पत्र-पीयूष – 2

विषय –

गुरुपादपद्म की गुरु भ्राता सहित रसिकता; 
चेष्टा नहीं  करके केवल कर्मफल की दुहाई देने से साधक की सिद्धि प्राप्ति असंभवः ; 
जागतिक सुविधा-प्राप्ति को वास्तविक ‘कृपा’ नहीं कहा जाता; 

विश्रम्भ सेवक के द्वारा सभी सुयोग सुविधाओं का भगवत् सेवा में नियोगः; 
गुरुसेवैकनिष्ठ भक्त का घर ही मठ;

रसिकता के छल से अपने स्वरूप का आभास प्रदान;   
दूसरों का उदाहरण देखकर सावधान होना बुद्धिमत्ता और भजन – चतुरता।

श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयतः

 

श्रीकृष्णप्रसाद दासाधिकारी
श्रीनिमानन्द क्लॉथ स्टोर्स
उकीलपाड़ा, पोः— रायगंज
( पश्चिम दिनाजपुर ) उत्तर बंग
5 मई, 1971

श्रीवैष्णवचरणे दण्डवन्नति पूर्विकेयम्
…….प्रभो! आपका 5/3/71 तारीख का पत्र यथासमय नवद्वीप में प्राप्त हुआ था । 

गुरुपादपद्म की गुरु भ्राता सहित रसिकता

बहुत दिनों तक मेरा समाचार और पत्र आदि प्राप्त नहीं हुआ, इसमें चिंता की क्या बात है, समझ नहीं सका। मेरे लिए कोई सोचता है कि नहीं, यह मुझे पता नहीं था। पत्र पाकर पता चला कि — मैं एकदम बेसहारे की मौत नहीं मरूँगा — “मरणंच गोमती तीरे”— ‘गोभागाड़’ (जहाँ मृत गायों को रखा जाता है, उस स्थान ) पर मात्र पाँच कौड़ी मूल्य के प्राण को खोना नहीं पड़ेगा। 5/3/71 तारीख के पत्र का उत्तर दो महीने बाद दे रहा हूँयह निश्चय ही “कृपालिपि” के समान है। स्वाधीनता के युग में “यह आज़ादी झूठी है” नारा देने के बाद भी आजकल स्वेच्छाचारिता और मनमर्जी ही ‘कृपा’ – शब्द के रूप में मान्य होती है। इसी प्रकार की कृपासिक्त लिपि पाकर भी यदि किसी को या कुछ लोगों को सुख अनुभव होता है, तो उसमें आपत्ति क्या है? मैंने सस्ते में ही शिकस्त दे दी । यही मेरा विशेष लाभ है।

मेरे प्रचार का पता जानने के लिए तुमने नवयोगेन्द्र को पत्र दिया था, उसने कोई पता बताया नहीं या बता नहीं सका। परिब्राजक’ तथा देहाती भाषा में ‘घुमक्कड़’ का फिर कोई निर्धारित पता कैसे हो सकता है ? “भोजनं यत्र तत्र शयनं हट्टमंदिरे” (जहाँ-तहाँ भोजन और हाट-बाज़ार में शयन) की अवस्था प्राप्त होने के कारण ही ‘घुमक्कड़’ का खिताब मिला है। नवयोगेन्द्र ही क्यों, चतुःसन, नारद आदि और यहाँ तक कि भगवान् के बस की बात भी नहीं है कि वे भवाटवी (संसार रूपी वन) के ठिकाने को ढूँढ निकालें। ‘‘देवाः न जानन्ति, कुतो मनुष्याः”— देवताओं के लिए ही वह असंभव है, मनुष्यों का क्या कहना ! इधर बीच-बीच में मेरी निःसंग (अकेले) जीवन यापन करने की खूब इच्छा होती है। इसीलिए छिपकर अज्ञात वास की चेष्टा करता हूँ। किन्तु प्रधान आश्रम में खाद्य अभाव हो जाने पर C.I.D. Co की तत्परता बढ़ जाती हैं, तब वे आकाश-पाताल को एक करके मेरे गुप्त ठिकाने को ढूँढ़ लेते हैं और मैं भी उनके हाथों बंदी होकर “विचाराधीन अपराधी” के रूप में पकड़ा जाता हूँ। धर-पकड़ से ही रेहाइ नहीं है, वे मेरा सब कुछ लूटकर मुझे असहाय अवस्था में दूर कहीं फेंक देते हैं। यही मेरी चरम दुर्दशा है! यह दुःख की बात किसे सुनाऊँ, और कौन ही सुनेगा? इस विश्व में मेरे कातर क्रन्दन को श्रवण करने या उस पर ध्यान देने वाला कोई भी नहीं है। बहुत भरोसा था कि, – “शुनिया आमार दुःख, वैष्णव ठाकुर। आमा लागि कृष्णे आवेदिवेन प्रचुर ।।”

(मेरा दुःख देखकर वैष्णव ठाकुर, मेरे लिए कृष्ण के पास आवेदन करेंगे )।
किन्तु “से आशा विफल, से ज्ञान दुर्बल, से ज्ञान अज्ञान जानि।।” (मुझे पता है कि, वह आशा विफल है, वह ज्ञान दुर्बल है, वह ज्ञान अज्ञान है)।

चेष्टा नहीं करके केवल कर्मफल की दुहाई देने से साधक की सिद्धि प्राप्ति असंभव

कोई श्रीधाम-परिक्रमा का संकल्प ग्रहण करता है अर्थात् ‘आसक्ति का लंगर’ उठाने का प्रयास करता है, कोई फिर संसार के प्रति आसक्ति का बहाना बनाकर “मेरा भाग्य उदय नहीं हुआ’ कहकर भक्ति- अंग याजन करने से पीछे हट जाता है। मनुष्य अपना भाग्य स्वयं ही बनाता है; आंतरिकता और निष्ठा के द्वारा उस सौभाग्य का उदय होता है। चेष्टा नहीं करके भाग्य या कर्मफल की दुहाई देने से साधक को साधन में सिद्धि प्राप्त नहीं होती है। संसार-चक्र भयावह (भयानक) है—यह बात ध्रुव सत्य है, किन्तु कृष्ण-संसार के द्वारा ही आत्म-कल्याण लाभ होता है । “कृष्णेर संसार करो, छाड़ि अनाचार” (अनाचार को छोड़कर कृष्ण का संसार करो) – यह अन्वयमुखी (सकारात्मक) उपदेश है। जानबूझकर जीव अन्याय करता है, विष पान करता है— यही बद्ध जीव का लक्षण है। बद्ध जीव, श्रेयः ( वास्तविक हितकारी) और प्रेयः (क्षणिक हितकारी ) – कौनसी वस्तुएँ हैं, यह नहीं समझता है और इसीलिए अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझकर उससे चिपक जाता है। अच्छे-बुरे का सटीक विचार यदि रहे, मनुष्य सत्-असत् विवेक में यदि प्रतिष्ठित हो, तो वह कभी भी भूल नहीं कर सकता। जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है, वे भ्रम-प्रमाद आदि चार दोषों से रहित शुद्ध जीवात्मा हैं—आत्म-अनुभूति प्राप्त साधक हैं, अर्थात् सिद्ध, नित्यसिद्ध महापुरुष, समदर्शी साधु हैं। उनकी कृपा प्राप्त करने से ही बद्धजीव धन्य होता है— उसका जीवन कृतार्थ होता है। –

जागतिक सुविधा प्राप्ति को वास्तविक ‘कृपा’ नहीं कहा जाता

श्रीगुरु- वैष्णवों की कृपा से सुविधाजनक स्थान पर Transfer हुआ है— यह निःसंदेह शुभ समाचार है। किन्तु इसे गुरु वैष्णवों की निष्कपट कृपा कहा जायेगा या नहीं? बढ़िया नौकरी मिल जाना, मामले- मुकदम्मे में विजय होना, रोग-व्याधि दूर होना आदि क्रियाओं को ‘कृपा’ कहा जायेगा कि नहीं, उस पर विचार करना होगा। पाश्चात्य देशों के Materialist ( सांसारिक लोग) कहते हैं— “God give us our daily bread”; फिर भारत में भी एक व्यापारी वर्ग के लोग “दिलाय दे राम” का उच्चारण करके भगवान से रोज़ी-रोज़गार की माँग करते हैं। फिर किसी ने “रोटी-भगवान् की उपासना के द्वारा भगवत् निष्ठा की शिक्षा दी है । वस्तुतः ये सब ही Apotheosis (जीव ही भगवान् हैं, इस विचार) के नायक हैं। श्रीगुरु-वैष्णव- भगवान् से पार्थिव (सांसारिक) वस्तु की कामना नहीं करनी चाहिए। उनसे अहेतुकी भक्ति ही प्रार्थनीय है। परमपिता श्रीभगवान् से धन-जन आदि की प्रार्थना करने को पितृ-भक्ति या भगवद्-भक्ति नहीं कहा जा सकता है। वह सांसारिक कामना-वासना के ही अन्तर्गत है ।

विश्रम्भ सेवक के द्वारा सभी सुयोग सुविधाओं का भगवान् की सेवा में नियोग

किन्तु श्रीगुरु- वैष्णव- सेवैकनिष्ठ विश्रम्भ सेवक, साधन अवस्था में, समस्त सुयोग-सुविधाओं और योग्यताओं को लाभ करता है। श्रीभगवान् से इनकी प्रार्थना नहीं करके भी उसे इन सभी वस्तुओं की प्राप्ति होती है एवं “कृष्णार्थे अखिल चेष्टाविशिष्ट “ ( कृष्ण के लिए समस्त चेष्टा युक्त) होने के कारण उनका समस्त लाभ ही भक्ति के अनुकूल होता है। इसीलिए वे कर्मी (elevationist ) या ज्ञानी ( salvationist ) की तरह स्थूल सूक्ष्म भोग का आह्वान नहीं करते हैं। वे जानते हैं—“आसक्तिरहित सम्बन्ध -सहित, विषय समूह सकलि माधव ।” ( आसक्ति रहित और सम्बन्ध सहित होने से सब कुछ माधव की स्फूर्ति दिलाता है)। उस विश्रम्भ सेवक का संकल्प है— ” तोमार धन, तोमाय दिये, तोमार हये रई । “ ( तुम्हारा धन तुम्हें देकर, मैं तुम्हारा बनकर रहता हूँ)। वे निवेदितात्मा–निष्किंचन– कृष्णैकशरण – मानद अमानी-धर्म में प्रतिष्ठित है। भगवान की भक्ति ही जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, उनी भक्तों की सेवा के द्वारा ही वास्तव में कल्याण होता है, वे ही जगद्गुरु हैं।

गुरुसेवैकनिष्ठ भक्त का घर ही मठ

श्रीव्यासपूजा के दिन जब गृह निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ है, तब वह निश्चय ही व्यासानुग गण की गद्दी या श्रीमन्दिर के रूप में ही प्रकाशित होगा। इस स्थान पर व्यास-विरोधी चिंताधारा (विचारधारा) का जैसे आदर न किया जाये और नित्यकाल पूजा-पंचक का अनुष्ठान चलता रहे। श्रीव्यासगुरु के आदर्श को लेकर चल पाने में ही जीव का कल्याण उससे अनुप्राणित होना और अन्य को प्रेरित करना श्रीव्यासगुरु के प्रति निष्ठा का परिचायक है। गुरुसेवैकनिष्ठ (गुरुसेवा गत प्राण) भक्त के द्वारा ‘श्रीगुरुपीठ’ की प्रतिष्ठा की प्रचेष्टा निश्चित ही प्रशंसनीय हैं। ‘गुरुपीठ’ का अर्थ-आश्रम, मठ, श्रीमंदिर है। इसलिए इस सम्बन्ध में ‘गृह प्रवेश की बात उठने पर भी वह भोगी या देहारामी (देह सुख में आसक्त व्यक्ति) का भोगपर निरयप्रापक (नरक में पहुँचाने वाला) ‘गृहमेध’ (गृह रूपी अग्निकुण्ड ) या ‘गृहान्धकूप’ (गृह रूपी अंधा कुँआ) नहीं है, उसको ‘मठ-प्रवेश’ ही कहा जायेगा, क्योंकि पारमार्थिक छात्रगण आश्रम या मठ में ही नित्यकाल निवास करके श्रीगुरु-वैष्णवों की सेवा में अपने को नियुक्त रखकर साधन-भजन में मन को लगाते हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम, गार्हस्थ्य-आश्रम और संन्यास आश्रम प्रत्येक में साधक-साधिका का एक ही कर्तव्य निर्णीत किया गया है। इसीलिए यहाँ गृह ही मठ और मठ ही गृह- एक ही तात्पर्यपर होकर एक ही उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं।

रसिकता के छल से अपने स्वरूप का आभास प्रदान करना

‘धादिका’ (झारखण्ड) के आश्रम में श्रीवामन के विश्राम और भजन-साधन के लिए क्या एक कुटिया की भिक्षा मिल सकती है? निश्चित ही मैं तीन पग भूमि मांगने के छल से समग्र आश्रम या आश्रम में स्थित सभी को ग्रास नहीं करूँगा-इसे मैं पहले ही शपथ लेकर कह सकता हूँ। आनुकूल्य (सहायता) लाभ करने में मैं निश्चय ही वंचित नहीं रहूँगा, क्योंकि मैं वनमाली श्रीहरि की दासी हूँ मैं, कनकद्युति श्रीराधाराणी और रसिकचूड़ामणि श्रीकृष्ण, उनकी प्रिया श्रीतुलसी के प्राधान्य को स्वीकार करता हूँ और उनके वास्तविक तत्त्व को उपलब्ध करने का प्रयास करता हूँ। थोड़ा सा रहने का स्थान मिलने पर ही अन्य वस्तुओं का संग्रह करना कष्टकर नहीं होगा। क्योंकि नींबू- नमक मेरे साथ ही रहेगा, केवल चावल, दाल, सब्ज़ी, मसाले आदि गृहस्थ से माँग लूँगा । आश्रम के निर्माण के साथ-साथ ज्ञान काण्ड के रूप में शौचालय आदि की व्यवस्था होती है। क्या त्यागी, क्या गृही- यह तो सबके लिए अपरिहार्य (अत्यज्य) है । सावन-भादों के महीने में ‘धादिका’ में जाने का अवसर मिलने पर स्वयं सब जांच-पड़ताल करने का मौका मिलेगा। * * * *

दूसरों का उदाहरण देखकर सावधान होना बुद्धिमत्ता और भजन-चतुरता
सिउड़ी (बंगाल) और बाद में रानीबहाल, आसनबनि (झारखण्ड) में ब…… प्रभु के साथ मुलाकात और विचार-विमर्श हुआ था। उ…… प्रभु ने भी रानीबहाल में आकर भेंट की थी और अपनी असुविधा की बात बताई थी। उनकी अवस्था देखकर उनके प्रति दया आती है, किन्तु सभी श्रीभगवान् की शिक्षा है। इस वृद्धावस्था में भी उन्हें परिवार का बोझ स्वयं ही उठाना पड़ रहा है, यही दुःख की बात है। किन्तु इस अवस्था में भी हमें वैराग्य नहीं होता है — यही आश्चर्य की बात है। संसार – रण क्षेत्र और शिक्षा क्षेत्र दोनों ही है। हम सभी को ही इस जगत से शिक्षा लेनी होगी, इस शिक्षा का अंत नहीं है। दूसरों का उदाहरण देखकर जो स्वयं सावधान होता है, वही सर्वाधिक बुद्धिमान है। वह ही वास्तविक भजन-चतुर है। भगवद्-भक्ति प्राप्त करना ही उसकी चरम सफलता है। *

स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं है। फिर भी बाहर घूमने को बाध्य हूँ । यहाँ से पाँच मील की दूरी पर पाकिस्तान की सीमा है। 2-3 दिन पहले पूर्व पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश) की गोलाबारी में कई लोग घायल होकर स्थानीय अस्पताल में भर्ती हुए हैं। जीवन का मय करने से कोई लाभ नहीं है। आप सब मेरा दण्डवत प्रणाम ग्रहण करना। इति

वैष्णवदासानुदास
श्रीमक्तिवेदान्त वामन

अमृत-बिन्दु

प्रयास नहीं करके भाग्य या कर्मफल की दुहाई देने से साधक को साधन में सिद्धि प्राप्त नहीं होती।

बढ़िया नौकरी मिल जाना, मामले मुकदम्मे में विजय होना, रोग-व्याधि दूर होना आदि क्रियाओं को ‘कृपा’ कहा जायेगा कि नहीं, उस पर विचार करना होगा।

संसार-रण क्षेत्र और शिक्षा क्षेत्र दोनों ही है। हम सभी को ही इस जगत से शिक्षा लेनी होगी, इस शिक्षा का अंत नहीं है। दूसरों का उदाहरण देखकर जो स्वयं सावधान होता है, वही सबसे अधिक बुद्धिमान है। वह ही वास्तविक भजन-चतुर है।

* * * * * * * * *