मन रे, तुमि बड़ संदिग्ध-अन्तर।

मन रे, तुमि बड़ संदिग्ध-अन्तर।
असियाछ ए संसारे, बद्ध हये जड़ाधारे,
जड़ासक्त ह’ले निरन्तर॥1॥

मेरे प्रिय मन, तुम अत्यन्त सन्दिग्ध हो। इस भौतिक जगत् में आकर विषय-वस्तुओं के द्वारा बद्ध हो गए हो। इस प्रकार से तुम निरंतर आसक्त रहते हो।

भूलिया स्वकीय धाम, सेवि’ जड़-गत काम,
जड़ बिना ना देख अपर।
तोमार तुमित्व जिनि, आच्छादित ह’ये तिनी,
लुप्तप्राय देहेर भितर॥3॥

तुम अपने शाश्वत निवास स्थान को भूलकर भौतिक काम की सेवा में रत हो। अतः इसी कारणवश तुम भौतिक विषयों के अलावा कुछ भी नहीं देख पाते। चेतन आत्मा इस भौतिक शरीर के अन्दर पूर्णरूपेण आच्छादित है, अतएव वह लुप्त प्रायः प्रकट होती है।

तुमि त’ जड़िय ज्ञान, सदा करितेछ ध्यान,
ताहे सृष्टि कर चराचर।
ए-दुःख कहिब का रे, नित्य – पति-परिहारे,
तुच्छ तत्त्वे करिले निर्भर॥4॥

तुम सदा भौतिक ज्ञान पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करते हो तथा इसी कारणवश तुम्हारे सारे कार्य भौतिक हैं। मैं अपनी यह व्यथा किससे कहूँ की तुम अपने नित्य स्वामी को त्यागकर तुच्छ पदार्थों पर निर्भर हो।

नाहि देख’ आत्मतत्त्व, छाडि’ दिले शुद्धसत्त्व,
आत्मा ह ते निले अवसर।
आत्मा आछे कि ना आछे, सन्देह तोमार काछे,
क्रमे क्रमे पाइल आदर॥4॥

तुम्हारी आत्म-तत्त्व के विज्ञान में रुचि नहीं है। वस्तुतः तुमने शुद्ध सत्त्व के आधार को त्याग दिया है तथा अपनी स्वाभाविक स्थिति से अवकाश ग्रहण कर लिया है। तुमको अभी भी संशय है कि आत्मा का अस्तित्व है या नहीं है। यह संशय उत्तरोतर दृढ़ होता जा रहा है।

एइरूपे क्रमे क्रमे, पड़िया जड़ेर भ्रमे,
आपना आपनि ह’ले पर।
एबे कथा राख मोर, नाहि हओ आत्मचोर,
साधु-संग कर’ अतः पर॥5॥

इस प्रकार जड़ पदार्थ द्वारा अधिकाधिक भ्रमित होकर तुम स्वयं के लिए भी अपरिचित हो गए हो। अब कृपया मेरा विश्वास करो तथा अपने आपको और अधिक मत ठगो। वस्तुतः, तुमको भक्तों का संग करना चाहिए।

वैष्णवेर कृपा – बले, सन्देह याइबे चले,
तुमि पुनः हड़बे तोमार।
पाबे वृंदावन धाम, सेविबे श्री राधा-श्याम,
पुलकाश्रमय कलेवर॥6॥

हे मन! वैष्णवों की दया के बल पर तुम्हारे समस्त संशय लुप्त हो जायेंगे तथा धीरे-धीरे तुम वास्तविक चेतना को पुनर्जीवित करने में सक्षम हो पाओगे। तत्पश्चात् तुम्हें वृन्दावन धाम की प्राप्ति होगी तथा कम्पित देह एवं अश्रुपूरित नेत्रों से श्रीश्री राधा-कृष्ण की सेवा करोगे।

भकतिविनोद धन, राधाकृष्ण श्रीचरण
ताहे रति रहूँ निरंतर॥7॥

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि, श्रीश्री राधा-कृष्ण के चरणकमल ही मेरी एकमात्र धन-सम्पदा हैं एवं मेरा मन उनके श्रीचरणों में आसक्त रहे।

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