नीरधर्म-गत, जाह्नवी-सलिले,

हरि हे!

नीरधर्म-गत, जाह्नवी-सलिले, जाह्नवी-सलिले, पंक-फेन दृष्ट हय।
तथापि कखन, ब्रह्मद्रव-धर्म, से सलिल ना छाड़य।।
वैष्णव – शरीर, अप्राकृत सदा, स्वभाव- वपुर धर्मे।
कभु नहे जड़, तथापि ये निन्दे, पड़े से विषमाधर्मे।।
सेइ अपराधे, यमेर यातना, पाय जीव अविरत।
हे नन्दनन्दन! सेइ अपराधे, येन नाहि हइ हत।।
तोमार वैष्णव, वैभव तोमार, आमारे करुन दया।
तवे मोर गति, हवे तव प्रति, पा’व तव पदछाया।।

(श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)