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अपने दोषों का अनुभव

Srila_Guru_Deva

जब तक हम अपने भौतिक अहंकार को नहीं छोड़ेंगे, तब तक अपने जागतिक अभिमान एवं अपने दोषों को नष्ट करना हमारे लिए सम्भव नहीं होगा। स्वरूप-भ्रम ही जागतिक अभिमान की वृद्धि, धोखा देने की वृत्ति एवं इसी प्रकार के अन्य दोषों का मूल कारण है। बद्ध जीव के लिए सांसारिक अभिमान को छोड़ना आसान नहीं है, इसलिए स्वाभाविक रूप से ही उन दोषों से मुक्ति पाना बहुत कठिन है। शुद्ध- भक्तों के निरन्तर संग व वास्तविक सन्तों की शरणागति के साथ भक्ति के विभिन्न अंगों के दृढ़ अभ्यास द्वारा ही हम धीरे-धीरे अपने दोषों से मुक्ति पा सकते हैं। ये ठीक है कि इस में समय लगेगा और इस समय की अवधि, साधन की तीव्रता पर निर्भर करती है। अकस्मात् कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यह भी सत्य है कि जब हम वास्तव में भक्ति की साधना करते हैं तो हमें अपने दोषों का पता चलता है और हम विनम्र हो जाते हैं।

परम मंगलमय श्रीकृष्ण के अधिकाधिक सम्पर्क में आने से हम अधिकाधिक विनम्र होते चले जाते हैं। यह विनम्रता बुरी नहीं है। जब हम प्रकाश के सम्पर्क में आते हैं तभी हमें यह अनुभव होता है कि हम अन्धकार में थे।

मुझे यह जानकार प्रसन्नता हुई कि आप निष्कपट रूप से भजन कर रहे हैं। जब कोई व्यक्ति निष्कपट रूप से भजन करता है तो उसे अपनी कमियों का पता लगता है। अब जबकि आप भगवत्-साक्षात्कार के लिए भजन करने कुछ का प्रयास कर रहे हो तो आप को अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में बहुत सी बाधाओं और बहुत सी कमियों, जिनका तुम्हें पहले अनुभव नहीं था, का सामना करना पड़ रहा है। यह एक लम्बी यात्रा है। आपने तो भजन अभी प्रारम्भ ही किया है। अकस्मात् कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इस में समय लगता है। यह सभी कुछ साधन की दृढ़ता एवं हृदय से किए गए सच्चे प्रयास पर निर्भर करता है। हमें भावुकता में बह कर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए।

शुद्ध-भक्त की निन्दा ‘नाम-भजन’ में सबसे बड़ी बाधा है। हमें भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु की उन शिक्षाओं को स्मरण रखना चाहिए, जहां पर उनहोंने बताया है कि जो तिनके से अधिक विनम्र हैं, वृक्ष से भी अधिक सहनशील हैं, दूसरों को उचित मान देते हैं व स्वयं दूसरों से मान-प्राप्ति की इच्छा नहीं करते, वे ही ‘हरिनाम-संकीर्तन’ करने के योग्य पात्र हैं।

हमें अपने दोषों की निन्दा करनी चाहिए, दूसरों के दोषों की निन्दा करने का खतरा कभी भी मोल नहीं लेना चाहिए।
शुद्ध-भक्तों के निरन्तर संग व वास्तविक सन्तों की शरणागति के साथ भक्ति के विभिन्न अंगों के दृढ़ अभ्यास द्वारा ही हम धीरे-धीरे अपने दोषों से मुक्ति पा सकते हैं। परम मंगलमय श्रीकृष्ण के अधिकाधिक सम्पर्क में आने से हम अधिकाधिक विनम्र होते चले जाते हैं। यह विनम्रता बुरी नहीं है। जब हम प्रकाश के सम्पर्क में आते हैं तभी हमें यह अनुभव होता है कि हम अन्धकार में थे।