Harikatha

भगवान् की आराधना के लिये भगवद्-तत्व को समझने की ज़रूरत है।

आसाम प्रचार-भ्रमण के समय श्रील गुरु महाराज जी गोहाटी में कुछ दिन रहे। उस समय आसाम के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री गोपीनाथ बड़दलई जी के निवास पर भागवत पाठ की व्यवस्था हुई थी। श्रीगुरु महाराज जी के श्रीमुख से शुद्ध भक्ति सिद्धान्त सम्मत एवं सुयुक्तिपूर्ण श्रीमद् भागवत की अपूर्व ह्रदयग्राही व्याख्या सुनकर सभी श्रोता मुग्ध हो जाते। एक दिन श्री गोपीनाथ बड़दलई भागवत पाठ के समाप्त होने पर श्रील गुरु महाराज जी की भागवत व्याख्या की हार्दिक प्रशंसा करते हुए कहने लगे- “आपसे भागवत पाठ सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि आपके भागवत पाठ का उद्देश्य एवं महात्मा गाँधी जी के भाषणों का उद्देश्य एक ही है।
आप भी अनेक शास्त्र-प्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा बहुत कुछ समझाने के बाद सभी से कृष्ण नाम करवाते हैं और गाँधी जी भी अपने भाषणों में अनेक प्रसंग सुना कर अन्त में सभी को ‘रामधुन’ करवाते हैं। आप दोनों का ही उद्देश्य है- सभी को हरिनाम करवाना। मैं तो आप दोनों में कोई भी अन्तर नहीं देखता हूँ। आपका इस सम्बन्ध में क्या मत है, मैं जानना चाहता हूँ।”
श्री गोपीनाथ बड़दलई की श्रील गुरुदेव के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा व प्रीति होने की वजह से श्रील गुरु महाराज जी ने सोचा कि यदि अब इन्हें अप्रीतिकर सत्य बात कही जाये तो ये सहन कर लेंगे, क्योंकि कई बातें सत्य होने से भी वह सभी को, सभी समय नहीं कही जा सकती। इसलिए विद्वान् व्यक्ति, ग्रहण करने का अधिकारी देखकर, उसके अधिकार के अनुसार ही उसे उपदेश देते हैं।
श्रील गुरु महाराज जी ने मुस्कराते हुए श्रीबड़दलई को कहा- ‘यदि आप नाराज़ न तो मैं अपना अभिमत व्यक्त करूँ?”
उत्तर में श्रीगोपीनाथ बड़दलई जी ने कहा- ‘आपके मूल्यवान उपदेशों को सुनकर हम कृतार्थ हुए हैं। हमने इस प्रकार की ज्ञान से परिपूर्ण भागवत व्याख्या कभी किसी से नहीं सुनी थी। आप हमारे मंगल के लिये कुछ कहें और हम असन्तुष्ट हों, ये हो ही नहीं सकता। आप, स्वछन्दतापूर्वक अपना अभिमत व्यक्त कर सकते हैं।’
तब श्रील गुरुदेव जी ने कहा- जब मैं अपने घर में रहता था, तब कांग्रेस के स्वाधीनता आन्दोलन से भी कुछ जुड़ा हुआ था। उस समय साबरमती से कांग्रेस की ‘Young India’ नामक एक अंग्रेजी पत्रिका प्रकाशित होती थी। मैं उस पत्रिका को पढता था। उसमे एक बार एक लेख मैंने पढ़ा था कि गाँधी जी ने किसी स्थान पर अपने भाषण में, देशवासियों को अपना देश-प्रेम जताने के लिये कहा था की यदि जरुरत पड़े तो वे देश के लिये अपनी अत्यन्त प्रिय ‘रामधुन’ का भी परित्याग कर सकते हैं। जहाँ तक मुझे याद है, पत्रिका में लिखा था- I can sacrifice ‘Ramdhun’ for my country, किन्तु हम लोग ठीक इसके विपरीत हैं- ‘we can sacrifice country for Ramdhun’. हमारे आराध्य ‘राम’ किसी के लिये नहीं हैं; वे स्वयं अपने लिये हैं एवं समस्त वस्तुएँ उनके लिये हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी ‘Absolute’ को इसी प्रकार संज्ञा दि है- ‘Absolute is for itself and by itself’, हम लोग It God नहीं कहते। हमारे भगवान् परम पुरुष हैं, इसलिए हम लोग कहते हैं कि “Absolute is for HImself and by Himself’ । भगवान् से ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड आते हैं; भगवान् में ही उनकी स्थिति है तथा भगवान् के द्वारा ही उनका संरक्षण होता है- इसलिए अनन्त करोड़ विश्व-ब्रह्माण्ड भगवान् के लिये हैं। भगवान् की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।”