पत्र-पीयूष – 1

श्री श्रीगुरु-गौरांगौ जयतः

( जगद्गुरु ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद् भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज जी के स्व-लिखित पत्रों का अपूर्व संग्रह)

विषय –
* शुद्ध वैष्णव कभी भी अपराधी नहीं होते;
* महाजनगण ही जीव को अपराध के दलदल से उद्धार करने में समर्थ;
* जगत के धन से अप्राकृत-ग्रन्थ संग्रहीत नहीं होते;
* सरलता के द्वारा ही ग्रन्थ रूपी वाणी-विग्रह की सेवा प्राप्ति सम्भव;
* शरणागति न रहने पर शास्त्र ज्ञान से केवल पाण्डित्य का अभिमान;
* गुरुपादपद्म की रसिकता।

श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयतः

श्रीदेवानन्द गौड़ीय मठ,
तेघरिपाड़ा, पोः-नवद्वीप, (नदीया )
14 जून, 1968

श्रीवैष्णवचरणे दण्डवन्नति पूर्विकेयम्,

श्रीपाद — प्रभो! आपके 12/4/68 और 28/4/68 तारीख के पत्र यथासमय प्राप्त हुए। आजकल बहुत आलसी हो गया हूँ। साथ ही साथ शारीरिक अस्वस्थता और दैव-दुर्विपाक् (देव-प्रदत्त प्रतिकूलता) से भी उसे बढ़ावा मिला है। श्रीधाम नवद्वीप की परिक्रमा के बाद मेरे जैसे अधम को कईयों ने पत्र देकर स्मरण किया है, सत्य है, किन्तु मैं किसी एक को भी पत्र का उत्तर देकर साधारण शिष्टाचार तक की रक्षा नहीं कर सकाइसलिए वैष्णवों के समक्ष मैं आन्तरिक रूप से दुःखित और विशेष लज्जित हूँ। आपके सामने इसलिए मैं बारम्बार भूल स्वीकार करता हूँ।

शुद्ध वैष्णव कभी भी अपराधी नहीं होते

नवद्वीप परिक्रमा के बाद अपने घर लौटते समय मुझसे भेंट नहीं कर पाने के फलस्वरूप आपने किस प्रकार अपराध किया है, ठीक से समझ नहीं सका। वास्तव में अपराध हुआ था या नहीं – इसका निर्णय कौन में – करेगा? वैष्णवों के अपराध का विचार करने की क्षमता किसमें है? ‘वैष्णवों का अपराध — ये दोनों शब्द भी भ्रमित करने वाले हैं। यह ‘सोने से निर्मित पत्थर की थाली’ या ‘कटहल से बना आमपापड़’ आदि इन कहावतों के समान ही असम्भव है। और अपराध किसके द्वारा मार्जित होगा, वह भी मुझे पता नहीं है। 

महाजनगण ही जीव को अपराध के दलदल से उद्धार करने में समर्थ

यदि कहते हैं कि, गुण्डिचा मार्जन की तरह सम्मार्जनी (झाडू) की आवश्यकता है, तो वह (झाडू) भी किस प्रकार का है? हृदय रूपी गुण्डिचा के मार्जन के लिए जिस योग्यता की आवश्यकता है, उसके अधिकारी के रूप में हमारे गुरुवर्ग में से एकजन ने अपना परिचय प्रदान किया है। वे हैं — सच्चिदानन्द ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिविनोद ठाकुर। उन्होंने स्वयं को नामहट्ट के झाडूदार के रूप में प्रकाशित किया है। ये समस्त महाजनवर्ग ही असत् – तृष्णा, हृदय दुर्बलता, कुटिनाटी (बुरे और निषेध विचार), लाभ-पूजा-प्रतिष्ठाशा रूपी अपराध के दलदल से जीवों का उद्धार करने में समर्थ हैं — ये सब ही वास्तविक वदान्य – महावदान्य श्रीगौरसुन्दर के निजजन–श्रीगौर शक्ति स्वरूप हैं।

प्राकृत धन से अप्राकृत-ग्रन्थ संग्रहीत नहीं होते

मैंने आपके लिए ग्रन्थ आदि खरीदकर महा-अनर्थ कर दिया है। धन के बदले क्या ग्रन्थादि (अप्राकृत परब्रह्म का शाब्दिक अवतार) संग्रह किये जा सकते हैं? प्राकृत (जागतिक) धन के द्वारा क्या अप्राकृत “अमूल्य सम्पद” का संग्रह किया जा सकता है ? “अप्राकृत वस्तु नहे प्राकृत गोचर” (अप्राकृत वस्तु का दर्शन कभी जड़ नेत्रों से नहीं किया जा सकता है ) — यही इस सम्बन्ध में श्रेष्ठ प्रमाण है। काशिम- बाजार के महाराजा ने जब नवद्वीप में एकखंड भूमि संग्रह करने का प्रयास किया था तो श्रील गौरकिशोरदास बाबाजी महाराज ने उस राजा पर शासन करते हुए कहा था — “महाराज के पास कितनी धन-सम्पत्ति है कि, वे चिन्मय नवद्वीप धाम का एक रेत-कण, जोकि, चिन्तामणि-स्वरूप है, उसका मूल्य चुका सकें?”

सरलता के द्वारा ही ग्रन्थ रूपी वाणी-विग्रह की सेवा प्राप्ति सम्भव 

किन्तु मैं इस बात को स्वीकार करने को बाध्य हूँ कि, आप अपने भजन-साधन के बल पर वैष्णवता- गुण के द्वारा ग्रन्थरूपी अमूल्य सम्पत्ति के अधिकारी बने हैं। आपका स्वाभाविक सरलता गुण, जो वैष्णव ब्राह्मण की प्रकृतिगत (स्वाभाविक ) सत्ता है, उसके द्वारा ही आपको वाणी-विग्रह की सेवा का सुअवसर मिला है। आपने सत्य ही लिखा है, — “श्रीगुरु- वैष्णवों की अहेतुकी कृपा के बिना शास्त्र – ग्रन्थ आदि से सार संग्रह करना अत्यन्त कठिन कार्य है।” यह नित्य सत्य वाक्य मुझपर भी लागू होता है। बहुत वर्षों तक मठ में निवास कर बहुत ग्रन्थ आदि का अध्ययन कर लाख नाम जप करने के बाद और बहुत सेवा का दिखावा करके भी “बामा मांझी की तरह” अपने उस नदी के घाट पर ही पड़ा हूँ। देख- सुनकर नदी के मांझी के भाटियाली सुर में वह गीत याद आ गया – ”

“मन माझि ले तोर बैठा ले, आमि आर बाइते पारलाम ना ।
ओ गुहिन् गांगेर नाइया, बाइते बाइते जन्म गेल बाइया ।।”

(मनरूपी मांझी तू अपनी पतवार ले ले, मैं और इसे चलाने में असमर्थ हूँ। इस गहरी नदी में नाव चलाते-चलाते मेरा जीवन बीत गया ) ।

शरणागति न रहने पर शास्त्र ज्ञान से केवल पाण्डित्य का अभिमान

“अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः।
सेवोन्मुखे हि जिहादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः।।”

(अतः श्रीकृष्ण के नाम, रूप आदिइन्द्रियों के द्वारा ग्रहणीय नहीं होते हैं; सेवोन्मुखी होने पर वे स्वयं जिहा आदि पर स्फुरित होते हैं), “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यः” (यह परमात्मा प्रवचन के द्वारा नहीं प्राप्त होते हैं ) – इस शास्त्र – महाजन वाणी की समस्त जानकारी होने पर भी हममें submission (समर्पण) का अभाव । विद्यामदे धनमदे वैष्णव ना चिने।”, “पंडित कुलीन, धनीर बड़ अभिमान” (विद्या के मद में, धन के मद में वैष्णव को नहीं पहचाना पंडित, कुलीन धनी व्यक्तियों को बहुत अभिमान रहता है) आदि वाक्यों को शास्त्रकारों ने हमारे जैसे अभिमानी, स्वयं को पंडित मानने वाले व्यक्तियों के लिए ही लिपिबद्ध किया है। फिर किस प्रकार शास्त्र – ग्रन्थों की चर्चा करनी होगी, इसका भी विधान दिया है

“जाह भागवत पढ़ वैष्णवेर स्थाने।
एकान्त आश्रय कर चैतन्यचरणे ।।
चैतन्येर भक्तगणेर नित्य कर संग ।
तवे त जानिवा सिद्धान्त- समुद्र-तरंग ।।”

(वैष्णवों के स्थान पर जाकर भागवत पढ़ो, अनन्य रूप से श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणों की शरण ग्रहण करो । चैतन्य महाप्रभु के भक्तों के संग में रहो, तभी तुम्हें सिद्धान्त रूपी समुद्र की तरंगों के सम्बन्ध में जानकारी मिलेगी)। अतः प्रत्येक क्षेत्र में ही प्रणिपात (समर्पण), परिप्रश्न ( दीनता सहित जिज्ञासा) और सेवा ही भक्ति में उन्नति चाहने वालों के लिए अपरिहार्य (अत्यज्य) प्रवृत्ति या Common factor है।

गुरुपादपद्म की रसिकता

मेरे “नाक का असुख” (नाक का कष्ट) ठीक हो गया है। शूर्पनखा के नाक-कान कट गए थे और मेरी नाक टूट गई थी। जो भी हो, नाक-कटना और नाक-कान दोनों कटने की अपेक्षा, नाक टूटने को मैंने अच्छा ही समझा है। नाक-कान कटने पर लोग ‘नाक-खत’ ( ज़मीन पर नाक घिसाने की सज़ा) देते हैं। और नाक टूटने पर लोग नाक सिकुड़ लेते हैं। ‘नाक-खाँदा’ (चिपटी नाक वाले) लोगों को देखकर भी लोग नाक सिकुड़ लेते हैं। जो भी हो, मेरी नाक टूटने पर शल्य चिकित्सकों (Surgeons) ने खैर मेरा अनुरोध ठुकराया नहीं और इसीलिए मुझे ‘नाकानि – चुबानि ‘ ( बहुत असुविधा ) का सामना नहीं करना पड़ा या मुझे ‘नाकाल’ (परेशान) भी नहीं किया । मन ही मन सोचा था कि, नाक टूटने पर शायद मेरे ‘नाकी सुर’ (नाक से बोलने) में कुछ परिवर्तन होगा, किन्तु हाय ! उसमें दोगुणी बढ़ोतरी हो गई है। इस समय मेरा ‘नाकी सुर’ या गर्दभ रागिनी सुनकर लोग मुझे ‘नाकेश्वरी’ समझकर मेरा वध ही न कर दें — यही आशंका है। ‘नाकेश्वरी’ – एक प्रकार के ‘चीता – बाघ’ (तेंदुआ) का नाम है। तिलक लगाकर बैठने पर, फिर कहीं तेंदुआ समझकर, तिलक के विरोधी लोग, मुझे यमलोक न भेज दें!

श्रीपाद नारायण महाराज, परिक्रमा के बाद इस क्षेत्र में आये थे। 10/12 दिन रहकर मथुरा लौट गये । अब मथुरा मठ में समस्त दायित्व ग्रहण कर स्वस्थ शरीर से ही अवस्थान कर रहे हैं। श्रीपाद त्रिविक्रम महाराज, ‘शिरोमणि’ (बंगाल) में रहते हैं, बीच-बीच में कलकत्ता और चुचुड़ा मठ में आकर रहते हैं। विष्णुदैवत महाराज, ‘हुलोर-घाट’ (मायापुर) में आश्रम महाराज के मठ में भजन कर रहे हैं। कभी-कभी मठ में आते हैं। इति—

वैष्णवदासानुदास–
श्रीभक्तिवेदान्त वामन