Gaudiya Acharyas

श्री मुकुंद दत्त

“व्रजे स्थितौ गायकौ यौ मधुकंठ-मधुव्रतौ।
मुकुंद वासुदेवौ तौ दत्तौ गौरांगगायकौ॥” (गौ. ग. 140)

श्री कृष्ण लीला में ब्रज के जो मधुकण्ठ थे , गौरलीला में वही मुकुंद दत्त हैं। वे पूर्व चक्रशाला – चट्ट ग्राम जिले के पाटिया थाने के अंतर्गत छनहरा ग्राम में (जो अभी बंगला देश में है) आविर्भूत हुए थे। यह श्री पुंडरीक विद्यानिधि जी के श्री पाट से प्रायः 20 मील दूर है। वासुदेव दत्त ठाकुर इनके भाई हैं―
” चट्टग्राम देशे चक्रशाला ग्राम हय।
संभ्रांत दत्त अंबष्ठ ताहे ख्यात रय॥
सेइ वंशे जनमिला दुइ भागवत।
श्रीमुकुंद दत्त आर वासुदेव दत्त॥
वासुदेव ज्येष्ठ, मुकुंद कनिष्ठ हन।
दुइ आसि नवद्वीपे करिलेन वास॥”

“श्री मुकुंद-दत्त-शाखा, प्रभुर समाध्यायी।
यांहार कीर्तने नाचे चैतन्य गोसाईं॥”
(चै.च.आ. 10/40)

[चट्टग्राम में एक चक्रशाला ग्राम है। वहां पर अम्बष्ठ दत्त जी रहते हैं जो कि अति सम्मानीय व्यक्ति के रूप में विख्यात हैं। इसी कुल में श्री मुकुंद दत्त और श्री वासुदेव दत्त नाम के दो परम भक्तों ने जन्म लिया जिनमें वासुदेव दत्त बड़े भाई हैं जबकि श्रीमुकुंद दत्त कनिष्ठ। श्री मुकुंद दत्त महाप्रभु जी के सहपाठी थे जिनके कीर्तन में श्रीमन्महाप्रभु नृत्य करते थे।]
मुकुंद दत्त चट्टग्राम से नवदीप में आकर महाप्रभु जी के सहपाठी रूप से सबसे पहले महाप्रभु जी की विद्या विलास लीला में प्रविष्ट हुए थे। शैशवकाल से ही मुकुंद और महाप्रभुजी एक साथ गंगादास पंडित की पाठशाला में पढ़े थे। जब निमाई पंडित अध्ययन रस में प्रमत्त होकर हज़ारों छात्रों के साथ नवद्वीप में भ्रमण करते थे तब गंगादास पंडित के अतिरिक्त और कोई भी पंडित निमाई की व्याख्या नहीं समझ पाता था। पाखंडियों के लिए निमाई पंडित साक्षात यमस्वरूप थे जबकि स्त्रियों के लिए तो वे साक्षात मदनस्वरूप थे एवं पंडितों के सामने साक्षात वृहस्पति स्वरूप थे। चट्टग्राम निवासी अनेक वैष्णव उस समय गंगावास और अध्ययन के लिए नवदीप में आकर रहते थे। वैष्णव लोग प्रत्येक दिन दोपहर के समय श्रीअद्वैत सभा में आकर परस्पर मिलते थे। अद्वैत सभा में वैष्णव लोग मुकुन्द के द्वारा गीत तथा सुमधुर हरि कीर्तन श्रवण विचार-द्वंद में प्रवृत्त हो जाते थे। सब निमाई की फाँकी (पहेलियाँ) पूछने के भय से उनसे दूर भाग जाते थे। मुकुंद महाप्रभु जी के साथ व्याकरण की फाँकी को लेकर हुए द्वन्द से छुटकारा पाने के लिए ‘व्याकरण तो बच्चों का पाठ्य है’ कहकर महाप्रभु को अलंकार शास्त्र के कठिन-कठिन प्रश्न पूछते, महाप्रभुजी सभी का यथायथ उत्तर देते। वे अपने उत्तरों को एक बार स्थापन करते, फिर खंडन करते और पुन: स्थापन कर देते। सर्व शास्त्रों में महाप्रभु जी का अगाध पांडित्य देखकर मुकुंद आश्चर्यचकित रह जाते―

‘मनुष्येर एमत पांडित्य आछे कोथा।
हेन शास्त्र नाहिक अभ्यास नाहिं यथा॥
एमत सुबुद्धि कृष्ण भक्त हय यवे।
तिलोको इहान संग ना छाड़िये तवे॥
(चै. भा. आ 12/18-19)

[ऐसा पाण्डित्य मनुष्य में कहां होता है? कोई ऐसा शास्त्र नहीं है, जिसका इन्हें अभ्यास नहीं है। इस प्रकार का सुबुुुद्धिमान यदि कृष्ण भक्त हो जाए तो हम थोड़ी देर के लिए भी इनका संग ना छोड़ें।]

कृष्णेतर बातों के प्रति विरक्त भक्त लोग कृष्णकथा को छोड़कर और-और बातें सुनने की रुचि नहीं रखते। इसीलिए निमाई को देखते ही वे कहीं छुप जाते। एक दिन महाप्रभु हंसते हुए कहने लगे―
“मुकुंद मेरे सामने से तू और ज्यादा दिन नहीं भाग पाएगा। मैं इस प्रकार का वैष्णव बनूंगा कि ब्रह्मा व शिव तक मेरे द्वार पर आकर लोटपोट होंगे।”

गया में ईश्वर पुरीपाद जी से दीक्षा ग्रहण की लीला के अभिनय के पश्चात, जब महाप्रभु जी वापस नवद्वीप में लौट कर आए तो हमेशा ही कृष्ण प्रेमोन्मत्त अवस्था में रहने लगे। श्रीमन्महाप्रभु जी को ऐसी अवस्था में देखकर मुकुंद उनके भाव के अनुरूप श्लोकों का उच्चारण और कीर्तन करके उन्हें सुख देते थेा मुकुंद का कीर्तन ऐसा प्राण स्पर्शी व सुमधुर होता था कि औरों की तो बात ही क्या, श्री अद्वैत आचार्य व श्री ईश्वर पुरीपाद जी तक भी प्रेमाविष्ट हो जाते थे।
पुंडरीक विद्यानिधि (कृष्ण लीला के वृषभानु महाराज) जिनको महाप्रभु जी ने ‘पुंडरीक रे’ ‘बाप रे’ कहकर पुकारा था जिनका नाम लेकर क्रंदन किया था, वे नवदीप में आकर परम भोगी की लीला का अभिनय करते हुए गुप्त रूप से रह रहे थे। वैष्णवों में से मात्र मुकुंद दत्त ही विद्यानिधि के तत्व से अवगत थे। जन्म से ही विरक्त गदाधर पंडित गोस्वामी जी को एक अद्भुत वैष्णव दिखाने के लिए मुकुंद दत्त उन्हें विद्यानिधि जी के पास ले गए, उस समय विद्यानिधि जी एक आलीशान पलंग के ऊपर बैठकर पान चबा रहे थे। उनका पान चबाना इत्यादि व्यवहार, दूध की फेन के समान उनकी सफेद शैय्या, इत्र की गंध व उनका भोग-विलास दर्शन करके गदाधर को विद्यानिधि जी की वैष्णवता के प्रति संशय हो गया। गदाधर जी के मन की बात जानने वाले मुकुंद दास जी ने तभी श्री कृष्ण महिमा सूचक एक श्लोक का उच्चारण किया:-
‘अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाधवी।
लेभेगतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कंवा दयालुं शरणं व्रजेम॥’
(भा. 3/2/23)

भागवत का श्लोक सुनने मात्र से पुंडरीक विद्यानिधि मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। उनके श्री अंगों पर विविध सात्विक विकार प्रकटित होने लगे। विद्यानिधि जी के अद्भुत प्रेम के दर्शन कर गदाधर पंडित वैष्णव अपराध के कारण अत्यंत अनुतप्त हो उठे। उन्होंने मुकुंद दत्त जी के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वैष्णव अपराध खंडन के लिए वे विद्यानिधि जी से दीक्षा ग्रहण करेंगे। मुकुंद दत्त जी गदाधर जी का प्रस्ताव सुनकर उल्लसित हो उठे तथा गदाधर जी की प्रशंसा करने लगे। श्री मुकुंद दास जी के अनुरोध पर विद्यानिधि जी ने गदाधर जी को दीक्षा प्रदान करने के लिए शुभ दिन भी निर्दिष्ट कर दिया तथा बाद में महाप्रभुजी की अनुमति के अनुसार दीक्षा प्रदान की।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने जब श्रीवास-अंगन में संकीर्तन विलास किया था तो उस समय संकीर्तन में मुकुंददत्त भी साथ थे। श्रीवासांगन में हुए हरिवासर तिथि के ऊषाकालीन कीर्तन में एक कीर्तन यूथ के मूल गायक थे―मुकुंददत्त।

श्री वास पंडित ने जब मुकुंद पर कृपा करने के लिए कहा तो महाप्रभुजी बोले- ‘मुकुंद खड़जाटिया बेटा है’, उसकी मति स्थिर नहीं है। वह कभी तो भक्तों के दल में मिल जाता है और कभी अभक्तों के दल में मिलकर मेरे अंगों पर प्रहार करता है। इसलिए वह मेरे दर्शनों का अधिकारी नहीं है। महाप्रभुजी की इस प्रकार कठोर उक्ति सुनकर व खेद युक्त होकर मुकुंद ने देहत्याग का संकल्प लिया। किंतु देह त्यागने से पहले श्रीवास जी के माध्यम से उन्होंने महाप्रभु के पास अपना यह प्रश्न भिजवाया कि क्या उसे भी कभी दर्शन होंगे?
महाप्रभु जी बोले – ‘हां, करोड़ जन्म के बाद वह दर्शन पायेगाा’
” करोड़ जन्म के बाद दर्शन पाऊंगा”,” करोड़ जन्म के बाद दर्शन पाऊंगा “, “महाप्रभु का वचन कभी झूठा नहीं होगा”―इस प्रकार बोलते-बोलते मुकुंद आनंद में विभोर होकर नृत्य करने लगे ही थे कि महाप्रभु जी ने तत्काल मुकुंद के सारे अपराध क्षमा कर उसको अपने ईश्वर रूप के दर्शन कराये। अपनी पराजय स्वीकार करते हुए महाप्रभुजी बोले – ‘मुकुंद की जिह्वा पर मेरा सर्वदा अधिष्ठान है।’

‘मुकुंदेर जिह्वाय आमार नित्य अधिष्ठान।
ये खाने ये खाने हय मोर अवतार।
तथा गायन तुमि हइवे आमार॥’
(चै. च. म. 10/260)
[अर्थात महाप्रभु जी कहते हैं कि मुकुंद दत्त की जिह्वा में मेरा नित्यअधिष्ठान है। हे मुकुंद! सुनो जहां जहां पर मेरा अवतार होगा वहीं वहीं पर तुम मेरे गायक के रूप में रहोगे।]
कंटक नगर में महाप्रभुजी के संन्यास ग्रहण के कुछ समय पश्चात ही मुकुंद ने अन्यान्य भक्तों के साथ कीर्तन करके महाप्रभु जी को सुख दिया था। केशव भारती से संन्यास ग्रहण करने के पश्चात महाप्रभुजी जब नीलाचल गए थे तो मुकुंद दत्त भी उनके साथ थे। नित्यानंद जी द्वारा महाप्रभुजी के दण्ड भंग (दंण्ड तोड़ने की) लीला के समय एवं नीलाचल में वासुदेव सार्वभौम के गृह में भी मुकुंद दत्त जी उपस्थित थे। नरेंद्र सरोवर में महाप्रभुजी की जलकेलि लीला में भी वे साथ ही थे। वे प्रतिवर्ष भक्तों के साथ गौड़देश से महाप्रभु जी के दर्शनों के लिए जाते थे। नीलाचल में जगन्नाथ देव की रथ यात्रा के समय श्री जगन्नाथ जी के आगे जो 7 मंडलियों का संकीर्तन होता था, उनमें से तीसरी मंडली के मूल संकीर्तनीया थे―श्री मुकुंद तथा नर्तक थे हरिदास ठाकुर। महाप्रभुजी के प्रति मुकुंद की किस प्रकार गाढ़ प्रीति थी, वह महाप्रभु की उक्ति से ही जाना जाता है:-
“मुकुंद हयेन दुखी देखी’ सन्यास धर्म।
तिन वारे शीते स्नान, भूमिते शयन॥
अंतरे दु:खी मुकुंद नाहि कहे मुखे।
उहार दु:ख देखी मोर द्विगुण हय दुखे।”
(चै. च. म. 7/23-24)

[अर्थात मुकुंद तो मुझे सर्दी में तीन बार स्नान करते हुए एवं भूमि पर शयन आदि सन्यासियों के धर्म का आचरण करते देख कर दु:खी होते हैं, चाहे वे मुँह से कुछ नहीं कहते परंतु मन-मन में दु:खी होते हैं उनका दुख देखकर मुझे दुगना दु:ख होता है।]
मुकुंद दत्त नीलाचल में स्वरूप दामोदर, राय रामानंद हरिदास ठाकुर तथा महाप्रभुजी के समस्त मुख्य पार्षदों के साथ मिले थे। ज्येष्ठ पूर्णिमा अर्थात श्री जगन्नाथ देव जी की रथयात्रा तिथि को श्री मुकुंद दत्त ठाकुर ने तिरोधान लीला की थी।