स्थान – श्रीचैतन्य गौडीय मठ, कोलकाता।
तिथि -14 पौष, 30 दिसम्बर, 1978, शनिवार
समय-प्रातःकाल
[त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज जी ने अपने श्रीगुरुपादपद्मों में निवेदन किया कि श्रीगौडीय वैष्णव सिद्धान्तों से अनभिज्ञ एक पश्चिम देशीय भक्त अर्थात् उत्तर भारत का एक भक्त चण्डीगढ़ मठ से श्रीगुरु मुखनिःसृत उपदेश वाणी सुनने के लिए कोलकाता आया हुआ है किन्तु डॉक्टर ने आपको अधिक बातें करने के लिए मना किया हुआ है इसलिए उसे आपसे उपदेशों को सुनने का सुयोग प्राप्त हुआ ही नहीं। यदि आप उसे कुछ उपदेश दे सकते तो अच्छा होता।]
परमाराध्य श्रील गुरु महाराज जी ने अपने आश्रित उक्त पश्चिम देशीय भक्त को उपलक्ष्य करके उपदेश देना प्रारम्भ किया-
“मैं अस्वस्थ हूँ, डॉक्टर ने मुझे ज्यादा बोलने के लिए मना किया हुआ है। हो सकता है कि मैं अब ज्यादा दिन इस जगत में न रह सकूँ। मैं तुमको कहना चाहता हूँ कि साधन भजन के लिए अपने आराध्य देव का ही भजन करना चाहिए। स्त्री जब पति परायणा न रहे, दूसरे से प्रीति करे तो वह पति की सेवा में अपने को नियोग नहीं कर सकती, क्योंकि उसमे व्यभिचार दोष आ जाता है व निष्ठा का अभाव होता है। अतः एकान्त पति-भक्ति के लिए स्त्री अपने पति के स्थान पर और किसी को नहीं बैठाएगी तथा साथ ही किसी की निन्दा भी नहीं करेगी। सटीस्त्री पति के सम्बन्ध युक्त देवर, ससुर व सास आदि किसी की निन्दा नहीं करती बल्कि हर एक का यथायोग्य सम्मान करती है। साधन-भजन में उसी प्रकार होता है। अपने आराध्य देव का अनन्यभाव से भजन करना तथा जो अन्य-अन्य देवी-देवता हैं उनका यथायोग्य सम्मान करना, किन्तु अपने आराध्य देव के ऊपर उन्हें स्थापन न करना। मेरी यह बात तुम्हारे लिए है, इसलिए इस मामले में तुम ज़रा सावधान रहना। तुम बड़े काम के आदमी हो, तुममे योग्यता भी है लेकिन अपने सम्प्रदाय की बात तुम समझे नहीं हो। गौड़ीय सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय श्रीकृष्ण भक्ति के लिए ही है। श्रीकृष्णभक्तगण एकमात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करते हैं, और-और देवी देवताओं के बराबर श्रीकृष्ण को समझने से ठीक नहीं होगा, यह बात ध्यान में रखना। सभी देवता समान नहीं हैं तथा सब अवतार भी समान नहीं हैं-
“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृड़यन्ति युगे युगेः।।”
मत्स्य, कूर्म, राम व नृसिंहादि अवतारों के बारे में कह कहकर अन्त में उपसंहार के रूप में वेदव्यास मुनि जीने कहा कि यह कोई अंश, कोई अंश का भी अंश अर्थात् कला हैं। यह सब कृष्ण नहीं हैं, श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं। जिनकी भगवत्ता से दूसरों की भगवत्ता होती है, उनको ही स्वयं भगवान कहते हैं। श्रीकृष्ण के बराबर कोई नहीं है, यह सब ध्यान में रखकर भजन करना, नहीं तो निष्ठा नहीं होगी। बाहर में हल्लागुल्ला करने से भक्ति बढ़ती नहीं, साधन-भजन के लिए हर एक को यह बात ध्यान रखनी होगी। हम लोग किसी देव-देवी की निन्दा नहीं करेंगे, अपने अराध्यदेव का निष्ठा के साथ भजन करेंगे और इस निष्ठा को प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं से आशीर्वाद की प्रार्थना करेंगे।
मैंने मठ की रजिस्ट्री की है, वह किसी की personal (व्यक्तिगत) सम्पति नहीं है, हरेक आदमी हुकूमतकरेगा, स्वेच्छाचारी हो जाएगा, ऐसा नहीं, ऐसा करने से जीवन बरबाद हो जाएगा। अतः मठ को चलाने के लिए एक Management Scheme होनी आवश्यक है। वहाँ एक आदमी मठ का आचार्य होगा, आचार्य को प्रधान भी कहते हैं और President भी कहते हैं।
मेरे चले जाने से एक व्यक्ति मेरे स्थान पर बैठेगा। वह कौन बैठेगा? यह पद वोट से निश्चित किया जाए, यह हमारे गुरु जी का विधान नहीं है। वोट द्वारा आचार्य का निर्णय करना हरिभक्ति नहीं है। आचार्य होगा भगवान के द्वारा। आचार्य भगवत्-प्रिय होता है परन्तु यह कौन बोलेगा? भगवान ही बोलेंगे कि यह व्यक्ति मुझे सर्वाधिक प्रिय है? इसीलिए गुरु परम्परा में जो वाक्य हैं, वही आचार्य का विधान है। ऊपर से जो Order आया है, वही ठीक है। यहाँ पर कुछ आदमियों ने वोट देकर एक व्यक्ति को आचार्य किया, किन्तु इसकी अपेक्षा भगवान की तरफ से कोई भगवत् प्रेमी किसी व्यक्ति की आचार्य कहकर निर्देश देंगे, वही ठीक होगा। उनको ही आचार्य रूप से मानना होगा, यही शास्त्र का विधान है। श्रील प्रभुपाद जी ने अपनी अस्वस्थ लीला के समय Mr.J.N.Basu, Solicitor को एक Constitution बनाने के लिए कहा था हमने सुना था की constitution दो प्रकार से हो सकता है- By नॉमिनेशन or by election। दूसरे वाले तरीके के बारे में Mr. Basu ने एक constitution लिख दिया था। परन्तु प्रभुपाद जी ने उसे पसन्द नहीं किया, उसे प्रभुपाद जी ने छोड़ दिया।
उस समय मैं और मेरे दो चार गुरु-भाई वहाँ उपस्थित थे। बहुत आदमी कहेंगे यह होगा, यह नहीं होगा, वह होगा, वह नहीं होगा, इत्यादि। इसलिए वोट द्वारा साधु-निर्णय करना ठीक नहीं है। इसीलिए ऊपर से अर्थात् भगवान की ओर से जिस व्यक्ति के प्रति आचार्य पद के लिए निर्देश होता है, उसको ही मानना चाहिए।
ऊपर से जो निर्देश (Order) आ रहा है, उसे मानना सिर्फ गौडीय सम्प्रदाय में ही नहीं, बल्कि रामानुज, विष्णुस्वामी व निम्बार्काचार्य- सब सम्प्रदायों का यही विधान है। अतएव आम्नाय गुरु परम्परा में उक्त व्यवस्था को अवलम्बन करना ही उचित है। अभी हम लोगों की को गोष्ठी है, उस गोष्ठी में मेरे जो ज्येष्ठ गुरु भाई हैं, उसने सलाह करके मैंने यही निश्चय किया है कि मेरे चले जाने के पश्चात् श्रीमान भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज Next President-अग्रिम आचार्य होंगे। मैं चला गया, हमारे गुरु महाराज चले गए, इसलिए हम लोग स्वेच्छाचारी हो जाएँ, यह ठीक नहीं है।
भक्त का आनुगत्य ही वैष्णवता है। भक्त कौन है? भक्त के आनुगत्य में जो भगवान की प्रीति के लिए रहता है, वही श्रेष्ठ भक्त है। इसलिए ऐसे भक्त का आनुगत्य करना ही भक्ति प्राप्ति का रास्ता है। भक्त की कृपा जिन पर होती है, भगवान की कृपा भी उन पर ही होती है, यही धारा है। इसी प्रकार का विचार लेकर ही आप चलना। संक्षेप में यही मेरा आप लोगों से निवेदन है। मैंने और भी detail रूप में लिख दिया है।
मठ में किसी से मेलजोल नहीं हुआ तो उसी समय साथ-साथ मठ से चले जाओ, यह बात बोलना ठीक नहीं इससे chaotic (मारकाट वाली) स्थिति बन जाएगी। पहले उसको समझाना पड़ेगा, उससे यदि वह नहीं समझता है तो पत्र देकर तथा रुपया देकर उसे दूसरे मठ में भेजना पड़ेगा। उच्छ?खल होने से नहीं चलेगा, श्रेष्ठ की आज्ञा, या Leader (मुखिया) की जो भी आज्ञा हो, वह माननी पड़ेगी। बात नहीं सुनना, इच्छा अनुसार चलना ठीक नहीं है, मठ-रक्षक की बात माननी ही होगी। क्योंकि वे भगवद् सेवा के लिए ही बोलते हैं, उसे हमेशा याद रखना।
एक बात और बोलता हूँ। हम लोग हरि-भजन करने के लिए आए हैं। इसमें तीन रुकावटेंहैं:-
- विषय स्पृहा – कनक अर्थात रुपया-पैसा। अतः रुपये पैसे के लिए लोभ हरि-भक्ति में पहली बाधा है। अपना अभिनिवेश, अपनी आसक्ति, हरि के पादपद्मो में ही रहेगी। यह छोड़कर किसी और विषय में आसक्ति होने से मैं पतित हो जाऊंगा। बाहर में आदमी तो समझेंगे नहीं। इसीलिए मैं रुपया पैसा जमा रख दूँ, भविष्य में जरुरत के समय अपने काम में लगेगा, यह ठीक नहीं है। जो लोग भिक्षुक है, वह लोग भिक्षा कर के रुपया मठ में हर रोज़ जमा करवाएँगे। मठ रक्षक में लिए कहना चाहता हूँ कि उसे भी चाहिए कि किसी की बीमारी होने से उसकी चिकित्सा के लिए पूरा यत्न करे। ज़रूरत पड़ने पर और मठ में रुपया नहीं होने पर उधार लेकर भी चिकित्सा की व्यवस्था करनी होगी।
इसी मठ में ऐसा समय भी बीता जब बाज़ार करने के लिए भी पैसा नहीं था। तब किसी को भी न बतला कर, छिपा कर कर्ज़ा कर के बाज़ार करने के लिए पैसा लिया। केवल उद्धारण प्रभु को मालूम था और किसी को नहीं। वह गृहस्थ के घर से रुपया पैसा उधार करके ले आता था। वह गृहस्थ थे गोबिन्द बाबू। उनके पास रुपया नहीं होने पर वह उनकी स्त्री से माँग कर लाते थे। बाद में वही रुपया वापिस लौटा दिया। यह बात भला कितने व्यक्तियों को मालूम है?
गोस्वामी महाराज, नेमी महाराज और मैं, हम लोग मठ की सेवा के लिए सब Collection किया करते थे। मैं भिक्षा का पूरा रुपया मठ में देता था। मेरे पहनने के लिए पहले में केवल फतुआ पहनता था। श्रीमद् भक्ति प्रदीप तीर्थ महाराज, यायावर महाराज, श्रीधर महाराज, जिनके साथ मैं रहता था, उनको जब किसी वस्तु की आवश्यकता होती थी, मैं खरीद कर देता था, परन्तु भिक्षा के रूपये से मैंने कभी अपने लिए कोई वस्तु नहीं खरीदी। कोलकाता मठ में जब मैं जाता था तब अपने ज्येष्ठ गुरु भ्राता कुन्जदा को कहकर जिस वस्तु की आवश्यकता समझता था, माँग लेता था। मैं उन्हें कहता था-क्या मठ में कपड़ा है?यदि है तो कृपया एक कपड़ा दे दो। अनावश्यक भोग के लिए मैं नहीं कहता था। भिक्षा का रुपया तुम लोग अपने लिए जमा न करना। इससे हरि’भक्ति नहीं होगी। भिक्षा का रुपया छुपा लेने से मठ को कुछ हानि नहीं होगी, तुम्हारा ही नुकसान होगा। मठ की रक्षा करेंगे-श्रीकृष्ण, भक्त-गण, वैष्णव-गण। परन्तु भिक्षा के रुपयों में से जो अपने लिए जमा करने की चेष्टा करते है उनका सारा परमार्थ चूल्हे में चला जाएगा, हरिभजन नहीं होगा। पैसा जमा नहीं करना, जो भी हो उसे सारा मठ रक्षक के पास जमा करना होगा। जब कुछ असुविधा हो तो मठ रक्षक को कहना। ये कनक की स्पृहा हरिभक्ति में बाधक है।
- हरिभक्ति में और एक रूकावट है-स्त्री संग। स्त्री के साथ स्थूल-संग, सूक्ष्म संग- दोनों प्रकार का स्त्री-संग ही हरिभक्ति में बाधक है। साक्षात् स्त्री-संग तो करना ही नहीं चाहिए, ऐसा कि मन में भी उस के बारे में चिन्तन या ध्यान नहीं करना, क्योंकि हम लोग सब कुछ छोड़ कर हरि-भजन करने के लिए आए हैं।
- और एक रूकावट है-प्रतिष्ठा के लिए चेष्टा। गुरुदेव कहा करते थे।
“ कनक कामिनी प्रतिष्ठा बाघिनी,
छाड़ियाछे यारे सेई त’ वैष्णव।
सेई अनासक्त सेइ शुद्ध भक्त,
संसार तथाय पाय पराभव।।’’
(प्रभुपाद रचित ‘वैष्णव के’ गीत से)
प्रभुपाद जी ने कनक, कामिनी और प्रतिष्ठा की बाघिनी (शेरनी) के साथ तुलना की है। प्रतिष्ठा खतरनाक है, लेकिन प्रतिष्ठा नहीं चाहते हुए जो लोग हरिभजन करते हैं, उनके पास प्रतिष्ठा स्वयं आ जाती है। लोग स्वाभाविक रूप से उनका सम्मान करते है। प्रतिष्ठा के डर से श्रीपाद माधवेन्द्र पुरीपाद भाग गए थे। परन्तु श्रीकृष्ण प्रेमी होने के कारण प्रतिष्ठा उनके पीछे-पीछे चली। इसलिए तुम इन तीन बाधाओं को त्याग देना। यह बहुत आसानी से नहीं जाती है। ये सब चित्त को खींच लेती हैं। अर्थ की आकांक्षा, स्त्री-भोग की आकांक्षा व प्राकृत यश की आकांक्षा-ये तीन बद्धजीव की आकांक्षाएँ हैं। साधक में ये अनर्थ रहते हैं। लेकिन हम इन्हें प्रश्रय नहीं देंगे। इन्हें हम बाहर निकाल फैंकेगे। हम कभी भी इनका समादर नहीं करेंगे।
तीर्थ महाराज के लिए सब समय यहाँ पर (कोलकाता) रहना सम्भव नहीं है, इसलिए जगमोहन प्रभु को सब देखभाल करनी होती है। मेरी हस्पताल में जाने की इच्छा नहीं थी लेकिन वैष्णवों की इच्छा पूर्ति के लिए जा रहा हूँ।
मेरी कर्कश कथा में कारण तुम लोग दुःख न मानना।मुझे क्षमा करना, जो वैष्णवजन हैं, वे लोग मेरे सेव्य हैं। मैं सब की ही सेवा करना चाहता हूँ। तुम लोग सब निष्ठा के साथ हरिभजन करना। जैसी भी अवस्था में रहो, हरिभजन कभी मत छोड़ना। यही मेरी तुम लोगो के पास प्रार्थना, अनुरोध, वान्छा और उपदेश है। हरेक अवस्था में तथा सभी जगहों पर तुम लोग हरि-भजन करना। श्रेष्ठ वैष्णव को हर समय सम्मान देना। इस में किसी प्रकार का संकोच न करना। इससे मंगल होगा।
वान्छा कल्पतरुभयश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।