Harikatha

कलिकाल की महौषधि

[सन् 1961 में हैदराबाद मठ में हुई धर्मसभा में श्रील गुरुदेवजी का सारगर्भित भाषण।]

“भक्ति दो प्रकार की होती है वैधी तथा रागानुगा। रागानुगा भक्ति सुदुर्लभा है। साधारणतया कल्याण-इच्छुकों के लिए वैधी-साधन-भक्ति का अनुशीलन करना ही कर्त्तव्य है। तन्त्र-शास्त्र में सैंकड़ों प्रकार की साधन-भक्ति की बात वर्णित हुई है तथा श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु में 64 प्रकार की साधन-भक्ति की बात उल्लिखित हुई है। श्रीमद्भागवत में श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, वन्दन, पादसेवन, अर्चन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन – इस नवधा-भक्ति का उल्लेख है। श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी ने सैंकड़ों प्रकार के भक्ति-अंगों में से साधु-संग, नाम-कीर्त्तन, भागवत-श्रवण, मथुरा-वास तथा श्रद्धा के साथ श्रीमूर्ति की सेवा – इन पांच भक्ति अंगों को ही उत्तम बताया तथा इनमें से भी नाम-संकीर्त्तन को सर्वोत्तम बताया।

कलिकाल में श्रीहरिनाम-संकीर्त्तन को छोड़कर मंगल प्राप्ति का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है-

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(चै.च.आ. 17/21 संख्याधृत वृह्न्नारादीय-वचन 38/126?) 

कलियुग में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही नामरूप में अवतरित हुए हैं। हरिनाम के द्वारा ही सारे जगत् का उद्धार होता है। जड़-बुद्धि वाले लोगों की हरिनाम में दृढ़ता के लिए ‘हरेर्नाम’ पद को तीन-बार तथा ‘एव’ पद का प्रयोग किया गया है। पुनः ज्ञान, योग, तप आदि कर्मों के परित्याग निश्चित करने के लिए ‘केवल’ शब्द कहा गया है। जो व्यक्ति शास्त्र के इस आदेश की अवज्ञा करता है, उसका उद्धार कदापि सम्भव नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए अन्त में ‘नास्त्येव’ पद का भी तीन बार प्रयोग किया गया है।

(हरेर्नाम श्लोक की व्याख्या चै. च. आ. 17/22-25  )
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्त्तनात्।।
(श्रीमद्भा. 12/3/52)

सत्ययुग में भगवान् का ध्यान के द्वारा त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करने से और द्वापर में विधिपूर्वक उनकी पूजा से जो फल मिलता है, वह कलियुग में केवल भगवन्नाम का कीर्त्तन करने से अनायास ही प्राप्त हो जाता है ।

सत्ययुग में ध्यान द्वारा, त्रेतायुग में यज्ञ द्वारा तथा द्वापरयुग में परिचर्या द्वारा जो पुरुषार्थ मिलता था, कलिकाल में केवल हरिनाम-कीर्त्तन द्वारा ही वही पुरुषार्थ अर्थात् वही वस्तु प्राप्त हो जाती है। सत्ययुग में सत्वगुण का प्रधान हेतु जो ज्ञान है, उसकी उत्कर्षता होने की वजह से, विषय-भोगों की हेयता व नश्वरता की उपलब्धि से विषयों के प्रति स्वाभाविक वैराग्य था। इसीलिए विषयावेश से उत्पन्न चित्त की चंचलता न होने के कारण जन-साधारण के लिए ध्यान सम्भव था। किन्तु त्रेतायुग में जब चित्त और अधिक विषयाविष्ट हुआ, तब चित्त-चांचल्य? के कारण जन-साधारण के लिए ध्यान सम्भव नहीं हुआ। जिन द्रव्यों में जीवों का चित्त आसक्त हुआ, उन द्रव्यों को भगवान् विष्णु में आहुति प्रदान रूप यज्ञ का विधान हुआ। आसक्ति की वस्तु जहाँ नियोजित होती है, चित्त भी उसी वस्तु के प्रति स्वाभाविक रूप से आकृष्ट होता है। इसलिए कर्म-मार्ग में जीव के चित्त को भगवान् में आविष्ट करने के लिए त्रेतायुग में द्रव्यमय-यज्ञ की व्यवस्था हुई। द्वापर युग में जीवों का चित्त और अधिक विषयाविष्ट और चंचल हुआ तथा इन्द्रिय-तृप्ति की लालसा बढ़ जाने से यज्ञ भी साधारण जीवों के लिए संभव नहीं हुआ। तब द्वापर युग के जीवों के लिए सब इन्द्रियों के द्वारा भगवान् की परिचर्या का विधान दिया गया। जीव की इन्द्रियाँ विभिन्न-विषयों में आकृष्ट हो जाने की वजह से उक्त इन्द्रियों को श्रीभगवान् की सेवा में नियोजित करने व उन्हीं में केंद्रित व एकाग्र करने के लिए द्वापर में ‘अर्चन’ – युगधर्म के रूप में निरुपित हुआ।

कलियुग में जीव अत्यंत विषयाविष्ट, चंचल, अजितेन्द्रिय तथा निरन्तर व्याधिग्रस्त हैं। अतः चित्त की चंचलता के कारण ध्यान, अजितेन्द्रियता के कारण यज्ञ एवं निरन्तर व्याधिग्रस्त रहने के कारण अर्चन, इस युग में जीवों के लिए सम्भव नहीं है। व्याधिग्रस्त-व्यक्ति परिचर्या अर्थात् सेवा-पूजा के लिए अनाधिकारी है। इसलिए कलियुग के जीवों के लिए – श्रीहरिनाम-संकीर्तन-युगधर्म के रूप में निरुपित हुआ। बीमारी अत्यंत भयानक होने की वजह से राम-बाण के रूप में श्रीभगवन्नाम-कीर्तन रूप शक्तिशाली औषधि प्रयोग करने की व्यवस्था दी गई  है।

वैधी भक्ति : जिस समय बद्ध जीव का कृष्णेतर विषयों में प्रगाढ़ अनुराग होता है, उस समय उसका कृष्ण के प्रति अनुराग न के बराबर होता है। ऐसी दशा में कल्याणकामी जीव केवल शास्त्र की आज्ञा से कृष्ण का भजन करता है। यह भजन ही वैधभजन है।

रागानुगा भक्ति : श्रीदाम-वसुदाम, श्रीनन्द-यशोदा और ललिता-विशाखा आदि व्रजवासियों की श्रीकृष्ण के प्रति रागात्मिका-भक्ति होती है। और उन व्रजवासियों के भावों के अनुगत रहकर जो साधनभक्ति की जाती है, उसे रागानुगा भक्ति कहते हैं। इष्ट वस्तु श्रीनन्दनन्दन के प्रति प्रगाढ़ तृष्णा राग का स्वरूपलक्षण है तथा उनमें गाढ़ी आसक्ति–राग का तटस्थलक्षण है। ऐसी रागमयी भक्ति को रागात्मिका भक्ति कहते हैं।