श्रीमुकुन्द माला स्तोत्रम्
वन्दे मुकुन्दमरविन्द-दलायताक्षं
कुन्देन्दु-शंख- दशनं-शिशुगोप-वेशम् ।
इन्द्रदि-देवगण-वन्दित- पादपीठं
वृन्दावनालयमहं वसुदेव-सूनुम् ।। 1।।
जिनके नेत्र, कमल के पत्तों की तरह विशाल हैं, जिनके सुन्दर दाँतों की पंक्तियाँ, श्वेत कुन्द पुष्प, चन्द्रमा व शंख की तरह दूधिया रंग की हैं, जो ग्वालों का सा वेश धारण किये रहते हैं, इन्द्रादि देवता जिनके दिव्य जन्म स्थान की वन्दना करते हैं, श्रीवृन्दावन धाम जिनका अपना नित्य निवास स्थान है ऐसे वसुदेव-नन्दन श्रीमुकुन्द जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
श्री बल्लभेति वरदेति दयापरेति
भक्तप्रियेति भवलुन्ठन – कोवेदेति।
नाथेति नागशयनेति जगन्निवासे-
त्यालापिनं प्रतिपदं कुरु मां मुकुन्द।।2।।
हे मुकुन्द ! लक्ष्मीपति, वरदान देने वाले, दयाशील, भक्तों के अति प्रिय, जीवों के जन्म-मरण के प्रवाह को खत्म करने वाले, सबके स्वामी, शेष नाग पर शयन करने वाले हे जगन्निवास! आप मुझ पर ऐसी कृपा करें जैसे मैं हरेक बात में आपके नाम की ही महिमा बोल सकूँ।
जयतु जयतु देवो देवकीनन्दनोऽयं
जयतु जयतु कृष्णो वृष्णी वंश-प्रदीप।
जयतु जयतु मेघश्यामलः कोमलांगो
जयतु जयतु पृथ्वी-भारनाशो मुकुन्दः।। 3 ।।
इन देवकीनन्दन देव जी की जय हो, यदुकुल को उज्जवल करने वाले श्रीकृष्ण की जय हो, नये-नये घने बादलों की तरह वर्ण वाले व कोमल कोमल अंगों वाले श्रीकृष्ण की जय हो। इस पृथ्वी के भार को खत्म करने वाले मुकुन्द जी की जय हो।
मुकुन्द ! मूर्धना प्रणिपत्य याचे
भवन्त – मेकान्तमियन्तमर्थम्।
अविस्मृति-स्त्वच्चरणारविन्दे,
भवे भवे मेऽस्तु भवत्प्रसादात् ।।4।।
हे मुकुन्द ! आपके आगे सिर झुकाकर व आपके शरणागत होकर मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझ पर ऐसी कृपा करें, जैसे प्रत्येक जन्म में ही मेरे द्वारा आपके चरण कमल न भुलाये जायें।
श्रीगोविन्द-पादाम्भोज-मधुनो महदद्भुतम्।
यत्पायिनो न मुह्यन्ति मुह्यन्ति यायिनः।।5।।
श्रीगोविन्द जी के मधुर पादपद्मों की ऐसी महिमा है कि जिन्होंने उस रस का पान किया है वे कभी भी संसार के विषयों में मुग्ध नहीं होते। इसके विपरीत जो इस रसास्वादन से विमुख हैं अर्थात् जिन्होंने आज तक भगवान श्रीगोविन्द जी के चरणकमलों की महिमा का रसास्वादन नहीं किया है, वे ही संसार में मत्त रहकर फँसते रहते हैं।
नाहं वन्दे तव चरणयो – र्द्वन्द्वयद्वन्द्वहेतोः
कुम्भीपाकं गुरुमपि हरे ! नारकं नापनेतुम।
रम्या रामा मृदुतनुलता नन्दने नापि रन्तुं,
भावे भावे हृदयभवने भावयेयं भवन्तम् ।।6।।
हे भगवान! सुख दुःख के द्वन्दों से बचने के लिए मैं आपके चरणों की वन्दना नहीं करता हूँ। न ही कुम्भीपाक आदि भंयकर नरकों की नारकीय यन्त्रणाओं से बचने के लिए मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। इसके इलावा स्वर्ग के नन्दनकानन में लताओं की तरह कोमलांगी अप्सराओं के साथ आनन्द लूटने की चाह से भी मैं आपके चरणों की वन्दना नहीं करता हूँ… मैं तो इसलिए आपके चरणों मे प्रणाम करता हूँ ताकि आपकी कृपा से मैं अपने हृदय-मन्दिर में आपका ध्यान कर सकूँ।
नास्था धर्मे न वसुनिचये नैव कामोपभोगे,
यद्भाव्यं तद्भवतु भगवन्! पूर्वकर्मानुरूपम्
एतत् प्राथ्यं मम बहुमतं जन्म जन्मान्तरेऽपि,
त्वत्पादाम्भोरुह युगगता निश्चला भक्तिरन्तु II7।।
हे भगवन्! धर्म में मेरी श्रद्धा नहीं है। धन सम्पत्ति मेरी बढ़े, ऐसी भी मेरी इच्छा नहीं है। अपनी दुनियावी कामनाओं को पूरा करने की भी मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मेरे किये कर्मानुसार जो मेरे साथ होना हो वह होता रहे, इसमें भी मैं कुछ नहीं कहना चाहता…….. मेरी तो आन्तरिक अभिलाषा व प्रार्थना यह है कि जन्म जन्मान्तर में मेरी आपके पादपद्मों में अचला-भक्ति हो।
दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासः,
नरके वा नरकान्तक प्रकामम्।
अवधीरित – शारदारविन्दौ,
चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि।।8।।
नरकासुर को विनाश करने वाले हे हरि! मैं स्वर्ग में, मृत्युलोक में अथवा नरक में ही क्यों न रहूँ, बस इतनी सी प्रार्थना है कि आप मुझ पर ऐसी कृपा करें कि…… शरतकालीन कमल की शोभा भी जिनके आगे फीकी पड़ जाती है, उन चरणों की मैं सर्वत्र व मरते दम तक चिन्ता कर पाऊँ।
सरसिज – नयने सशंखचक्रे,
मुरभिदि मा विरमस्व चित्त रन्तुम् ।
सुखतरमपरं न जातु जाने,
हरिचरण – स्मरणामृतेन तुल्यम् ।।9।।
हे मन! कमललोचन, शंख चक्र धारी व मुर नामक असुर के विनाशक, भगवान श्रीकृष्ण का चिन्तन तुम मत छोड़ना, क्योंकि श्रीहरि के चरणों के स्मरण रूप अमृत की भाँति और कोई भी वस्तु इससे ज्यादा सुखप्रद है, ये मेरी तो समझ से बाहर है।
चिन्तयामि हरिमेव सन्ततम्,
मन्दहास-मुदिताननाम्बुजम्।
नन्दगोप-तनयं परात्परं,
नारदादि-मुनिवृन्द-वन्दितम् ।।10।।
हल्की-हल्की मुस्कुराहट से जिनका मुखमण्डल प्रफुल्ति हो उठा है और नारदादि मुनिवृन्द जिनको प्रणाम करते रहते है, उन्हीं परात्पर तत्त्व नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का ही मैं सदैव चिन्तन करता हूँ।
करचरण-सरोजे कान्तिमन्नेत्रमीने,
श्रममुषि भुजवीचि – व्याकुलेऽगाधमार्ग।
हरिसरसि विगाह्यापीय तेजोजलौघं,
भवमरुपरिखिन्न: क्लेशमद्य त्यजामि।।11।।
संसार रूपी इस मरुभूमि में, मैं सभी प्रकार के दुःखों से दुःखित हो रहा हूँ। जिनके श्रीहस्त व श्रीचरण अति सुन्दर दिव्य कमल के समान हैं, जिनके नेत्र मछलियों की सी आकृति के हैं, जो सभी प्रकार के क्लेशों को शान्त करने वाले हैं, अपनी तरंगों रूपी भुजाओं से जो हमें अपनाने के लिए व्याकुल हैं, जिनके पास पहुँचने का रास्ता बड़ा कठिन है, ऐसे भगवान श्रीहरि रूपी सरोवर में डुबकी लगाकर व भगवान श्रीहरि की तेजस्वी महिमा का जल पान करके मैं अपने सारे क्लेशों को दूर करूँगा।
हे लोका: ! श्रृणुत प्रसूति – मरण-व्याधेश्चिकित्सामिमां,
योगज्ञाः समुदाहरन्ति मुनयो यां याज्ञवल्क्यादयः।
अन्तज्योति-रमेयमेक ममृतं कृष्णाख्य-मापीयतां,
तत्पीतं परमौषधं वितनुते निर्वाण – मात्यन्तिकम् ।।12।।
हे दुनियाँ के मनुष्यो ! जन्म मरण रूपी बीमारी के इलाज व इसकी औषधि के बारे में सुनो। इस औषधि के बारे में योग के ज्ञाता याज्ञवल्क्य आदि मुनियों ने सोच समझकर व बहुत कुछ अनुभव करने के बाद बताया है।
क्या बताया ?
उन्होंने कहा कि हे मनुष्यो! आप अमृत के समान ‘श्रीकृष्ण’ नाम का पान करो। ये आपके हृदय में असीम आनन्द और दिव्य प्रकाश को फैला देगा। यही नहीं, इस श्रीकृष्ण नाम का पान करके आप सांसारिक दुःखों से हमेशा हमेशा के लिए छुटकारा पा लोगे।
हे मर्त्त्या:! परमं हितं श्रृणुत वो वक्ष्यामि संक्षेपतः,
संसारार्णव-मापदूर्मि बहूलं सम्यक् प्रविश्य स्थिताः।
नानाज्ञानमपास्य चेतसि नमो नारायणायेत्यमुं,
मन्त्रं सप्रणवं प्रणाम सहितं प्रावर्त्तयधवं मुहुः।।13।।
यह संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें लहरों के समान विपदायें तो आती ही रहती हैं। अतः संसार रूपी समुद्र में विपत्तियों के थपेड़ों को खाते रहने वाले हे मरणशील मनुष्यो! परम हितकारी यह बात सुनो। मैं तुम्हें संक्षेप में बता रहा हूँ कि बहुत तरह के ज्ञान की गठरी को दूर फैंककर, श्रद्धा के साथ भगवान श्रीहरि को प्रणाम करते हुए प्रणव युक्त अर्थात्, ‘ॐ नमो नारायणाय’ मन्त्र का मन ही मन में बार- बार जप करते रहो।
माभी-र्मन्दमतो विचिन्त्य बहुधा यामीश्चिरं यातनाः,
नैवामी प्रभवन्ति पापरिपतः स्वामी ननु श्रीधरः।
आलस्यं व्यपनीय भक्तिसुलभं ध्यायस्व नारायणं,
लोकस्य व्यसनापनोदन करो दासस्य किं न क्षमः ?।।14।।
हे मेरे मूढ़ मन! यमलोक में मिलने वाली यातनाओं की चिन्ता करते हुए भयभीत मत होओ। ये सब जो पाप हैं, ये हमारे ऊपर प्रभाव डालने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमारे स्वामी, हमारे रक्षक तो भगवान श्रीधर जी हैं। अतएव आलस्य को त्यागकर, भक्ति के द्वारा भगवान श्रीनारायण का ध्यान करते रहो, जो कि बड़ा आसान है।
भव-जलधि-गतानां द्वन्द्व-वाताहतानां,
सुत-दुहितृ-कलत्र-त्राणभारार्दितानाम्।
विषम-विषय-तोये मज्जतामप्लवानां,
भवतु शरणमेको विन्षुपोतो नराणाम् II15
इस संसार रूपी समुद्र में गिरे हुए, राग-द्वेष व सुख दुःख आदि के थपेड़ों से परेशान, पुत्र, कन्या व पत्नी इत्यादि की रक्षा करना व पालन करना रूपी भार से दबे हुए तथा भयंकर विषय – भोग के जल में डूबते हुए मनुष्य को बचाने के लिए एक मात्र श्रीभगवान के चरणकमल रूपी नाव ही समर्थ है।
रजसि निपतितानां मोहजालावृतानां, जनन – मरण – दोलादुर्ग – संसर्गगानाम्। शरणमशरणानामेक एवातुराणां, कुशलपथ नियुक्तश्चक्रपाणिर्नराणाम्।।16
अहंकार में डूबे हुए, मोह रूपी जाल में फंसे हुए, जन्म – मरण के चक्कर में फंसे हुए, निराश्रय तथा संसार में तड़पते हुए प्राणियों के मंगलमय पथ के प्रवर्तक, भगवान श्रीनारायण ही उनके एकमात्र आश्रय हैं।
अपराध-सहस्त्र संकुलं, पतितं भीम – भवार्णवोदरे।
अगतिं शरणागतं हरे! कृपया केवलमात्मसात् कुरु।।17
हे हरि! मैं अगणित अपराधों से ग्रस्त हूँ, भयंकर संसार रूपी समुद्र में गोते खा रहा हूँ तथा बिल्कुल ही आश्रयहीन हूँ। अत: आपकी शरण ग्रहण कर रहा हूँ। आप अपने अनेक गुणों में से केवल एक गुण ‘कृपा’ के द्वारा मुझे अपना बना लें अर्थात् मुझे अपने दास के रूप में स्वीकार कर लें।
मा मे स्त्रीत्त्वं मा च मे स्यात् कुभावो, मा मूर्खत्त्वं मा कुदेशेषु जन्म।
मिथ्यादृष्टि – र्मा च मे स्यात् कदाचित्, जातौ जातौ विष्णुभक्तो भवेयम्।।18
मैं कभी भी स्त्री रूप में न जन्मू, मेरे मन में कभी भी कुभाव न हों। बस, मुझ पर ऐसी कृपा करना कि न तो मैं कभी मूढ़ के रूप में जन्मू और न ही कभी किसी पतित देश में मेरा जन्म हो। मुझे कभी मिथ्या विषयों का चिन्तन भी न करना पड़े। मेरी तो प्रभो! यही प्रार्थना है कि हर जन्म में मैं केवल एकमात्र विष्णुभक्त ही होऊँ।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैश्च, बुद्धयात्मना वानुसृति – स्वभावात्।
करोमि यद्यद् सकलं परस्मै, नारायणयैव समर्पयामि।।19
हे परम पुरुष नारायण! आप मुझ पर ऐसी कृपा बरसाओ जैसे मैं अपने शरीर के द्वारा, वाक्यों के द्वारा, मन के द्वारा, इन्द्रियों के द्वारा, बुद्धि के द्वारा, चित्त के द्वारा व धर्म के द्वारा कुछ भी करूँ वह सब मैं आपको समर्पित करता रहूँ।
यत् कृतं यत्त करिष्यामि, तत् सर्वं न मया कृतम्।
त्वया कृतं तु फलभुक्, त्वमेव मधुसूदन !।।20
हे मधुसूदन भगवान् ! मैंने जो कुछ भी किया है व जो कुछ भी मैं करूँगा, वह सब मेरे द्वारा नहीं किया गया है क्योंकि मैं तो आपका दास हूँ व दास वही करता है जो स्वामी कहता है, अत: मैंने जो कुछ भी किया व जो भी करूँगा, वह तो सब आपके द्वारा ही किया गया है, अतः अपने किये का फल आप स्वयं भोग लेना।
भवजलधिमगाधं दुस्तरं निस्तरेयं,
कथमहमिति चेतो मास्म गाः कातरत्वम्।
सरसिज-दृशि देवे तावकी भक्तिरेका,
नरकभिदि निषण्णा तारयिष्यत्यवश्यम् ।।21
हे मन! तुम ये सोच-सोचकर परेशान मत होओ कि मैं इस दुस्तर व अगाध संसार को भला कैसे पार होऊँगा, क्योंकि नरकासुर का वध करने वाले नरकारि – कमललोचन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में तो तुम टिक गये हो, अब कोई चिन्ता नहीं क्योकि श्रीकृष्ण के प्रति तुम्हारी अनन्य भक्ति तुमको अवश्य ही पार करा देगी।
तृष्णातोये मदन – पवनोदधृत – मोहोम्मिं – माले,
दारावर्त्त तनय – सहज – ग्राह – संघाकुले च।
संसाराव्ये महति जलधौ मज्जतां नस्त्रिधामन्!
पादाम्भोजे वरद ! भवतो भक्तिनावं प्रयच्छ।।22
हे त्रिलोकपति! हे वरदान देने वाले प्रभो ! जहाँ पर आशा रूपी जल की मोह रूपी तरंगें, कामना – वासना रूपी वायु के द्वारा उछल रही हों तथा जहाँ पर पत्नी रूपी भंवर तथा पुत्र व भाई रूपी मगरमच्छों से व्याकुलता हो, ऐसे संसार नामक महा – समुद्र में डूबते हुए हम जैसे असहाय व्यक्तिों का उद्धार करने के लिए अपने पादपद्म रूपी नाव प्रदान कीजिए अर्थात् भयंकर संसार रूपी समुद्र में डूबते हुए हम को अपने चरण का आश्रय प्रदान कीजिए।
पृथ्वी रेणुरणुः पयांसि कणिकाः फल्गुः स्फुलिङ्गो लघु-स्तेजो निःश्वसनं मरुत्तनुतरं रन्धं सुसूक्ष्मं नभः।
क्षुद्रा रुद्र – पितामह – प्रभृतयः कीटाः समस्ताः सुराः दृष्टे यत्र स तारको विजयते श्रीपाद – धूलीकण:।।23
हे भगवान! आपके सामने तो ये सारी पृथ्वी छोटे से धूल के एक कण के बराबर है। ये सारे समुद्र भी एक कण की तरह हैं। आपके पास चन्द्रमा व सूर्य आदि का तेज, आग की एक छोटी-सी चिन्गारी के बराबर है। पृथ्वी की सारी वायु एक हल्की सी श्वास वायु की तरह अतिशय सूक्ष्म है, आकाश एक छोटे से एक छेद के समान है, रुद्र व ब्रह्मादि भी अत्यन्त छोटे हैं तथा समस्त देवता तो कीटतुल्य होकर रहते हैं सबके – उद्धारक इस प्रकार आपके ये जो श्रीचरणों के धूलि – कण हैं, इनकी जय-जयकार हो रही है।
नाथे नः पुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा, सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि परे नारायणे तिष्ठति।
यं कन्चित् पुरुषाधमं कतिपय – ग्रामेशमल्पार्थदं सेवायै मृगयामहे नरमहो मूका वराका वयम्।।24
अहो, मेरे प्रभु तो तीनों भुवनों के स्वामी हैं तथा साथ ही वे पुरुषोत्तम भी हैं। यदि कोई उनकी मन- मन में भी सेवा करे तो वे प्रसन्न होकर उसे अपना धाम या अपने श्रीचरण प्रदान कर देते हैं। उन्हीं परमपुरुष श्रीनारायण के रहते हुये मैं उनको छोड़कर एक साधारण से मनुष्य, जो कि हो सकता है किसी गाँव का मालिक हो, की चापलूसी में लगा हुआ हूँ मैं कैसा दीन और मूर्ख हूँ।
बद्धेनान्जलिना नतेन शिरसा गात्रैः सरोमोद्गमैः,
कण्ठेन स्वर – गद्गदेन नयनेनोद्गीर्ण- वाष्पाम्बुना।
नित्यं त्वच्चरणारविन्द – युगल – ध्यानामृतास्वादिना – मस्माकं सरसीरूहाक्ष ! सततं सम्पद्यतां जीवितम् ।।25
हे कमललोचन ! हम जैसे लोगों को जीवन प्रदान करें जिनके हमेशा ही आपके आगे दोनों हाथ जुड़े हुये रहते हैं, मस्तक झुका हुआ रहता है, शरीर पुलकित हो रहा होता है, जिनका कण्ठ भी गद्गद् हुआ रहता है, अर्थात् हे प्रभु! आप कृपा करके हमें ऐसी योग्यता प्रदान करें जैसे हम निरन्तर आपका ध्यान कर सकें क्योंकि आपका ध्यान ही हमारा जीवन है।
यत् कृष्णप्रणिपात – धूलिधवलं तद्वर्त्म तद्वै शिरस्ते नेत्रे तमसोज्झिते सुरुचिरे याभ्यां हरि – दृश्यते।
सा बुद्धि – विमलेन्दु – शङ्खधवला या माधव – ध्यायिनी सा जिह्वाऽमृतवर्षिणी प्रतिपदं या स्तौति नारायणम् ।।26
वह ज़मीन पर लेटकर श्रीकृष्ण को प्रणाम करने पर जिनका शरीर धूलि से धूसरित हो गया हो, उस शरीर को ही शरीर कहते हैं तथा वह मस्तक ही सार्थक मस्तक है जो श्रीकृष्ण के चरणों में हो। जिन दो नेत्रों द्वारा श्रीहरि का दर्शन किया जाता है, झुका आँखें ही तमोगुण-वर्जित सुन्दर नयनयुगल कहलाने लायक हैं। जिससे माधव का ध्यान किया जाता है, वह बुद्धि ही चन्द्र और शंख की भाँति स्वच्छ है और जो प्रतिक्षण श्रीनारायण की स्तव स्तुति करती है वह जिहा ही अमृत बरसाने वाली जिहा है।
जिह्वे कीर्त्तय केशवं मुररिपुं चेतो भज श्रीधरं पाणिद्वन्द्व समर्चयाच्युतकथाः श्रोत्रद्वय त्वं श्रुणु।
कृष्णं लोकय लोचनद्वय हरेर्गच्छांघ्रियुग्ममालयं जिघ्र घ्राण मुकुन्द – पाद – तुलसीं मूर्द्धन्नमाधोक्षजम् ।।27
हे मेरी जिहे! तुम केशव का कीर्तन करो, हे मेरे मन ! तुम भगवान मुरारि का भजन करो, हे मेरे दोनों हाथ! तुम भगवान श्रीधर की अर्चना करो, हे मेरे दोनों कान! तुम अच्युत भगवान श्रीकृष्ण जी की कथा सुनो, हे मेरे नेत्रयुगल ! तुम भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करो, हे मेरे दोनों पैर ! तुम भगवान श्रीहरि के मन्दिर में जाओ, हे मेरी नासिका! तुम भगवान मुकुन्द जी के चरणों की तुलसी की सुगन्ध ग्रहण करो और हे मेरे मस्तक ! तुम अधोक्षज भगवान श्रीहरि को प्रणाम करो। (इस प्रकार इस श्लोक में सभी इन्द्रियों से भगवान श्रीगोविन्द जी की सेवा करने की अभिलाषा ही व्यक्त की गयी है।)
आम्नायाभ्यसनान्यरण्यरूदितं वेदव्रतान्यन्वहं, मेदश्छेद- फलानि पूर्त्तविधयः सर्वे हुतं भस्मनि।
तीर्थानामवगाहनानि च गजस्नानं बिना यत्पदद्वन्द्वाम्भोरुह – संस्मृतिं विजयते देवः स नारायणः।।28
जिनके चरण कमलों के स्मरण को छोड़कर वेदाभ्यास, ऐसे वन में रोने की भाँति व्यर्थ है जहाँ तुम्हारे रोने-चीखने को कोई न सुन पाये। भगवान के पादपद्मों के स्मरण को छोड़कर सभी व्रतों का अनुष्ठान शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने की तरह कष्ट देना ही है। भगवान के चरणों के स्मरण के बिना तमाम शुभ कर्म करना भी राख में आहूति देने की तरह निष्फल है तथा भगवान के स्मरण के बगैर तीर्थों में स्नान हाथी – स्नान की भाँति निरर्थक है……….. जिनके स्मरण के बिना सब कुछ ही व्यर्थ है, उन श्रीनारायण देव जी की बार – बार जय हो। (अर्थात् भगवान के स्मरण के बिना ज्ञान और कर्मादि स्वतन्त्र रूप से कोई सुफल देने में समर्थ नहीं हैं, अतएव भक्तिभाव से भगवान नारायण जी का ही स्मरण करें।)
मदन परिहर स्थितिं मदीये,
मनसि मुकुन्दपदारविन्द – धाम्नि।
हरनयन – कृशानुना कृशोऽसि, स्मरसि न चक्रपराक्रमं मुरारेः।।29
हे कामदेव जी ! सुनिये, मेरे मन का घर तो भगवान मुकुन्द जी के चरणकमल ही हैं। अतः उस घर में रहने की इच्छा का परित्याग कर दो। कारण, जब तुम केवलमात्र महादेव जी के नेत्रों की आग से ही झुलस गये हो और साथ ही कमज़ोर हो गये हो तो फिर क्या, तुम्हें भगवान मुरारि श्रीकृष्ण जी के सुदर्शन चक्र के पराक्रम की याद नहीं आ रही है अर्थात् मेरे हृदय में भगवान श्रीहरि के दिव्य पादपद्म विराजमान हैं अत: तुम यहाँ आने का दुःसाहस भी मत करना।
नाथे धातरि भोगि – भोगशयने नारायणे माधवे, देवे देवकिनन्दने सुरवरे चक्रायुधे शाङ्गिणि।
लीलाशेष – जगत्प्रपंच – जठरे विश्वेश्वरे श्रीधरे, गोविन्दे कुरु चित्तवृत्तिमचलामन्यैस्तु किं वर्त्तनैः ?।।30।।
जो भगवान श्रीहरि सर्वरक्षक, विधाता, अनन्तशायी, नारायण, माधव, क्रीड़ाशील, देवकीनन्दन, सुरश्रेष्ठ, सुदर्शनधारी व शाई धनुष को धारण करने वाले हैं तथा लीला समाप्ति के समय सारा जगत जिनके उदर में प्रविष्ट हो जाता है तथा जो विश्व के ईश्वर और श्रीधर हैं, उन्हीं श्रीगोविन्द में अपनी चित्तवृत्ति को स्थिर करो, उनसे अभिन्न दूसरे विषयों की चिन्ता से भला क्या प्रयोजन है ?
मा द्राक्षं क्षीणपुण्यान् क्षणमपि भवतो भक्तिहीनान् पदाब्जे, मा श्रौषं श्राव्यबन्धं तव चरितमपास्यान्यदाव्यानजातम् ।।
मा स्मार्षं माधव त्वामपि भुवनपते चेतसाऽपन्हुवानान्, मा भूवं त्वत्सपर्या – व्यतिकर – रहितो जन्मजन्मान्तरेऽपि।।31
हे माधव! हे त्रिलोकपति! आप मुझ पर ऐसी कृपा करें कि आपके पादपद्मों में जिनकी भक्ति नहीं है अर्थात् जो भक्तिहीन हैं तथा जिनके पुण्य समाप्त हो चुके उन व्यक्तियों का मैं क्षण काल के लिये भी दर्शन न करूँ। आपकी पावन लीलाओं को छोड़कर दूसरी बातें, चाहे वह सुन्दर चरितावली ही क्यों न हो, मेरे कानों तक न पहुँचें। मैं उन्हें बिल्कुल नहीं सुनना चाहता। मैं तो अपने कानों से निरन्तर आपकी पावन कथा सुनना चाहता हूँ। जो आपका अवज्ञाकारी जन है, अर्थात् जो आपकी आज्ञा पालन नहीं करता, उसकी मेरे मन में कभी याद ही न आये । आपकी पूजा के जितने भी अंग हैं, जन्म- जन्मान्तर तक जैसे मैं उन समस्त अंगों से रहित होकर न रह पाऊँ अर्थात् जन्म जन्मान्तर तक मैं
केवल मात्र आपकी ही सेवा में नियुक्त रहूँ।
मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे ! मत्प्रार्थनीय – मदनुग्रह एष एव।
त्वद्भृत्यभृत्य – परिचारक – भृत्यभृत्य – भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ।।32
मधु तथा कैटभ नामक दैत्यों का उद्धार करने वाले हे मधुकैटभारे! मेरे जन्म धारण करने का मुख्य उद्देश्य यही है कि आप मुझे अपने भक्तों के सेवकों के दासों का दास समझें। आपका मुझे अपने भक्तों के सेवकों का दासानुदास समझना ही मुझ पर बहुत बड़ा अनुग्रह होगा।
तत्त्वं भ्रुवाणानि परं परस्तान्मधु क्षरन्तीव मुदावहानि।
प्रावर्त्तय प्रान्जलिरस्मि जिह्वे, नामानि नारायण – गोचराणि।।33
हे मेरी जिहे! मैं दोनों हाथ जोड़कर तुमसे ये अनुनय कर रहा हूँ कि जो परात्पर तत्त्व हैं और बूँद बूँदकर रिसने वाले शहद की भाँति नित्य आनन्दप्रद हैं, उन्हीं नारायण – सम्बन्धी नामों को तू बारम्बार उच्चारण करती रह।
नमामि नारायण – पादपंकजं करोमि नारायण-पूजनं सदा।
वदामि नारायण – नाम निर्मलं, स्मरामि नारायण – तत्त्वमव्ययम् ।।34
जैसे मैं हमेशा श्रीमन् नारायण जी के चरणकमलों में नमस्कार करूँ, हमेशा ही श्रीमन् नारायण भगवान की पूजा करूँ तथा सदा सर्वदा भगवान श्रीमन् नारायण जी के परम पवित्र नामों का उच्चारण करता रहूँ तथा अजर अमर व अव्यय नारायण – तत्त्व को स्मरण करता रहूँ।
श्रीनाथ नारायण वासुदेव, श्रीकृष्ण भक्तप्रिय चक्रपाणे।
श्रीपद्मनाभाच्युत कैटभारे, श्रीराम पद्माक्ष हरे मुरारे।।35
अनन्त वैकुण्ठ मुकुन्द कृष्ण, गोविन्द दामोदर माधवेति।
वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चिदहो जनानां व्यसनाभिमुव्यम् ।।36
(युग्मकम् )
श्रीनाथ, नारायण, वासुदेव, श्रीकृष्ण, भक्तप्रिय, चक्रपाणि, श्रीपद्मनाभ, अच्युत, कैटभारि, श्रीराम, पद्मलोचन, हरि, मुरारी, अनन्त, वैकुण्ठ, मुकुन्द, कृष्ण, गोविन्द, दामोदर, माधव इत्यादि भगवान के नामों का उच्चारण करने में समर्थ होने पर भी व्यक्ति इनका उच्चारण नहीं करते, यही आश्चर्य है; इसी कारण व्यक्तियों में काम, क्रोधादि की प्रवृत्ति होती है।
भक्तापाय – भुजंग – गारुड़मणि – स्त्रैलोक्य – रक्षामणि – र्गोपीलोचन – चातकाम्बुदमणिः सौन्दर्यमुद्रामणिः।
यः कान्तामणि– रुक्मिणी – धनकुचद्वन्द्वैक – भूषामणिः श्रेयो देवशिरखामणि – र्दिशतु नो गोपालचूड़ामणिः।।37
जो भक्तों के पापरूपी साँप का विनाश करने के लिये गरुड़मन्त्र की तरह श्रेष्ठ औषधि हैं, त्रिभुवन की रक्षामणि हैं, गोपियों के नेत्र रूपी चातकों के लिये श्रेष्ठ जलबिन्दु हैं, सुन्दरता की जो सर्वश्रेष्ठ मुद्रा हैं; तमाम पत्नियों में सर्वश्रेष्ठ रुक्मिणीदेवी के जो उरोजभूषण स्वरूप हैं, ऐसे हे देवश्रेष्ठ गोपालचूड़ामणि श्रीकृष्ण! आप मेरा कल्याण विधान कीजिये।
शत्रुच्छेदैकमन्त्रं सकलमुपनिषद् – वाक्य – सम्पूज्यमन्त्रं, संसारोच्छेद – मन्त्रं समुपचित – तमः संघ – निर्याणमन्त्रम्।
सर्वेश्वर्यैकमन्त्रं व्यसनभुजग – सन्दष्ट – सन्त्राणमन्त्रं, जिह्वे श्रीकृष्णमन्त्रंजप जप सततं जनमसाफल्य-मन्त्रम् ।।38
हे मेरी जिहे! तुम निरन्तर, बारम्बार श्रीकृष्ण नामक मन्त्र अर्थात् ‘हरे कृष्ण’ महामन्त्र का जप करती रहो, जो मन्त्र कामादि शत्रुओं का विनाशक है, सम्पूर्ण उपनिषदों के वाक्यों द्वारा सम्पूजित है, संसार के जन्म – मृत्यु चक्र को नाश करने वाला है, प्रगाढ़ अन्धकार को दूर करने वाला है, सब प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाला है तथा कामना- वासना रूपी साँप के द्वारा बुरी तरह से डसे व्यक्ति को बचाने वाला और सुदुर्लभ मानव जन्म को सफल बनाने वाला है।
व्यामोह – प्रशमौषधं मुनिमनोवृत्ति-प्रवृत्यौषधं, दैतयेन्द्रार्त्तिकरौषधं त्रिभुवने संजीवनैकौषधम्।
भक्तात्यन्त-हितौषधं भवभय- प्रध्वंसनैकौषधं श्रेयः- प्राप्तिकरौषधं पिव मनः श्रीकृष्ण-दिव्यौषधम्।।39
हे मेरे मन ! जो मोह व भ्रम आदि को शान्त करने की औषधि, मुनियों के मन की कमज़ोरी को समाप्त करने वाली, दैत्यपति को कष्ट देने वाली, त्रिभुवन में अजर – अमर करने वाली, भक्तों का अत्यन्त हित करने वाली, संसार के भय को नाश करने की व यथार्थ मंगल-प्राप्ति की औषधि है; तू उसी श्रीकृष्ण नाम रूपी दिव्य-औषधि का पान करता रह।
कृष्ण! त्वदीय – पदपंकज – पंजरान्त – रद्यैव मे विशतु मानस – राजहंसः।
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ समरणं कुतस्ते।।40
हे कृष्ण ! मेरा मन रूपी राजहंस आज ही आपके पादपद्मरूपी पिंजरे में प्रविष्ट हो जाये। कारण, प्राण छोड़ने के समय कफ, वात और पित्त के द्वारा कण्ठ रुँध जाने पर कैसे आपका स्मरण हो पायेगा ?
चेतश्चिन्तय कीर्त्तयस्व रसने नम्रीभव त्वं शिरो,
हस्तावंजलि – सम्पुंटरचयतं वन्दस्व दीर्घं वपुः।
आत्मन् संश्रय पुण्डरीकनयनं नागाचलेन्द – स्थितं,
धन्यं पुण्यतम्ं तदेव परमं दैवं हि सत्सिद्धये।।41
हे मेरे मन! तू गिरिराज गोवर्धन में रहने वाले कमल लोचन श्रीकृष्ण का चिन्तन कर । हे जिहा! तू उन्हीं का नाम व उनकी गुण- महिमा का कीर्तन कर। हे मेरे मस्तक ! तुम उनके ही श्रीचरणों में झुक जाओ। हे हाथो! तुम उनके सामने स्वयं को जोड़ लो। ओ मेरे दीर्घ शरीर! तू उन्हें साष्टांग दण्डवत् पूर्वक प्रणाम कर, हे मेरी आत्मा ! तुम केवल मात्र उनका ही आश्रय ग्रहण कर, कारण, जीवों के मंगल की प्राप्ति के लिए एकमात्र वे ही धन्य हैं, पुण्यतम् हैं और परम दिव्य हैं।
श्रृन्वन् जनार्दन – कथा – गुण – कीर्त्तनानि, देहे न यस्य पुलकोद्गम – रोमराजिः।
नोत्पद्यते नयनयो- विमलाम्बुमाला, धिक् तस्य जीवितमहो पुरुषाधमस्य।।42
भगवान जनार्दन का नाम, गुण और कीर्तन सुनकर जिसके शरीर में पुलक नहीं होता, कम्पन्न नहीं होता व आनन्द से जिसके रोम खड़े नहीं हो जाते तथा भगवान के नाम, गुण व कीर्त्तन को सुनकर जिसकी आखों से भगवान के प्रेम की निर्मल आसुओं की धाराऐं नहीं बहने लगती, अहो! उस अधम व्यक्ति के जीवन को धिक्कार है।
अन्धस्य मे हृत-विवेक-महाधनस्य,
चौरैः प्रभो! बलिभिरिन्द्रय – नामधेयैः।
मोहान्धकूप-कुहरे विनिपातितस्य, देवेश! देहि कृपणस्य करावलम्बम्।।43
हे प्रभो! हे देवेश! बलवान इन्द्रियनाशक चोरों ने मेरा विवेक रूपी महाधन अपहरण करके, मुझे मोहरूपी अन्धे कुएँ में गिरा दिया है। हे प्रभो ! अभी मैं अन्धा और निराश्रय हूँ, मुझे हाथ पकड़कर ऊपर उठा लो।
इदं शरीरं परिणाम – पेशलं, पतत्यवश्यं शतसन्धि – जर्जरम् ।
किमौषधं पृच्छसि मूढ़ दुर्मते !
निरामयं कृष्ण-रसायनं पिव।।44
निरन्तर खराब होने वाला, निरन्तर नष्ट होने वाला, सौ हड्डियों के जोड़ से बना, पांच महाभूतों का ये जर्जरित देह एक दिन अवश्य ही विनष्ट हो जाएगा। इसकी औषधि पूछ रहे हो ?
हे मूर्ख ! दुर्बुद्धे ! इसको निरोग करने की, तन्दुस्त करने की एक ही औषधि है, वह है ‘श्रीकृष्ण रसायन’ अर्थात् तुम श्रीकृष्ण – नामरूपी रसायन का पान करो।
आश्चर्यमेतत् हि मनुष्यलोके,
सुधां परित्यज्य विषं पिवन्ति।
नामानि नारायण – गोचराणि,
त्यक्त्वान्यवाचः कुहकाः पठन्ति।।45
इस मनुष्य लोक में यही आश्चर्य का विषय है कि लोग अमृत को छोड़कर विष पान करते हैं। वास्तव में कपटी लोग ही श्रीनारायण का अमृत तुल्य नाम छोड़कर, विष तुल्य दूसरे-दूसरे वाक्यों का उच्चारण करते रहते हैं।
त्यजन्तु बान्धवाः सर्वे, निन्दन्तु गुरवो जना:।
तथापि परमानन्दो, गोविन्दो मम जीवनम् ।।46
चाहे समस्त बन्धु बान्धव ही क्यों न छोड़ दें अथवा गुरुजनगण निन्दा ही क्यों न करें तथापि मैं तो यही कहूँगा कि परमानन्द – स्वरूप श्रीगोविन्द ही मेरे प्राणों से भी करोड़ गुना प्रियतम् हैं।
सत्यं ब्रवीमि मनुजाः स्वयमूर्ध्वबाहुर्यो यो मुकुन्द नरसिंह जनार्दनेति।
जीवो जपत्यनुदिनं मरणे रणे वा, पाषाण – काष्ठ – सदृशायददात्यभीष्टम् ।।47
हे मानवो! मैं स्वयं दोनों हाथ ऊपर उठाकर इस सत्य बात की घोषणा कर रहा हूँ कि जो कोई भी जीव, हे मुकुन्द ! हे नारायण! हे जनार्दन — ऐसे नामों का प्रतिदिन अथवा मरने के समय या युद्ध के मैदान में ही क्यों न उच्चारण करे, वे भगवान श्रीहरि उसे उनकी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करा देते हैं; अर्थात् श्रीकृष्ण उसे अपना दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं चाहे वह व्यक्ति पत्थर और लकड़ी के समान कठोर चित्त वाला ही क्यों न हो।
नारायणाय नम इत्यमुमेव मन्त्रं, संसार – घोरविष – निर्हरणाय नित्यम् ।
श्रृन्वन्तु भव्यमतयो यतयोऽनुरागादुच्चैस्तरामुपदिशाम्यऽमूर्ध्व बाहुः।।48
हे समझदार, कुशलमति वाले मनुष्यो ! हे मुनिगण! मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर अनुराग से भरे अति ऊँचे स्वर में उपदेश कर रहा हूँ कि जन्म – मृत्यु – प्रवाहरूप भंयकर विष को विनाश करने के लिये ‘नारायणाय नम:’ यह मन्त्र ही आप प्रति दिन सुना करें।
चित्तं नैव निवर्त्तते क्षणमपि श्रीकृष्णपादाम्बुजात्,
निन्दन्तु प्रियबान्धवा गुरुजना गृह्णन्तु मच्यन्तु वा।
दुर्वादं परिघोषयन्तु मनुजा वंशे कलंकोऽस्तु वा, तादृक्-प्रेमधरानुरागमधुना मत्ताय मानं तु मे।।49
श्रीकृष्ण के चरणकमलों से मेरा मन क्षण काल के लिये भी दूर नहीं हो रहा है, इस कारण चाहे मेरे बन्धु – बान्धव, रिश्तेदार मेरी निन्दा ही क्यों न करें। मेरे गुरुजन मुझे अपनायें या त्याग ही क्यों न कर दें; लोग चाहे मेरे बारे में से अनुराग तरह तरह की बातें बनाएँ, चाहे भगवद् – चरणों के मेरे वंश में कलंक ही क्यों न लग जाये, परन्तु आजकल ऐसे भगवान के प्रेम में ही मैं मस्त रहता हूं, ये ही मेरा सम्मान प्रदायक है।
कृष्णो रक्षतु नो जगत्त्रयगुरुः कृष्णं नमध्वं सदा,
कृष्णेनाखिलश्त्रवो विनिहताः कृष्णाय तस्मै नमः।
कृष्णादेव समुन्थितं जगदिदं कृष्णस्य दासोऽस्म्यहं,
कृष्णे तिष्ठति विश्वमेतदखिलं हे कृष्ण! रक्षस्व माम् ।।50
त्रिभुवन के गुरु श्रीकृष्ण हमारी रक्षा करें, सदैव उन्हीं श्रीकृष्ण को प्रणाम करो। श्रीकृष्ण ने ही समस्त शत्रुओं को परास्त किया है, उन्हीं प्रसिद्ध श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ। इन्हीं श्रीकृष्ण से यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, मैं उन्हीं श्रीकृष्ण का ही दास हूँ। यह सम्पूर्ण विश्व श्रीकृष्ण में ही अवस्थित है, हे कृष्ण ! आप मेरी रक्षा कीजिये।
हे गोपालक! हे कृपाजलनिधे! हे सिन्धुकन्यापते!
हे कंसान्तक! हे गजेन्द्र – करुणापारीण! हे माधव ! ।
हे रामानुज! हे जगत्त्रयगुरो हे पुण्डरीकाक्ष ! मां
हे गोपीजननाथ ! पालय परं जानामि न त्वां विना।।51
हे गायों का पालन करने वाले! हे दया के सागर ! हे लक्ष्मीपते, हे कंस – विनाशक, हे गजेन्द्र के प्रति करुणा करने में उतावलापन रखने वाले! हे माधव, हे बलराजजी के छोटे भाई श्रीकृष्ण, हे त्रिभुवन के गुरु, हे गोपीजन- वल्लभ ! मेरी ! रक्षा करो, आपको छोड़कर मैं दूसरे किसी को भी नहीं जानता हूँ।
दारा वाराकर – वरसुता ते तनूजो विरिन्चि:,
स्तोता वेदस्तव सुरगणो भृत्यवर्गः प्रसादः।
मुक्ति – र्माया जगदविकलं तावकी देवकी ते,
माता – मित्रं बलरिपुसुत-स्तत् त्वदन्यं न जाने।।52
हे भगवन्! लक्ष्मीदेवी आपकी पत्नी हैं, ब्रह्माजी आपके पुत्र हैं सभी वेद आपकी महिमा बोलने वाले, स्तव करने वाले हैं, देवता आपके दास हैं, मुक्ति ही आपकी कृपा है, यह नश्वर जगत् आपकी माया है, श्रीदेवकी देवी जी आपकी माता हैं, अर्जुन आपके सखा हैं, अतएव आपको छोड़कर दूसरे किसी को भी मैं नहीं जानता हूँ।
प्रमणाममीशस्य शिरः फलं विदुस्तदर्चनं पाणिफलं दिवौकसः।
मनः फलं तद्गुणतत्त्व – चिन्तनं, वाचः फलं तद्गुण – कीर्तनं बुधाः।।53
देवलोक में रहने वाले बुद्धिमान देवताओं का तो मानना यह है कि ईश्वर श्रीनारायण को प्रणाम करना मस्तक धारण करने का फल है, उसी प्रकार उनकी पूजा करना हाथ प्राप्त करने का फल है, मन उनके गुणों का चिन्तन मन का फल है तथा उनका गुण – कीर्तन करना वाक्य का फल है।
श्रीमन्नाम प्रोच्य नारायणाव्यं, के न प्रापु – वञ्छितं पापिनोऽपि।
हा नः पूर्वं वाक् प्रवृत्ता न तस्मिन्, तेन प्राप्तं गर्भवासादि – दुःखम् ।।54
श्रीनारायण का नाम उच्चारण करने से ऐसा कौन-सा पापी है, जिसने अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त न की हो ? हाय ! मेरे वाक्य पहले से उन्हीं श्रीनारायण का नाम लेने में प्रवृत्त क्यों नहीं हुये, जिस कारण मै जन्म मरणादि के दुःखों को भोग – रहा हूँ।
ध्यायन्ति ये विष्णुमनन्तमव्यम्
हृत्पद्ममध्ये सततं व्यवस्थितम्।
समाहितानां सतताभयप्रदं,
ते यान्ति सिद्धिं परमां तु वैष्णवीम् ।।55
जो भगवान श्रीहरि अपने हृदय कमल में रहने वाले आश्रित पुरुषों को सदा अभय प्रदान करने वाले हैं, जो अपरिच्छिन्न हैं व अव्यय हैं, उन भगवान विष्णु को जो अपने हृदय में स्थापित करके निरन्तर उनका ही ध्यान करते रहते हैं, वे भी सर्वोत्कृष्टा वैष्णवी – सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।।
तत् त्वं प्रसीद भगवन् ! कुरु मय्य नाथे,
विष्णो! कृपां परमकारुणिकः अवु त्वम्।
संसारसागर – निमग्नमनन्त !
दीन – मुद्धर्तुमर्हसि हरे ! पुरुषोत्तमोऽसि।।56
हे विष्णु ! आप निश्चय ही परम कारुणिक हैं, इस कारण आप प्रसन्न हो जाइये, मुझ निराश्रय के प्रति दया कीजिये । हे हरे! आप पुरुषों में उत्तम हैं, हे अन्तहीन सर्वव्यापी भगवन् । संसार – सागर में डूबते मुझ दीन का उद्धार कर दीजिये।
क्षीरसागर – तरङ्ग – शीकरासार तारकित – चारुमूर्त्तये ।
भोगिभोग – शयनीय – शायिने, माधवाय मधुविद्विषे नमः ।।57।।
जिनकी श्रीमूर्ति क्षीर सागर की तरंगों से उछलती सफेद चाँदी की बूदों सी सफेद व सुन्दर सितारों की तरह मन हो हरण हरने वाली है, जो अनन्त नाग की शरीररूपी शैय्या पर लेटे हुये हैं तथा जो मधु नामक दैत्य के शत्रु हैं, उन्हीं लक्ष्मी पति श्रीनारायण को मैं नमस्कार करता हूँ।
अलमलमलमेका प्राणिनां पातकानां,
निरसन – विषये या कृष्ण कृष्णेति वाणी ।
यदि भवति मुकुन्दे भक्तिरानन्दसान्द्रा,
करतल – कलिता सा मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मीः ।।58।।
— कृष्ण! हे कृष्ण ! इस प्रकार का केवल एक हे वाक्य ही प्राणियों के पापों का विनाश करने के लिए काफी है, काफी है काफी है। यदि इस नाम को उच्चारण करने से भगवान मुकुन्द में प्रेमपूर्णा भक्ति का उदय हो जाये तब तो क्या कहना, तब तो मोक्ष भी उनकी हथेली पर आ जाता है।
यस्य प्रिय श्रुतिधरौ कविलोकवीरौ,
मित्रे द्विजन्मवर – पद्मशरापद्मशरा – वभूताम्।
तेनाम्बुजाक्ष – चरणाम्बुज – षट्पदेन,
राज्ञा कृता कृतिरियं कुलशेखरेण ।।59।।
कुलशेखर स्वामी जी के द्विजन्मवर तथा पद्मशर नाम के दो व्यक्ति वेदों को जानने वाले विद्वानों की सभा में अग्रणी थे, ये दोनों विद्वान, जिन कुलशेखर जी के मित्र थे, कमललोचन भगवान श्रीकृष्ण के पादपद्मयुगल के भ्रमररूपी उन्हीं राजा श्रीकुलशेखर के द्वारा यह ग्रन्थ विरचित हुआ है।
मुकुन्दमालां पठतां नराणामशेषसौरव्यं लभते न कः स्वित्।
समस्तपापक्षयमेत्य देही, प्रयाति विष्णोः परमं पदं तत् ।।60।।
इस मुकुन्दमाला स्तोत्र का पाठ करने वाले मनुष्यों को अशेष सुखों की प्राप्ति नहीं होगी? इसके उत्तर में कहते हैं सुखों की तो बात है क्या, इस स्तोत्र का पाठ करने से जीवमात्र ही समस्त पापों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त कर लेते हैं । –
इति श्रीकुलशेखरेण राजा श्रीमुकुन्दमालास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।। ……..विरचितं