन् 1962
वाया-चाकदह ज़िला नदिया (प॰ बंगाल)
13) श्री विनोदवाणी गौड़ीय मठ, 32,
कलियदह, वृन्दावन (उ॰प्र॰) सन् 1967
14) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,
पो. और जि॰ ग्वालपाड़ा (आसाम) सन् 1969
15) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,सन् 1970
सैक्टर 20-बी,चंडीगढ़
16) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, दीवान देवड़ी,सन् 1972
हैदराबाद (आन्ध प्रदेश)
17) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,सन् 1974
ग्रांड रोड पो॰ ज़िला-पुरी (उड़ीसा)
18) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,सन् 1975
गोकुल महावन, ज़िला मथुरा (उ॰प्र॰)
19) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,सन् 1976
श्री जगन्नाथ मन्दिर अगरतला (त्रिपुरा)
20) श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, 187,सन् 1977
डी एल रोड, देहरादून (उ॰प्र॰)

शिक्षा केन्द्र समूह
1. श्रीचैतन्य सारस्वत चतुष्पाठी
श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ,पो. जिला मेदिनीपुरसन् 1946
2. श्री सिद्धांत सरस्वती प्राथमिक
विद्यालयईशोद्यान,श्री मायापुर, नदिया सन् 1959
3. श्री गौड़ीय संस्कृत विद्यापीठ ईशोद्यान,सन् 1959
श्रीमायापुर, नदिया
4. श्रीचैतन्य गौड़ीय वृन्दावन विद्यामन्दिरसन् 1961
(प्राथमिक आर माध्यमिक) 86 ए, रासबिहारी एविन्यु,कलकत्ता
5. श्रीचैतन्य गौड़ीय संस्कृत महाविद्यालयसन् 1968
86 ए रासबिहारी एविन्यु,कलकत्ता -26
6. श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ संस्कृत विद्यालय,सन् 1972
सैक्टर 20 बी, चंडीगढ़
7. श्रीचैतन्य गौड़ीय पाश्चात्य भाषा शिक्षालय,
86-ए रस बिहारी,कलकत्ता -26 सन् 1967
8. श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ,आन्तर्प्रादेशिक शिक्षा विभाग,
सैक्टर 20 बी, चंडीगढ़ सन् 1972

ग्रन्थागार

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ ग्रन्थागार (विश्वधर्म तुलना मूलक अनुसंधान के लिए)
35, सतीश मुखर्जी रोड,कलकत्ता-26 सन् 1970

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, ग्रन्थागार,
सैक्टर 20 बी, चंडीगढ़ सन् 1972

दातव्य चिकित्साल्य

1. श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ दातव्य चिकित्साल्य,
ईशोद्यान, श्री मायापुर नदिया सन् 1959
2. श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ दातव्य चिकित्साल्य
सैक्टर 20 बी, चंडीगढ़ सन् 1972
3. श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ दातव्य चिकित्साल्य,
ग्रांड रोड, पुरी (उड़ीसा) सन् 1978

मुद्रण केन्द्र

1. श्री चैतन्यवाणी प्रेस,25/1 प्रिन्स गुलाम
मुहम्मद रोड,टालिगंज कलकत्तासन् 1964

2. 34/1 A-ए, महिम हालदार स्ट्रीट,सन् 1966
कलकत्ता-26

मासिक पत्रिका
1. श्रीचैतन्य वाणी पत्रिका सन् 1961
35,सतीश मुखर्जी रोड,कलकत्ता-26

श्रीलगुरुदेव जी की सेवा प्रचालना के अधीन दो मठ
1. श्रीसरभोग गौड़ीय मठ, पो: चकचका बाजार, ई0 1955 जि0 कामरूप (वर्तमान जि0 वरपेटा) आसाम
2. श्रीगदाई गौरांग मठ, पो: बालियाटी, जि0 ढाका ई॰ 1955 (बंगलादेश)
श्रील गुरुदेव जी के अलौकिक महापुरुषोचित व्यक्तित्व से हैदराबाद और पंजाब में मायावाद छिन्न-भिन्न हो गया था। सैंकड़ों नर-नारियों ने श्रीमन्महाप्रभु जी के विशुद्ध भक्ति सिद्धान्त और भक्ति सदाचार को ग्रहण कर गौरमहाप्रभु जी के बताए रास्ते पर चलने का व्रत लिया था। पुरुषोत्तम धाम में विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और श्रीगौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता परमगुरु पादपद्म श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के आविर्भाव स्थान का मकान मिलना,चंडीगढ़ जैसे शहर में सैक्टर 20-बी में ज़मीन का मिलना और अगरतला में प्रतिष्ठान के केन्द्र की स्थापना के लिये श्री जगन्नाथ बाड़ी की सेवा मिलना – ये तीनों अद्भुत कार्य केवल श्रील गुरुदेव जी के असाधारण व्यक्तित्व के कारण ही हुए हैं। मुख्य रूप से श्रील गुरुदेव जी के प्रयास और उनके गुरुभाइयों की सहायता से आज श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी की शतवार्षिकी भारत के विभिन्न स्थानों में व्यापक रूपसे मनायी जा रही है।
राष्ट्रपति, गवर्नर, न्यायाधीश, मन्त्री, बैरिस्टर, एडवोकेट, वाइस चान्सलर, प्रोफेसर, मेयर, चीफ कमिश्नर, आई॰जी॰पी॰, डॉक्टर तथा धनाढ्य व्यक्ति, विश्व धर्म सम्मेलन में योगदान करने वाले विदेशी व्यक्ति एवं विभिन्न सम्प्रदायों के प्रधान इत्यादि देश का ऐसा कोई भी विशिष्ट व्यक्ति नहीं था जो श्रील गुरुदेव जी से भेंट कर उनके गौरकान्ति वाले शरीर एवं महापुरुषोचित व्यक्तित्व से आकर्षित न हुआ हो। श्रील गुरुदेव जी का पावन जीवन चरित्र जो अलग ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ है, उसे पड़ने से विस्तरित रूप से श्रील गुरुदेव जी के अवदान के वैशिष्ट्य के बारे में जाना जाता सकेगा। श्रीगुरुदेव जी के अद्वितीयअसाधारण आदर्श चरित्र में, अपरिसीम वात्सल्य में, अत्यन्त अद्भुत सहनशीलता और क्षमा गुण से खिंच कर बहुत से शिक्षित एवं प्रतिष्ठाशाली व्यक्तियों ने संसार की माया का परित्याग करके त्रिदण्ड सन्यास वेश का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण व कृष्णभक्तों की सेवा में अपने आप को नियुक्त किया जिसके फलस्वरूप थोड़े समय में ही प्रतिष्ठान का व्यापक प्रसार हो पाया है।
12 नवम्बर 1967 श्रीउत्थान एकादशीके दिन कलकत्ता 35, सतीश मुखर्जी रोड पर स्थित श्रीमठ में सायंकालीन धर्मसभा में श्रील गुरुदेव जी ने अपने आश्रित शिष्यों के लिये उपदेशामृत प्रदान करते हुये कहा-
“आज उत्थान एकादशी की तिथि को हमारे पूर्वाचार्य परमहंस श्रीमद् गौरकिशोर दास बाबा जी की विरहतिथि पूजा है। उनके अलौकिक चरित्र और उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में पूज्यपाद श्रीमद् पुरीमहाराज जी से आपने बहुत सी बातें सुनीं मैं सिर्फ उनका नाम लेकर उनकी कृपा प्रार्थना कर रहा हूं तथा उनके ही अभिन्न विग्रह श्री गुरु पादपद्म (जगदगुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के श्री चरणों) की कृपा प्रार्थना कर रहा हूं। दैव-वश: इसी तिथि को मेरा जन्म हुआ है। जो मुझसे स्नेह करते हैं वे स्नेह परवश होकर आज के दिन मुझे प्रचुर आशीर्वाद दे रहे हैं। ऐसा मूर्ख कौन होगा जो आशीर्वाद को मस्तक पर धारण नहीं करेगा और इस लाभ के सुयोग को अंगीकार नहीं करेगा। इसलिए मैं सबका आशीर्वाद ग्रहण कर रहा हूं। आप लोगों के आशीर्वाद से मेरी तमाम इंद्रियां निरन्तर कृष्ण और उनके भक्तों की सेवा में जैसे नियोजित रहें, ऐसी मेरी प्रार्थना है। सन्यासी व्यक्ति अपने जन्म दिन पर गुरु पूजा करते हैं, इसलिये मेरे लिये वह आज का विशेष कृत्य है

मेरे पास गुरु तीन प्रकार के हैं
1. गु+रु = अज्ञान+नाशकारी। अखंड ज्ञान तत्त्व भगवान के प्रकट होने से अज्ञान चला जाता है। इसलिये मूल गुरु भगवान ही हैं।
2. जिन्होंने मुझे साक्षात रूप से आकर्षण करके भगवद् सेवा में नियोजित किया, जो भगवान की द्वितीय मूर्ति हैं, वे हैं मेरे गुरुपादपद्म विश्व्यापी श्रीचैतन्य मठ व श्रीगौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट प्रभुपाद श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर।
3. तीसरे गुरुपादपद्म हैं- वैष्णव लोग।
गुरुदेव जिस प्रकार शिष्य को हमेशा सेव्य (भगवान)की सेवा में लगाये रखते हैं, उसी प्रकार वैष्णव भी मुझे आराध्य की सेवा में लगाये रखते हैं। शिष्य भी एक प्रकार के गुरु हैं- वे शिष्य होते हुये भी वास्तविक रूप से गुरु का काम करते हैं अर्थात् मुझे हमेशा गुरु सेवा में लगाये रखते हैं कहीं पर कुछ व्यक्तिक्रम करने का अवसर नहीं है। ज़रा सी गल्ती होने से वे पकड़ लेंगे। इसलिये शिष्य लोग भी मेरे गुरुवर्ग हैं। शिष्यों ने कीर्तन करके पूजा की, मैंने सुन कर पूजा की। यदि सुन कर उसे पाकेट (जेब) में डाल लेने की दुष्टप्रवृत्ति होगी तो वह भक्ति नहीं कहलायेगी। जो जिस भाषा का भी प्रयोग करे तब भी वे सभी मेरे सेव्य हैं, किन्तु सेव्य होने पर भी ज़्यादा स्नेह परम सेव्य को भी शास्य, लाल्य व पाल्य बना देता है। जैसे यशोदा माता, नन्द महाराज जी गोपाल को शासन करते हैं उनका लाल-पालन करते हैं। जब यशोदा माता जी ने गोपाल को बांधा तो उसे अपना सेव्य समझ कर नहीं बांधा, अपना पाल्य समझ कर बांधा था। सेव्य में पालक और पाल्य दोनों भाव सम्भव हैं या अपने सेव्य को अपना पालक और पाल्य, दोनों ही समझा जा सकता है। इसलिये शुद्ध भक्त में पालक और पाल्य, दोनों प्रकार के भाव होते हैं। श्रीलप्रभुपाद भी अपने शिष्यों को प्रभु कहकर बुलाते थे। वे छोटे-2 शिष्यों को भी ‘प्रभु’ या ‘आप’ कह कर बुलाते थे। उन्होंने बहुत कम तू या तुम कहा। जिसको वे ‘प्रभु’ या ‘आप’ कह कर सम्बोधन कर रहे हैं फिर उसे डांटते भी रहे हैं। जिसको प्रभु बोला जा रहा है उस पर क्या शासन भी किया जा सकता है क्या ये Paradoxical नहीं हैं? ये कपटता भी लग सकती है किन्तु ये कपटता है नहीं। जब प्रभु कह रहे हैं तब ठीक ही कह रहे हैं, और जब और भाव आ रहा है तब फिर शासन भी कर रहे हैं। एक विचार से गुरुदेव शासक हैं और दूसरे विचार से वे उनके बन्धु, हितकर्ता और प्रियतम हैं।
जिन्होंने मुझ पर आशीर्वाद किया, मैं उनका कृतज्ञ हूँ। उनके आशीर्वाद से जैसे मेरी चित वृत्ति केवल मात्र कृष्ण और उनके भक्तों की सेवा में ही लगे रहे। यदि किसी ने मेरी पूजा की है तो समझो वास्तविक रूप से उसने मेरे गुरुदेव जी की ही पूजा की है। गुरुदेव जी की सेवा साक्षात् भगवान की सेवा है। क्योंकि मैंने गुरुदेव जी में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और किसी भाव को कभी देखा ही नहीं। कृष्ण सेवा को छोड़कर जीव का और भी कोई स्वार्थ हो सकता है, वे जानते ही नहीं थे यदि जानते तो मेरे जैसे व्यक्ति को मठ में नहीं रख सकते थे।
वाचोवेगं मनस: क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम्।
एतान् वेगान् यो विषहेत धीर:। सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्॥
(श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत का प्रथम श्लोक)

जिन्होंने इन छ: वेगों पर विजय प्राप्त कर ली है वे ही दूसरों पर शासन कर सकते हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के मतानुसार उपरोक्त उपदेश गृहस्थियों के लिए है, गृहत्यागियों के लिए नहीं है। कारण, जो गृह त्याग करेंगे, ऐसा सोचना होगा कि उन्होंने पहले ही इन पर विजय पा ली है। छ: वेगों को दमन किये बिना त्यागी होने से वान्ताशी होने की सम्भावना है किन्तु श्रील प्रभुपाद जी ने मेरे जैसे व्यक्ति को जिसके अभी छ: वेग दमन नहीं हुये, उसे त्यागी क्यों बनाया? मैं भूल कर सकता हूं, किन्तु वे भूल नहीं कर सकते। मेरे हिताकांक्षी बन व मेरे शासक, पालक बन उन्होंने मुझे मठ में क्यों रखा? क्योंकि निश्चय ही वे समझते थे कि वैष्णव सेवा को छोड़कर जीव के मंगल का और दूसरा रास्ता नहीं है। वैष्णव सेवा और शास्त्रादि श्रवण करने के फलस्वरूप ही जीव को भगवान की महिमा का अनुभव होता है और तब ही वह भगवान की उपासना में आग्रहान्वित होता है। स्थूल रूप से तमाम इन्द्रियों को दमन करके हरि भक्त बना जाता है, इसकी कोई भी Guarantee नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में जो बहुत से हिजड़े हैं, वे सभी हरि भक्त होने चाहिए थे। हरिप्रिया-कृष्णप्रिया-कृष्णप्रीति को छोड़ श्रील प्रभुपाद जी को और कोई सत्ता नहीं थी। यदि कृष्ण न हलो, आमार प्रभुर सेवा न हलो- अर्थात् मेरे क्रियाकलापों से यदि भगवान श्रीकृष्ण में प्रीति न हो पायी व मेरे द्वारा भगवान की सेवा न हुई तो ऐसे त्याग का एक कौड़ी भी मूल्य नहीं है। ये तो फल्गुत्याग है। इस प्रकार बहिर्मुखी त्यागी, ब्रहमचारी की अपेक्षा भगवान की सेवा परायण व्यक्ति मेरा प्रिय है और वह सभी गुणों में श्रेष्ठा है, कारण, पूर्व कर्मानुसार कुछ दिन उसमें इन्द्रियों की चंचलता दिखने पर भी श्रेष्ठ रस के आस्वादन से धीरे-2 उसकी इन्द्रियों का वेग कम हो जायेगा। कृष्ण के अतिरिक्त और-और विषयों में उसका कोई मोह या अनुराग नहीं रहेगा।
“ विषयाविनिवर्त्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्ज रसः अपयस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते॥ ” – गीता
उपवास रखने से ही खाने की प्रवृत्ति क्या खत्म हो जायेगी? विषयों को ग्रहण नहीं करने से ही विषय ग्रहण करने की प्रवृत्ति दूर नहीं होती। श्रेष्ठ रस का आस्वादन मिलने से और-और रसों के प्रति फिर मोह नहीं रहता।
इसी को युक्त वैराग्य कहते हैं। इसलिये नारद जी ने युधिष्ठिर महाराज जी को उपदेश दिया था- ‘येनकेनाप्युपायेन मन: कृष्णे निवेश्येत्’अर्थात् हे युधिध्ठिर महाराज! जिस किसी भी उपाय से भी हो सके, अपने मन को कृष्ण में लगा दो। मैं वैराग्य कर रहा हूं इसका मतलब मैं संकल्प विकल्पात्मक मन का संग कर रहा हूं, कृष्ण का संग नहीं कर रहा हूं। उस से मेरी क्या सुविधा होगी? जो मेरी पूजा कर सकता है, स्तव स्तुति कर सकता है उस का संग मेरा हितकारी नहीं है, बल्कि जो शासन करता है, नियन्त्रित करता है, मेरी गल्तियां मुझे बताता है, उसका संग ही मेरे लिये हितकर है।
हरिभक्ति सांसारिक ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर नहीं करती है। जिन्होंने ये समझ लिया है कि कृष्ण भजन ही जीवन का एकमात्र प्रयोजन है उनके लिये पढ़ने लिखने में समय खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। मुझे एक बात याद आती है, तब मैं मद्रास गौड़ीय मठ में था। श्रीपाद श्रीधर महाराज व श्रीपाद वन महाराज जी इत्यादि गुरूभाई वैष्णव भी उस समय वहीं थे। पहले-पहले मुझे प्राय:10 वर्ष मद्रास गौड़ीय मठ में बिताने पड़े थे। हम सब के प्रयास से ही मद्रास गौड़ीय मठ का निर्माण हुआ। उस समय की ज़मीन देने वाले न्यायाधीश श्रीसदाशिव अय्यर के पुत्र श्रीराम चन्द्र अय्यर ने मद्रास में सर्वसाधारण के बीच में श्रीमन्महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करने के लिये मुझे तमिल भाषा सीखने का परामर्श दिया था और उस विषय में सहायता भी की थी किन्तु तीन दिन सीखने के पश्चात् गुरुदेव जी की Telegram आयी और मुझे पुरी जाना पड़ा। ये ठीक है कि बाद में अवश्य प्रभुपाद जी के पास प्रस्ताव रखा गया था। छ: महीने रहकर तमिल भाषा सीखने का। किन्तु तब प्रभुपाद जी ने कहा था – “भाषा के द्वारा कृष्ण भक्ति का प्रचार नहीं होता, हां विद्वत्ता या पांडित्य का प्रचार हो सकता है। जिसमें भगवान की प्रीति है उसीसे भगवद् प्रीति का प्रचार होगा। तुम जो भाषा जानते हो उसी भाषा से प्रचार करो। भाषा सीखने के लिये तुम्हारे बहुत मूल्यवान समय को नष्ट करने का परामर्श मैं नहीं दे सकता।” भगवद् प्रीति का अनुशीलन करने के लिये मठ है। भगवद्प्रीति के अनुशीलन में ही अपना सुख है एवं वही सब के लिये सुखदायक है। जो भगवान से प्रेम करते हैं वे सब जीवों से ही प्रेम करते हैं साधु भक्तों के संग से ही भगवद् भक्ति उदित होती है –
“संगेनसाधु भक्तानामीश्वराराधनेन च”।
मेरे असमर्थ होने पर भी इष्ट देव समर्थ हैं। यदि आप मुझे कृष्ण और उनके भक्तों की सेवा में लगाये रखें तो मेरे इष्ट देव श्रील प्रभुपाद, श्रीमन्महाप्रभु और श्रीराधाकृष्ण आप पर अवश्य कृपा करेंगे। आप की जय हो। श्रील प्रभुपाद प्रसन्न हो।
श्रील गुरुदेव जी ने अपने द्वारा संस्थापित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान की सुचारु परिचालना के लिये प्रतिष्ठान की 9 अगस्त 1976 को पश्चिम बंग सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1961 (Registration of Societies West Bengal Act XXVI of 1961) के अनुसार रजिस्ट्री की है। कलकत्ता, 35 सतीश मुखर्जी रोड पर स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में 27 फरवरी 1979 मंगलवार को शुक्लप्रतिपदा तिथि को वैष्णव सार्वभौम श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज और श्रील रसिकानन्द देव गोस्वामी प्रभु जी की तिरोभाव तिथि पूजा के समय सुबह 9 बजे महासंकीर्तन के बीच में अपने गुरु भाइयों और अपने आश्रित शिष्यों को विरह सागर में निमज्जित करते हुये श्रील गुरुदेव श्रीराधा गोविंद देव जी की पूर्वाह्नकालीन नित्यलीला में प्रविष्ट हो गये। इस दिन भक्तों ने 4 बजे संकीर्तन करते करते श्रील गुरुदेव जी के श्रीअंग के साथ श्रीमायापुर की यात्रा की एवं श्रीधाम मायापुर ईशोद्यान में स्थित मूल श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में यथाविधि शास्त्रीय विधानानुसार परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी के पौरोहित्य में समाधि – कार्य सुसम्पन्न हुआ एवं एक मार्च सन् 1979 को श्री धाम मायापुर ईशोद्यान स्थित श्री मूल मठ में विरह महोत्सव मनाया गया।

श्रील गुरुदेव जी की अन्तिम वाणी
स्थान- श्री चैतन्य गौड़ीय मठ,कलकत्ता
समय- 14 पौष, 30 दिसम्बर, 1978 शनिवार प्रात: काल
भूमिका- त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज जी ने अपने गुरुपादपद्मों में निवेदन किया कि श्रीगौड़ीय वैष्णव सिद्धान्तों से अनभिज्ञ एक पश्चिम देशीय भक्त चंडीगढ़ मठ से श्री गुरु मुखनि:सृत उपदेश वाणी सुनने के लिए कलकत्ता आया है किन्तु डॉक्टर ने आपको अधिक बातें करने के लिए मना किया हुआ है इसलिए उसे आपसे उपदेशों को सुनने का सुयोग हुआ ही नहीं। यदि आप उसे कुछ उपदेश दे सकते तो अच्छा होता।
परमाराध्य श्रील गुरु महाराज जी अपने आश्रित उक्त पश्चिम देशीय भक्त को उपलक्ष्य करके उपदेश देना प्रारम्भ किया। मैं अस्वस्थ हूँ, डॉक्टर ने मुझे ज़्यादा बातें बोलने के लिए मना किया हुआ है। हो सकता है कि अब मैं ज्यादा दिन इस जगत में न रह सकूँ। मैं तुमको कहता हूं कि साधन भजन के लिए अपने आराध्य देव का ही भजन करना चाहिए। स्त्री जब पति परायणा न रहे दूसरे को प्रीति करे तो वह पति की सेवा में अपने को नियोग नहीं कर सकती क्योंकि उस में व्यभिचार दोष आ जाता है व निष्ठा का अभाव होता है। अत: एकान्त पति-भक्ति के लिए पति के स्थान पर और किसी को नहीं बैठाना चाहिए। सती स्त्री पति के सम्बन्ध युक्त देवर, जेठ किसी की निन्दा नहीं करती बल्कि हर एक का सम्मान करती है। इसी प्रकार अपने आराध्य देव का अनन्य भाव से भजन करना तथा जो अन्य-अन्य देवी-देवता हैं उनका यथायोग्य सम्मान करना, किन्तु अपने आराध्य देव के ऊपर उन्हें स्थापन न करना। मेरी यह बात तुम्हारे लिए (हनुमानप्रसाद जी के लिए ही)है। तुम इस विषय में काम के आदमी हो, योग्यता भी है लेकिन अपने सम्प्रदाय की बात तुम समझे नहीं हो। गौड़ीय सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय-कृष्णभक्ति का सम्प्रदाय है- यह चैतन्य सम्प्रदाय सिर्फ एकान्त कृष्णभक्ति के लिए ही है। कृष्णभक्तगण एकमात्र कृष्ण का ही भजन करते हैं, और देव-देवी के बराबर कृष्ण को समझने से ठीक नहीं होगा; यह बात ध्यान में रखना की सभी देवता समान नहीं हैं, सब अवतार नहीं हैं।
“एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान स्वयं।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगे॥ ”
(भागवत् 1/3/28)
मत्स्य, कूर्म, राम व नृसिंहादि अवतारों के बारे में कहकर अन्त में उपसंहार के रूप में वेदव्याद मुनि ने कहा कि यह कोई अंश, कोई अंश का भी अंश अर्थात् कोई कला हैं। यह सब कृष्ण नहीं हैं, कृष्ण तो स्वयं भगवान हैं। जिनकी भगवत्ता से दूसरों की भगवत्ताहोती है, उनको ही स्वयं भगवान कहते हैं। कृष्ण के बराबर कोई नहीं है, यह सब मन में रखकर भजन करना, नहीं तो निष्ठा नहीं होगी। बाहर में हल्लागुल्ला करने से भक्ति बढ़ती नहीं। साधन भजन के लिए हर एक को यह बात ध्यान रखनी होगी। हम लोग किसी देव देवी की निन्दा नहीं करेंगे, अपने आराध्य देव का निष्ठा के साथ भजन करेंगे और इस निष्ठा को प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं से आशीर्वाद की प्रार्थना करेंगे।
मैंने मठ की रेजिस्ट्री की है,वह किसी की personal (व्यक्तिगत) सम्पति नहीं है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि मठ में रह कर हर एक आदमी हकूमत करेगा, स्वेच्छाचारी हो जाएगा, ऐसा नहीं, ऐसा करने से जीवन बर्बाद हो जाएगा। अत: मठ को चलाने के लिए एक Management Scheme होना आवश्यक है। वहां एक आदमी मठ का (आचार्य) होगा, आचार्य को प्रधान भी कहते हैं और President भी कहते हैं।
मेरे चले जाने से एक व्यक्ति मेरे स्थान पर बैठेगा। वह कौन बैठेगा? यह पद वोट से निश्चित किया जाये, यह हमारे गुरु जी का विधान नहीं है। वोट द्वारा आचार्य निर्णय करना हरिभक्ति नहीं है। आचार्य निर्णय होगा भगवान के द्वारा।
आचार्य भगवत् प्रिय होता है परंतु यह कौन बोलेगा? यह भगवान ही बोलेंगे कि यह व्यक्ति मेरा प्रियतम है, यह व्यवस्था ही यथार्थ है। इसीलिए गुरु परम्परा में जो वाक्य हैं, वही आचार्य निर्णय का विधान है। ऊपर से जो order आया है वही ठीक है। यहां पर कुछ आदमियों ने वोट देकर एक व्यक्ति को आचार्य किया, किन्तु भगवान की तरफ से कोई भगवत् प्रेमी किसी व्यक्ति को आचार्य बना दे- तो उनको ही आचार्य रूप से मानना होगा, यही शास्त्र का विधान है।
श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी अस्वस्थ लीला के समय Mr. J.N. Basu Solicitor को एक Constitution बनाने को कहा था। हमनें सुना था कि Constitution दो प्रकार से हो सकता है- By nomination or By election. दूसरे वाले तरीके के बारे में Mr. Basu ने एकconstitution लिख दिया था। परन्तु प्रभुपाद जी ने उसे पसन्द नहीं किया, उसे प्रभुपाद जी ने छोड़ दिया।
उस समय मैं और दो चार सतीर्थ वहां पर उपस्थित थे। बहुत आदमी कहेंगे यह होगा, यह नहीं होगा, वह होगा, वह नहीं होगा, इत्यादि। इसलिए वोट द्वारा साधु-निर्णय, आचार्य-निर्णय, महापुरुष निर्णय करना ठीक नहीं है। इसलिए ऊपर से अर्थात् भगवान की ओर से जिस व्यक्ति के लिए आचार्य पद के लिए निर्देश होता है, उसको ही मानना चाहिए।
ऊपर से जो निर्देश (order) आ रहा है उसे मानना सिर्फ गौड़ीय सम्प्रदाय में ही नहीं बल्कि रामानुज, विष्णुस्वामी व निम्बाकाचार्य सब सम्प्रदायों का ये ही विधान है। अतएव आम्नाय गुरु परम्परा में उक्त व्यवस्था को अवलंबन करना ही उचित है। अभी हम लोगों की जो गोष्ठी है, उस गोष्ठी में मेरे जो ज्येष्ठ गुरु भाई हैं, उनसे सलाह करके मैंने यही निश्चय किया है कि मेरे चले जाने के पश्चात् श्रीमान भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज Next President– अग्रिम आचार्य, होंगे। मैं चला गया, हमारे गुरु महाराज चले गए, इसलिए हम लोग स्वेच्छाचारी हो जाएं, यह ठीक नहीं हैं।
भक्त का आनुगत्य ही वैष्णवता है। भक्त कौन है? भक्त के आनुगत्य में जो भगवान की प्रीति के लिए रहता है,वही श्रेष्ठ भक्त है। इसलिए भक्त का आनुगत्य करना ही भक्ति प्राप्ति का रास्ता है। भगवद्-कृपा, भक्त-कृपा अनुगामिनी होती है। भक्त की कृपा जिन पर होती है, भगवान की कृपा भी उन पर ही होती है। यही धारा है। इसी प्रकार का विचार लेकर आप लोगों को चलना चाहिए। यही मेरा आप लोगों से संक्षेप में निवेदन है। मैंने और भी Detail रूप में लिख दिया है।
मठ में किसी से मेलजोल नहीं हुआ तो उसी समय साथ-साथ मठ से चले जाओ, यह बात बोलना ठीक नहीं। इससे Chaos (गड़बड़) हो जाएगा। पहले उसको समझाना पड़ेगा, उससे यदि वह नहीं समझता है तो पत्र देकर तथा रुपया पैसा देकर उसे दूसरे मठ में भेजना पड़ेगा। उच्छृंखल होने से नहीं चलेगा, श्रेष्ठ की आज्ञा, या Leader (मुखिया) की जो भी आज्ञा हो, वह माननी पड़ेगी। बात नहीं सुनना, इच्छा अनुसार चलना ठीक नहीं है, मठ रक्षक की बात माननी ही होगी। क्योंकि वे भगवद् सेवा के लिए ही बोलते हैं, इसे हमेशा याद रखना।
एक और बात मैं बोलता हूँ। हम लोग हरि भजन करने के लिए आए हैं। इसमे तीन रुकावटें हैं।
1॰ विषय स्पृहा- कनक, रुपये पैसे के लिए लोभ हरि भक्ति में पहली बाधा है। अपना अभिनिवेश, अपनी आसक्ति हरि के पाद पद्मों में रहेगी। यह छोड़कर किसी और विषय में आसक्ति होने से मैं पतित हो जाऊंगा। बाहर के आदमी तो समझेंगे नहीं। इसी लिये मैं रुपया पैसा जमा रख दूं, भविष्य में जरुरत के समय अपने काम में लगाऊँगा , यह विचार ठीक नहीं है। जो लोग भिक्षुक हैं, वह लोग भिक्षा कर के रुपया मठ में हर रोज़ जमा करवायेंगे। मठ रक्षक के लिये कहना चाहता हूं कि उसे चाहिये कि बीमारी होने से चिकित्सक के लिये पूरा यत्न करना चाहिए। ज़रूरत पड़ने पर मठ में रुपया नहीं होने पर उधार लेकर भी चिकित्सा की व्यवस्था करनी होगी।
इसी मठ में ऐसा समय भी बीता जब बाज़ार करने के लिये भी पैसा नहीं था। तब किसी को भी न बतला कर, छिपा कर क़र्ज़ा कर के बाज़ार करने के लिए पैसा दिया। केवल उद्धारण प्रभु को मालूम था और किसी को नहीं। वो गृहस्थ थे- गोविन्द बाबू। उन के पास रुपया नहीं होने पर वह उन की स्त्री से मांग कर लाते थे। बाद में वही रुपया वापिस लौटा दिया। यह बात भला कितने व्यक्तियों को मालूम है?
गोस्वामी महाराज, नेमि महाराज और मैं, हम लोग मठ की सेवा के लिए सबCollection किया करते थे। मैं भिक्षा का पूरा रुपया मठ में देता था। मेरे पहनने के लिए पहले केवल फतुआ (कमरी) होता था। श्रीमद् भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज, यायावर महाराज, श्रीधर महाराज, जिन के साथ मैं रहता था, उनको जब किसी वस्तु की आवश्यकता होती थी, मैं खरीद कर देता था परन्तु अपने लिये कोई वस्तु नहीं खरीदी कलकत्ता मठ में जब मैं आता था तब अपने ज्येष्ठ गुरु भ्राता से जिस वस्तु की आवश्यकता समझता था, मांग लेता था। मैं उन्हें कहता- क्या मठ में कपड़ा है? यदि है तो कृपया एक कपड़ा दे दो, अनावश्यक भोग के लिये मैं नहीं कहता था। भिक्षा का रुपया तुम लोग अपने लिये जमा न करना। इससे हरि भक्ति नहीं होगी। यदि भिक्षा का रुपया हम लोग ले लेंगे, उससे मठ को कुछ हानि नहीं होगी। तुम्हारा ही नुकसान होगा। मठ की रक्षा करेंगे कृष्ण, भक्त गण, वैष्णव गण। परन्तु भिक्षा का पैसे जो जमा करने की चेष्टा करते हैं उनका सारा परमार्थ चूल्हे में चला जाएगा, हरि भजन नहीं होगा। पैसा जमा नहीं करना, जो भी हो उसे सारा मठ रक्षक के पास जमा करना होगा। जब कुछ असुविधा हो तो मठ रक्षक को कहना। कनक स्पृहा हरि भक्ति में बाधा है।
2॰ और एक हरि भक्ति में रुकावट है- स्त्री-संग। स्त्री के साथ स्थूल संग, सूक्ष्म संग, दोनों प्रकार का स्त्री-संग ही हरि भक्ति में बाधक है। साक्षात् स्त्री-संग तो करना ही नहीं चाहिए, ऐसा कि मन में भी उसके बारे में चिन्ता या ध्यान नहीं करना, क्योंकि हम लोग सब कुछ छोड़कर हरि भजन करने के लिये आए हैं।
3॰ और एक रुकावट है-प्रतिष्ठा के लिये चेष्टा। गुरुदेव कहा करते थे-
“ कनक कामिनी प्रतिष्ठा बाघिनि,
छाड़ियाछे यारे सेइ त’ वैष्णव।
सेइ अनासक्त सेइ शुद्ध भक्त,
संसार तथाय पाय पराभव॥ ”
प्रभुपाद जी ने कनक, कामिनी और प्रतिष्ठा की बाघिनी (शेरनी) के साथ तुलना की है। प्रतिष्ठा खतरनाक है, लेकिन प्रतिष्ठा नहीं चाहते हुए जो लोग हरि भजन करते हैं उनके पास प्रतिष्ठा स्वयं आ जाती है। लोग स्वाभाविक रूप से उनका सम्मान करते हैं। प्रतिष्ठा के डर से श्रीपाद माधवेन्द्र पुरीपाद भाग गये थे। परन्तु कृष्ण प्रेमी होने के कारण प्रतिष्ठा उनके पीछे-2 चली। इस लिये तुम इन तीन बाधाओं को त्याग देना। यह बहुत आसानी से नहीं जाती हैं। ये सब चित्त को खींच लेती हैं। अर्थ की आकांक्षा, स्त्री-भोग की आकांक्षा, प्राकृत यश की आकांक्षा, ये तीन बद्ध जीव की आकांक्षाएं हैं। अनर्थ युक्त साधक में ये तीन रहती हैं। लेकिन इन का हम वर्धन (सम्मादर) नहीं करेंगे।
मेरा जाने का समय हो गया। तीर्थ महाराज सब समय नहीं रहते। इसलिये जगमोहन प्रभु पर देखभाल के लिए ज़िम्मेदारी है। मेरी हस्पताल में जाने के लिए इच्छा नहीं थी लेकिन वैष्णवों की इच्छा पूर्ति के लिए जा रहा हूँ।
मेरी कर्कश कथा के कारण तुम लोग दुख न मानना मुझे क्षमा करना, जो वैष्णवजन हैं वो लोग मेरे सेव्य हैं। मैं सब की सेवा करने को चाहता हूँ। तुम लोग सब निष्ठा के साथ हरि भजन करना। जैसी भी अवस्था में रहो हरि भजन कभी नहीं छोड़ना। यही मेरी तुम लोगों के पास प्रार्थना, अनुरोध, वांछा और उपदेश है। सर्व अवस्था में तुम लोग हरि भजन करना। श्रेष्ठ वैष्णव हो हर समय सम्मान देना। इस में किसी प्रकार का संकोच न करना। इस से मंगल होगा।
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा सिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम्पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम:॥
8 चैत्र 22 मार्च वृहिस्पतिवार रात्रि 7 बजे: 35 सतीश मुखर्जी रोड कलकत्ता के श्रीमठके संकीर्तन भवन में परम पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति हृदय वन गोस्वामी महाराज जी के पौरोहित्य में विरह सभा का आयोजन किया गया जिसमें अमृत बाज़ार पत्रिका के सम्पादक श्री तुषार कान्ति घोष ने प्रधान अतिथि का आसन ग्रहण किया था। श्रील गुरु महाराज जी के बहुत से गुरु भाई, वैष्णव-आचार्य एवं कलकत्ता के विशिष्ट नागरिक लोग इस विरह सभा में उपस्थित थे।