मन रे केन मिछे भजिछ असार?

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर विरचित

मन रे केन मिछे भजिछ असार ?
भूतमय ए संसार,   जीवेर पक्षेते छार,
अमंगल – समुद्र अपार ॥1॥

हे मन! तुम इस अनित्य भौतिक जगत् की व्यर्थ ही क्यों पूजा करते हो, भौतिक जगत् जो पंचमहाभूतों से निर्मित है, वास्तव में विशुद्ध जीवों के लिए यह अमंगलों का एक विशाल समुद्र है।

भूतातीत शुद्ध – जीव,   निरंजन सदाशिव,
मायातीत प्रेमेर आधार।
तव शुद्धसत्ता ताइ,  ए जड़-जगते भाइ,
केन मुग्ध हओ बार-बार जड़ ? ॥2॥

इसके विपरीत, विशुद्ध जीवात्माएँ जो पदार्थ के परे हैं वे निष्कलंक पूर्ण मंगलमय तथा भगवत्प्रेम प्राप्ति के पात्र हैं। वे माया के प्रभुत्व से परे हैं। जीवात्मा मौलिक रूप से विशुद्ध है। हे बन्धु! क्यों तुम बारम्बार इस भौतिक जगत् की माया द्वारा मोहित हो जाते हो?

फिरे देख एक बार,  आत्मा अमृतेर धार,
ता ते बुद्धि उचित तोमार।
तुमि आत्मारूपी हये,  श्री-चैतन्य-समाश्रये,
वृंदावने थाक अनिबार ॥3॥

कृपया एक बार इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करो, कि किस प्रकार से जीव अमृतधारा के समान विशुद्ध तथा अमर है। आत्मज्ञानी जीव बनो तथा भगवान् चैतन्य की शरण ग्रहण करते हुए नित्य निरंतर वृन्दावन में निवास करो।

नित्यकाल सखिसंगे, परानंद-सेवा-रंगे,
युगलभजन कर ‘सार।
ए हेन युगल -धन, छारे येइ मूर्ख जन,
गति नाहि देखि आर ॥4॥

आपको सखियों के संग में प्रेमोन्माद में भरकर दिव्य युगल श्री श्री राधा- कृष्ण की नित्य सेवा करनी चाहिए। एक मूर्ख ही श्रीश्री राधा-कृष्ण रूपी खजाने का त्याग कर सकता है। मुझे ऐसे व्यक्ति का किञ्चित भी कल्याण नहीं दीखता।

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