२९ अक्टूबर २००२ में व्रज-मंडल परिक्रमा के दौरान श्रील गुरुदेव ने डॉ.एस.एन. घोष को स्मरण किया, जिन्होंने श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर से हरिनाम -दीक्षा ली और अपना सम्पूर्ण जीवन श्री चैतन्य गौड़ीय मठ की सेवा में लगा दिया। कीर्तन और स्मरण पर जोर देते हुए, उन्होंने निर्देश दिया कि हमारी सभी भक्ति सम्बंधित क्रियाओं का एकमात्र उद्देश्य कीर्तन और स्मरण करना है जिसके बिना हमें कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलेगा। फिर उन्होंने राधाकुंड की आविर्भाव लीला को संक्षेप में सुनाया।
आज राधाकुण्ड की प्रकट तिथि है; अत्यन्त शुभदा तिथि है। आज के दिन राधाकुण्ड में स्नान करने की बहुत महिमा है। श्री चैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के प्रतिष्ठाता श्रील गुरु महाराज जी को विपत्ति के समय में दो व्यक्तियों ने बहुत सहायता की थी। उनमें से एक थे—डॉ॰ एस॰एन॰ घोष, जिनकी आज तिरोभाव तिथि है। एस॰एन॰ घोष ने श्रील प्रभुपाद से मन्त्र दीक्षा ली थी। किन्तु बाद में गौड़ीय मठ के साथ उनका सम्पर्क छूट गया था। बाद में गुरु महाराज जी को देखकर वे आकर्षित हुए तथा उनकी हरिकथा सुनते-सुनते उनका हृदय परिवर्तित गया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन श्री चैतन्य गौड़ीय मठ को समर्पित कर दिया। मुसीबत के समय जिन्होंने गुरु महाराज जी की सहायता की, हम उनके आभारी हैं।
डॉ॰ एस॰एन॰ घोष University के Lecturer थे। बाद में वे Homoeopathic Faculty के प्रेसिडेंट बने। उन्होंने एक किताब भी लिखी। उनके पास बहुत से मरीज़ अपना इलाज करवाने आते थे। उन्होंने तन-मन-धन से गुरुजी की सेवा की। जब भी गुरु महाराज जी पश्चिम भारत में आते थे तब गुरु महाराज जी उन्हें रात का भाषण करने का दायित्व दे देते थे। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी शास्त्र ज्ञान होने के कारण वे भाषण देते थे।वे चैतन्य वाणी पत्रिका के संपादक थे तथा उनके लेख भी उसमें पाए जा सकते हैं। मैं उस समय मठ का सेक्रेटरी(सचिव) था।
मैं उनसे परामर्श लेता था कि किस प्रकार से मीटिंग करनी चाहिए, किस प्रकार से लेख लिखना चाहिए इत्यादि वे भलीभाँति जानते थे। उन्होंने मुझे इस विषय में शिक्षा दी थी। जब भी आवश्यकता पड़ती, मैं उनके पास जाता था। उनके अन्तर्धान के बाद हमारे गुरुजी हताश हो गए थे। उनके इस जगत से जाने पर गुरु महाराज जी ने उन्हें उनके शरीर को अपने कन्धों पर उठाया था। आज के दिन, राधाकुण्ड प्रकट तिथि में उनका अन्तर्धान हुआ। मैंने जानकर अथवा न जानकर उनके चरणों में कितने अपराध किए, यह पता नहीं। इसलिए आज की तिथि में उनके पादपद्मों में अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ।
जिन दो व्यक्तियों की मैं बात कर रहा था, उनमें से दूसरे थे—मणिकंठ मुखर्जी। उनकी भी प्रारम्भ में भजन में रुचि नहीं थी। वे एक बड़े अफसर थे। किन्तु गुरुजी को देखकर उन्हें आकर्षण हुआ व उनका हृदय परिवर्तित हो गया। उन्होंने भी अपने जीवन को समर्पण कर दिया। बाहरी रूप से दीक्षा न लेने पर भी उन्होंने दीक्षित शिष्य से भी अधिक सेवा की। उनकी गुरु महाराज जी में बहुत श्रद्धा थी। जिस स्थान पर अब सतीश मुखर्जी रोड, कोलकाता स्थित हमारा मठ है, वहाँ पहले बहुत किराएदार रहते थे। श्री मणिकंठ मुखर्जी ने ही उन्हें हटाने के लिए व्यवस्था की। उनके माध्यम से ही जयंत मुखर्जी मठ में आए। जब भी हमें कोई समस्या होती थी, हम उनके पास जाते थे। वे भी हमें छोड़कर चले गए हैं। गुरुजी के पावन जीवन चरित्र में डॉ॰ एस॰एन॰ घोष एवं मणिकण्ठ मुखर्जी के आलेख(चित्रपट) दिए हुए हैं।
आज राधाकुण्ड की प्रकट तिथि है। प्रकट तिथि में राधाकुण्ड को स्मरण करना चाहिए। किन्तु भागवत पाठ भी करना चाहिए। पाठ का समय कम है, सब परिक्रमा में व्यस्त रहते हैं। राधाकुण्ड पर जो हमारे परम गुरुजी ने लिखा, उसका बंगला से हिंदी में अनुवाद तो कर लिया किन्तु अंग्रेज़ी अनुवाद करने का अवसर नहीं मिला। थोड़ा अंग्रेज़ी में भी कहूँगा, समय का अभाव होने के कारण बंगला में नहीं कहूँगा अधक भाषा में बोलने से कठिनाई होती है। इसलिए एक स्थान पर रहकर ही व्रत करना चाहिए।
राधाकुण्ड का प्राकट्य कैसे हुआ?
हम लोग जो भी भक्ति अनुष्ठान करते हैं; मठ निर्माण करना, परिक्रमा करना इत्यादि, उनका मुख्य उद्देश्य होता है—कीर्तन तथा स्मरण। इन्हीं पर ज़ोर दिया गया है। यदि इन्हें छोड़कर केवल घूमने के लिए इधर-उधर जाएँ तो अधिक लाभ नहीं है। कीर्तन तथा स्मरण से उत्साह मिलता है इसे छोड़कर रहने से उत्साह नहीं रहता।
गोवर्धन से पूर्वोत्तर दिशा की ओर तीन मील दूर आरिटग्राम में राधाकुण्ड-श्यामकुण्ड का प्राकट्य हुआ। इसका इतिहास हमारे परम गुरुजी ने लिखा है। यहाँ पर कृष्ण ने एक लीला की। ब्रजवासियों को भय-भीत करने के लिए राक्षस अरिष्टासुर(वृषासुर) एक सांड का रूप धारण करके आया। वह ज़ोर से चिल्लाने लगा तथा पैरों से सारी मिट्टी को हिलाने लगा। तब सभी ब्रजवासी उसे देखकर डर गए। तब कृष्ण ने ब्रजवासियों का दुःख हटाने के लिए अरिष्टासुर को युद्ध करने की चुनौती दी। भगवान शरणागत के रक्षक व पालक हैं। कृष्ण ने उस राक्षस के साथ युद्ध करके उसका वध किया। उसका वध करने से सभी देवी-देवता, गोप-गोपी, ब्रजवासी आनंदित हुए। अरिष्टासुर का वध करने के बाद कृष्ण ने क्या किया? यद्यपि यह बात हमारे लिए अधिकार के बाहर है, तब भी क्योंकि यह लीला वहाँ पर वर्णित है, इसलिए इसके बारे में बता रहा हूँ। जब कृष्ण राधारानी के अंग स्पर्श करने के लिए उनके पास गए तब राधारानी ने कहा, “यद्यपि अरिष्टासुर असुर है, तब भी इसने वृष(सांड) का रूप धारण किया जो कि गो जाति है। इसलिए तुम्हें गो हत्या का पाप लग गया। जब तक तुम सारे तीर्थों के जल से स्नान नहीं करते तब तक मैं तुम्हें मेरे अंगों को स्पर्श करने नहीं दूँगी।” तब कृष्ण हंसने लगे व कहा, “ठीक है, अभी मैं सभी तीर्थों को यहाँ ले आऊँगा।” तब उन्होंने मिट्टी में पदाघात किया। ऐसा करने से वहाँ एक कुण्ड बन गया तथा समस्त तीर्थ वहाँ पर आ गए। इस प्रकार श्यामकुण्ड बन गया। सभी तीर्थ अपना रूप धारण करके कृष्ण का स्तव करने लगे। “मैं अमुक तीर्थ हूँ, यहाँ से आया हूँ, मेरा नाम यह है”, इस प्रकार सभी तीर्थ राधारानी तथा गोपियों को सुनाने के लिए अपना-अपना परिचय देने लगे।
उन सबने यह दृश्य देखा और देखकर आश्चर्यचकित हो गए। समस्त तीर्थ वहाँ पर प्रकाशित हो गए। कृष्ण ने उनके जल में स्नान किया तथा थोड़ा भाव(मान) दिखाया कि मैं सब तीर्थ यहाँ ले आया और स्नान भी कर लिया। तब राधारानी और गोपियों ने कहा कि हम भी यह कर सकती हैं, इसमें कौनसी बड़ी बात है? तब राधारानी ने गोपियों के साथ मिलकर एक और कुण्ड का निर्माण किया। वह कुण्ड देखकर कृष्ण को आश्चर्य हो गया। किन्तु उस कुण्ड में पानी नहीं था। तब कृष्ण कहते हैं, “कोई बात नहीं, हमारे कुण्ड से जल ले लो।” यह सुनकर राधारानी एवं अन्य गोपियों को और मान हो गया व कहने लगीं, “अरिष्टासुर के वध के बाद तुम्हारे स्नान करने से असुर स्पर्श से श्यामकुण्ड का जल स्वच्छ नहीं रहा। अतः उस पानी से हम अपने कुण्ड को नहीं भरेंगी। हम मानसी गंगा, जिसमें सब तीर्थ विद्यमान हैं, से जल लाकर कुण्ड को भरेंगी।”
तब कृष्ण समस्त तीर्थों को कहते हैं कि अन्य कोई उपाय नहीं है, तुम सब जाकर राधारानी का स्तव करो। तब उन्होंने राधारानी का स्तव किया व उन्हें प्रणाम किया। उनके स्तव से संतुष्ट होकर राधारानी ने कहा—“ठीक है, तुम लोग आ सकते हो।”अनुमति देने के साथ ही साथ श्यामकुण्ड का तीर भेद करते हुए श्यामकुण्ड से राधाकुण्ड में पानी भरने लगा। इस प्रकार राधाकुण्ड प्रकाशित हुआ। यह घटना आज की तिथि में मध्यरात्रि में हुई थी। तीर भेद चिह्न अभी भी दृष्टिगोचर है, जहाँ से जल श्यामकुण्ड से राधाकुण्ड की ओर बहता है। राधाकुण्ड का जल श्यामकुण्ड से हमेशा कम रहता है।