मन, तुमि भालवास कामेर तरंग
जड़काम परिहरि’, शुद्ध-काम- सेवा करि’,
विस्तारह अप्राकृत रंग॥1॥
हे मेरे मन! तुम कामेच्छाओं की तरंगों से प्रेम करते हो। तुम इस भौतिक काम को त्याग दो तथा विशुद्ध भगवत्प्रेम को जागृत करो। इस प्रकार तुम भगवान् की दिव्य लीलाओं का विस्तार कर पाओगे।
अनित्य जड़िय काम, शान्ति-हीन अविश्राम,
नाहि ताहे पिपासार भंग।
कामेर सामग्री चाओ, तबु ताहा नाही पाओ,
पाइलेओ छाड़े तव संग।।3॥
भौतिक कामेच्छा अनित्य, शांति विहीन, तथा उद्विग्न करने वाली है। यह जीव के सुख की पिपासा को शांत नहीं कर सकती। यद्यपि तुम अपनी कामेच्छाओं की पूर्ति हेतु अधिकाधिक वस्तुएँ चाहते हो, तथापि उन वस्तुओं को प्राप्त करने में कदापि समर्थ नहीं बनोगे। यदि तुम उन सबको प्राप्त भी करो तो भी शीघ्र ही, वे तुम्हारा संग त्याग देगी।
तुमि सेवा कर’ या रे, से तोमा’ भजिते नारे,
दुःखे ज्वले विनोदेर अंगा।
छाड़’ तबे मिछा- काम, हओ तुमि सत्य काम,
भज वृन्दावनेर अनङ्ग।
याँहार कुसुम – शरे, तव नित्य कलेवरे,
व्याप्त ह’बे प्रेम अंतरंग।।4॥
जिस व्यक्ति की तुम सेवा करते हो वह आपको संतुष्ट नहीं कर सकता। इससे श्रील भक्तिविनाद ठाकुर का शरीर कष्ट के कारण जल रहा है। हे मन! इस व्यर्थ की कामेच्छा को त्यागकर वृन्दावन के कामदेव की आराधना करते हुए तुम्हें शाश्वत जीवन की अभिलाषा करनी चाहिए। अतः उनके पुष्प रूपी बाणों से वेधित होकर आपको भगवत्प्रेम से पूरित दिव्य शरीर प्राप्त होगा।
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