Harikatha

भगवद्-प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ-निर्देशन हेतु श्रील गुरुदेव जी के विविध संवाद

भगवान् और माया: भगवद्-तत्त्व जिज्ञासु शिष्य का मार्गदर्शन

[यह मार्मिक वार्तालाप एक भगवद्-तत्त्वजिज्ञासु शिष्य (श्रीकामाख्या चरण नामक नवयुवक) एवं आत्मदर्शी श्रील गुरुदेव (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) के मध्य में घटित हुआ। श्रीकामाख्या चरण नश्वर देह और देह से सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रति शोक-मोहादि की लीला करते हुए श्रील गुरु महाराजजी के समक्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके श्रील गुरूदेव के समक्ष युक्तिसंगत प्रश्नों को रखकर उनसे उपदेश देने की प्रार्थना की। तब श्रील गुरु महाराजजी ने श्रीकामाख्या चरण को लक्ष्य करके जो शास्त्रोचित उपदेश दिया वह संसार के समस्त बद्ध जीवों के लिए नितांत मंगलकारी है। जिसके फलस्वरूप श्रीकामाख्या चरण ने संसार-त्याग करने का संकल्प लिया। श्रीकामाख्या चरण, जो बाद में श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी के नाम से परिचित हुए एवं वर्त्तमान में परमराध्यतम् श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराजजी के नाम से विख्यात हैं, इस उपाख्यान के वर्णनकर्ता भी हैं।]
सन् 1947 में श्री गौड़ीय मठ के आश्रित गृहस्थ भक्त श्रीराधामोहन दासाधिकारी जी के विशेष निमन्त्रण पर एक बार फिर श्रील गुरु महाराजजी आसाम प्रचार में गये। प्रचार के दौरान श्रील गुरु महाराजजी अन्यान्य वैष्णवों के साथ श्रीराधामोहन दासाधिकारी प्रभु के घर में ठहरे और शहर के विभिन्न स्थानों में धर्म-सभाओं का आयोजन किया गया।
वहाँ के श्रीधीरेन्द्र कुमार गुहराय के पुत्र श्रीकामख्या चरण की श्रीगुरु महाराजजी से प्रथम मुलाकात श्री राधामोहन प्रभु के घर पर ही हुई थी। श्रीकामाख्या चरण व उनके दोस्त श्री देवव्रत (रवि) तत्त्वजिज्ञासु होकर श्रील गुरु महाराजजी के पास श्रीराधामोहनजी के घर आये। अपने बन्धु के साथ श्रीकामाख्या चरणजी भगवद्-प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ के निर्देशन की प्रार्थना से युक्त अन्तःकरण के साथ जब गुरु महाराजजी के पास आये, उस समय वे (श्रीगुरु महाराजजी) एकखाट पर बैठे थे। दोनों ने महाराज जी को प्रणाम किया। प्रणाम करते समय श्रीकामाख्या चरण जी को ऐसा अनुभव हुआ कि उन पर श्रील गुरु महाराज जी के शुभ-आशीर्वाद की वर्षा हो रही है। ऐसा अनुभव करके वे पुलकित हो उठे। इसी समय उन्होंने श्रील गुरुदेवजी से इस प्रकार का एक प्रश्न पूछा- “हरिनाम करते-करते मेरे मन में ऐसी भावना होती है कि जैसे थोड़ी देर के बाद मुझको भगवान के दर्शन होंगे और फिर संसार में जिन-जिन के प्रति प्रीति-सम्बन्ध है – उन्हें छोड़ कर चला जाना पड़ेगा – इसी आशंका से उस समय हरिनाम बंद हो जाता है, वह हरिनाम जैसे बंद न हो, उसके लिए मैं आपसे उपदेश देने की प्रार्थना करता हूँ।”
यद्यपि यह कम दिमाग में उत्पन्न होने वाले विचारों वाला कोई खास महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं था, तथापि उत्साह करने के लिए श्रील गुरु महाराजजी ने प्रश्न की प्रशंसा की व उदहारण देकर समझाते हुए कहा- “कीचड़ व दुर्गन्ध से युक्त एक तालाब था जो कि बत्तखों की विहार स्थली था। वे उस गंदगी में रहकर कीचड़ में रहने वाले शामूक, गुगली व केंचुवे आदि प्राणियों को खा कर अपना जीवन-निर्वाह करते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि आकाश में काफी ऊँचाई पर उनके जाति-भाई हंस उड़ कर जा रहे हैं। वे हंस देखने में बहुत सुन्दर थे, आकार में बड़े थे व उनके पंख भी बड़े विचित्र व मनोहर थे। बत्तखों ने इस प्रकार विचार किया कि उड़ने वाले ये हंस जहाँ रहते हैं, निश्चय ही वह स्थान अत्यंत रमणीक होगा। यदि हमको भी उनके साथ रहना मिलता तो हमारा चेहरा भी सुंदर हो जाता एवं हम भी परम सुखी हो सकते थे।
आकाश में उड़ने वाले हंस, जाति से राजहंस थे। वे समुद्र में गये थे और अभी लौट कर मान सरोवर जा रहे थे। जब बत्तख अत्यंत करुण भाव से देख रहे थे तो एक राजहंस को बत्तखों की दुरावस्था देख कर दया आ गयी। वह आकाश में घूम-घूम कर ज़मीन पर उतरने लगा।
बत्तख राजहंस का अपूर्व प्रकाण्ड रमणीक चेहरा देख कर आश्चर्यान्वित हो गये। वे हंस से, जहाँ वे रहते हैं, उन्हें भी वहाँ ले चलने के लिए प्रार्थना करने लगे। राजहंस ने कहा- “आप सभी का इस दुर्गन्ध वाले स्थान से उद्धार करने के लिये ही मैं आया हूँ। जब राजहंस ने उन बत्तखों को अपने साथ चलने के लिये कहा तो उन्होंने अपनी मज़बूरी बताते हुये कहा कि वे ज़्यादा ऊपर नहीं उड़ सकते। बत्तखों की मज़बूरी समझ कर राजहंस को और भी दया आ गयी। उसने अपने दयाद्रचित्त से कहा कि आप मेरी पीठ पर चढ़ जाइये, मैं आप सबको ले जाऊंगा। राजहंस की बात सुनकर सारे बत्तख चिंतित हो उठे व आपस में काफी देर विचार-विमर्श करते रहे और राजहंस से पूछने लगे कि वे उन्हें जहाँ ले जा रहे हैं वहाँ खाने के लिए शामूक, गुगली व केंचुवे इत्यादि प्राणी मिलते हैं कि नहीं?
उत्तर में राजहंस ने कहा कि वे हिमालय के मानसरोवर में रहते हैं। वहाँ इस प्रकार की गन्दी चीज़ें नहीं होती। वहाँ पर तो वे कमल के मृणाल का भोजन करते हैं। राजहंस की बात सुनकर बत्तखों के मुख से चीख निकल गयी। वे घबराहट के साथ कहने लगे कि वे वहाँ क्या खाकर ज़िन्दा रहेंगे…….. अंत में निर्णय हुआ कि वे राजहंस के साथ नहीं जाएंगे। बत्तखों की इत्तर आसक्ति ही राजहंसों के रमणीक स्थान में जाने में बाधक बनी। ठीक इसी प्रकार भगवान् की बहिरंगा माया द्वारा रचित नश्वर देह सम्बन्धी व्यक्तियों के प्रति आसक्ति ही हमारे लिए भगवान् के पास जाने के लिए बाधक स्वरूप होती है। भगवान् निर्गुण मंगलमय व परमानन्द स्वरूप हैं। उनका धाम भी उसी प्रकार का है। वहाँ पर गन्दी, घृणित व नाशवान वस्तुओं का अधिष्ठान नहीं है। जो भगवान् के लिए अन्य वस्तुओं को नहीं छोड़ सकते, भगवान् के अलावा अन्य-अन्य मायिक वस्तुओं को जो जकड़ कर रखना चाहते हैं, वे कभी भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते।
भगवान् और माया दो विपरीत वस्तुएं हैं। साधु संग के द्वारा भगवान् व उनकी भक्ति को छोड़ अन्यान्य वस्तुओं की मांग से छुटकारा न मिलने तक जीवों का यथार्थ मंगल नहीं हो सकता।
ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासंग मुक्तिभिः।।
(श्रीमद्भा. 11/26/26)
इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि दुःसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। सन्त पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे।
अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति दुःसंग को परित्याग करके सत्संग करेंगे और साधु लोग अपने साधु-उपदेशों के द्वारा उनकी भक्ति की तमाम प्रतिकूल वासनाओं का छेदन करेंगे।