सत्य की खोज

कलयुग में अधम प्राणियों की दुखद दुर्दशा को देखकर स्वयं श्रीकृष्ण अहैतुकि कृपा प्रकाशित करते हुए श्रीमती राधारानी का भाव और अंग-कांति को स्वीकार करके पतित जीवों के उद्धार के लिए श्रीमायापुर धाम (नदिया, पश्चिम बंगाल) में श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में आविर्भूत हुए। जब भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु 1486 ईसवी में अवतरित हुए, उस समय बंगाल में मुस्लिम शासक हुसैन शाह का राज चल रहा था। श्रीसनातन गोस्वामी उनके प्रधानमंत्री थे तथा श्रीरूप गोस्वामी एक महत्वपूर्ण तथा जिम्मेदार अधिकारी थे। तब बंगाल की राजधानी मालदह थी। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी श्रीसनातन गोस्वामी और श्री रूप गोस्वामी से पहली बार इन मालदह के रामकेली गांव में मिले थे। प्रथम दर्शन में ही दोनों श्रीचैतन्य महाप्रभु के अत्यंत प्रभावशाली अलौकिक व्यक्तित्व की ओर आकर्षित हो गए थे। श्रीमन् महाप्रभु ने दोनों को संसारिक जीवन त्याग करने तथा जब वे वृंदावन जाएंगे,  तब उन्हें भी साथ चलने को कहा था। सर्वप्रथम जब श्रीरूप गोस्वामी तथा उनके छोटे भाई श्रीअनुपम को खबर मिली कि श्रीमन् महाप्रभु वृंदावन के लिए रवाना होने वाले हैं, तब वे भी पारिवारिक जीवन को त्यागकर वृंदावन के लिए रवाना हो गए। बाद में श्रीसनातन गोस्वामी, जिन्हें राजा हुसैन शाह ने कैद कर रखा था, किसी तरह जेल से बाहर निकले और मुख्य रास्तों से बचते हुए गांव के मार्ग से वृंदावन की ओर चल दिए। जब वे बनारस (काशी) पहुंचे तो उन्हें जानकारी मिली कि महाप्रभु चंद्रशेखर वैद्य के आवास पर ठहरे हुए हैं। वे वहाँ गए और विनम्रता पूर्वक श्रीमन महाप्रभु के चरण कमलों में दंडवत् हो गए, और पूछा “मैं कौन हूं? मैं इस त्रिताप में क्यों जल रहा हूं? मुझे नहीं पता कि मेरा नित्य मंगल कैसे होगा। मैं अपने जीवन के चरम लक्ष्य के बारे में जानने और उसे प्राप्त करने के बारे में सक्षम नहीं हूँ। कृपया मुझे मूल पारमार्थिक सिद्धांत से अवगत कराईये।”

          भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने अंतरंग पार्षद श्रीसनातन गोस्वामी के माध्यम से सभी मनुष्यों को निर्देश दे रहे हैं कि जब किसी व्यक्ति का सांसारिक बंधन से मुक्ति का समय आ जाएगा तो वह किसी सद्गुरु से इस प्रकार तत्व-सिद्धांत विषयक जिज्ञासा करेगा। भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु गुरु की भूमिका निभा रहे हैं तो श्रीसनातन गोस्वामी शिष्य की भूमिका में है। एक निष्कपट शिष्य को सत्य की खोज करनी चाहिए तथा नित्य एवं अनित्य के बीच जो अंतर है उसे समझने का प्रयास करना चाहिए।

          भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने उक्त सभी प्रश्नों के उत्तर ‘सम्बन्ध’,   ‘अभिधेय’ तथा ‘प्रयोजन’ की व्याख्या करते हुए दिये। सम्बन्ध का अभिप्राय है—भगवान्, आत्मा एवं संसार क्या है तथा इनका एक-दूसरे से क्या सम्बन्ध है, इस बात का ज्ञान; अभिधेय का अर्थ है—भक्ति के विभिन्न अंगों का पालन (साधन); प्रयोजन अर्थात—जीवन का परम लक्ष्य, जीवन की वास्तविक आवश्यकता। श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी द्वारा लिखित श्रीचैतन्य चरितामृत में इस विषय पर विस्तार से चर्चा की गई है। उस पर यहां विस्तार से बताना संभव नहीं है। मैं इस विषय पर संक्षेप में दो-चार मूल बातों की चर्चा करूंगा।

         भगवान् श्रीकृष्ण परम सत्य हैं। वे सभी कारणों के मुख्य कारण हैं, सभी ईश्वरों के ईश्वर हैं। वही हर वस्तु के मूल हैं। वे अजन्मा हैं। वे सब जगह व्याप्त हैं, सब कुछ जानते हैं तथा पूर्ण आनन्द के मूर्त विग्रह हैं। श्रीकृष्ण की अनंत शक्तियाँ हैं। उनमें से मुख्य तीन शक्तियां हैं—

(1) अंतरंगा शक्ति
(2) बहिरंगा शक्ति तथा
(3)  तटस्था शक्ति

आप सब को मेरा स्नेहाशीष। परम दयालु श्री गुरु गौरांग आप पर कृपा करें।