भगवद्-प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ-निर्देशन हेतु श्रील गुरुदेव जी के विविध संवाद (2)

सन् 1947 में ही श्रील गुरुदेव कलकत्ता के कालीघाट, 8 नं. हाजरा रोड़ पर स्थित मठ में अवस्थान करते थे। श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी का, संसार त्याग करने के संकल्प से पहले, इसी मठ में ही श्रील गुरुदेवजी के साथ दूसरा साक्षात्कार हुआ था। श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी ने श्रील गुरुदेवजी की महापुरुषोचित्त दिव्य कांति दर्शन करके, अन्यान्य साधुओं से उनकी विलक्षणता का अनुभव किया। उस समय शास्त्र युक्ति द्वारा, दो प्रश्नों के उत्तर श्रील गुरुदेवजी द्वारा, श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी को समझाने पर उन्होंने (श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारीजी ने) संसार त्याग करने का संकल्प लिया तथा संसार त्याग करके उसी मठ में श्रील गुरुदेवजी के पादपद्मों में उपस्थित हो गए।
वे दो प्रश्न ये हैं—‘नित्य व अनित्य विवेक की उठा-पटक बचपन से रहने पर भी भोग की प्रवृति भी उसके साथ है—ऐसी अवस्था में संसार त्याग करना उचित होगा के नहीं?”
द्वितीय प्रश्न—“वह चतुर नहीं है, इसलिए उनके पिता जी ने बड़े स्नेह के साथ उनका लालन-पालन किया व उच्च शिक्षा प्रदान करवायी, ऐसी अवस्था में पिता का परित्याग करके आने से उन्हें पाप तो नहीं लगेगा?
श्रील गुरुदेव जी ने दोनों प्रश्नों के उत्तर में जो उपदेश दिया उसका सार मर्म ये है कि हमारे अन्दर अयोग्यता रह सकती है, किन्तु सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण में कोई भी अयोग्यता नहीं है। वे अनन्त हैं। उनकी कृपा भी अनन्त है। हम कितने भी पतित क्यों न हों, हम पर उनकी कृपा अवश्य ही होगी, नहीं तो उनकी असीमता की हानि होती है। कामादि शत्रुओं को हम अपनी शक्ति द्वारा परास्त नहीं कर सकते। श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण करने से वे ही उन सभी शत्रुओं की ताड़ना से हमारी रक्षा करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण शरणागत के रक्षक व पालक हैं।
‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहम् त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’ (श्रीगीता.18.66)
(श्रीकृष्ण अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश करते हैं -) हे अर्जुन! तुम लोकधर्म, वेदधर्म आदि समस्त नैमित्तिक धर्मों का परित्याग कर एकमात्र मेरी (भगवान् कृष्ण की) शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें धर्म-त्याग से उत्पन्न सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत करो।
दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने गीता के अठारहवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करके समझाते हुए कहा कि समस्त धर्म, समस्त अपेक्षित कर्त्तव्य परित्याग करके श्रीकृष्ण में एकान्त भाव से शरणागत होने से श्रीकृष्ण अपेक्षिक कर्त्तव्यों को न करने या न कर पाने के कारण – इससे होने वाले दोषों से हमारी हरेक प्रकार से रक्षा करेंगे। श्रीकृष्ण का नित्यदास है ये जीव और इसका स्वरूपगत धर्म एवं कर्त्तव्य है- श्रीकृष्ण की सेवा करना। श्रीकृष्ण-सेवा द्वारा ही पितृ-मातृ-ऋण परिशोध होता है एवं सभी के प्रति, सभी प्रकार के कर्त्तव्य ठीक प्रकार से सम्पादित होते हैं।

{लोहा जिस प्रकार चुम्बक द्वारा खिंचे जाने पर किसी बाधा की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जब आत्मा में भगवान् का तीव्र आकर्षण उपस्थित होता है तब जगत् का कोई भी बन्धन या बाधा उसको रोकने में समर्थ नहीं होती।}