गुरु-वैष्णवों का सान्निध्य ही जीवों के लिए कल्याणजनक है। वे जिस स्थान पर भी क्यों ना रहें, वही वृंदावन है। इसीलिए श्री नरोत्तम ठाकुर जी ने लिखा है — “यथाय वैष्णवगण, सेई स्थान वृंदावन, सेई स्थाने आनंद अशेष।” जिस स्थान पर वैष्णवगण रहते हैं, वही स्थान वृंदावन होता है, वहीं पर असीम आनंद है।
तुम लोग वैष्णवों से हरिकथा श्रवण तथा नित्यप्रति उनके दर्शन का सुयोग प्राप्त कर रहे हो, यह बहुत सौभाग्य का विषय है। यदि भगवान् ने सुयोग प्रदान किया तो चुंचुड़ा* जाकर तुम्हारे अनुरोध की रक्षा करने की चेष्टा अवश्य करूंगा। भगवान् की कथा श्रवण-कीर्तन करने का आग्रह तुम लोगों को अवश्य ही भक्ति पथ पर आगे बढ़ाएगा। “दैन्य, दया, अन्य मान, प्रतिष्ठा वर्जन। एई चारि गुणे गुणी हई’ करह कीर्तन।।” दीनता, दया, दूसरों को मान देना, प्रतिष्ठा की आशा का त्याग करना — इन चार गुणों से युक्त होकर ही कीर्तन करना — यही श्रीगौरसुंदर का विशेष आदेश-निर्देश है। इस उपदेश के अनुसार ही श्रीनाम भजन में एकांतिक होने पर श्रीनाम के साथ श्रीनामी साक्षात् श्रीकृष्ण तुम्हें दर्शन प्रदान करेंगे। तुम निश्चिंत होकर हरिभजन करो, तुम्हारा कल्याण होगा।