Harikatha

आप निश्चिन्त होकर भगवान् को पुकारें

श्रीहरि-भजन आरम्भ करते ही माया के सभी अनुचर थोड़ी-बहुत बाधाएँ उत्पन्न करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु हरिभक्तों का उनसे तनिक मात्र भी अनिष्ट नहीं होता वरन् उससे भक्ति और यश में वृद्धि ही होती है। एक वस्तु ही समस्त शक्तियों का मूल है और वही सत्य है। इसलिये जो लोग सत्य-परमेश्वर के साथ अपने स्वार्थ को मिला लेते हैं, परमेश्वर की माया द्वारा उनका अनिष्ट भला किस प्रकार सम्भव हो सकता है? ज्ञानहीन मनुष्य, नाशवान प्राकृत, वस्तुओं में मग्न रहने के कारण सर्वदा ही भय से ग्रस्त रहते हैं। किन्तु शुद्ध भक्त और विवेकी मनुष्य ये समझते हैं कि समस्त वस्तुओं के नियन्ता श्रीकृष्ण हैं। इसलिये श्रीकृष्ण के शरणागत भक्तों को किसी प्रकार का भी भय नहीं होता। जीवों में जितनी श्रीकृष्ण से दूर रहने की प्रवृति होती है, उतनी ही माया उनमें प्रवेश कर उनको अज्ञान से उत्पन्न दुःख, भय और शोकादि को प्रदान करती है। लोगो को दिखाने के लिये अथवा अपने मन को छलने के लिये पालन किया गया धर्म और वास्तविक श्रीकृष्ण-भक्ति दोनों सम्पूर्णतः अलग-अलग हैं। श्रीकृष्ण की इच्छा में अपनी इच्छा को पूर्णतः समर्पित करना ही शुद्ध-भक्ति है और उसके लिए हम चेष्टा करते हैं। आप श्रीकृष्ण के होंगे तो श्रीकृष्ण आपके हो जायेंगे। बस लौकिक और कुल के मामूली धर्मो का मोह आपको कभी शुद्ध-भक्ति के पथ से विचलित न करे। जो व्यक्ति आपको हरि-भजन में बाधा प्रदान करते हैं उनके चरित्र और जीवन का कर्मशः विश्लेषण करने से आपको मालूम होगा कि उनका जीवन श्रीकृष्ण को छोड़ कर अन्य मायिक विषयों के लिये ही है। इसी प्रकार मायाबद्ध-जीव और शुद्ध-भक्त के विचार कभी भी एक नहीं हो सकते। उनमें भेद होना अवश्यम्भावी है। किन्तु बुद्धिमान-भक्त भजन में अपनी पूरी निष्ठा देखते हैं, और दुनियावी व्यवहार करने में भी वे अपने कदम पीछे नहीं हटाते। केवल भक्ति-विरोधी लोकाचार को त्यागना होगा। किन्तु जो शुद्ध भक्ति के प्रतिकूल नहीं है, उन लोक-व्यवहारों और सामाजिक क्रिया-कलापों को त्यागने के आवश्यकता नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता कि गृहस्थ-भक्त हरिभजन करते हुए अपने साधारण सामाजिक क्रिया-कलापों का पालन क्यों न करें? बल्कि उन्हें तो चाहिए कि वे अपने आत्मीय स्वजनों के घर में विवाहादि कार्यों में अपना पूर्ण योगदान दें। हाँ केवल देवताओं का प्रसाद अथवा अमेध्यादि (न खाने योग्य वस्तुएँ) ग्रहण न करें।

आपके समाज में या रिश्तेदारों में यदि किसी ने भी उच्चशिक्षा प्राप्त नहीं की तो क्या आपने भी उच्च शिक्षा से परहेज रखा? इसी प्रकार यदि आपके रिश्तेदारों में से किसी को भी पारमार्थिक शिक्षा में उन्नत अधिकार प्राप्त न हुआ तो इस कारण से उनकी तरह आप को भी परमार्थ के सम्बन्ध में अशिक्षित रहना होगा, कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा नहीं कहेगा। वरन् आप अपने उन्नत आदर्शमय जीवन के द्वारा अपना और अपने समाज का हित करें। अपने सांसारिक जीवन के लिये परमार्थ को नष्ट नहीं करना। सांसारिक सुख-स्वछंदता द्वारा लोगों को आप कितना खुश कर सकते हो और वह ख़ुशी कितने थोड़े समय तक रहेगी और इससे आपका और उनका कितना कल्याण होगा? ये विशेष रूप से सोचना चाहिये। किसी भी समय मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। इसलिये ऐसी तथाकथित सहानुभूति उसके पश्चात् भी कार्य-कारी या सहायक होगी क्या? मृत्यु के साथ-साथ ही देह-सम्बन्धी पृथ्वी के सभी वैभव व सुख यहीं पर पड़े रह जायेंगे और हमे उनके संग से वन्चित होना पड़ेगा। हित और अहित के सम्बन्ध में अज्ञानी, कामी, क्रोधासक्त और कु-संस्कारों में डूबे हुए बद्ध जीवों के मन को खुश करने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना चाहिये। श्रीभगवान् ही सबके रक्षक और पालक हैं। असहाय और कल्याण से वन्चित मूढ़ व्यक्तियों का अनुसरण करने से आप अपने बहु-मूल्यवान् और कोमल श्रद्धायुक्त जीवन को नष्ट न करें।

उत्साह न होने से कोई भी व्यक्ति, किसी भी मार्ग पर उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए आप उत्साह के साथ जितना अधिक से अधिक समय सम्भव हो श्रीभगवान् को पुकारें। संख्या पूर्वक, अपराध त्याग कर श्रीमाला पर श्रीमहामंत्र का जप करें। अपने आप को श्रीकृष्ण की सम्पत्ति मान लेने पर अपनी इन्द्रियों को तर्पण करने का उत्साह नहीं जागेगा। श्रीकृष्ण-सेवा के निमित्त नियुक्त होने से आनन्द और उत्साह होगा।

श्रीकृष्ण अखिल रसामृत मूर्ति हैं, उनसे प्रार्थना करने से हरेक प्रकार के रस की प्रार्थना करने वाले की प्रार्थना पूरी होगी। जिन लोगों का और कोई विशेष स्वार्थ नहीं होता वे श्रीभगवान् के पूर्ण रसमय स्वरूप को पूर्ण रूप से आस्वादन करने का सुयोग प्राप्त करते हैं। जो जैसा रस भगवान् को अर्पण करते है वे उसी प्रकार का रस श्रीभगवान् से प्राप्त करते हैं। भक्ति-पथ में भगवान् को समर्पण कर देने की ही बात है और इस के लिये अपनी सुख-सुविधा और प्रवृतियों की बलि देनी ही होगी। तुच्छ व्यक्तियों के दुःख, भय शोकादि को दूर करने के लिये काय-मन-वाक्य की बलि देने का तनिक भी लाभ नहीं है। अनन्त, सर्वशक्तिमान्, सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण को ही इन सब का उपहार देने का विधान है। आप निश्चिन्त होकर भगवान् को पुकारें, वे अवश्य ही आपके अनर्थों को दूर करेंगे।”

महामंत्र: श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रीचैतन्यचरितामृत और श्रीचैतन्य भागवत – इन दोनों ही ग्रंथों में “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।” इस सोलह नाम और बत्तीस अक्षर वाले हरिनाम महामन्त्र को जीव मात्र को ग्रहण करने का उपदेश दिया है। श्रीगोपालगुरु गोस्वामीजी ने महामन्त्र के सोलह नामों के अर्थ इस प्रकार किए हैं-

‘हरि’ शब्द का उच्चारण करने से दूषित अन्तःकरण वाले व्यक्तियों के सारे पाप दूर हो जाते हैं। जिस प्रकार अनजाने में अनिच्छापूर्वक भी अग्नि का स्पर्श होने पर वह स्पर्श करने वाले को दग्ध कर देती है, उसी प्रकार अनिच्छापूर्वक भी ‘हरि’ शब्द का उच्चारण करने पर समस्त पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। उक्त हरिनाम चिद्घनानन्द विग्रहरूप भगवत्-तत्त्व का प्रकाश कर अविद्या एवं उसके कार्य को ध्वंस करते हैं, इसी कार्य के लिए ‘हरि’ यह अक्षरात्मक नाम आविर्भूत हैं। अथवा स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों के तीनों तापों का हरण (नष्ट) करने के कारण ‘हरि’ इस नाम का अविर्भाव है अथवा अप्राकृत सद्गुण श्रवण एवं कथन के द्वारा सम्पूर्ण विश्ववासियों के मन को हरण करते हैं। अथवा अपने कोटि-कन्दर्प लावण्य एवं माधुर्य के द्वारा सम्पूर्ण जीवों के और अवतारों के चित्त को भी हरण कर (चुरा) लेते हैं। इस ‘हरि’  शब्द के सम्बोधन में ‘हरे’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मसंहिता के मतानुसार ‘हरे’ शब्द का बड़ा ही चमत्कारपूर्ण एवं अपूर्व अर्थ पाया जाता है। वह अर्थ इस प्रकार है – जो अपने रूप, माधुरी एवं प्रेम-वात्सल्यादि द्वारा उपरोक्त श्रीहरि के मन को भी हरण कर लेती हैं, उन श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीमती राधिकाजी का नाम ही ‘हरा’ है। श्रीमती राधिका के इस ‘हरा’ नाम के सम्बोधन में ‘हरे’ शब्द का प्रयोग हुआ है।

‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ आगम के मतानुसार इस प्रकार है – ‘कृष्’ धातु में ‘ण’ प्रत्यय के योग से जो ‘कृष्ण’ शब्द होता है, वह आकर्षक, आनन्दस्वरुप कृष्ण ही परब्रह्म हैं। कृष्ण शब्द के सम्बोधन में ‘कृष्ण’ है। आगम में इस प्रकार कहा गया है – हे देवि! ‘रा’ शब्द के उच्चारण करने से समस्त पापसमूह (मुख के द्वार से) निकल जाते हैं और पुनः प्रवेश न कर पाने से ‘म’ कार रूप कपाट से युक्त राम-नाम हैं। पुराण में और भी कहा गया है कि वैदग्धिसार-सर्वस्व मूर्त्तिलीलाधिदेवता जो श्रीमती राधिका के साथ नित्य रमण करते हैं, वे ही ‘राम’ शब्द-वाच्य कृष्ण हैं। भजन-क्रिया के विचार से प्रत्येक नामों के अर्थ प्रदर्शित होंगे।