Harikatha

श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा

रविवार, 1 नवम्बर 1968 को श्रीनवद्वीप धाम के अंतर्गत पाणिहाटि में श्रीगौरांग महाप्रभु जी की शुभविजय तिथि पर राघव-भवन में विराट धर्मसभा हुई जिसमे श्रील गुरुदेव जी पौरोहित्य-पद पर विराजमान हुए। इस सभा में अध्यापक, श्रीसुरेन्द्र नाथ दास जी ने अपने अभिभाषण में विशेषभाव से श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु एवं श्रीमन् महाप्रभु जी की करुणा की बात कही।


सबसे आखिर में सभापति के अभिभाषण में श्रील गुरुदेव जी ने कहा कि अभी अध्यापक महोदय जी ने श्रीमन् महाप्रभु जी की अतिशय करुणा का वर्णन किया। उनका भाषण सुनकर हम लोग कहीं ये न समझ बैठें कि साधन-भजन के लिये हमारे किसी यत्न की जरुरत नहीं है। हमारी तरफ से यदि किसी भी प्रकार के कृत्य की आवश्यकता न हो तो भगवान् में पक्षपात का दोष लग जायेगा कि वे किसी पर कृपा करते हैं और किसी पर नहीं; जबकि भगवान् में किसी भी प्रकार का पक्षपातित्त्व दोष न तो है और न ही हो सकता है। कारण, भगवान् पूर्णतम् वस्तु हैं। वे अनन्त हैं, एक परमाणु भी उनसे बाहर नहीं है उन्हें रिश्वत देने का कोई तरीका नहीं है।
स्मोऽहं सर्वभूतेषु ने मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(श्रीगी. 9/29)
मैं सभी भूतों (प्राणियों) में सम अर्थात् समदर्शी हूँ। न तो कोई मेरा अप्रिय है और न ही प्रिय है। किन्तु, जो भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं, वे जिस प्रकार मुझमें आसक्त हैं, मैं भी उनमें उसी प्रकार आसक्त रहता हूँ।
श्रीगौरसुंदरपरम करुणामय हैं- वे तो कृपा करेंगे ही, ऐसा सोचकर हम नाक में तेल डालकर सो जायेंगे तो हमारे मंगल-लाभ की सम्भावना ही कहाँ हैं?
यदि साधन की आवश्यकता न होती तो भगवान् गीता जी में ऐसा न कहते कि:
‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्?याजी मां नमस्कुरु।’
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
(श्रीगी. 18/65)
हे अर्जुन! तुम मुझे चित्त समर्पण करो, मेरे नाम-रूप लीला आदि के श्रवण-कीर्त्तन आदि परायण होकर मेरे भक्त होओ, मेरी पूजा करने वाला होओ और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम मुझे ही प्राप्त करोगे। मैं तुम्हें यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो।
यदि हमारा कुछ भी करणीय न होता तो ब्रह्माण्ड में शास्त्रों का अवतरण न होता। चूँकि जीव आपेक्षिक चेतन है इसलिए इसकी स्वतंत्रता है और स्वतंत्रता रहने से जीव सत् व असत्, दोनों तरफ ही जा सकता है। अतः जीव की ओर से मंगल-प्रीति के लिये चेष्टा की आवश्यकता है।
रामानुज सम्प्रदाय में दो अलग-अलग मतवाद देखे जाते हैं। बड़गलइ सम्प्रदाय के श्रीवेदान्त देशिक आचार्य ने साधन के मुख्यत्त्व स्थापन की चेष्टा की है उन्होंने “मर्कट न्याय” दृष्टान्त के द्वारा बताया कि बन्दर का बच्चा जिस प्रकार स्वयं ही अपनी माँ को पकड़कर रखता है उसी प्रकार साधक अपनी साधन चेष्टा के द्वारा भगवत्सानिध्य प्राप्ति के लिए यत्न करेंगे; किन्तु तड़्गलई? सम्प्रदाय के श्री तोताद्रिस्वामी जी ने “मार्जारन्याय” दृष्टान्त के द्वारा प्रपत्ति (शरणागति) व कृपा के प्राधान्य की स्थापना की। उन्होंने कहा कि बिल्ली का बच्चा जिस प्रकार कोई भी चेष्टा नहीं करता, सिर्फ अपनी माँ की कृपा के ऊपर सम्पूर्ण निर्भर होकर रहता है, माँ ही उसको स्वेच्छा से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है; इसी प्रकार भगवत्-प्राप्ति का एकमात्र उपाय है- भगवान् की कृपा व उनमें शरणागति। परन्तु, श्रीमन् महाप्रभु जी कहते हैं कि दोनों की ही आवश्यकता है अर्थात् साधक की साधन-चेष्टा की भी जरुरत है तथा श्रीभगवत्-कृपा की भी।
Footnote. श्रीनवद्वीप धाम: श्रीनवद्वीप-धाम भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान है। भगवान के श्रीचरणों से निकली पवित्र गंगा जी द्वारा सेवित व सर्वधामसार स्वरूप, श्रीनवद्वीप धाम भारत के पश्चिम बंगाल नामक प्रान्त में स्थित है। पद्मपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, वराहपुराण इत्यादि बहुत से पुराणों में श्रीनवद्वीप धाम का वर्णन पाया जाता है। कलियुग पावनावतारी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु सन् 1486 में श्रीनवद्वीप क्षेत्र के अंतर्गत श्रीधाम मायापुर में अवतरित हुए।
श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु और श्रीमन् महाप्रभु:
श्रीचैतन्य सेइ कृष्ण नित्यानन्द राम।
नित्यानन्द पूर्ण करे चैतन्येर काम।।
(चै.च.आ. 5/156)
द्वापर युग में जो ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण थे, वे ही कलियुग में शचीनन्दन गौरहरि हैं एवं जो ब्रज में बलदेव प्रभु थे, वे ही इस समय परम कारुणिक नित्यानन्द प्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं, श्रीनित्यानन्द प्रभु सदैव श्रीमन्महाप्रभु की अभिलाषा पूर्ण करते हैं।
पाणिहाटि: note to be added
रामानुज संप्रदाय:
“संप्रदायविहीना ये मन्त्रास्ते विफला मताः।
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः।।
श्री ब्रह्मरूद्रसनका वैष्णवाः क्षितिपावनाः।
चत्वारस्ते कलौ भाव्या ह्युत्कले पुरुषोत्तमात्।।
रामानुजं श्रीः स्वीचक्रे मध्वाचार्याः चतुर्मुखः।
श्रीविष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुःसनः।।
लोक पितामह ब्रह्मा के शिष्य देवर्षि नारद का शिष्यत्व स्वीकार करने वाले वेदान्तसूत्र के रचयिता श्रीव्यासदेव ने पद्मपुराण में लिखा है कि सत्संप्रदाय के अतिरिक्त अन्यत्र मन्त्र ग्रहण करने से वे कभी भी सिद्धिप्रद नहीं होते, इसीलिए सनातनधर्म के मूल-पुरुषोत्तम श्रीविष्णु की इच्छा से कलिकाल में चार-सम्प्रदायों के प्रवर्त्तक मूल आचार्यों का अविर्भाव होगा।
श्रीलक्ष्मीदेवी ने श्रीरामानुज स्वामी को, चतुर्मुख श्रीब्रह्माजी ने श्रीमध्वस्वामी को, श्रीरूद्र ने श्रीविष्णुस्वामी को तथा श्रीसनक-सनातन-सनन्दन-सनत् कुमार ने श्रीनिम्बादित्य स्वामी को कलिकाल में अपने-अपने सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक के रूप में अंगीकार किया है। इन चार आचार्यों ने चारों वैष्णव सम्प्रदायों के मूल आदि गुरु – कर्मशः लक्ष्मी, ब्रह्मा, रूद्र और चतुःसन के सत्सम्प्रदायों को ग्रहणकर कलिकाल में सत्संप्रदाय का प्रवर्त्तन तथा अपने मूल गुरुओं के सात्वत मत का ही प्रचार-प्रसार किया।