Gaudiya Acharyas

श्री श्यामानन्द प्रभु

श्री श्यामानन्द प्रभु श्री कृष्ण लीला के द्वादश गोपालों में से एक सुबल सखा के अनुगत के अनुगत पार्षद थे। श्री गौरीदास पंडित श्रीकृष्ण लीला में सुबल सखा थे। गौरीदास पंडित के शिष्य थे हृदयानन्द (हृदयचैतन्य), और हृदयानन्द जी के शिष्य थे श्यामानन्द जी।

यं लोका भुवि कीर्त्तयन्नति हृदयानन्दस्य शिष्यं प्रियं
सख्ये श्रीसुबलस्य यं भगवतः प्रेष्ठानुशिष्यं तथा
स श्रीमान् रसिकेंद्रमस्तकमणिष्चित्ते ममाहर्निशं
श्री राधा प्रियनर्ममर्मसु रुचिं सम्पादयन् भासताम्॥
                                         ―श्रीश्यामानन्दशतक

इस संसार में जिन्हें श्रीमद् हृदयानन्द जी के प्रिय शिष्य के रूप में जाना जाता है। जो श्री कृष्ण लीला में सुबल सखा के अनुगत होने के कारण स्वयं भगवान श्री कृष्णचंद्र के प्रियतम जनों के अनुशिष्य हैं,  वही रसिक राज मुकुटमणि सुशोभित श्यामानन्द प्रभु श्री राधा माधव जी की प्रिय अंतरंगी लीलाविलास सेवा में, मेरा अनुराग पैदा कर दिन रात मेरे हृदय में विराजित रहें। 

श्री श्यामानन्द प्रभु 1456 शकाब्द में मधु पूर्णिमा तिथि को (चैत्र पूर्णिमा तिथि को) मेदिनीपुर जिले के अंतर्गत खड़गपुर रेलवे स्टेशन के नजदीक ही धारेन्दा बहादुरपुर ग्राम में पिता श्री कृष्ण मंडल और माता श्री दूरिका को अवलंबन कर आविर्भूत हुए थे। श्री श्यामानन्द प्रभु सदगोप कुल में आविर्भूत हुए थे। वैष्णव स्वरूपतः निर्गुण हैं, वे किसी भी कुल में आविर्भूत हो सकते हैं। निम्न कुल में उनकी आविर्भाव लीला को देखकर वैष्णव में जात-पात करने से नरक की प्राप्ति होती है।

 

श्यामानन्द प्रभु से पहले एक पुत्र और एक कन्या के गुजर जाने से पिता माता ने यह संकल्प लिया था कि इस बार जो पुत्र होगा उसे विष्णु पादपद्मों में अर्पण कर देंगे। बहुत दु:ख पाने के पश्चात् माता-पिता ने श्यामानन्द जी को पुत्र रूप से प्राप्त कर दु:खों के साथ पालन किया था इसलिए पहले उन्होंने इनका नाम दु:खी रखा था।

दण्डेश्वर ग्रामे वास सर्वाशे प्रबल।
 माता श्री दुरिका, पिता श्री कृष्ण मंडल॥

सद्गोपकुलेते श्रेष्ठ अति सुचरित।
कृष्ण से सर्वस्व तार भक्ते अति प्रीत॥
श्री कृष्ण मंडल दुरिकार गुणगण।
ग्रंथेर बाहुल्य भये नाहय वर्णन॥
धारेन्दा वाहादुरपुरेते पूर्व स्थिति।
शिष्टलोक कहे श्यामानन्द जन्मतिथि॥
कोनमते मंडलेर नाहि प्रतिबंध।
पुत्र कन्या गत हैले हैल श्यामानन्द॥
माता-पिता दुख सह पालन करिल।
एत हैतु दुखी नाम प्रथमे हइल॥ 
     (भ.र.  1/351-55, 359)

श्यामानन्द प्रभु के माता-पिता जी ने यथा समय पुत्र के अन्नप्राशन्न, चूड़ाकरण आदि संपन्न किए। धीरे-धीरे पुत्र बढ़ा हुआ और व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर उसमें पारंगत हो गया। पुत्र की प्रतिभा और उसका धर्म में अनुराग देख माता-पिता उल्लसित हुए। अब दु:खी (श्यामानन्द) वैष्णव के मुख से श्री गौर नित्यानन्द जी की महिमा सुनने के पश्चात् हर समय उनके अनुकीर्तन में लगे रहते। श्री गौर नित्यानन्द जी की महिमा का कीर्तन और राधा कृष्ण जी की लीला का गान  करते समय उनके दोनों नेत्रों से नदी की धारा के समान अश्रु प्रवाहित होते रहते थे। सर्वतो भावेन कृष्ण भजन में लगे रहने के लिए इनके माता-पिता ने इन्हें कृष्ण मंत्र की दीक्षा लेने का उपदेश दिया। माता-पिता के अभिप्राय को समझ कर दु:खी ने कहा कि वे अंबिका कालना में जाकर श्री कृष्ण चैतन्य नित्यानन्द जी के प्रिय गौरीदास जी के शिष्य हृदय चैतन्य जी से दीक्षा लेंगे। इससे गंगा जी के दर्शनों और गंगा स्नान का सौभाग्य भी हो जाएगा और मुझे मेरे गुरु जी हृदय चैतन्य जी से दीक्षा भी मिल जाएगी। पुत्र की ऐसी इच्छा सुनकर माता-पिता जी ने खुशी-खुशी पुत्र को अनुमति दे दी। दु:खी अंबिका नगर में श्री हृदय चैतन्य प्रभु के पादपद्मो में उपस्थित हुए।  परिचय जानने के पश्चात् हृदयचैतन्य प्रभु ने स्नेह से भर कर उन्हें कृष्ण मंत्र प्रदान कर शिष्य बना लिया और नाम रखा कृष्णदास । तबसे दु:खी ‘दु:खी कृष्णदास’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।  हृदयचैतन्य प्रभु ने दु:खी कृष्ण दास को वृंदावन में जाकर भजन करने का उपदेश दिया।

यद्यपि ऐसा आदेश सुनकर दु:खी कृष्णदास गुरुदेव के विरह में व्याकुल हो उठे किंतु फिर भी गुरुजी का आदेश पालन करने के लिए नवद्वीप, गौड़मंडल का दर्शन एवं वहां पर उपस्थित वैष्णवो से कृपा प्रार्थना करते हुए नाना तीर्थ भ्रमण करने के पश्चात् वृंदावन पहुंचे और वहां राधा-श्यामसुन्दर जी की आराधना में निमग्न हो गए। उस समय के वैष्णव जगत के श्रेष्ठ पात्रराज, षड़गोस्वामियों में से एक श्री जीव गोस्वामी जी के आनुगत्य में दु:खी कृष्णदास शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। जब श्री हदय चैतन्य प्रभु ने दु:खी कृष्णदास की भजन निष्ठा की बात सुनी तो उन्होंने श्री जीव गोस्वामी जी को पत्र लिखा कि वे दु:खी कृष्णदास को अपना शिष्य समझकर उसका पालन करें। श्रीनिवास, नरोत्तम और दु:खी कृष्णदास तीनों ने वृंदावन में श्री जीव गोस्वामी जी से शास्त्र अध्ययन किया था।  श्री जीव गोस्वामी जी ने श्रीनिवास, नरोत्तम और दु:खी कृष्णदास को क्रमशः आचार्य, ठाकुर और श्यामानन्द नाम प्रदान किए थे। श्री जीव गोस्वामी जी द्वारा श्यामानन्द नाम दिए जाने का कारण ऐसा निर्दिष्ट हुआ है कि दुःखी कृष्णदास जी ने राधाश्याम सुन्दर जी को महानन्द प्रदान किया था।

श्यामसुंदरेर महानन्द जन्माइल। 
श्यामानन्दनाम पुनः वृंदावने हैल॥
श्री जीव गोस्वामी चारु चेष्टा निरखिया।
पढाइल भक्ति ग्रंथ निकटे राखिया॥
           -भक्ति रत्नाकर 1/401-402

श्री जीव गोस्वामी जी ने गोस्वामियों द्वारा रचित सभी ग्रंथ देकर 1504 शकाब्द में श्रीनिवास आचार्य, नरोत्तम ठाकुर और श्रीश्यामानन्द प्रभु को गौड़देश और उड़ीसा में नाम प्रेम का प्रचार करने के लिए भेजा था। राजा वीरहाम्बीर के स्थान वनविष्णुपुर में ग्रंथों के चोरी हो जाने व बाद में उनके मिलने का प्रसंग श्री श्रीनिवास आचार्य जी के चरित्र में वर्णित हुआ है।

  श्रील नरोत्तम ठाकुर जी ने उत्तर बंगाल में एवं श्रील श्यामानन्द प्रभु जी ने उड़ीसा में गौड़ीय वैष्णव धर्म का प्रचार किया था। पहले मेदिनीपुर ज़िला उड़ीसा के साम्राज्य के अन्तर्गत ही था। इसलिये मेदिनीपुर शहर में श्यामानन्द प्रभु जी की पावन स्मृति के संरक्षण के लिये वहाँ पर संस्थापित मठ का नाम ‘श्री श्यामानन्द गौड़ीय मठ’ रखा गया है। यद्यपि श्रीश्यामानन्द प्रभु जी ने हृदय चैतन्य प्रभु से दीक्षा ली थी तथापि अपने गुरुदेव जी के निर्देशानुसार ही श्रीजीव गोस्वामी जी का संग करने और उनकी सेवा करने से मधुर रस की कृष्ण सेवा में उनकी रुचि हो गयी थी। हृदय चैतन्य प्रभु जी ने द्वादश गोपालों में से एक अर्थात् सुबल सखा का अभिन्न स्वरूप होने के कारण सख्य रस से गौर नित्यानन्द जी का भजन किया था। जो लोग ऐसा समझते हैं कि स श्यामानन्द प्रभु ने उन्नत अधिकार मधुर रस में सम्यक रूप से श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर अपने दीक्षा गुरु के पादपद्मों में अपराध किया है, उनका ऐसा सोचना उचित नहीं है। मधुर रस में भी सख्या रस निहित है। शिष्य की समुन्नति से गुरुदेवजी की महिमा ही बढ़ती है। श्यामानन्द प्रभु राधारानी जी के कितने प्रिय थे ये श्रीजीव गोस्वामी जी के आदेश से गौड़मण्डल जाने से पहले वृन्दावन की एक अलौकिक घटना से प्रमाणित हो जाता है। घटना इस प्रकार है कि एक दिन श्यामानन्द प्रभु प्रेमाविष्ट होकर वृन्दावन के रासमण्डल कि झाड़ू से सफाई कर रहे थे कि उसी समय राधारानी जी कि अलौकिक कृपा से उन्हें वहाँ राधारानी जी के श्रीचरणों का एक नूपुर मिला।

श्यामानन्द प्रभु जी अत्यन्त उल्लास के साथ उस नूपुर को अपने मस्तक से स्पर्श किया जिससे उनके ललाट पर नूपुर जैसा ही तिलक प्रकट हो गया। यही से श्यामानन्द प्रभु जी के परिवार (सम्प्रदाय) में नूपुर तिलक का प्रवर्तन हुआ। श्रीनरोत्तम ठाकुर और श्री श्यामानन्द प्रभु ने मुख्य रूप से कीर्तन के द्वारा ही प्रचार किया था। श्यामानन्द प्रभु के असंख्य शिष्यों में से श्री रसिक मुरारी प्रधान थे। श्री रसिकानन्द रोहिणी ग्राम के अधिपति श्री अच्युत के पुत्र थे। श्यामानन्द प्रभु के असंख्य शिष्यों में से कुछ और मुख्य शिष्यों के नामों का भक्तिरत्नाकर ग्रंथ में उल्लेख हुआ है –

    “श्यामानन्द शिष्य करिलेन स्थाने-स्थाने। केवा ना पवित्र हय ता सवार नामे॥ राधानन्द,श्रीपुरुषोत्तम, मनोहर। चिन्तामणि, बलभद्र, श्रीजगदीश्वर॥ उद्धव, अक्रूर, मधुवान, श्रीगोविन्द। जगन्नाथ, गदाधर, श्रीआनन्दानन्द॥ श्री राधामोहन आदि शिष्यगण संगे। सदा भासे संकीर्त्तन-सुखर तारेंगे॥ श्रीश्यामानन्देर महा अद्भुत विलास। वर्णे कविगण याते साभार उल्लास॥”   

                                                                    -भक्ति रत्नाकर 15/62-66

इसके अतिरिक्त श्रीश्यामानन्द प्रभु ने श्री दामोदर नामक एक योगी पर कृपा कर उसे भक्ति रस में परिवर्तित कर दिया था।

  श्री रसिक मुरारि और श्री दामोदर आदि भक्तों को साथ लेकर श्यामानन्द प्रभु ने धारेन्दा ग्राम में जो महोत्सव किया था,श्यामानन्द जी के परिवार के भक्त उसकी महिमा आज तक भी गाते हैं। श्रीश्यामानन्द प्रभु ने अपने प्रधान शिष्य श्रीरसिकानन्ददेव गोस्वामी को गोपीवल्लभपुर में अपने सेवित श्रीगोविन्द जी की सेवा समर्पित की थी। वृन्दावन में श्यामानन्द प्रभु जी के द्वारा सेवित विग्रह ‘राधाश्यामसुन्दर’ उनकी ही परम्परा के भक्तों के द्वारा अब राधाश्याम सुन्दर मन्दिर में सेवित हो रहे हैं। श्रीश्यामानन्द प्रभु जी ने अपने अन्तिम जीवनकाल में उड़ीसा के नृसिंहपुर गाँव में रहकर वैष्णव धर्म का प्रचार किया था। 1552 शाकाब्द में आषाढ़ी कृष्णा-प्रतिपदा तिथि को श्रील श्यामानन्द प्रभु जी ने इस नृसिंहपुर गाँव में ही अपनी अप्रकट लीला की थी।