Harikatha

साधन-चेष्टा का फल क्यों नहीं मिलता?; एक वृद्धा महिला के संशय का निवारण

[यह प्रसंग सन् 1954 में जालन्धर प्रचार के दौरान घटित हुआ। उस समय श्रील गुरुदेव विभिन्न मंदिरों में भागवत् पाठ कर हरिकथामृत वितरण करते थे। श्रील गुरुदेव प्रतिदिन प्रातःकाल श्री नोहरिया मन्दिर में भागवत-शास्त्र के माध्यम से उपदेश प्रदान करते थे। नोहरिया मन्दिर में श्रीसीता-राम, श्रीहनुमान जी की मूर्तियाँ और शिवलिंग विराजित थे। यह प्रसंग मंगल चाहने वाले साधकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।]


प्रसंग कुछ इस प्रकार से है कि एक वृद्धा महिला ने दो दिन हरिकथा सुनने के पश्चात् श्रीगुरुदेव जी से पंजाबी भाषा में एक प्रश्न किया। श्रीलगुरुदेव जी पंजाबी भाषा अच्छी तरह नहीं समझ पाते थे। वे प्रवचन हिन्दी में ही करते थे। वृद्धा की बात का सही तात्पर्य न समझ पाने पर उन्होंने नारायण ब्रह्मचारी (जिनका पूर्वाश्रम लुधियाना, पंजाब में है) से पूछा तो नारायण ब्रह्मचारी ने बताया की वृद्धा का प्रश्न यह है कि वह पचास वर्षों से सीता राम मन्दिर में आ रही है, यहाँ तक कि एक दिन का भी नागा उसने नहीं किया। वह (50 सालों से) प्रतिदिन ठाकुर जी की आरती दर्शन, मन्दिर परिक्रमा एवं हरिनाम करती आ रही है तथा किसी के भी द्वारा गीता, भागवत् व रामायणादि का पाठ करने पर वह सुनती भी है। वह नियमित रूप से इसी प्रकार करती आ रही है और अब बूढ़ी हो गई है किन्तु उसका सीताराम जी में बिन्दु मात्र भी प्रेम नहीं हुआ जबकि उसकी संसार में पुत्र-कन्या, नाती-पोतों में और भी आसक्ति बढ़ गई है, इसका क्या कारण है?
यदि भगवान में प्रेम ही नहीं हुआ तो इन सब साधनों का फल क्या है?
वृद्धा का प्रश्न सुनकर श्रील गुरुदेव जी बहुत ही प्रसन्न हुये। उन्होंने उस दिन की सभा में ही वृद्धा को बात को उठाते हुये कहा कि जो यहाँ पर प्रतिदिन मन्दिर में ठाकुर जी के दर्शनों के लिये आते हैं उन सब के लिये इस विषय में सुनना उचित है। मैं कल की सभा में ही इस प्रश्न का उत्तर दूँगा।
अगले दिन प्रातः श्रील गुरुदेव जी ने वृद्धा के प्रश्न की अवतारणा करते हुये सबसे पहले उनसे यह जानना चाहा, कि क्या उन्होंने कभी किसी दिन किसी से सीता-राम जी के स्वरूप, अपने स्वरूप, जगत् के स्वरूप व सीता-राम जी के साथ उनका क्या सम्बन्ध है- इन सब विषयों के बारे में जिज्ञासा की है या भेड़ चाल की तरह ही वे मन्दिर में आ रही हैं अथवा कभी किसी से इन सब विषयों की जिज्ञासा करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की?
क्योंकि सम्बन्ध-ज्ञान के उदय हुये बिना कभी भी भगवान् में प्रीति नहीं हो सकती। सम्बन्ध-ज्ञान के द्वारा ही प्रीति होती है। व्यवहारिक जगत् में किसी के परिचय पूछे जाने पर हम उसे सांसारिक परिचय ही देते है जैसे अमुक मेरे पिता है, अमुक मेरी माता है, मैं अमुक का पुत्र, पति व स्त्री इत्यादि हूँ। सांसारिक सम्बन्धों का ज्ञान रखकर ही हम मन्दिर में आते हैं, ठाकुरजी के दर्शन करते हैं, हरिकथा आदि सुनते है व सभी कुछ करते हैं- इन सब साधनों से भगवान् में प्रीति तो होती ही नहीं बल्कि संसार में ही आसक्ति बढ़ती है। इन सब कार्यों को पुण्य व धर्म कहते हैं, भक्ति नहीं कहते।
अभिमान ही कर्म का प्रवर्त्तक है। प्राकृत अस्मिता- मैं संसार का हूँ, ये भावना या वृत्ति परित्यज्य है किन्तु अप्राकृत अस्मिता कि मैं भगवान् का दास हूँ, इस प्रकार की वृत्ति परित्यज्य नहीं है।
मैं संसार का हूँ- इसी ज्ञान से हम संसार के लिये, स्त्री-पुत्र आदि के लिये कार्य करते हैं। मठ मन्दिर में आने पर भी संसार के स्वार्थों की सिद्धि के लिये ही आते हैं, भगवान् के लिये नहीं आते। यह स्वाभाविक ही है कि जहाँ पर हमारा अभिमान होगा, जिनके लिये हम कार्य करेंगे, उनके प्रति ही हमारी प्रीति होगी। जब मैं समझूंगा कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् से ही सब प्रकार से मेरा नित्य सम्बन्ध है, अर्थात् अप्राकृत शुद्ध-अस्मिता जब प्रकट होगी, तब भगवद्-प्राप्ति ही मेरी सबसे बड़ी आवश्यकता है, ऐसा ज्ञान हो जाएगा तथा तब मैं स्वाभाविक ही भगवान् के लिये कार्य करूँगा। भगवान् में स्वार्थबोध अर्थात् भगवान् ही हमारी परम आवश्यकता हैं, ऐसा ज्ञान होने पर मैं अपने को एवं अपना कह कर जो कुछ है वह सब भगवान् को अर्पित कर पाऊँगा। इस प्रकार की अवस्था में ही भगवान् में प्रीति और प्रेम होना सम्भव है। सद्गुरु या शुद्ध-भक्त की कृपा से सम्बन्ध उदय होता है। सम्बन्ध-ज्ञान से पहले भगवान् की आराधना सम्भव ही नहीं होती। हम लोग सम्बन्ध-ज्ञान की प्राप्ति के लिये अधिक ध्यान नहीं देते, इसीलिये उपयुक्त फल भी प्राप्त नहीं कर पाते। सम्बन्ध-ज्ञान के पश्चात् अभिधेय (अर्थात् साधन) तथा साधन के द्वारा प्राप्त वस्तु को प्रयोजन कहते हैं। सनातन धर्म के शास्त्रों में तथा सभी महानुभावों में उपदेशों में तीन विषय ही विशेष रूप से आलोचित हुये हैं- सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन। पारमार्थिक जीवन की प्रथम सीढ़ी सम्बन्ध-ज्ञान ही है।