08. भक्तिमयी सदाचारपूर्ण क्रियाएँ

12. स्थाई सेवा में नियुक्ति की अभिलाषा
11. जीवन को मठ की सेवा हेतु ससमर्पित करना
10. अद्वितीय प्रेम को पहचानने की योग्यता

जब गुरु महाराज ने श्रील प्रभुपाद का दीक्षा आदि लेकर आश्रय तो ग्रहण किया था किन्तु मठवास आरम्भ नहीं किया था, तब वे कोलकाता में एक बड़े घर को किराए पर लेकर वहीं रहते थे। उनके पूर्व- आश्रम के किसी सम्बन्धी व्यक्ति ने, जो एक चित्रकार थे, उन्हें श्रीमन्महाप्रभु का एक तैल-चित्र बनाकर भेंट में दिया था, जिसे उन्होंने अपने किराए के घर के हॉल की दीवार पर टाँग दिया था। उसी तैल चित्र के समक्ष बैठकर वे अपने गुरुभ्राता श्रीनारायण मुखोपाध्याय तथा बन्धु श्रीहरिदास के साथ कीर्त्तन करते थे।

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9. सभी के मङ्गलाकांक्षी

एक दिन कोलकाता में कार्यस्थल पर श्रीगुरु महाराज के दाँत में कुछ व्यथा हुई । दर्द के शीघ्रनिवारण के उपायस्वरूप उनके साथ में कार्य करने वाले एक सहकर्मी ने उन्हें दाँत के नीचे तम्बाकू रखने के लिए दिया।

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8. सत्यनिष्ठा में स्वार्थपरता का कोई स्थान नहीं

गुरु महाराज अपने मठवास करने से पूर्व कोलकाता में किसी अंग्रेज व्यक्ति के उद्योग में काम करते थे। वहाँ पर किसानों से अलसी (linseeds)

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7. श्रीगुरु के चरणकमलों का विधिवत् आश्रय ग्रहण
6. गुप्त रूप से सेवा करना

श्रीधाम मायापुर में श्रील प्रभुपाद से प्रथम मिलन के पश्चात् गुरु महाराज कोलकाता लौट आए तथा वहाँ पर १ नंबर उल्टाडाङ्गा में स्थित प्रचारकेन्द्र, श्रीभक्तिविनोद- आसन में नियमित रूप से आने-जाने लगे।

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5. श्रील प्रभुपाद से श्रीधाम मायापुर में प्रथम साक्षात्कार
4. चोट को लक्षित कर पारमार्थिक शिक्षा
3. अन्यों के लिए अत्यधिक चिन्ता
2. बाल्यावस्था से ही पारमार्थिक संस्कार ग्रहण

कभी-कभी जब गुरु महाराज किसी बालक को उसके माता अथवा पिता के साथ में देखते, तो माता-पिता को शिक्षा देने के उद्देश्य से अपने बाल्यकाल के विषय में बताते, “मेरे पिता श्रीनिशिकान्त देवशर्मा बन्धोपाध्याय मेरी चार वर्ष की आयु होते-न-होते ही परलोक सिधार गए। मेरी माता श्रीमती शैवालिनी देवी भक्तिमती तथा साधु-सेवा परायण थी। मेरे पिता के परलोक गमन के पश्चात् वे अपने भाइयों के घर पर रहकर ही मेरा, अपनी एक मात्र सन्तान का पालन पोषण करने लगी। 

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1. जन्मतिथि पालन करने की उपयुक्त विधि

“आज के दिन, अपनी जन्मतिथि के अवसर पर श्रीगुरु की आराधना करना मेरा कर्त्तव्य है। मेरे लिए, श्रीगुरु चार रूपों में प्रकाशित होते हैं। पहले वह हैं जो मेरे अज्ञान को नष्ट करते हैं। भगवान् असीमित ज्ञान के स्रोत हैं, अतएव वे मूल गुरु तत्त्व हैं एवं इसीलिए चैत्यगुरु के रूप में प्रकट होते हैं। अतएव आज उनकी आराधना करना मेरा कर्त्तव्य है।

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