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Harikatha

हरिनाम करने की योग्यता / अपराध वर्जन कर हरिनाम कैसे होगा

[अपना निष्कपट मंगल चाहने वाले साधकों के प्रति श्रीगुरुदेव जी की उपदेश वाणी]

 

ज्ञान ही सब वस्तुओं का कारण है। चिद्-अचिद् शक्ति का अखण्ड ज्ञान का ही अन्वय-व्यतिरेक प्रकाश है। इसलिए मूल में, अखण्ड ज्ञान या ब्रह्म, परमात्मा अथवा भगवान् ही हैं। ज्ञान में अज्ञान के लिए कोई जगह नहीं होती, इसलिए ब्रह्म या भगवान् में किसी दोष की कोई आशंका ही नहीं हो सकती। किन्तु भगवत्-शक्ति के किसी-किसी प्रकाश में अवस्था के भेद से त्रुटि दिखायी पड़ती है। चित्-शक्ति में कोई दोष नहीं है, किन्तु उपाधिभूत चित्-शक्ति-कणों में तात्कालिक दोषादि दिखाई देते हैं। यह अज्ञान, भगवत्-विमुखता से ही उत्पन्न होता है। सर्वशक्तिमान् तत्त्व श्रीभगवान का दर्शन अथवा उनकी अनुभूति, उनकी इच्छा या उनकी कृपा बिना सम्भव नहीं है। भगवान् का कोई कारण नहीं है। वे अकारण हैं। उनके प्रति समर्पित एकान्त-भक्त को ही उनकी कृपा से उनके दर्शन व उनकी अनुभूति सम्भव है। स्वतः प्रकाशित भगवत्-तत्त्व से अभेद स्वीकार करने वाले स्थानीय सेवक की सत्ता ही सद्गुरू कहलाती है। तत्वतः श्रीगुरुदेव ही जगद्गुरु हैं व भगवत्-प्रकाशक हैं। श्रीगुरुदेव जी को इसलिए श्रीभगवत्-प्रकाश-विग्रह कहा जाता है, क्योंकि जैसे श्रीभगवान पूर्ण हैं व आत्माराम हैं, इसी प्रकार गुरुदेव जी भी पूर्ण हैं व आत्माराम हैं। परमात्मा में ही गुरुदेव की रति-प्रीति है। श्रीभगवद्-रंजन सेवा में ईंधन प्रदानकारी या सहायक ही उनका वैभव हैं व उनके नित्य किंकर हैं। श्रीगुरुदेव जी का भगवत्-सेवा छोड़कर और कोई दूसरा कृत्य नहीं है। निरन्तर भक्ति के कारण ही श्रीगुरुदेव की सत्ता है। आचरण में वह सत्ता दो प्रकार से देखी जाती है- भगवान की सेवा व दूसरों पर कृपा। उक्त कृपा भी एक प्रकार की भगवद् सेवा ही है। भक्त के चरित्र में भक्ति के अलावा और किसी भी भावना का अधिष्ठान नहीं होता। श्रीगुरु- उत्तम भक्त की लीला- अभिनयकारी हैं। अनन्य-भक्त गुरुदेव में, दोष का कोई अवसर नहीं है। कृष्णेतर-वाँच्छा ही दोष का मूल कारण है। श्रीगुरुदेव स्वयं अपनी तमाम इन्द्रियों के द्वारा, श्रीकृष्ण का आनुकूल्य अनुशीलन करते हैं, अतः वे अनुकूला हैं तथा उनके अनुकूल चलने वाले ही भक्ति पथ के अधिकारी हैं।

साधक के या श्रीगुरुचरणाश्रित व्यक्तियों के चित्त में अन्याभिलाष- कर्म, ज्ञान की मैल या भक्ति-मुक्ति-सिद्धिवाँच्छा आदि अवान्तर उद्देश्य रहने तक, उनको श्रीगुरुदेव या अनन्यभक्त के चित्त का सम्यक् अनुसरण करने या उनके दर्शन करने में बाधा रहती है। ऐसी अवस्था में, यह वस्तु की यथार्थ उपलब्धि ना कर पाने के कारण अपनी गलती का आरोप, अनन्यभक्त या श्रीगुरुदेव में आरोपित करता है तथा मूल में ही गलती है-ऐसा कह कर अपनी त्रुटि-विच्युति की सफाई देने में व्यस्त रहता है। इस प्रकार प्रतिष्ठा की आशा से, कपटता का आश्रय लेकर, भक्त व श्रीगुरु-चरणों में अपराधों को इकट्ठा करने की व्यवस्था करता रहता है। इन अपराधों का पता लगने पर भी यदि इनका मार्जन न होगा, तो धीरे-धीरे अपराधों के ढेर बढ़ जायेंगे और वैष्णव व गुरु की अवज्ञा और निन्दा एवं अन्त में भगवत्-विद्वेष शुरू हो जाएगा। तब वह सबके मूल- भगवान की गलती या दोष दिखाने के कमर कस लेगा। ऐसी अवस्था में आनुषंगिक भाव से, पहले उसे विषयी और बाद में घोरतर आसुरिक स्वभाव-संपन्न होना होगा।

अपनी गलती को देखने की कला से सीखने सुधरने का सुयोग है। कनक-कामिनी-प्रतिष्ठा का लोभी व अनर्थों में फंसा मनुष्य, साधु-संग के प्रभाव से निःश्रेयसार्थी अर्थात् मंगल-प्रार्थी हो जाता है तथा तब वह श्रीमन् महाप्रभु के शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक में वर्णित उपदेश का सार-मर्म अनुसरण और उपलब्धि करने के लिए यत्नशील होता है।

तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्त्तनीयः सदा हरिः।।
(शिक्षाष्टक श्लोक 3)

सर्वपददलित अत्यन्त तुच्छ, तृण से भी अपने को दीनहीन समझकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील बनकर, स्वयं अमानी होकर तथा दूसरों को यथायोग्य मान देनेवाला बनकर निरन्तर श्रीहरिनाम संकीर्त्तन करता रहे।

दुनियावी अभिमान से रहित होने के लिए, अप्राकृत विष्णु-वैष्णव-दास्य अभिमान प्रबल करते रहना होगा। ऐसा करने के फलस्वरूप थोड़े समय में ही ‘तृणादपि-सुनीच’ शब्द का तात्पर्य प्रकशित होगा। अन्यथा, निरन्तर नाना प्रकार के प्राकृत-अभिमानों से आघात प्राप्त होकर सर्वथा ही क्षुब्ध और अशान्तिपूर्ण जीवन यापन करना होगा व अन्य-अन्य व्यक्तियों को भी बेचैनी प्रदान करने में बाध्य होना होगा। दुनियावी कामनाएँ-वासनाएँ आध्यात्मिक उन्नति में लाभ तो देती ही नहीं बल्कि ये तो दुनियाँ में भी दुःख पहुँचाने वाली हैं। अतः विभिन्न प्राकृत कामनाओं द्वारा संचालित होना होगा व सर्वदा ही असहनशील होकर, स्वयं बेचैन रहना पड़ेगा और दूसरों को भी क्लेश देने वाली दुरावस्था से रिहाई प्राप्त करने की कोई भो सम्भावना नहीं होगी। असहनशीलता द्वारा अपने दुःख को निमन्त्रण करना होता है एवं अभीष्ट फल की प्राप्ति से वन्चित होना होता है। इसलिए ‘तरोरपि सहिष्णुता’ उपदेश के अनुसरण के चेष्टा, साधक के लिए बहुत जरुरी है। बड़ा कहलाने की आकांक्षा करने से व दूसरों से सम्मान प्राप्ति की इच्छा रहने से, दूसरों से मान-सम्मान, सेवा-पूजा न मिलने की कला सीखने एवं श्रेष्ठ वस्तु के महत् गुणावली के प्रति दृष्टिपात कर सकने से श्रीमन् महाप्रभु द्वारा कथित ‘अमानी’ होकर सुख से जीवन यापन कर सकते हैं। अपने प्रियतम और परम सेव्य श्रीभगवान् का सम्बन्ध जीव मात्र में दर्शन करके मानद हो जाने पर, निर्विध्नता से श्रीहरि-भजन का सुयोग होता है एवं ह्रदय में स्वाभाविक दीनता आदि गुणों के आ जाने से वास्तविक शरणागति प्राप्त करने की समर्थता आती है।

अन्याभिलाषी व्यक्ति अपनी कामनाओं का ईंधन प्राप्त होने पर अपने आप को सेव्य समझने लगता है। यही नहीं, स्वयं को सेव्य समझने के कारण वह हमेशा कामनाओं का ईंधन प्रदान करने वाले की सेवा के लिए व्याकुल रहता है। किन्तु जैसे ही उक्त कामना की परितृप्ति ने बाधा प्राप्त होगी; वह उसी समय अपने कल्पित-सेव्य का सिर काटने में भी आनाकानी नहीं करेगा। जबकि भक्ति मार्ग में इस प्रकार की आशंका नहीं है। निष्काम-व्यक्तियों के बिना कोई भी शुद्ध भक्तिपथ में अग्रसर नहीं हो सकता। निष्काम-व्यक्ति ही वास्तव-वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने में व उसकी यथार्थ उपलब्धि करने में समर्थ हैं। वे मूल में दोष नहीं देखते। श्रीभगवान् में और अनन्य भक्त में गलती की कल्पना करने से पहले, अपने चित्त को उत्तम रूप से भक्तिभाव से परीक्षा करके देखो तो पता चलेगा कि दोष कहाँ पर है।

{श्रीनाम भजन ही श्रीचैतन्यदेव जी की शिक्षा का सार है।}