Harikatha

श्रीमद्भागवत् की शिक्षा

 [चंडीगढ़ और हैदराबाद मठ के वार्षिक उत्सव में श्रीलगुरुदेव द्वारा दिए गए प्रवचन का सारमर्म]

‘श्रीमद्भागवत्’ जगदगुरु श्रीकृष्णदैव्पायन? वेदव्यास मुनि का सबसे आखिरी अवदान है। श्रीमद्भागवत् का पहला नाम चतुःश्लोकी है। कारण, श्री नारद जी ने, श्री व्यास जी के चित्त को स्थिर व शान्त करने के लिए, उपाय के रूप में चार श्लोकों का उपदेश दिया था, जो उनको श्रीनरनारायण जी से प्राप्त हुए थे। इन श्लोकों का तात्पर्य केवल हरि सेवामय या केवल श्रीहरि-संकीर्त्तन-तात्पर्यमय है। इस उपदेश की प्राप्ति करके श्री व्यासदेव जी ने स्व-स्वरूप, पर-स्वरूप और विरोधी स्वरूप के ज्ञान को प्राप्त करके, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतिपादन करने वाली पूर्वकृत आलोचनाओं को तृणवत तुच्छ समझकर, श्रीकृष्ण-प्रेम को ही जीव का एक मात्र प्रयोजन जानकर, उसे विस्तार पूर्वक अठारह हज़ार श्लोकों में लिख दिया। वह ही सर्वशास्त्र शिरोमणि ग्रन्थराज ‘श्रीमद् भागवत’ है।

श्रीमद्भागवत् का श्रवण, कीर्तन, अनुध्यान ऐसा है कि निष्कपट अनुमोदन करने मात्र से ही देवद्रोही, विश्वद्रोही, अतिपातकी, महापातकी तक भी शीघ्रातिशीघ्र पवित्र होकर चित्त की पूर्ण स्थिरता को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। यह हरि-संकीर्त्तनमय भागवत-धर्म अत्यन्त गम्भीर, अत्यन्त उदार, अत्यंन्त व्यापक तथा सब जीवों का आश्रय है।

श्रीमद्भागवत् शास्त्र में वर्णित धर्म को भागवत-धर्म कहते हैं या यूँ कहें कि भगवान् से सम्बन्धित जो जो भी धर्म हैं, उन्हें भागवत धर्म कहते हैं, इसीलिये भगवान् के भक्तों के धर्म को भी भागवत धर्म कहते हैं। सद्धर्म, आत्म-धर्म, सनातन धर्म और भक्ति-धर्म भी इसी के अन्य नाम हैं। श्रीमद्भागवत् के 11वें स्कन्ध में महाराज निमि और नवयोगेन्द्रों के संवाद में भागवत धर्म का स्वरूप और उसका आचरण विस्तार रूप से वर्णित हुआ है। नवयोगेन्द्रों में से एक कवि नामक मुनि भागवत धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुये कहते हैं,

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।

अजः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हितान्।।

(श्रीमद्भा. 11/2/34)

कवि मुनि कहते हैं कि भगवान् ने स्वयं अपने मुख से नासमझ व्यक्तियों को भी अनायास आत्मलाभ अर्थात् अपनी प्राप्ति के जो तमाम आसान-आसान उपाय बताये हैं, उन्हीं को भागवत धर्म समझना।

मनु आदि ऋषियों द्वारा प्रणीत धर्म को वर्णाश्रम-धर्म कहते हैं। भागवत् धर्म के वक्ता स्वयं भगवान् हैं, इसलिये भगवान् की प्राप्ति का इससे सुन्दर, सहज व सुगम मार्ग कोई नहीं हो सकता।  आँखे बन्द करके दौड़ने से भी इस राह में न फिसलन है और न पतन ही। कारण, भागवत धर्म के आरम्भ में ही भगवान के चरणों में ली गयी शरणागति की बात है। सर्वशक्तिमान भगवान् जिनके रक्षक और पालक होते हैं, उनके पतन की आशंका भला कहाँ रह जाती है।

भागवत धर्म का अनुशीलन कैसे करूँ? Practical side क्या है, उसके सम्बन्ध में कहते हैं—

श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः।
जन्मकर्मगुणानान्च तदर्थे अखिल चेष्टितम्।।
इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृतं यच्चात्मनः प्रियम्।
दारान् सुतान् गृहाण् प्राणान् यत् परस्मै निवेदनम्।।’
                                                       (श्रीमद्भा. 11/3/27-28)

भगवान् की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म-कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्त्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएं हों, सब भगवान् के लिए करना सीखे। यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो- सबका सब भगवान् के चरणों में निवेदन करना, उन्हें सौंप देना सीखे अन्यथा ये वस्तुएँ भक्ति में बाधक हो जाती हैं।

{अखिल रसामृत मूर्ति श्रीकृष्ण के पादपद्मों की सेवा ही जीव का एकमात्र स्वार्थ है।}