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आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

वक्ता: परंपूज्यपाद त्रिदंडिस्वामी भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज |

स्थल: श्रीराधाकृष्ण मंदिर, गंज बाज़ार, शिमला | दिनांक 7 मई 1994, समय साय 5 बजे |

आसाम प्रचार के समय सिलचर मैं मैंने एक दिन प्रवचन किया तो उस दिन सभा के मुख्य अतिथि कोई प्रोफेसर थे | मेरे बोलने के बाद उन्होने भाषण दिया | अपने भाषण में उन्होने कहा कि चरम कारण निराकार, निर्विशेष व निषशक्तिक हैं | भगवान का आकार होने से तो वे सीमा में आ जाएंगे जबकि वे तो असीम हैं | हाँ, साधारण आदमी निराकार निर्विशेष की चिंता नहीं कर सकता इसलिए “साधकानाम हितर्थाय ब्रह्मरूप कल्पनम” अर्थात साधकों के हित के लिए ब्रह्म का रूप कल्पित हुआ हैं | यह कोई ज़रूरी नहीं हैं कि आप किसी खास रूप का ही ध्यान करें, आप चाहे तो कृष्ण का, राम का, गणपती का, दुर्गा का, शिव का अथवा अपनी रूचि के अनुसार अपनी स्त्री का, पुत्र का, अपने घर के कुत्ते का किसी का भी ध्यान कर सकते हैं | जिसकी जो इच्छा हैं, उसका ध्यान करें, बाद में ध्यान, ध्यता व ध्येय तीनों नहीं रहेंगे | त्रिपुती विनाश हो जाएगी | केवल निम्नाधिकारी व्यक्तियों पर कृपा करने के लिए, वो जो चरम कारण हैं, वह सत्व गुण को लेकर साकार रूप धरण करते हैं, परंतु वास्तव मैं वे साकार नहीं हैं | चरम कारण निराकार हैं व निर्विशेष हैं |

बाद में तो मुझे धन्यवाद देना होता हैं, सो मैंने अपने धन्यवाद प्रस्ताव मैं कहा कि प्रोफेसर साहब तो बहुत विद्वान व्यक्ति हैं, बहुत सुंदर भाषण उन्होने हमें प्रदान किया परंतु उनसे मेरा सवाल एक हैं | वह ये कि अभी-अभी उन्होने कहा कि चरम कारण निराकार-निर्विशेष व नि:शक्तिक हैं, वह निम्नाधिकारी पर कृपा करने के लिए सत्वगुण को लेकर साकार रूप धरण करता हैं |

परंतु मैं पूछता हूँ , कैसे ?

जो तत्व नि:शक्तिक हैं, वह सत्वगुण को लेकर साकार रूप धारण कर सकता हैं ?

howhohow how

It is irrational talk

प्रोफेसर साहब ने कहा कि साधकों के हित के लिए ब्रह्म का रूप कल्पित हुआ हैं |

मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या झूठ वस्तु से सत्य कि प्राप्ति हो सकती हैं ?

हमारे शास्त्रों में निराकार व साकार दोनों प्रकार के रूपों कि बातें हैं | जब शास्त्र को मानना होगा, तो अधूरा-अधूरा नहीं, पूरा मानना होगा और ठीक तरह से जान लेना होगा कि भगवान एक साथ साकार भी और निराकार भी कैसे हैं ?

श्रुति में कहते हैं-

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता,

पश्यत्यचक्षु स श्रीणोत्यकर्ण:

स वेति वेद्यम न छ तस्यास्ति वेता

तमहुरग्रयम पुरुषम महान्तम || (श्वेताश्वर उपनिषद 3/19 )

अर्थात भगवान प्राकृत हाथ-पैर से रहित होकर भी अप्राकृत हाथों से सभी वस्तु ग्रहण करते हैं तथा अप्राकृत पैरों से गमन करते हैं | इसी प्रकार प्राकृत नेत्रों व कानों से रहित होते हुए भी वे अप्राकृत नेत्रों व कानों से सब देखते व सुनते हैं | जो कुछ भी जानने वाली वस्तुएं हैं वे उन सभी को जानते है परंतु यदि वे अपने आप को न जनायेँ तो उन्हे कोई भी नहीं जान सकता | ब्रह्मविद व्यक्ति उन्हीं को आदि पुरुष के मूल कारण स्वरूप महान-पुरुष कहते हैं |

ऐसा ही एक बार हैदराबाद में सनातन धर्मियों और आर्य समाजियों मूर्ति पूजा को लेकर बहस हो गयी | बहस जब कुछ बढ़ गयी तो दोनों पक्ष विचार करने के लिए आमने-सामने बैठे | निर्णय के लिए हाइ कोर्ट के एक जज को भी बीच में बिठाया गया |

आर्य समाजियों ने अपने पक्ष से कहा कि वेद में कहा लिखी है मूर्ति पूजा की बात ?

जवाब में सनातन धर्मियों ने बताया कि वेद में फलाँ-फलाँ स्थान पर मूर्ति पूजा की बात हैं |

वेद के पृष्ठों को उलटते समय आर्य समाजियों ने कहा कि यहा तो कोई भी मूर्ति पूजा की बात नहीं हैं | वे होशियारपुर से छपे वेद की प्रतियाँ वहाँ लाये थे | जिसमे से मूर्ति पूजा की सब बातें हटा दी गयी थी | तब सनातन धर्मियों ने प्राचीन वेद की प्रति में मूर्ति पूजा के प्रमाण दिखाये तथा थोड़ा क्रोधित व उपेक्षापूर्ण शब्दों में कहा कि आप लोगों को वेद से मूर्ति पूजा की बात नहीं निकालनी चाहिए, आपकी समझ में नहीं आया तो आपको क्या उसे निकाल देना चाहिए था ?

जिस दयानन्द हाल में यह विचार विमर्श चल रहा था, उस हाल में दयानन्द जी की एक बड़ी तस्वीर Oil painting लगी हुई थी |

तस्वीर की ओर इशारा करते हुए एक सनातन धर्मी ने कहा कि जब आप मूर्ति को नहीं मानते तो आपने यहा दयानन्द की तस्वीर क्यों लगा रखी हैं ?

इसे लगाने से क्या हैं, हम इसे दयानन्द नहीं मानते हैं-आर्य समाजियों ने कहा |

आप इसे दयानन्द नहीं मानते ? नहीं मानते |

तो क्या आप इसे लात मार सकते हैं ? हाँ-हाँ क्यों नहीं |

तभी कुछ आर्य समाजियों ने दयानन्द की तस्वीर को उतारा और उसे ज़मीन पर रखकर तीन-चार लात मार दी |

दयानन्द की तस्वीर को बेइज्जती के साथ ज़मीन पर पटकता देखकर व उस पर लाते मारता देखकर आर्य समाजियों को ये अच्छा न लगा और उन्होने खड़े होकर अपने साथियों को डांटते हुए कहाँ कि आप लोग आपस में विचार करो, परंतु ये क्या कि तुम बात बात पे दयानन्द जी का इस प्रकार से अपमान करो |

बस इसी बात पर आर्य समाजी आपस में झगड़ पड़े तो सभी को शांत करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि आज माहौल खराब हो गया है फिर कभी इस बारे में विचार होगा |

और फिर इस बारे में कभी बहस नहीं हुई | कहने का तात्पर्य मूर्ति पूजा सभी के अंदर घूसी हैं | परंतु हाँ सनातन धर्म के श्रीविग्रह को समझने के लिए बहुत बड़ा दिमाग होना चाहिये | कारण, जब हम कर्ता होकर मिट्टी की, धातु की मूर्ति बनायेगे तो वह अवश्य ही पुतली होगी, यह तो निकृष्ट हैं | गीताजी के अनुसार भगवान का श्रीविग्रह भगवान की अपरा प्रकृति से बना हैं | यहाँ तक कि यदि कोई अपने मन से चिंतन करके भगवान को आकाश कि तरह निराकार कहे तो वह भी पुतली ही होगी |

भगवान अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए व जीवों पर कृपा करने के लिए ; उन्हे अपनी सेवा प्रदान करने के लिए- भास्कर, गुरु व वैष्णव आदि के कंधों पर चढ़कर जिस रूप से अवतरित होते हैं उसे ही भगवान का श्रीविग्रह कहते हैं | ठीक उसी प्रकार, जैसा कि प्राचीन समय में राजा को जब कहीं जाना होता था तो वह पालकी में बैठकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता था | देखने में तो लगता हैं कि पालकी में चार व्यक्ति कर्ता हैं तथा पालकी के अंदर जो बैठा हैं वह कर्मा हैं अर्थात अधीन हैं परंतु वास्तविकता यह हैं कि पालकी में बैठा व्यक्ति कर्ता हैं बाकी सब उसके अधीन हैं | श्री चैतन्य चरितामृत में भी कहते हैं- नाम विग्रह स्वरूप तीनों एक रूप | तीनों में भेद नाही तीनों चिदानंद रूप |

विदेश से एक भक्त ने मुझे एक पत्र दिया | उसमे उन्होने मुझे लिखा कि We all feel pleasure to go to near by Sri Radhakrishan temple, to see the idol of Sri Radhakrishan.

चिट्ठी पड़कर बात मेरे दिल पर लग गयी और मैंने उसे लिखा कि आपने वैष्णव संप्रदाय से मंत्र लिया हैं वैष्णव लोग मूर्ति पूजक नहीं होते, वे तो विग्रह सेवा करते हैं | आपको Idol शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए | Oxford dictionary में Idol शब्द का अर्थ दिया हैं false god; इंग्लिश में श्रीविग्रह का प्रतिशब्द हैं ही नहीं | हाँ deity का प्रयोग हो सकता हैं | श्रीविग्रह कोई false god नहीं हैं भगवान का स्वरूप हैं | चरम कारण में रूप हैं परंतु वह रूप दुनिया के रूप की तरह बिगड़ने वाला नहीं हैं, उनका अप्राकृत स्वरूप हैं |

वांछा कलपतरूभयश्च कृपासिंधुभय एव च, पतितानाम पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः |