हमें किससे हरिकथा सुननी चाहिए?

  सन् 1955 में श्रील परम गुरुदेव जी (परम पूज्यपाद श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) ने कलकत्ता के पास ही 24 परगना जिले के अंतर्गत इच्छापुर जिले में तीन दिवसीय धर्म सम्मलेन में भाषण दिये। इससे पहले ही श्रील गुरुदेव (उस समय श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी) परम गुरुदेव जी के कहे जाने पर प्रचार पार्टी के साथ वहाँ पहले से ही प्रचार कर रहे थे। 

  परम गुरुदेव जी के श्रीमुख से ओजस्वी हरिकथा सुनकर वहाँ के एक गृहस्थ भक्त रूपदास बाबू जी ने श्रील गुरुदेव जी को अपने मन की बात कहने लगे। उन्होंने कहा कि – आपके गुरुदेव जी ने जो सब कथायें कहीं, उनमें से कोई भी नई कथा नहीं है। ये सभी कथायें हमने पहले भी आपसे सुनीं हैं, परन्तु उस समय ये कथायें चित्त को स्पर्श नहीं कर पायीं थी; लेकिन वही कथाएँ जब हमने आपके गुरूजी से सुनीं तो कथाओं की गहरी छाप हमारे हृदयों पर छप गयी, इसका क्या कारण है?” 

 श्रील गुरुदेव जी इस घटना को सुनाते हुए हमें समझाते हैं कि “कथा कहने से ही कथा नहीं होती, यदि वक्ता उसमे प्रतिष्ठित न हो; परमाराध्य श्रील गुरुदेव , सर्वक्षण-सर्वतोभाव से, श्रीराधा-गोविन्द जी की सेवा में निष्कपट भाव से नियोजित हैं, इसीलिए उनकी कथा श्रद्धालु, श्रवणेच्छुक व्यक्ति के ह्रदय में गहरी छाप छोड़ देगी, इसमें आश्चर्य क्या है? जो स्वयं निष्कपट हरिभजन करते हैं वे दूसरे से भी हरिभजन करा सकते हैं।” 

  हमें किसके मुख से हरिकथा सुननी चाहिए और सच्चा साधु कौन है, इसके बारे में श्रील गुरुदेव हमें और भी समझाते हैं कि “जो platform speaker  या पेशेदार वक्ता है, वो कभी भगवान की कथा नहीं बोल सकता। कथा बोलना ही जिनका पेशा होता है अथवा कथा बोले के पैसा कमाना ही जिनका उद्देश्य है, उनका संग कभी नहीं करना चाहिए।

  अपने गुरुदेव परम पूज्यपाद श्री श्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज का आदर्श प्रस्तुत करते हुए गुरु जी हमें बताते हैं कि “जो हर कदम पे भगवान की सेवा करते है, हर मुहूर्त में भगवान की सेवा करते हैं, चौबीस में से चौबीस घंटे, उनके मुख में भगवान का कथा स्वयं अवतीर्ण होता है, जैसे कि हमारे गुरुजी। कथा में प्रभाव तब होता है, जब वक्ता स्वयं अमल करके अथवा स्वयं भजन करके शिक्षा देते हैं। भजन किये बैगर भक्ति प्रचार नहीं हो सकता। जो स्वयं धर्म का पालन करते, वे दूसरो को भी धर्म में नियोजित कर सकते है। धर्म शिक्षा में ऐसा नहीं चलता है कि don’t follow me follow my lecture, मेरा भाषण सुनो मेरा चरित्र का मत देखो। इस नीति से धर्म प्रचार नहीं होता है। स्वयं आचरण करके शिक्षा देना पड़ता है।”   

  शास्त्र की बात को याद करना व भाषण देना आसान है परन्तु शास्त्र और महाजनों के निर्देशित पथ का आचरण करना आसान नहीं है। आचार्य उसे कहते हैं जो आचरण करके शिक्षा दे। जो शास्त्र के अर्थ का चयन करके दूसरों को शास्त्र के अनुकूल आचरण की शिक्षा देते हैं तथा स्वयं शास्त्र के अनुसार चलते हैं उनको ‘आचार्य’ कहा जाता है।    

                                                                                                                  श्रील गुरुदेव