Gaudiya Acharyas

श्री गंगामाता

गंगा माता गोस्वामी जी श्री गौर शक्ति श्री गदाधर पंडित गोस्वामी जी की शिष्य परम्परा में हैं। वे श्री हरिदास पंडित गोस्वामी जी की दीक्षिता एवं चरणाश्रिता शिष्या हैं। श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी द्वारा विरचित श्री चैतन्य चरितामृत में श्री हरिदास पंडित जी की महिमा इस प्रकार से वर्णित है:-
“सेवार अध्यक्ष श्री पंडित हरिदास। ताँर यश: गुण सर्वजगते प्रकाश॥ सुशील, सहिष्णु, शांत, वदान्य गंभीर। मधुर- वचन, मधुर-चेष्टा, महाधीर॥ सबार सम्मानकर्ता, करेन सबार हित। कौटिल्य-मात्सर्य-अहिंसा शुन्य काँप चित्त॥ कृष्णेर ये साधारण सद्गुण प्रकाश। से सब गुणेर ताँर शरीरे निवासा॥

पंडित गोसाञिर शिष्य-अनंत आचार्य।
कृष्णप्रेममयतनु, उदार, सर्व-आर्य॥
ताँहार अनंत गुण के करु प्रकाश।
ताँर प्रिय शिष इँह पंडित हरिदास॥
चै. च. आ. 8/54-57, 59,60

अर्थात् श्री हरिदास पंडित जी श्री गोविंद जी की सेवा के अध्यक्ष थे, जिनकी कीर्ति एवं गुणावली जगत प्रसिद्धथी। वे सुशील, सहनशील, शांत चित्त, उदार एवं गंभीर थे। वे मधुर भाषी थे एवं उनके सब कार्य सुंदर होते थे। वे अति धीर थे। वे सबका सम्मान एवं हित करने वाले थे। कुटिलता, ईर्ष्या-मत्सर तथा हिंसा तो उनका चित्त जानता ही नहीं था। श्री कृष्ण के 50 साधारण सद्गुण हैं,वे समस्त उनमें विद्यमान थे।
श्री अनंत आचार्य श्री गदाधर पंडित गोस्वामी जी के शिष्य थे। वे श्री कृष्ण प्रेम की मूर्ति थे एवं उदार तथा परम सरल चित्त वाले थे, उनके अनंत गुणों का वर्णन कौन कर सकता है? श्री हरिदास पंडित उन्हीं के प्रिय शिष्य थे।
श्रीलभक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर जी ने अनुभाष्य में लिखा है कि अष्ट सखियों में से एक ‘सुदेवी सखी’ ही गौर अवतार में श्री अनंत आचार्य हैं।
“अनंत आचार्य गोस्वामी या सुदेवी पुरा व्रजे”
-गौरगणोद्देश दीपिका 165 श्लोक

श्री पुरुषोत्तम धाम के प्रसिद्ध गंगा माता मठ की जो गुरु परंपरा है उसमें श्री अनंत आचार्य जी को ‘विनोद मंजरी’ कहा गया है और श्री अनंत आचार्य जी के शिष्य श्री हरिदास पंडित गोस्वामी जिनका एक नाम’श्री रघुगोपाल भी है’, उन्हें श्री ‘रस मंजरी’ नाम से कहा गया हैा श्री लक्ष्मी प्रिया(गंगा माताजी की मामी) व गंगा माता(पुंटीया की राजकन्या) दोनों ही श्री हरिदास पंडित जी की शिष्या थीं।
श्री गंगा माता गोस्वामी जी के पावन चरित्र के विषय में ‘श्री गौड़ीय वैष्णव अभिधान’ में संक्षिप्त रूप से मिलता है जबकि श्रीमद् सुंदरानन्द विद्याविनोद जी द्वारा रचित ‘श्रीक्षेत्र’ में कुछ विस्तृत पाया जाता है। श्री गंगा माता गोस्वामिनी का पिता जी के द्वारा दिया पहला नाम ‘श्री शचीदेवी’ था। श्री शची देवी बंग देश (वर्तमान में बंगला देश) के राज शाही जिले के पुंटिया के राजा श्री नरेश नारायण की कन्या थीं।
शची देवी बचपन से ही संसार से विरक्त और परमभक्ति परायणा थीं। शची देवी के माता-पिता जो शची देवी का विवाह करवाने का प्रयास करने लगे तो शची देवी ने कहा वह किसी मरणशील व्यक्ति को पति रूप से स्वीकार नहीं करेगी। शचीदेवी का ऐसा संकल्प जानकर माता-पिता चिंतित हो उठे। थोड़े समय के बाद इनकी माताजी स्वधाम प्राप्त हो गईं। जननी के स्वधाम प्राप्त हो जाने पर शची देवी गृहत्याग कर तीर्थ भ्रमण के लिए निकल पड़ीं। नाना तीर्थों का भ्रमण कर वे पहले श्रीक्षेत्र और बाद में श्रीवृंदावन धाम में आकर पहुंचीं।
वृंदावन धाम श्री हरिदास पंडित जी के दर्शन कर शची देवी कृतार्थ हो गईं और उनसे दीक्षा लेने के लिए व्याकुल हो उठीं। एक ओर इनकी व्याकुलता को देखकर व दूसरी ओर उसे राजकन्या समझकर गोस्वामी ठाकुर मंत्र देने के विषय में दुविधा में पड़ गए। किंतु बाद में उन्होंने शची देवी का वैराग्य और उसकी भजन में तीव्र उत्कंठा देखकर चैत्र शुक्ला एकादशी बुधवार को श्री गोविंद जी के मंदिर में उसे अष्टादश अक्षर मंत्र प्रदान किया। श्री गुरुदेव जी की कृपा प्राप्त करने के लिए शची देवी माधुकरी मांग कर उससे जीवन निर्वाह करती हुई तीव्र वैराग्यके साथ भजन करने लगीं। श्रीशची देवी ने 1 साल वृंदावन में और उसके पश्चात श्री गुरुदेव जी के निर्देश से अपनी बड़ी गुरुबहन भजन परायणा स्निग्धा परमा वैष्णवी श्री लक्ष्मी प्रिया देवी, जो कि प्रतिदिन तीन लाख हरिनाम करती थी, के साथ राधा कुंड में रहकर भजन का आदर्श दिखाया था। वे प्रतिदिन गिरिराज गोवर्धन परिक्रमा करती थीा

कुछ साल राधा कुंड में भजन करने के पश्चात शची देवी जब भजन प्रौढ़ा हो गई तो श्री हरिदास गोस्वामी जी ने उन्हें श्री पुरुषोत्तम धाम में श्री वासुदेव सार्वभौम जी का स्थान उद्धार करने के लिए भेजा। श्री गुरुदेव जी का मनोरथ पूरा करने के लिए गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करशचीदेवी पुरुषोत्तम धाम में चली आई एवं क्षेत्र सन्यास का व्रत लेकर वहां रहने लगीा उस समय वासुदेव सार्वभौम जी का स्थान प्राय: लुप्त सा हो गया था तथा वहाँ केवल एक पुराने से टूटे-फूटे मंदिर में वासुदेव सार्वभौम जी के सेवित श्री राधा दामोदर शालग्राम पूजित हो रहे थेा
शचीदेवी जब घर में थीं तब से वे एकाग्रता के साथ शास्त्र अनुशीलन करती थीं। जब वे राधा कुंड में रहीं तो वहां भी वैष्णव के साथ भागवत की चर्चा करती रहती थी जिससे वे भागवत के पाठ में भी पारंगत हो गईं। सार्वभौम भट्टाचार्य जी का स्थान उद्धार करने के उद्देश्य से वे प्रचार करने में लग गईं। उनके मुखारविंद से निःसृत भक्ति से ओतप्रोत अपूर्व भागवत की व्याख्या सुनकर एवं उनके वैष्णवोचित गुणों से आकर्षित होकर बहुत से भक्त उनके पास आने लगे। धीरे-धीरे उनका यश चारों तरफ फैल गया। यहां तक कि उस समय के पुरी के राजा मुकुंद देव भी उनकी भागवत कथा श्रवण करने आएा वे भी शचीदेवी से भागवत पाठ सुनकर मुग्ध हुए बिना ना रह सकेा

एक दिन रात्रि के समय निद्रावस्था में राजा मुकुंद देव को स्वपन में श्री जगन्नाथ जी द्वारा आदेश हुआ कि वह स्वेदगंगा के पास वाली जमीन शची देवी को दे दे। अगले दिन प्रातः ही राजा परम उल्लास के साथ शची देवी के पास गए और उन्हें जगन्नाथ जी द्वारा स्वप्न में दिए गए आदेश की बात बताई।
नितांत विषय विरक्ति होने पर भी गुरुजी के आदेश को स्मरण कर लुप्त तीर्थ के उद्धार के लिए उन्होंने वह ज़मीन ग्रहण कर लीा वह भिक्षा करके ठाकुर जी की सेवा करने लगी। जहां पर भगवान के प्रति वास्तव में प्रीति है और जहां भगवद्सेवा को अपना स्वार्थ समझा जाता है वहां पर किसी प्रकार के कष्ट में कष्ट नहीं लगता बल्कि सेवा का संयोग मिलने से भक्तों को आनंद ही होता है।
इसी बीच एक अलौकिक घटना घटी। कृष्णा-त्रयोदशी तिथि को महा वारुणी स्नान का समय आ गया। पुण्यार्थी सभी लोग गंगा स्नान के लिए चल पड़े। शची देवी को भी सबने जाने के लिए कहा किंतु क्षेत्र संयास लिए होने के कारण एवं गुरुजी के मनोभिष्ट की सेवा में लगे होने के कारण उन्होंने जाने में असमर्थता जताईा उनके जाने की चाह न होने पर भी श्री जगन्नाथ देव जी ने उनके स्नान की व्यवस्था कर दीा श्री जगन्नाथ देव जी ने महावारूणी के स्नान के समय शची देवी को स्वप्न में श्वेत गंगा में स्नान करने का आदेश दिया। स्वप्न में आदेश मिलने पर शची देवी ने , कोई देख न ले, इसलिए रात्रि के समय श्वेत गंगा में डुबकी लगाईा शची देवी ने जैसे ही श्वेत गंगा में डुबकी लगाई उसी समय गंगा देवी प्रकट हो गई और उन्हें अपने स्रोत में बहाकर मंदिर के अंदर ले गईं। शची देवी ने वहां गंगा और गंगा में स्नान करने वाले सभी भक्तों को साक्षात रूप से देखा। उन्होंने देखा कि चारों तरफ स्नान करते समय कोलाहल हो रहा है और वह उनके बीच में खड़े होकर स्नान कर रही हैा कोलाहल सुनकर मंदिर के द्वार रक्षक जाग उठे, मंदिर के अंदर शोर सुनकर उन्होंने जगन्नाथ मंदिर के सेवकों को खबर दीा सेवकों ने महाराज जी को मंदिर के अंदर का सारा हाल बताया तो महाराज ने मंदिर खोलने का आदेश दियाा किंतु मंदिर के द्वार खोलने से देखा गया कि मंदिर में लोग और कोलाहल कुछ भी नहीं हैा एक मात्र शची देवी खड़ी हैा पहले तो कुछ ना समझ पाने के कारण जगन्नाथ जी के सेवक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गएा होश संभालने पर उन्होंने सोचा कि शायद शची देवी श्री जगन्नाथ जी के धन व रत्नादि चोरी करने के लिए मंदिर में छिपी हुई थी, अब चोरी करते रंगे हाथों पकड़ी गईा महाभागवत के ऊपर सन्देह कर उसकी निंदा करने के कारण उनको कई प्रकार के रोगों और शोको ने घेर लियाा श्री जगन्नाथ देव जी की सेवा में विघ्न पड़ गयाा पुन: श्री जगन्नाथ देव जी ने स्वप्न में सारी घटना सुनाते हुए कहा-उन्होंने ही शची देवी की शुद्ध भक्ति से प्रसन्न होकर अपने पाद्पद्मों से गंगा प्रकट करवाकर उसे स्नान करवाया थाा साथ ही यह भी कहा कि अगर तुम शची देवी से क्षमा मांगो और उनसे मंत्र ले लो तो तुम्हारे अपराध दूर हो सकेंगे अन्यथा नहीं। तब राजा मुकुंद देव जगन्नाथ जी के सेवकों को साथ लेकर शची देवी के पास पहुंचेा वहां पहुंच कर सबसे पहले उन्होंने शची देवी को दंडवत प्रणाम किया और प्रणाम करते हुए उनसे क्षमा मांगीा उसी समय से शची देवी ‘गंगा माता’ जी के नाम से प्रसिद्ध हो गईं और जनसाधारण में वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य जी का स्थान ‘गंगा माता मठ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयाा
राजा मुकुंद एवं श्री जगन्नाथ जी के सेवकों द्वारा मंत्र दीक्षा के लिए प्रार्थना करने पर भी श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा पालन करने के लिए गंगा माता जी ने केवल श्री मुकुंद देव जी को ही दीक्षा प्रदान कीा राजा ने गुरु दक्षिणा के रूप में उन्हें काफी जमीन देने की इच्छा व्यक्त की किंतु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं कियाा किंतु राजा के द्वारा बार-बार सेवा के लिए प्रार्थना करने पर उन्होंने दो भांड महाप्रसाद, एक भांड सब्जी, जगन्नाथ जी का एक प्रसादी वस्त्र और दो पण कपर्दिका(160 पैसे) प्रतिदिन दोपहर के बाद मठ में भेजने की अनुमति दीा अभी तक यह प्रसाद नियमित रूप से गंगा माता मठ में भेजा जा रहा हैा धनंजय पुर का महीरथ शर्मा नामक एक स्मार्त ब्राह्मण भी गंगा माता गोस्वामिनी जी की कृपा प्राप्त कर धन्य हो गया थाा राजस्थान के जयपुर निवासी ब्राह्मण श्री चंद्र शर्मा जी के घर में ‘श्री रसिक राय’ नामक श्री विग्रह विराजित थेा सेवा अपराध के कारण वह निर्वश हो गया थाा श्री जगन्नाथ देव जी ने उसे स्वप्न में कहा कि यदि तुम भी विग्रह की सेवा पुरुषोत्तम धाम में श्री गंगा माता जी को दे दो तो तुम्हारे सारे अपराध और भय दूर हो जाएंगेा ब्राह्मण, श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा के अनुसार राधारानी के साथ श्री रसिक राय विग्रह को लेकर श्री क्षेत्र में गंगा माता जी के पास पहुंचेा उन्होंने गंगा माता गोस्वामिनी जी को श्री विग्रह की सेवा के लिए प्रार्थना कीा पहले तो गंगा माता जी ने उसे ग्रहण करना अस्वीकार कर दिया, कारण, उनके लिए श्री विग्रहों की राजसेवा चलानी संभव नहीं थी परंतु बाद में ब्राह्मण द्वारा तुलसी के बगीचे में ही विग्रह छोड़कर चले जाने पर श्री रसिक राय जी ने स्वयं ही अपनी सेवा के लिए गंगा माता जी को सपने में आदेश दे दियाा स्वप्न में आदेश मिलने पर गंगा माताजी ने उल्लास के साथ विग्रहों का प्रकट उत्सव मनायाा
श्री गंगा माता मठ में पांच युगल मूर्तियां विराजित हैं। श्री श्री राधा रसिक राय, श्री श्री राधा श्यामसुंदर जी, श्री श्री राधा मदन मोहन जी, श्री श्री राधा विनोद और श्री श्री राधा रमण जीा इनके अतिरिक्त सार्वभौम भट्टाचार्य जी द्वारा सेवित श्री दामोदर शिला, नृत्य मे रत श्री गौर मूर्ति और लड्डू गोपाल विग्रह भी वहां सिंहासन पर सेवित हो रहे हैा
गंगा माता मठ के इतिहास से जाना जाता है कि श्री गंगा माता जी सन् 1601 ई. के ज्येष्ठ मास की शुक्ला तिथि को आविर्भूतहुईंथीं तथा सन्1721 ई. में नित्यलीला में प्रवेश कर गईं।
पुरी में हावेलीमठ, गोपाल मठ और कटक जिले में टांगी नामक स्थान पर श्री गोपाल मठ-गंगा माता मठ की शाखाएं हैं हरि भक्त चाहे किसी भी जाति किसी भी वर्ण और किसी भी कुल में आविर्भूत हो जाएँ तब भी वे सर्वोत्तम और सब के पूजनीय होते हैं। इसका एक उदाहरण गंगामाता गोस्वामिनी हैा द्वापर युग में ब्राह्मणों की पत्नियों ने पति की आज्ञा का उल्लंघन करके भी कृष्ण सेवा की थीा कलियुग में नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी की कृपा से वेश्या परम वैष्णवी बन गई थीा इसका प्रमाण है कि उनका दर्शन करने के लिए बड़े-बड़े वैष्णव भी आया करते थेा