Harikatha

श्रीनाम-संकीर्त्तन

[सन् 1962 में हैदराबाद के राजभवन में श्रीलगुरुदेव जी का भाषण।]

 

“श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने श्रीनाम-संकीर्त्तन को जीव के चरम कल्याण प्राप्त करने के लिए परम उपाय बताया है। अज्ञान रूपी पित्त से पीड़ित जिह्वा को श्रीकृष्ण नाम की अपूर्व स्वादुता पहले-पहले अनुभव में नहीं आएगी, किन्तु बार-बार, आदरपूर्वक श्रीकृष्ण-नाम करते रहने से अज्ञान दूर हो जाने पर, धीरे-धीरे उसका मीठा स्वाद अनुभव होगा। पित्त रोग द्वारा तप्त रसना के लिए, उत्कृष्ट कूजे की मिश्री कड़वी लगने पर भी, जैसे सद्?वैद्य की व्यवस्था के अनुसार उसी मिश्री के सेवन से ही पित्त दूर होकर मिश्री का मीठा स्वाद अनुभव होगा, उसी प्रकार श्रीभगवान् के नाम-संकीर्त्तन के प्रभाव से सर्वव्याधियाँ दूर होकर श्रीनाम का अपूर्व माधुर्य कर्मशः आस्वादन होता है।

‘स्यात् कृष्णनामचरितादिसिताप्याविद्या पित्तोपतप्तरसनस्य न रोचिका नु।
कित्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा? स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्?गदमूलहन्त्री।।”
(उपदेशामृत 7 श्लोक)

अहो! जिनकी रसना अविद्यारूपी पित्त के द्वारा सन्तप्त है-अनादिकाल से कृष्ण-विमुख रहने से जो अविद्या द्वारा ग्रस्त हो, उनको श्रीकृष्णनाम चरितादिरूप अत्यन्त मीठी मिश्री भी रुचिकर नहीं होती, कड़वी लगती है, किन्तु श्रद्धापूर्वक उसी श्रीकृष्णनाम-चरितादिरूप मिश्री का निरन्तर सेवन करने पर कर्मशः सुस्वादु लगने लगती है तथा कृष्ण-विमुखता-अविद्यारूपी पित्तरोग का समूल विनाशक भी बन जाती है।

श्रीभगवान् के नाम और गुण-महिमा श्रवण-कीर्त्तन रूप भागवत-धर्म में सभी मनुष्यों का अधिकार है, किन्तु वैदिक धर्म के आचरण में सब का अधिकार नहीं है, उसमें विधि-विधान का विचार रखना पड़ता है। श्रीनाम-संकीर्त्तन रूपी श्रीभागवत-धर्म का अधिक से अधिक प्रचार होने से, जन-साधारण के बीच में अध्यात्म भूमिका के लिए ह्रदय की सुदृढ़ एकता बन जाएगी।

कलि-पीड़ित जीव अत्यंत विषयासक्त है, अजितेन्द्रिय है, और व्याधिग्रस्त है, इसलिए सत्य, त्रेता, द्वापर, इन तीनों युगों के युगधर्म- ध्यान, यज्ञ और अर्चन की व्यवस्था कलिहत जीव के लिए नहीं की गई है। व्याधि अत्यंत भयानक होने के कारण, उसके ठीक-ठीक इलाज के रूप में श्रीभगवन्नाम-संकीर्त्तन का ही शास्त्र में उपदेश किया गया है।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
(चै.च.आ. 17/21 संख्याधृत वृह्न्नारादीय-वचन 38/126)

अर्थात् कलियुग में नाम के सिवा जीव की कोई दूसरी गति नहीं है, दूसरी गति नहीं है, दूसरी गति नहीं है।

{कृष्ण विस्मृति ही जीवों के तमाम दुःखों का मूल कारण है।}