जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद आविर्भाव तिथि-पूजा

मैंने कभी ऐसा सोचा भी नहीं था कि हमारे परम गुरुजी (श्रील प्रभुपाद) की आविर्भाव तिथि में, व्यास पूजा के उपलक्ष्य में पंजाब, लुधियाना में आऊँगा। दैव से हो गया। साधारणतः इस समय मेरा यहाँ आना होता नहीं है। किन्तु भगवान की इच्छा के बिना पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिलता है। इसलिए यह भगवान की इच्छा है। इस समय मैं सरभोग असाम में रहता हूँ। वहाँ पर हमारे परम गुरुजी के प्रतिष्ठित विग्रह श्री गान्धर्विका गिरिधारी जी हैं। प्रतिवर्ष मैं वहाँ उपस्थित होता हूँ। श्रील प्रभुपाद पुरुषोत्तम धाम, जगन्नाथ धाम में आविर्भूत हुए। गुरुजी(परम गुरुजी) ने वह स्थान प्रकाशित किया। हम स्वप्न में भी चिन्ता नहीं कर सकते, वह स्थान प्राप्त करना कितना कठिन था ।

सुप्रीम कोर्ट में केस था। इस्कॉन ने भी वह स्थान को प्राप्त करने का प्रयास छोड़ दिया। वहाँ पर 40 साल पुराने किराएदार थे। हमारे गुरुजी के पास उनके सब गुरुभाइयों ने निवेदन किया, “आपने अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े मठ किए। हमारे गुरुजी के आविर्भाव स्थान को आप प्रकाशित कीजिए।”

गुरुजी में ऐसा गुण देखा कि जो बोलते थे उसी प्रकार का उनका आचरण था। अपने आपको वैष्णवों का दासानुदास समझते थे। इसलिए उन्होंने जीवन के अन्त तक वैष्णवों की इच्छा के अनुसार कार्य किया। मैं तो बोलता कुछ हूँ और मेरे कार्य उससे उल्टे होते हैं। जब वे अस्वस्थ लीला कर रहे थे, उनकी अस्पताल जाने की इच्छा नहीं थी। राधाकृष्ण चामरिया इत्यादि कलकत्ता के बड़े-बड़े(विशिष्ट) व्यक्तियों ने ऐसा परामर्श दिया कि उन्हें अपने Heart में Pacemaker install करवाना चाहिए। इसलिए मैंने और मेरे अन्य गुरुभ्राताओं ने गुरुजी से अस्पताल में भर्ती होने के लिए निवेदन किया। तब गुरु महाराज जी कहते—“मेरी तो जाने की इच्छा नहीं थी, किन्तु वैष्णव बोलते हैं तो जाऊंगा।” मैं तो वैष्णव नहीं हूँ, कामातुर बद्ध जीव हूँ। किन्तु मेरे लिए वैष्णव शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। इसी प्रकार उन्होंने अपने गुरुभ्राताओं की इच्छापूर्ति की।

मेरे लिए एक मुश्किल है कि मेरा शरीर बंगाल का है, कण्ठ की आवाज़ बंगाल की है। यहाँ आने से टूटी-फूटी हिंदी बोलता हूँ। पंजाबी थोड़ा समझ लेता हूँ पर बोल नहीं सकता। टूटी-फूटी हिन्दी कहूँगा। इसलिए थोड़ा ध्यान देकर सुनने से समझ आएगा।

तो गुरुजी ने अपने गुरुभाइयों का उनका निवेदन स्वीकार कर लिया। उस समय गुरुजी की तबीयत ठीक नहीं थी। किन्तु गुरुजी यदि किसी कार्य को करने की इच्छा करेंगे तो उसे पूरा करेंगे ही करेंगे। तब मैं पुरुषोत्तम धाम में गया, देखा कि इतने किराएदार हैं पुराने मकान हैं, कोर्ट के मामले हैं, बहुत सी चुनौतियाँ हैं। मैंने गुरुजी से प्रार्थना की, “कोई इस स्थान के लिए चिंता नहीं कर रहा है, इस्कॉन भी चिंता नहीं कर रहा है जिनके पास बहुत धन-संपत्ति हैं। आपकी तबीयत ठीक नहीं है। यह स्थान मिलेगा भी या नहीं यह भी कुछ निश्चित नहीं है; इसके लिए आप क्यों इतना परिश्रम कर रहे हैं?”

गुरुजी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। बल्कि उन्होंने मुझे उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमन्त्री, श्री सदाशिव त्रिपाठी, को एक आवेदन पत्र लिखने के लिए निर्देश देते हुए कहा कि मैं उनसे मुलाकात करूँगा। उसके बाद वीरेन मित्र मुख्यमन्त्री बने। गुरुजी ने उनसे भी मुलाकात करने के लिए पत्र लिखवाया। मेरे निवेदन का कुछ उत्तर ही नहीं दिया। और वे सब जगह गए। मैं पूरा इतिहास नहीं बोलूँगा, लंबा इतिहास है। मैं तो साथ-साथ में जाता था। बाद में बड़े-बड़े विशिष्ट व्यक्ति जैसे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस, रंगनाथ मिश्र; शिक्षा मंत्री गंगाधर महापात्र; सब गुरुजी के समर्थन में उनके साथ खड़े हो गए। गुरुजी का रूप, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि उनको देखने से ही सबको आकर्षण होता था। वे सभी गुरुजी को आश्वासन देते हुए कहते हैं कि हम लोग आपके पीछे खड़े हैं, आप अपना कार्य कीजिए।

वह स्थान मिलने के बाद वहाँ के वकील ने कहा—“यहाँ 40 साल से इतने किराएदार बैठे हैं। Eviction Order होने से भी उन्हें यहाँ से हटा नहीं सकते थे। आप लोगों ने कैसे इतने किराएदार को वहाँ से हटा दिया, यह हमारी समझ से बाहर है।”

गुरुजी के पीछे उनका गुरुजी, श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर खड़े हो गए, श्री जगन्नाथ देव खड़े हो गए, जिससे असम्भव भी सम्भव हो गया। वहाँ पर विशाल मन्दिर बन गया, एक अन्तरराष्ट्रीय स्थल बन गया जहाँ पर देश-विदेश से लोग आते हैं। वह स्थान गुरुजी ने प्रकाश कर दिया। गुरुजी का जीवन चरित्र ही ऐसा है, जो कार्य हाथ में लेंगे, उसे अवश्य ही पूर्ण करेंगे।

उनके गुरुजी श्रील प्रभुपाद को तो आप लोगों ने नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा। किन्तु हमारे गुरुजी को देखकर लोग ऐसे समझते थे कि वे प्रभुपाद के पुत्र हैं। इसका कारण यह है कि उनका व्यक्तित्व श्रील प्रभुपाद जैसा ही था—आजानुलम्बित बाहु, दीर्घाकृति और गौरकांति। परम गुरुजी(श्रील प्रभुपाद) बाहरी दृष्टि से भी उनका रूप साधारण व्यक्ति जैसा नहीं था।

हमारे परम गुरुजी की आविर्भाव तिथि पूजा महामहोत्सव में और व्यास पूजा उत्सव में हम लुधियाना में आएँगे और कृष्ण मंदिर, मॉडल टाउन में यह उत्सव होगा, मैं यह सोच भी नहीं सकता था। गुरु महाराज जी यहाँ लुधियाना में 1972 से लेकर 1978 तक प्रचार के लिए आते रहे। उस समय ओल्ड टाउन, सनातन धर्म मन्दिर में प्रोग्राम हुआ करता था। मंगतराय जी बहुत ही धार्मिक व्यक्ति थे, सारा खर्चा वे अकेले ही उठाते थे, उनके पुत्र अभी यहाँ उपस्थित है। उनके घर में भी मैं ठहरा हुआ हूँ। श्री राकेश कपूर, राधामाधव दासाधिकारी के पिता श्री नरेंद्र कपूर, नरहरि दासाधिकारी ही पहली बार गुरुजी को यहाँ लेकर आए। वहाँ पर गाड़ी लेकर जाना बहुत मुश्किल है इसलिए खुला जगह होना चाहिए, इसी विचार से वही अनुष्ठान यहाँ शुरू कर दिया।1972 से लेकर 1978 तक ओल्ड टाउन में कार्यक्रम होते रहे। 1978 के बाद भी हम लोग यहाँ आते रहे और न्यू मॉडल टाउन में ठहरे। किन्तु आज की तिथि में यहाँ कृष्ण मन्दिर में आ गए, यह भी भगवान की इच्छा है। यह हमारे गुरुजी का शुभ पदार्पण स्थान है। उन्होंने लगातार 6-7 साल तक यहाँ पर शुभ पदार्पण किया। हम लोग साथ में आते थे। जो पुराने व्यक्ति हैं, वे जानते हैं। इसलिए इस स्थान में प्रभुपाद की आविर्भाव तिथि पूजा(पालन) हो जाए, यह गुरूजी इच्छा है। इसीलिए अस्वस्थता के बहाने से, इलाज करने के लिए यहाँ पर civia कंपनी का ड्रिप देने के लिए भेज दिया।

आज जिनकी आविर्भाव तिथि है, उनकी महिमा का गान उनके निज-जन ही कर सकते हैं। मुझ जैसा व्यक्ति नहीं कर सकता क्योंकि वे भगवान के निजजन हैं, कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव के लगभग 500 वर्ष बाद आविर्भूत हुए। श्रीमन् महाप्रभु ने पूरे भारत में कृष्णभक्ति का प्रचार किया। उन्होंने षड्गोस्वामियों के माध्यम से वृन्दावन, राधाकुण्ड ,श्यामकुण्ड (इत्यादि श्रीराधाकृष्ण की लीला-स्थलियाँ) प्रकाशित किए। जहाँ-जहाँ चैतन्य महाप्रभु गए; ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं अंत्यज्य; जो सामने आया सभी को प्रेम दिया। यही नहीं, जब वे जंगल के मार्ग से (झारिखण्ड) वृन्दावन जा रहे थे, तब……

“कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण रक्ष माम्।
कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण पाहि माम्।।
राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम्।
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम्।।”

…….यह बोलते हुए रो-रोकर जा रहे थे। उस समय उन्होंने शेर, चीता, हाथी, हिरण इत्यादि जन्तुओं को भी अपना प्रेम प्रदान किया। वहाँ का दृश्य कुछ ऐसा था कि जंगल के प्राणी भी कृष्ण-कृष्ण बोल रहा है। क्या यह कोई साधारण बात है? यही नहीं, चीता, शेर और व्याघ्र जैसे हिंसक पशु; जो हिरण के साथ खाद्य-खादक सम्बन्ध रखते हैं; वे उसके साथ-साथ चल रहे हैं और उसका चुंबन कर रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी आत्मवृत्ति प्रकाशित हो गई। “मैं शेर हूँ” अथवा “मैं हिरण हूँ”, यह विचार नहीं है। “मैं भगवान का हूँ”, “भगवान के साथ सम्बन्ध होने के कारण हम एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।” सबको कृष्ण-प्रेम देकर उन्होंने सब का उद्धार कर दिया। केवल ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं. यहाँ तक कि मलेच्छ और मुसलमान भी उनके प्रधान पार्षद बन गए। उन्हीं श्रीचैतन्य महाप्रभु एवं उनके पार्षद—श्रीषड्गोस्वामी, श्रीनिवासाचार्य, श्रीश्यामानन्द और श्रीनरोत्तम ठाकुर के तिरोधान के बाद एक अन्धकार युग आ गया।

यहाँ तक कि बंगाल, नदिया, मायापुर धाम के लोग भी चैतन्य महाप्रभु के सार्वजनिक विशुद्ध प्रेमधर्म(universal, all-accomodating, all-embracing Religion of Divine Love) को नहीं समझ सके। उस समय चैतन्य महाप्रभु के नाम पर बहुत से अपसम्प्रदाय पैदा हो गए। So many pseudosects cropped up in Bengal. वे लोग कहते थे कि हम लोग चैतन्य महाप्रभु के धर्म का प्रचार करने वाले हैं। उनका चरित्र देखकर बंगाल के लोगों की श्रद्धा नष्ट हो गई। वे कहने लगे— क्या यह चैतन्य महाप्रभु का धर्म है? नवद्वीप के तोताराम दास बाबाजी महाराज ने 13 अपसम्प्रदायों का उल्लेख किया—

आउल, बाउल, कर्त्ताभजा, नेड़ा, दखेश, सांई। सहजिया, सखीभेकी, स्मार्त, जात, गोसाई।। अतिबाड़ी, चूड़ाधारी, गौरांगनागरी।। तोता कहे, एई तेरर संग नाहि करी।।

इन 13 सम्प्रदाय के लोगों का संग नहीं करना चाहिए। ऐसा क्यों कहा? क्योंकि वे लोग बाबाजी होकर स्त्रियों को लेकर घूमते हैं, चरित्रहीन हैं। उन्हें देखकर किसी की भी महाप्रभु में श्रद्धा नहीं होती थी। उस समय श्रीमद्भागवत, श्रीचैतन्य चरितामृत, श्रीचैतन्य भागवत एवं षड् गोस्वामियों द्वारा रचित ग्रन्थ उपलब्ध थे, किन्तु तब भी उनका तात्पर्य कोई नहीं समझा। सब अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार ‘चैतन्य महाप्रभु के प्रेम’ के नाम पर दुष्प्रचार करने लगे। तब चैतन्य महाप्रभु ने अपने निजजन श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को भेजा, जो कि कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, स्वयं कमल मंजरी हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को अवलम्बन करके पुरुषोत्तम धाम में हमारे परम गुरुजी श्रील प्रभुपाद आविर्भूत हुए, जो कि श्रीरूप गोस्वामी के अनुगत नयनमणि मंजरी हैं। महाप्रभु ने उनके पार्षदों को भेजते हुए कहा, “तुम्हें जाना पड़ेगा, अन्यथा मेरे प्रचार का विषय—प्रेम, संसार का कोई व्यक्ति शास्त्रों के होने से भी नहीं समझ पाएगा।” भक्तिविनोद ठाकुर नदिया जिले के अन्तर्गत वीरनगर धाम में आविर्भूत हुए।

हमारे परमगुरु जी (श्रील प्रभुपाद) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्री भगवती देवी को अवलम्बन करके पुरुषोत्तम धाम में आविर्भूत हुए, जहाँ अब बहुत ही विशाल श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ है। पहले उस स्थान का नाम ‘नारायण छाता मठ’ था। जब हम भीतर में प्रणाम करने जाते थे तो बहुत गंदा स्थान था, वहाँ पर गंदे नाले भी थे। कभी सोचा भी नहीं था कि इस स्थान को हम प्राप्त कर पाएँगे।

जब श्रील प्रभुपाद प्रकट हुए, उनके शरीर में जनेऊ(यज्ञोपवीत) के चिह्न देखकर सब आश्चर्यचकित हो गए। शिशु के आविर्भाव(जन्म) के छह महीने बाद श्रीजगन्नाथ रथयात्रा का महोत्सव आया। रथ जगन्नाथ मन्दिर से गुण्डीचा मन्दिर, Grand Road (वरदांड) से होकर जाता है, हमारा मठ उसी Grand Road पर ही अवस्थित है।

उस वर्ष रथयात्रा के समय श्रीबलदेव और श्रीसुभद्रा के रथ आगे चले गए, परन्तु श्रीजगन्नाथ जी का रथ श्री भक्तिविनोद ठाकुर के घर के द्वार तक आकर रुक गया। इतना प्रयास करने पर भी जगन्नाथ जी चले ही नहीं। तीन दिन तक रथ वहीं खड़ा रहा। इस बीच श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने तीन दिन तक दिवारात्र(दिन-रात) निरन्तर संकीर्तन का प्रवर्तन कर दिया। तीन दिन बाद जब श्री भगवती देवी शिशु को लेकर जगन्नाथ जी के पास आईं, तो शिशु ने जगन्नाथ जी के चरणों का स्पर्श किया और तभी जगन्नाथ जी के गले की एक प्रसादी माला शिशु के गले में आकर गिर गई। यह होने के बाद रथ अपने आप ही चलने लगा। इसलिए यह भी एक अलौकिक (घटना) है। पद्मपुराण में प्रमाण है—’ह्युत्कले पुरुषोत्तमात्’, कि उत्कल धाम से, पुरुषोत्तम धाम से, कृष्ण भक्ति का पूरे विश्व में प्रचार होगा। जब हमारे परम गुरुजी प्रकट हुए, उसके बाद ही उनको अवलम्बन करके पूरे विश्व में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार हुआ। जितना भी मठ हम देखते हैं—श्रीचैतन्य मठ, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ, इस्कॉन इत्यादि; सबके मूल हैं हमारे परम गुरु जी, नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर। सन् 1881 ई॰ में जब श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (कलकत्ता के रामबागान ज़िले में) ‘भक्तिभवन’ का निर्माण करा रहे थे, वहाँ पर भवन की नींव खोदते समय, मिट्टी के अन्दर से, एक कूर्म रूप(मूर्ति) प्राप्त हुआ। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने पुत्र को कूर्म-पूजा करने के लिए और तिलक आदि वैष्णव सदाचार पालन करने के लिए बचपन से ही शिक्षा दी। जब श्रील भक्तिविनोद ठाकुर श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल) में रहते थे, एक बार पुरुषोत्तम धाम से आते समय वे तुलसी की माला लेकर आए। उन्होंने अपने पुत्र को तुलसी की पर हरिनाम करने को कहा।

बाद में जब श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने नदिया जिला में, गोद्रुमद्वीप में अपने भजन स्थान का निर्माण किया, तब हमारे परम गुरुजी भी उनके साथ आ गए; जिस प्रकार नयनमणि मंजरी, कमल मंजरी के अधीन हैं।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर पुरी के मजिस्ट्रेट थे। इतने उच्च पद पर आसीन होने के कारण अत्यधिक व्यस्त रहने पर भी उन्होंने संस्कृत, बंगला, अङ्ग्रेज़ी भाषा में 100 से भी ज़्यादा ग्रन्थ लिखे।

एक बार रात्रि के समय नवद्वीप धाम में भक्तिविनोद ठाकुर ने घर की छत से अंधकार से ढके मेघों के बिच एक प्रकाशमय पुंज (ज्योति) को देखा। बाद में प्राचीन नक्शे आदि देखकर उन्होंने निश्चित रूप से समझ लिया गया कि यह स्थान ही महाप्रभु का जन्मस्थान है। वह स्थान गंगा जी के अन्दर चला गया था किन्तु अब गंगा जी का प्रवाह बदलने से वह स्थान पुनः प्रकशित हो गया, उस स्थान पर अब बाद विशाल योगपीठ मंदिर है। उस स्थान पर अब मन्दिर ही मन्दिर बन गए हैं। गौड़ीय वैष्णव समाज की सभी संस्थाएँ ने वहाँ पर अपने-अपने मन्दिरों का निर्माण किया है। हमारा श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ का भी वहाँ पर बहुत बड़ा मन्दिर है। इसी कारण मायापुर City of Temples बन गया है, केवल मन्दिरों का ही शहर है।

एक परमहंस वैष्णव, श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज, तीव्र वैराग्य के साथ भजन करते थे। किसी कुटिया में नहीं रहते थे, टूटी हुई नाँव के नीचे बैठकर हरिनाम करते थे। कभी गंगा जी का पानी पी लेते, कभी मिट्टी खा लेते, तो कभी माधुकरी से जो कुछ मिलता उसे पानी में भिगोकर थोड़ा खा लेते और कभी तो भूखे रहकर ही निरन्तर हरिनाम करते रहते थे। यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता है। बाबाजी बीच-बीच में गोद्रुम द्वीप में स्थित श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के घर स्वानन्द-सुखद-कुंज में आकर रहते एवं ठाकुर भक्तिविनोद जी से श्रीमद्भागवत श्रवण करते और उनके साथ भक्ति सिद्धान्त के विषयों में चर्चा भी करते रहते थे। वह श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पास जाते थे।

1898 में गोद्रुमद्वीप में स्थित श्रीस्वानन्द-सुखद-कुंज में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी का श्रील गौर किशोर दास बाबा जी के साथ पहली बार मिलन हुआ था। उस समय श्रील गौरकिशोर दास बाबा जी के मुख से व्याकुल हृदय से गाये हुए भजन—‘कोथाय गो प्रेममयि राधे राधे’, को सुनकर श्रील प्रभुपाद जी मुग्ध और प्रेमाविष्ट हो उठे थे। श्रील प्रभुपाद ने उनके पास मन्त्र लेने की इच्छा की। उन्होंने कहा, “मैं किसी को मन्त्र नहीं देता। मन्त्र देने से शिष्य की चिन्ता करनी पड़ती है।” परमहंस वैष्णव बाबा जी महाराज जी का दर्शन करने के लिए राजा-महाराजा, बड़े-बड़े व्यक्ति आते थे। किन्तु उनके पादपद्म स्पर्श करने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। यदि कोई स्पर्श करे तो अभिशाप दे देते कि तेरा सर्वनाश हो जाएगा। भय के कारण कोई उनके सामने नहीं जाता था।

सर्दी में सरस्वती-गंगा के किनारे पर ठंडी हवा चलती है। बाबाजी महाराज शरीर पर कोई कपड़ा नहीं लेते थे, केवल एक लंगोट पहन कर हरिनाम करते रहते थे। एक बार कोई व्यक्ति आकर उन्हें रजाई व्यवहार करने के लिए दे गया। जब वह थोड़े दिन बाद आया तो देखा कि महाराज जी तो रजाई का प्रयोग नहीं कर रहे। बाबा जी ने कहा—“मैंने रजाई को किश्ती के ऊपर बांध कर रख दिया; उसे देखकर सर्दी भाग जाएगी!” सब समय हरिनाम करते रहते थे। नवदीप में बैठे-बैठे ही वे सब जानते थे कि वृन्दावन धाम में क्या कुछ हो रहा है।

श्रील प्रभुपाद ने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि मैं आपसे मन्त्र लेना चाहता हूँ। तब बाबा जी महाराज ने उत्तर दिया कि मैं किसी को शिष्य नहीं बनाता। एक-दो बार नहीं, 13 बार उनका प्रत्याखान(Refusal) किया। तब भी प्रभुपाद ने प्रयास नहीं छोड़ा। तब बाबाजी महाराज ने कहा, “मैं महाप्रभु से पूछूँगा। यदि महाप्रभु आज्ञा देंगे तो हरिनाम दे दूँगा।”

थोड़े दिन बाद प्रभुपाद फिर गए और बाबाजी से निवेदन किया—“आपने महाप्रभु से पूछा?”

इसपर बाबाजी ने उत्तर दिया—“मैं भूल गया।”

हम लोग होते तो सोचते कि इतने सारे गुरु हैं। यह गुरु मंत्र नहीं देंगे तो क्या हुआ, दूसरे गुरु से मन्त्र ले लूँगा। किन्तु प्रभुपाद गुस्सा नहीं हुए। उनका संकल्प दृढ़ था कि उनसे ही मन्त्र लूँगा। कुछ दिन बाद जब प्रभुपाद ने पुनः आकर पूछा तो बाबाजी महाराज ने कहा—“हाँ पूछा।“ प्रभुपाद ने पूछा, “क्या बोला?”

बाबाजी ने उत्तर दिया—“चैतन्य महाप्रभु ने बोला कि तुम्हारे जैसे दाम्भिक व्यक्ति को मन्त्र नहीं देना।”

यह सुनकर उनका मुख काला पड़ गया(प्रभुपाद हताश हो गए) और वे सोचने लगे कि जब चैतन्य महाप्रभु ने ही बोल दिया, फिर अब तो कोई उपाय नहीं है। इसके बाद, जिन बाबाजी महाराज के पैरों को कोई छू नहीं सकता, उन्होंने स्वयं अपने पैरों की धूल अपने हाथों में लेकर प्रभुपाद के सम्पूर्ण शरीर में लगा दी। उन्होंने तब प्रभुपाद से कहा, “तुम्हीं चैतन्य महाप्रभु का धर्म प्रचार करने के लिए योग्य हो। मैं आज्ञा करता हूँ कि तुम समग्र संसार में प्रचार करो।” प्रभुपाद उनके एकमात्र शिष्य हुए और उन्होंने अकेले ही पूरे विश्व को हिला दिया। उन्होंने मायापुर में 6 साल तक रहकर शतकोटि नामयज्ञ किया, चातुर्मास्य में गाय की तरह मिट्टी में खाना डालकर खाया। इस प्रकार तीव्र भजन द्वारा वे महातेजियान हो गए।

पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।
सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम॥
(श्री चैतन्य भागवत अन्त्य खण्ड 4.126)

महाप्रभु की यह आज्ञा है कि जितना पृथ्वी है सब जगह में मेरा नाम प्रचार होगा कृष्ण नाम, गौर नाम का प्रचार होगा।

एक दिन रात्रि के समय प्रभुपाद ने स्वप्न-समाधि में देखा कि महाप्रभु के आविर्भाव स्थान, योगपीठ में पंचतत्त्व प्रकाशित हो गए।

श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानन्द।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥

 

तब पंचतत्त्व के पीछे षड् गोस्वामी और उनके पीछे श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर और श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी को देखा। उन्होंने प्रभुपाद को शुद्ध भक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। तब प्रभुपाद ने कहा—“मेरे पास धन भी नहीं है, जन भी नहीं है। मैं अकेला हूँ। मैं प्रचार कैसे करूँगा?”

तब सभी ने प्रभुपाद को आश्वासन देते हुए कहा कि हम तुम्हारे पीछे खड़े हैं। बहुत धन, बहुत व्यक्ति आएँगे, तुम चिन्ता मत करो। प्रचार आरंभ करो।”

इस दिन के पश्चात् श्रील प्रभुपाद ने महाप्रभु की वाणी प्रचार करने में एक अदम्य उत्साह दिखलाया। उन्होंने सर्वप्रथम मायापुर में श्रीचैतन्य मठ को स्थापित किया। इसके पश्चात् कोलकाता में उल्टाडांगा रोड स्थित एक किराए के मकान में रहकर प्रचार किया। श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों, यथा— श्रील वन गोस्वामी महाराज, श्रील श्रीधर देव गोस्वामी महाराज, में शक्ति संचार कर दी. बाद में हमारे गुरूजी भी आयें।(और उनके माध्यम से पूरे विश्व में शुद्ध भक्ति का सन्देश पहुँचाया)।

वहाँ उल्टाडांगा रोड के मकान में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने श्रीमद्भागवतम् के एक श्लोक की पूरे एक मास तक व्याख्या की।

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीर: ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
न्नि:श्रेयसाय विषय: खलु सर्वत: स्यात् ॥ २९ ॥
(श्री भागवत 11.09.29)

यही श्लोक को व्याख्या किया। सब जगह प्रचार हो रहा है, कैसे प्रचार हुआ, मार्ग में श्रील वन गोस्वामी महाराज ने हरि कथा बोलना प्रारंभ कर दिया। २, 4 लोग एकत्रित हो गए, सुनते सुनते श्रद्धा हुई और इस मार्ग में आ गए, इस प्रकार प्रचार हो रहा था। उस समय स्कॉटिश चर्च कॉलेज के 2 विद्यार्थी किताब लेकर उसी मार्ग से जा रहे थे कि उन्होंने देखा यहाँ पर एक महात्मा है, वे दर्शन के लिए अन्दर आये। उन्होंने प्रभुपाद को देखा एकदम सोने के जैसा उज्जवल वर्, उनके दर्शन में ही आकर्षण है, दोनों विद्यार्थी बहुत पीछे बैठकर हरिकथा श्रवण रहे हैं। उनके हाथ में किताब है और प्रभुपद इसी श्लोक की व्याख्या कर रहा है, मनुष्य जन्मा दुर्लभ नहीं सुदुर्लभ है। 8000000 योनि में भ्रमण के बाद मनुष्य जन्म होता है। यह 900000 जल जंतु, 2000000 पेड़, 1100000 कीड़ा, 1000000 पक्षी योनी, 3000000 पशु योनी, उसके बाद होता है मनुष्य जन्म, सुदुर्लभ मनुष्य जन्म। बहुत दुःख के बाद मनुष्य जन्म हुआ, किन्तु यह अर्थदं—यही जन्म में हम हमारा प्रयोजन—पूर्ण वस्तु भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं। खण्ड(अपूर्ण) वस्तु मिलने से अभाव जाएगा नहीं। इस जन्म में पूर्ण वस्तु भगवान को मैं प्राप्त कर सकता हूँ जिनकी प्राप्ति से सर्व वस्तु की प्राप्ति हो जाती है।

यस्मिन प्राप्ति..एव ब्रह्म।

किन्तु हमारे पास अधिक समय नहीं है—अनित्यम्। किसी भी समय यह अवसर चला जाएगा।

‘तूर्णम्….’ यह शरीर नष्ट होने से पहले ही, अभी से, इस मुहूर्त से ही चेष्टा करना चाहिए। “अभी से, इसी मुहूर्त से” और प्रभुपाद यह सब जो स्कॉटिश चर्च कॉलेज से जो दो लड़के आये थे उनकी ओर देखते हुए देकर बोल रहे हैं।

यह लड़के सोच रहे हैं हम तो इनके शिष्य नहीं है, हमारी ओर देखते हुए क्यों बोल रहे हैं? वे दोनों भयभीत हुए। उन्होंने कहा, “स्वामी जी आप हम लोगों को घर जाने नहीं देंगे?”

प्रभुपाद ने कहा, “नहीं देंगे।

वे सोचने लगे, “ओहो यहाँ आने से बहुत मुश्किल में पड गए, यहाँ से कैसे भागेंगे?”

वे कहते है, “यदि हमारे घर में आग लग जाए आग को बुझाने के लिए नहीं जाएँगे?”

प्रभुपाद कहते कहते हैं, “आग लगने दो तुम्हारा घर गया तो तुम्हारा क्या बिगड़ा?”

वे सोचते हैं यह कैसा साधु है? छात्र कहते हैं. “यदि हमारे घर की आग नहीं बुझाएँगे तो दूसरे घर में आग लग जाएगी।

“एक घर, दूसरा घर तीसरा घर समग्र दुनिया जल जाए तुम्हारा क्या जाएगा? तुम तो ब्रह्म भूत हो। ब्रहम से उत्पन्न हुआ। तुम तो जगत भूत नहीं हो। तुम शरीर नहीं हो। शरीर तो कोई व्यक्ति नहीं देखता, आत्मा व्यक्ति है।

जो रहने से मैं, मैं हूँ,जो नहीं रहने से मैं, मैं नहीं हूँ-अणु-सच्चिदानन्द। हम में से कोई मृत्यु नहीं चाहते हैं। यदि मैं मरणशील वस्तु होता तो मृत्यु से भयभीत नहीं होता। सभी जीवित रहना चाहते हैं। सभी आनन्द चाहते हैं। सभी ज्ञान कहते है, कोई मुर्ख रहना नहीं चाहता। क्यों? क्योंकि मैं अणु सच्चिदानन्द हूँ इसलिए पूर्ण सत्, पूर्ण चित्त, पूर्ण आनन्द प्राप्त करने की मेरे अन्दर इच्छा है। यदि तुम शरीर को व्यक्ति मानते हो तो तुम भगवान की माया से मोहित हो। मार्ग में चलते हुए तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, एक्सीडेंट होता है न! अभी समझ लिया कि कृष्ण भजन ही हमारा एकमात्र कर्तव्य है?”

“हाँ समझ गया।”

“तो देर क्यों? मार्ग में चलते हुए तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, इसलिए अभी से इस मुहूर्त से भजना आरंभ कर दो।” वे दोनों छात्र वहीं मठ में रह गयें। इस प्रकार प्रभुपाद ने प्रचार किया। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था। हम लोग नहीं कर सकता हैं। हमारा अपना ही कोई साधन-बल नहीं है वे स्वयं भगवान के निज जन है, उनकी ऐसी शक्ति है कि केवल मात्र बात करने से ही सब प्रभावित हो जायेंगे।

हमारे बड़े गुरुभाई आश्रम महाराज के साथ ऐसी घटना हुई थी, प्रभुपाद ने उनसे बात की थी (कृष्णप्रसाद प्रभु) , प्रभुपाद जब आसाम में गए थे, तब उनका प्रभुपाद के साथ मिलन हुआ था, उस समय उनकी आयु 10 – 12 साल की थी। वे ब्राह्मण घर के थे और उनका नाम कमलाकांत गोसाई था। उनके पिताजी कुलगुरु थे। आसाम में बैल-गाड़ी में बैठकर प्रभुपाद जा रहे थे। प्रभुपाद का मुख उनकी ओर थे और वे उनसे बात कर रहे थे। प्रभुपाद उनसे पूछ रहे थे तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ रहते हो? कोई हरि कथा नहीं कही। उन्होंने प्रभुपाद को देखा और ऐसे साधारण बात होते होते ही उनका संसार नाश हो गया। बाद में प्रभुपाद चला गएँ किन्तु अब इनका मन संसार में लगता ही नहीं। वे संसार छोड़कर आ गए किन्तु तब तक जब प्रभुपाद अंतर्धान हो गए थे, वे तब गुरुजी (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) के पास जाकर शरणागत हो गए। बाद में वे मायापुर मठ के मठ रक्षक बने, उनका नाम आश्रम महाराज हुए। श्रील गिरी महाराज जी और मेरा एक साथ में सन्यास हुआ था। जब ऐसे भगवान का पार्षद भक्त हो तो उनसे बात करने से ही उनकी कृपा आ जाती है। सूर्य का प्रकाश प्रत्येक के ऊपर आता है चाहे स्थान गंदा हो या अच्छा। इसी प्रकार भगवान की कृपा प्रत्येक जीव के ऊपर होती है। जो उनके सामने आते हैं उनकी कृपा का प्रभाव उन पर आता है। उनके पास जाने से ही वाइब्रेशन से अनुभव होता है कि कुछ हो रहा है।

इसी प्रकार शक्तिशाली वही प्रभुपाद की आज की तिथि में व्यास पूजा करते हैं। शास्त्रों में अपनी जन्म तिथि पर गुरु पूजा करना विशेष विधान है । इसे तो गुरु पूर्णिमा तिथि में आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि में हम सभी के गुरु वेद व्यास की कर्मी, ज्ञानी, योगी, देव-देवी उपासक सब व्यास पूजा सब करते हैं। यहाँ तक कि ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ एवं ‘सो अहम्’ कहनेवाले लोग भी प्रत्येक वर्ष गुरु पूजा करते हैं। शंकराचार्य ने कह दिया-

“अद्वैत …..गुरुनास:”।

सबका पास मैं अद्वैत हूँ मैं ही भगवान हूँ किन्तु गुरु के साथ अद्वैत नहीं। शंकराचार्य जी कहते हैं कि गुरु की सेवा करनी पड़ेगी। उस समय बौद्धवाद को दूर करने के लिए शंकराचार्य को बहुत परिश्रम करना पड़ा। उन्होंने ने नास्तिक्यवाद, जड़ निर्वाण का खण्डन करके ब्रह्म निर्वाण स्थापित कर दिया। वेद को प्रमाण रूप में स्थापित किया। इस प्रकार उन्होंने सनातन धर्म की भित्ति का स्थापन किया जिसके ऊपर सभी वैष्णवों ने ईमारत खड़ी की। वे स्वयं गोविंद का भजन करते हैं “भज गोविंदम् भज गोविंदम् मूढ मते।” किन्तु नास्तिक्यवाद का खंडन करने और वेद स्थापन करने में ही उनकी सारी ऊर्जा(Energy) लग गई। वे शंकराचार्य जी ही कहते हैं—‘नाद्वैतम् गुरु….’, गुरु की कृपा होने से ही भगवान की सेवा मिलेगी। जब मैं ही गुरु हो गया तो किसको सेवा करूं? स्वयं की सेवा करूँ? ऐसा नहीं, इसीलिए प्रभुपाद ने अपनी जन्म तिथि में अपने गुरुजी की पूजा की। प्रभुपाद को देखकर पृथ्वी में और मायापुर में उनके जितने शिष्य है सब ने अपने गुरुजी की पूजा आरंभ की। तब सेप्रभुपाद की जन्म तिथि में, हमारे गुरुजी की जन्म तिथि में व्यास पूजा का प्रवर्तन हो गया।

वैसे तो वेद व्यास मुनि की अविर्भाव तिथि, आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि में सब सम्प्रदाय ही गुरु पूजा करते हैं। क्यों गुरु पूजा करेंगे? भागवत के एकादश स्कंध में निमी-नवयोगेंद्र संवाद में उस विषय में वर्णन आता है। नव योगेंद्र ऋषभदेव के पुत्र हैं। नव योगेंद्र महा भागवत, विदेहराज निमि की यज्ञ स्थली में आए। विदेहराज निमि ने उनकी पूजा की, उन्होंने कहा कि आप लोगों को देखकर ज्ञात होता है कि आप लोग साक्षात मधुसूदन श्री कृष्ण के पार्षद हैं। आप लोगों को मैंने निमंत्रित नहीं किया, आप स्वयं आ गए , साधू का ऐसा स्वभाव होता है, महन्तेर स्वभाव एइ तारिते पामर निमी-नवयोगेंद्र संवाद बहुत लंबा प्रसंग है यदि कहूँगा तो आप का प्रसाद का समय भी चला जाएगा इसलिए अभी संक्षेप में कह देता हूँ,

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुर:।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥
(श्री भागवत 11.2.29)

मनुष्य जन्म दुर्लभ है। किन्तु उससे भी अधिक भगवान के शुद्ध भक्तों के दर्शन दुर्लभ है। आप लोगों के दर्शन मिल गए,यह तो बहुत दुर्लभ है। मेरा आप लोगों के लिए प्रश्न हैं,

यथैतामैश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभि:।
तरन्त्यञ्ज: स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम्॥
(श्री भागवत 11.3.17)

आपकी माया से मोहित होकर जीव संसार में बद्ध है। रजोगुण से जन्म होता है, सतोगुण से शरीर का संरक्षण होता है और तमोगुण से नाश होता है। भगवान् की त्रिगुणात्मक माया शक्ति के प्रभाव से शरीर में मैं बुद्धि होती है , शरीर संबंधी व्यक्ति में मेरी बुद्धि होती है। मैं महामूर्ख हूँ। मुझे उद्धार करने के लिए आप लोग यहाँ आए हैं तो मेरा यह प्रश्न है कि मेरे समान शरीर में मैं बुद्धि रखनेवाले, अजितेंद्रिय व्यक्ति का संसार से मुक्त होने का सरल उपाय क्या है? तब कहते हैं,

कर्माण्यारभमाणानां दु:खहत्यै सुखाय च ।
पश्येत् पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ।।
(श्री भागवत11.3.18)

संसार में मनुष्य कर्म आरंभ करते हैं कोई बिजनेस, कोई नौकरी तो कोई कुछ करते हैं। दुःख का नाश करने और सुख प्राप्त करने के लिए विवाह करते हैं। धन होने से सुख होगा सोचकर धन कमाते हैं किन्तु धन होने से भी सुख नहीं होता है ना ही सुंदर स्त्री होने से सुख होगा तब सोचते हैं पुत्र-कन्या होने से सुख होगा किन्तु तब भी सुख नहीं होता।

मायापुर में एक धनी महारानी ने श्रील प्रभुपाद के समक्ष अपना दुःख निवेदन किया। उस समय राजाओं का शासन था। वह बोलती है मेरी तरह दु:खी और कोई नहीं है। प्रभुपाद कहते हैं,आपको दुःख है? आपके इतने सेवक सेविका है, इतना धन संपत्ति है। वह कहती विवाह हुए १ वर्ष तो हुआ है किन्तु अब तक पति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं जैसे पिंजरा में बंद हूँ। इच्छानुसार जहाँ कहीं नहीं जा सकता हूँ। सब समय आत्महत्या’ करने की इच्छा होती है। स्वामी जी आशीर्वाद कीजिए जैसे कि रॉयल फैमिली में जन्म ना हो जाए। मुझसे अधिक तो रास्ते का भिखारी सुखी है, मैं सुखी नहीं हूँ।

इसलिए धन होने से सुख होगा ऐसा नहीं है। धनी व्यक्ति भी सुखी नहीं है गरीब भी सुखी नहीं है। जो विवाह किया वह भी सुखी नहीं है जो विवाह नहीं किया वह भी सुखी नहीं है। हम सोचते हैं विवाह होने से सुख होता। इसलिए कहावत है, “दिल्ली का लड्डू जो खाया वह भी पछताया, जो न खाया वह भी पछताया।” मैंने नहीं खाया इसलिए मैं भी पछताता हूँ और सोचता हूँ कि विवाह करने से अधिक सुख होता और जिसने विवाह किया वह कहते हैं, स्वामी जी हम बहुत बड़ी गलती की किन्तु विवाह करने से अब मैं कम्बल को छोड़ना चाहता हूँ किन्तु अब कम्बल मुझे नहीं छोड़ता है। वह भालू तरह है। एक बार जब हमने भालू को कंबल समझ कर नदी में पकड़ लेंगे तो क्या होगा? भालू हमको पकड़ेगा। तब भालू से हम अपने आप को उधार नहीं कर सकते हैं। मुक्त व्यक्ति, एक साधु ही हमारा उद्धार कर सकता है। इसी प्रकार माया रूपी भालू पकड़ लेने से निकलना मुश्किल हो जाएगा। हम निकलना चाहेंगे तब भी भी वह हमको निकलने नहीं देगा। हमारे मठ में एक व्यक्ति आया उसकी आयु 50 वर्ष थी । कोलकाता में 5 मंजिल में आकर वे बोलते हैं मैंने संसार छोड़ दिया। मैं संसार में नहीं रहूँगा। आपके यहाँ मठ में रहूँगा और भजन करूँगा। तब वहाँ के साधु कहते हैं कि आपको देखने से लगता है आपने विवाह किया। वे कहते हैं, हाँ मैंने विवाह किया। आपकी स्त्री है? हाँ। पुत्र-परिवार है? तब उन्होंने कहा हाँ, सब हैं। तब यहाँ कैसे रहेंगे। वे कहते हैं यह संसार दुःखमय है, यह मनुष्य जन्म भजन करने के लिए है। आप लोगों ने भजन करने के लिए मठ बनाया है, तो क्या हम को भजन का अवसर नहीं देंगे? आप की इच्छा होने से क्या होगा? वे लोग आपको रहने नहीं देंगे। वे कहते हैं, आने दीजिए, उन लोगों को मैं देख लूँगा। तब वह कहते हैं ठीक है, आप रहिए। वे हठ करके रहने लगे। वे बह्जन करने लगे और ऐसे कुछ दिन चला गए। उनकी पत्नी सम्पूर्ण कोलकाता में अपने पति को ढूंढने लगी। ढूंढते ढूंढते दैव से वह हमारे मठ में आ गई और उस समय मै सीढ़ी से उतर रहा था और वह व्यक्ति भी उतर रहा है। उसकी पत्नी ने उसे देख लिया। तब उनकी पत्नी कहती तुम यहाँ पर? पति कहते हैं मैंने समझ लिया किमनुष्य जन्म भजन करने के लिए है इसलिए और संसार नहीं अब मैं भजन करूँगा। पत्नी कहती है विवाह करने के समय याद नहीं था। सारा बोझ मुझे देख कर तुम यहाँ मजा लूटते हो, चलो। ऐसा कहकर उसे बलपूर्वक वहाँ से ले गई।

इतना सहज नहीं है। इसी प्रकार यह संसार में हम लोग समझते हैं कि सुख होगा अकेले नहीं होगा तो विवाह करने से होगा, स्त्री होने से, पुत्र होने से, पुत्री होने से, सब limited company खोलकर हम सब हम सम्मिलित भाव से सुख प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे। नवयोगेन्द्र वहाँ कहते हैं कि हे विदेहराज निमि! इस प्रकार चेष्टा करने से विपरीत फल होगा; दुःख भी दूर नहीं होगा तथा सुख भी लाभ नहीं होगा। तो क्या करना होगा?

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥

गुरु में प्रपन्न हो जाओ। जो शब्दब्रह्म, परब्रह्म में निष्णात हो। केवल शास्त्र ज्ञान होने से नहीं होगा, उन्हें साक्षात् अनुभव होना चाहिए। वे परब्रह्म की सेवा में निपुण होने चाहिए। इस प्रकार गुणयुक्त गुरु के पास शरणागत हो जाओ।

यदि हमारे शरीर में बीमारी है तो बीमारी होने से क्या हम अपने आप इलाज कर सकते हैं या डॉक्टर के पास जाते हैं? हम इलाज के लिए स्पेशलिस्ट(विशेषज्ञों) के पास जाते हैं। इसी प्रकार, संसार में जन्म-मृत्यु और त्रिताप रूपी जो बीमारी है, इस बीमारी से उद्धार कौन करेगा? शारीरिक बीमारी के लिए डॉक्टर के पास जाना पड़ता है,किन्तु इस संसार रूपी बीमारी से उद्धार के लिए साधु-वैद्य, सद्गुरु चाहिए। सद्गुरु मिलना इतना सहज नहीं है। जब गुण मांगेंगे तो संख्या नहीं मिलेगी, जब संख्या मांगेंगे तो गुण को छोड़ देना पड़ेगा।

महादेव पार्वती को कहते हैं-

बहव गुरव: सन्ति शिष्य वित्ताप हारकः।
दुर्लभं सद्गुरु देवी शिष्य संताप हारकः।।

संसार में शिष्य का पैसा हरण करने वाले बहुत गुरु हैं किन्तु जो गुरु शिष्य का संताप हरे, ऐसा गुरु मिलना मुश्किल है।

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।

मुंडकोपनिषद् १.२.१२

आचार्यवान् पुरुषो हि वेद। (छान्दोग्योपनिषद्-६/१४/२)

धनवान् उसे कहते हैं जिसके पास धन है। इसी प्रकार आचार्यवान् का अर्थ है—जिनका आचरण है। आचार्य का चरणाश्रय करने से भगवान को प्राप्त कर सकते हैं, परम पुरुष को जान सकते हैं। अपनी चेष्टा से यह सम्भव नहीं होगा।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
कठोपनिषद् (१.३.१४)

इस संसार से पार होना इतना सहज नहीं है। गुरु पदाश्रय करके, गुरु की कृपा लेकर ही संसार से पार हुआ जा सकता है।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।

तत्वदर्शी ज्ञानी का आश्रय लेना होगा। गुरु पूजा का क्या अर्थ है? गुरुजी की इच्छा अनुसार चलना होगा।

श्रील प्रभुपाद के बहुत से उपदेश पत्रों के माध्यम से प्रकाशित हुए हैं। उनमें से कुछ उपदेश हैं—

1) जहाँ हरिकथा होती है, जहाँ जिनका जीवन केवल मात्र भगवान् के लिए है, ऐसे शुद्ध भक्त भगवान के लिए भगवान की कथा कहते हैं, वहीं पर सब तीर्थ निवास करते हैं।

मद्भक्ताः यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।

2) दूसरों के स्वभाव की निंदा न कर, अपना सुधार करना चाहिए। हम लोग दूसरों के दोष देखते हैं। दूसरों के दोष देखने से कुछ लाभ नहीं होता। दूसरों का गुण देखो, अपना दोष देखो। दूसरों के स्वभाव की निंदा मत करो। अपना सुधार करना चाहिए। जब अपना सुधार करेंगे…

आपन आचरि धर्म जीवेरे सिखाये।
आपनि न कैल धर्म शिखानु न जाय॥

स्वयं अमल न करने से धर्म की शिक्षा नहीं होती। स्वयं आचरण करके शिक्षा करो। किसी को बोलने की आवश्यकता नहीं है। आचरण करने से अपने आप शिक्षा हो जाएगी।

3) हरिभजन करने वाले व्यक्ति को छोड़कर बाकी सब अज्ञानी और आत्महत्यारी हैं। जिसने भगवान का भजन छोड़ दिया वह कैसा है? वह अज्ञानी है, वह आत्महत्या करने वाला है। हम लोग भगवान से हैं, भगवान में हैं, भगवान के द्वारा हैं और भगवान के लिए हैं।

जब भगवान के लिए नहीं रहें, तो खुदकुशी करने वाले(आत्मघाती) कहलाएँगे। गुरु पूजा करने का वास्तव अर्थ गुरु के आदेश पालन करना होगा। केवल पुष्पांजलि देने से नहीं होगा। प्रभुपाद जी के उपदेशों के अनुसार चलना होगा।

4) सच्चे साधु के मुखारविंद निकली हुई हरिकथा ही माया के बंधन से रक्षा कर सकती है। Professional Speakers (पेशेवर वक्ता), जो पैसों के लिए बोलते हैं, वह रुपयों का धंधा है। उनकी कथा सुनने से मंगल नहीं होगा। सच्चा साधु, जो अपना जीवन भगवान को दे चुका है, जिनकी कथा में भगवान हैं, उनकी कथा सुनने से माया चली जाएगी। माया बंधन से मुक्ति होगी। इसलिए हरिकथा सुननी चाहिए। हरिकथा सुनने के समय यदि हम कहें, ‘मेरी तबीयत खराब है, सोकर विश्राम करो; हरिकथा बंद करो’—यह विचार ठीक नहीं है। हरिकथा बोलते-बोलते मर जाने से हरि के पास चले जाएँगे और हरिकथा नहीं बोलकर, सोकर मर जाने से कहाँ जाएँगे? यहाँ(संसार में) आ जाएँगे।

5) लोहे की कटोरी बनानी हो तो लोहे को आग में जलाना पड़ता है, मात्र जलना ही नहीं हथोड़े से टीपना पड़ता है, उसके बाद उसको आकार भी देना पड़ेगा। उसी प्रकार जब भगवान किसी को अपने पास ले जाना चाहते हैं तब समग्र जगत के द्वारा उसका तिरस्कार एवं अत्याचार करवाएंगे, जब सब कुछ सहन करते हुए वह सहनशील और क्षमागुन संपन्न हो जाएगा, तब वे कहेंगे कि अब तुम मेरे धाम में जाने योग्य हो गए हो। इसलिए सैकड़ों विपत्तियाँ आएँ, सैकड़ों ओर से तिरस्कार हो और चाहे सैकड़ों लांछन लगे, किन्तु तुम हरिभजन नहीं छोड़ना।

वाञ्छा……