पूर्व बंग (वर्तमान में बंगलादेश) में फरीदपुर जिले के अन्तर्गत टोपाखोला के निकट पद्मानदी के तट पर स्थित ‘बागयान’ ग्राम में परमहंस श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी का आविर्भाव हुआ था।उनके माता पिता जी का नाम अज्ञात है। बाबाजी का पिता जी द्वारा दिया नाम ‘वंशीदास’ था। इनका विशेष परिचय यह है कि ये विश्व व्यापी श्री चैतन्य मठ और श्री गौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के दीक्षा गुरु थे।
समाज की उस समय की प्रथा अनुसार इनके पिता माता जी ने बाल्यकाल में ही वंशीदास जी का विवाह कर दिया था। किन्तु विवाह होने पर भी वंशीदास जी सदा संसार से विरक्त और भगवद् विरह में व्याकुल अवस्था में घर पर रहते थे। पत्नी के वियोग के पश्चात कठोर वैराग्य के साथ विविक्तानन्दी रूप से भजन करने के लिए उन्होंनेश्रीमद् भागवत दास बाबा जी महाराज जी से परमहंस बाबा जी का वेश ग्रहण किया और गौर किशोर दास बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीमद् भागवत दास बाबा जी महाराज ने वैष्णव सार्वभौम श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी से बाबा जी का वेश लिया था। वेश लेने के पश्चात श्रीमद् गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी ने तीस साल ब्रजमण्डल के विभिन्न स्थानों में रहते हुए तीव्र भजन किया था। बीच-बीच में वे उत्तर भारत और श्री गौर मण्डल के तीर्थों का दर्शन कर आते थे। तीर्थ पर्यटन के समय बाबा जी महाराज जी का श्रीक्षेत्र में श्री स्वरूप दास बाबा जी, कालना में श्री भगवान् दास बाबा जी और कुलिया में श्री चैतन्य दास बाबा जी से मिलन हुआ था।
श्रीमन्महाप्रभु जी की आविर्भाव स्थली श्री मायापुर योगपीठ के प्रकाशित होने पर श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी श्रीलजगन्नाथ दास बाबा जी महाराज जी के आदेश के अनुसार श्री व्रजमण्डल से गौड़मण्डल में आकर अप्रकट होने तक श्रीमन् महाप्रभु जी की लीलास्थली श्री नवद्वीप मण्डल के विभिन्न स्थानों में रहे थे। ये अपने अप्राकृत नेत्रों से नवद्वीपमण्डल के अधिवासियों को धामवासियों के रूप में देखते थे तथा माधुकरी में मिले भिक्षा के द्रव्यों को लोगों के द्वारा फेंके मिट्टी के बर्तनों में पकाकर किसी तरह अपना जीवन चलाया करते थे। ऐसा भी सुना जाता है कि ये कभी गंगाजल पानकर, कभी गंगा की मिट्टी खाकर और कभी तो भूखे रहकर भी निरन्तर हरिनाम करते रहते थे। विविक्तानन्दी, त्यक्ताश्रमी के आदर्श स्वरूप श्री गौर किशोर दास बाबा जी महाराज निरपेक्ष रूप में रहते थे। श्री गौर निजजन, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी के असाधारण वैराग्य व शुद्ध भक्ति और भगवान में उनके अनुराग को देखकर मुग्ध हो गये थे। बाबा जी बीच-बीच में गोद्रुम द्वीप में स्थित श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के घर स्वानन्दसुखदकुंज में आकर रहते एवं ठाकुर भक्तिविनोद जी से श्रीमद्भागवत श्रवण करते और उनके साथ भक्ति सिद्धान्त के विषयों में चर्चा भी करते रहते थे।
बाबा जी महाराज कभी भी किसी से अपनी सेवा नहीं करवाते थे। वे हर समय कभी तुलसी माला तो कभी फटे कपड़े में गांठ देकर बनाई गयी माला धारण कर हरिनाम करते थे। श्रील नरोत्तम ठाकुर जी की ‘प्रार्थना’ और ‘प्रेम-भक्ति चंद्रिका’ नामक ग्रन्थ ही उनके सब कुछ थे।
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी के वैराग्य की तरह बाबा जी के वैराग्य की विशेषता यह थी कि सांसरिक वैराग्य के साथ-साथ इनका कृष्ण में गाढ़ अनुराग भी था।
1898 में गोद्रुम द्वीप में स्थित श्रीस्वानन्द सुखद कुंज में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी का श्रील गौर किशोर दास बाबा जी के साथ पहली बार मिलन हुआ था। उस समय श्रील गौर किशोर दास बाबा जी के मुख से व्याकुल हृदय से गाये हुए भजनों को सुनकर श्रील प्रभुपाद जी मुग्ध और प्रेमाविष्ट हो उठे थे। उस समय श्रील प्रभुपाद ने वह भजन लिख लिया था और बाद में इसे भक्तों को पढ़ाया। उस मन्त्र को पढ़कर भक्त लोग स्वयं को कृतार्थ सा अनुभव करने लगे। श्रील रघुनाथ दास जी के उद्देश्य से रचित गीत के रूप में प्रचलित यह गीत इस प्रकार है–
“ कोथाय गो प्रेममयि राधे राधे ।
राधे राधे गो जय राधे राधे ॥
देखा दिये प्राण राख राधे राधे ।
तोमार कांगाल तोमाय डाके राधे राधे ॥
राधे वृन्दावन-विलासिनी राधे राधे ।
राधे कानुमनोमोहिनी राधे राधे ॥
राधे अष्टसखीर शिरोमणि राधे राधे ।
राधे वृषभानुनन्दिनी राधे राधे ॥
(गोसाञी) नियम क’रे सदाई डाके राधे राधे ।
(गोसाञी) एकबार डाके केशीघाटे,
आबार डाके वंशीवटे राधे राधे ॥
(गोसाञी) एकबार डाके निधुवने,
आबार डाके कुञ्जवनेराधे राधे ॥
(गोसाञी) एकबार डाके राधाकुण्डे,
आबार डाके श्यामकुण्डे राधे राधे ॥
(गोसाञी) एकबार डाके कुसुमवने,
आबार डाके गोवर्धने राधे राधे ॥
(गोसाञी) एकबार डाके तालवने,
आबार डाके तमालवने राधे राधे ॥
(गोसाञी) मलिन वसन दिये गाय,
व्रजेर धूलाय गड़ागड़ि याय राधे राधे ॥
(गोसाञी) मुखे राधा राधा बले,
भेसे नयनेर जले राधे राधे ॥
(गोसाञी) वृन्दावने कूलिकूलि,
केंदे बेड़ाय राधा बलि राधे राधे ॥
(गोसाञी) छाप्पान्न दण्ड रात्रि दिने,जाने ना
राधागोविन्द बिने राधे राधे ॥
तारपर चारि दण्ड शुति थाके स्वपने
राधा-गोविन्द देखे राधे राधे ॥
जनवरी सन् 1900 में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी के आदेशानुसार श्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी ने गोद्रुम स्वानन्द सुखद कुंज में श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी से दीक्षा ग्रहण की थी श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद जी श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी के एकमात्र शिष्य थे। विविक्तानन्दी श्रील बाबाजी का ये संकल्प था कि वे किसी को भी मंत्र नहीं देंगे। किन्तु श्रील प्रभुपाद जी की अनन्य निष्ठा को देखकर वे अपने संकल्प को छोड़ने में मजबूर हो गये। ऐसा सुना जाता है कि श्रील प्रभुपाद जी द्वारा बार बार बाबा जी से दीक्षा के लिए प्रार्थना करने पर बाबा जी महाराज जी ने उन्हें कहा , “ मैं श्री महाप्रभु जी की अनुमति मिलने पर मन्त्र दूंगा। दूसरी बार आकर पूछने पर बाबा जी ने कहा कि वे महाप्रभु जी को पूछना भूल गये हैं। श्रील प्रभुपाद जी हताश नहीं हुये। उन्होंने जब तीसरी बार उनको निवेदन किया तो बाबाजी नेकहा: -‘सुनीति और पाण्डित्य के द्वारा भगवान को नहीं पाया जा सकता और न ही इसके द्वारा दीक्षा ग्रहण का अधिकार होता है। बाबा जी महाराज जी द्वारा वापस भेजने पर भी प्रभुपाद जी ने अपनी निष्ठा नहीं छोड़ी। श्रीरामानुजाचार्य जी ने 18 बार वापस भेजे जाने के बाद जिस प्रकार गोष्ठी पूर्ण जी की कृपा प्राप्त की थी, उसी प्रकार प्रभुपाद जी द्वारा असीम धैर्य धारण करने पर तथा बार-बार दीनता पूर्वक प्रार्थना अरते रहने पर अंत में बाबा जी महाराज जी ने सुप्रसन्न चित्त से स्नेह से भर कर प्रभुपाद को अपनी धूलि में अभिषिक्त करते हुए दीक्षा प्रदान की।यदि कोई कपटी विषयी व्यक्ति श्रील बाबाजी महाराज जी के चरणों को स्पर्श करता था तो वे क्रोधित हो पड़ते थे और गुस्से से कहते :- ‘तेरा सर्वनाश होगा’। कई लोग इसी भय से उनके चरणों को स्पर्श भी नहीं करते थे। किन्तु आज उन्होंने स्नेह से भरकर स्वयं ही अपनी पदधूलि लेकर प्रभुपाद जी के अंगों पर लेपन कर दी। श्रील प्रभुपाद जी के गणों से ऐसा सुना जाता है कि श्रील प्रभुपाद जी को 12 बार वापस आने के पश्चात 13वीं बार श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी की कृपा मिली थी। ऐसा भी सुना जाता है कि तीन बार वापस होने के पश्चात चौथी बार प्रभुपाद जी को गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी की कृपा मिली थी।
इस लीला से विविक्तानन्दी श्रील लोकनाथ गोस्वामी जी से श्रील नरोत्तम ठाकुर जी के दीक्षा लेने की लीला की स्मृति ताज़ा हो उठती है। गुरु में अनन्य निष्ठा ही सत् शिष्य का लक्षण है। बाबा जी महाराज जी ने प्रभुपाद जी को श्रीमन् महाप्रभु जी के प्रचार के योग्य समझकर आशीर्वाद करते हुये उन्हें सारी पृथ्वी पर श्रीमहाप्रभु जी की वाणी के प्रचार के लिए आदेश दिया ।
श्रील प्रभुपाद जी ने अत्यन्तदीनता पूर्ण वचनों से जगत्वासियों को निश्चित मंगल का रास्ता दिखाने के लिए अपने गुरुदेव श्रील बाबा जी महाराज जी के संबंध में इस प्रकार लिखा हैं :- “ मैं अपने अभाव को पूरा करने के लिए जड़ से लेकर ब्रह्मा तक सभी कुछ अपने अधीन करने में लगा हुआ था। मैं समझता था कि विषयों के मिलने से ही मेरा अभाव दूर हो जायेगा और कई बार अनेक दुर्लभ विषय प्राप्त भी किए किन्तु मेरा अभाव दूर नहीं हुआ। जगत में कुझे बहुत से महान चरित्र के आदमी मिले किन्तु उनके नाना प्रकार के अभावों को देखकर मैं उनको सम्मान नहीं दे पाया। ऐसे दिनों में मेरी शोचनीय अवस्था को देखकर परमकारुणिक श्रीगौरसुन्दर जी ने अपने दो प्रियतम को मेरे प्रति प्रसन्न होने की अनुमति दे दी। मैं अपने सांसारिक अहंकार में प्रमत्त होकर अपनी प्रशंसा करते करते अपना वास्तविक मंगल खो बैठा था किन्तु पुरानी सुकृतियों के प्रभाव से मैंने अपने मंगलमय शुभाकांक्षी के रूप में श्री ठाकुर भक्ति विनोद जी को पाया।
मेरे प्रभु (गौरकिशोर दास बाबाजी) कई बार उनके पास शुभागमन करते थे एवं अनेक बार उनके पास भी रहते थे।श्रीमद् भक्ति विनोद ठाकुर जी ने दया परवश होकर मुझे मेरे प्रभु को दिखला दिया। प्रभु को देखते ही मेरा जड़ीय अभिमान कम होने लगता। मैं समझता था कि नराकार धारण कर सभी मेरी तरह हेय और अधम हैं परन्तु अपने प्रभु के अलौकिक चरित्र को देखकर मुझे धीरे-धीरे अनुभव हुआ कि आदर्श वैष्णव भी इस जगत में हो सकते हैं।
उन्होंने और भी लिखा है कि “ उनको श्रील गौरकिशोर दास बाबा जी महाराज जी को देखते हुए भी बहुत से नए चतुर-बालक, वृद्ध, पंडित, मूर्ख व भक्त होने का अभिमान करने वाले, उनके दर्शन नहीं कर पाए । यही कृष्ण भक्त की ईश्वरीय शक्ति है। ये सत्य है कि सैंकडों सांसरिक इच्छाएँ रखने वाले लोग अपनी छोटी-छोटी मांगों के लिए उनसे परामर्श लेते थे किन्तु वे उपदेश उनकी वंचना करने वाले ही थे। असंख्य लोग साधु का वेश धारण करते हैं किन्तु वास्तविकता में वह साधुपनें से बहुत दूर होते हैं। मेरे प्रभु ऐसे कपटी नहीं थे। निष्कपटता ही सत्य है, ये उनके आचरण से अभिव्यक्त होता था।उनका निष्कपट स्नेह अतुलनीय था जो विभूति की प्राप्ति को भी कपटता में प्रतिष्ठित करता था, अर्थात उनके निष्कपट स्नेह के सामने विभूतियाँ भी कपटता प्रतीत होती थीं। उनके अपने प्रतिद्वंदी या विरोधी व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की उदासीनता नहीं थी और न ही कृपापात्र के प्रति विशेष अनुग्रह का दिखावा ही था । वे कहते थे कि मेरे विराग या प्रीति का भाजन इस जगत में कोई नहीं है। सभी मेरे सम्मान के पात्र हैं। एक अलौकिक बात ये भी है कि शुद्ध भक्ति धर्म विरोधी अनेक दुष्ट नासमझ लोग हमेशा उनको घेर कर बैठे रहते थे एवं अपने आप को उनका स्नेहपात्र समझकर सांसरिक गन्दे विषयों में ही फंसे रहते थे। किन्तु उन्होंने भी न तो सीधा सीधा प्रत्यक्ष रूप से उनका त्याग ही किया और न ही उन्हें किसी प्रकार से ग्रहण किया। उनकी अन्तर्दृष्टि व बाहरी दृष्टि-दोनों ही प्रबल थीं । वे भविष्य में घटने वाली घटनाओं को जान लेते थे तथा उनके पास आने वाले व्यक्ति का चरित्र उसे देखकर ही पहचान लेते थे।
1322 बंगाब्द की 30 कार्तिक की शेषरात्रि को परमहंस श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी ने नित्यलीला में प्रवेश किया। अप्रकट होने से पहले बाबा जी महाराज कुलिया नामक स्थान में राणी की धर्मशाला में रह रहे थे। जब श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी को बाबा जी के संसार से गमन व नित्यलीला में प्रवेश का समाचार मिला तो वे विरह से व्याकुल हो उठे तथा उस स्थान में पहुंचे जहां श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी का दिव्य शरीर रखा था। उन्होंने वहाँ पहुँच कर देखा कि वहाँ विभिन्न अखाड़ों के महन्त बाबा जी आपस में इस बात को लेकर तर्क-वितर्क कर रहे थे कि बाबा जी को समाधि किस प्रकार दी जाए? उन बाबा जी लोगों का ये अभिप्राय था कि श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी को जैसे तैसे समाधि दे दो। यदि हम इनकी समाधि दे सकें एवं उस स्थान पर मन्दिर बन सके तो ये हमारे लिए धन कमाई का एक अच्छा रास्ता बन जायेगा। श्रील प्रभुपाद जी ने अकेले वहाँ डट कर उन लोगों के इस कार्य का विरोध किया। बात के अधिक बड़ जाने पर व शांति भंग होने की आशंका से नवद्वीप के दरोगा राय बहादुर श्री यतीन्द्र नाथ सिंह महाशय भी आ पहुंचे। श्रील प्रभुपाद जी ने उस समय त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण नहीं किया था। वे वेषधारी बाबा जी लोग ये तर्क दे रहे थे कि गौर किशोर दास त्यागी थे इसलिए उनकी समाधि बनाने का केवल उन्हें ही अधिकार है। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती सन्यासी नहीं हैं इसलिए उनका अधिकार नहीं है। तब श्रील प्रभुपाद जी ने अपना महापुरुषोचित महातेजस्वी रूप प्रकट करते हुये कहा- केवल वह ही बाबा जी के एकमात्र शिष्य हैं। यदि इन वेषधारी बाबा जी लोगों में से किसी ने पिछले एक साल में, छ: महीने में, पिछले तीन महीने में, एक महीने में या पिछले तीन दिनों में भी अवैध स्त्री का संग किया हो तो वह श्रील गुरुदेव जी के चिन्मय कलेवर (शरीर) को स्पर्श न करे। यदि वह स्पर्श करेगा तो उसका सर्वनाश हो जायेगा।
ये बात सुनकर दरोगा यतीन्द्र बाबू ने कहा :- महन्त बाबा जी लोगों ने स्त्रीसंग किया है या नहीं इस का प्रमाण क्या है? प्रभुपाद जी ने कहा :- मैं उनकी बात पर ही विश्वास कर लूँगा।
श्रील प्रभुपाद जी के महातेजस्वी रूप को देखकर बाबा जी लोग धीरे-धीरे वहाँ से खिसकते चले गये। ये देख दरोगा जी अत्यन्त लज्जित होकर श्रील प्रभुपाद जी के प्रति श्रद्धा निवेदन करते हुये चले गये। कुलिया के कुछ व्यक्तियों ने श्रील प्रभुपाद जी से बाबा जी महाराज जी की अन्तिम इच्छा की बात बताते हुये कहा – कि बाबा जी महाराज जी ने अपने अप्रकट होने से पहलेइस प्रकार इच्छा प्रकट की थी कि उनके शरीर को नवद्वीप धाम के रास्ते में घसीट कर धाम की रज से अभिषिक्त किया जाए। ये सुनकर श्रील प्रभुपाद ने कहा:- जिनको कन्धों एवं मस्तक पर धारण करने से स्वयं श्रीकृष्ण चन्द्र अपने आप को कृतार्थ समझते हैं,उन्होंने तो लोगों की दाम्भिकता को तोड़ने के लिए ही ये सब बातें कही थीं। हम मूर्ख, अज्ञानी, अपराधी होने पर भी उनके तात्पर्य को समझने से मुख नहीं मोड़ेंगे। श्री गौर सुंदर जी ने ठाकुर हरिदास जी के शरीर त्याग के पश्चात उनकी चिदानन्द देह को गोद में लेकर नृत्य किया था व उन्हें कितने बड़े गौरव से विभूषित किया था। इसलिए हम भी श्रीमन्महाप्रभु जी के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए बाबा जी महाराज की चिदानन्द देह को अपने मस्तक पर रख कर ले जायेंगे ।
वैष्णव स्मृति के विधनानुसार 1 अग्रहायन 1322 बंगाब्द की श्री उत्थान एकादशी तिथि को दोपहर के समय श्रील प्रभुपाद जी ने कुलिया के नवीन टीले के ऊपर बाबा जी की समाधि का कार्य समापन किया यशोहर ज़िले के लोहगढ़ निवासी पोद्दार महाशय जी ने समाधि के लिए स्थान देते समय कहा था कि अब उस स्थान के प्रति उनका कोई अधिकार नहीं रहेगा किन्तु बाद में अपने वचन को भुलाकर उस स्थान को हथियाने के लिए उसने बहुत कोशिश की। उस स्थान पर अधिकार जमाने के लिए उसने नाना प्रकार के अवैध कार्यों को बढ़ावा दिया परंतु दैव-वशत: बाद में वह धीरे-धीरे गंगा जी में लुप्त हो गया। गंगा जी की धारा बदल जाने से गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी का समाधि स्थल जब गंगा जी में लुप्त होने लगा तो श्रील प्रभुपाद जी श्रील गौर किशोर दास बाबा जी की चिन्मय समाधि को गंगा जी से उठाकर राधा कुंड के किनारे श्रीचैतन्य मठ में ले आए और 1339 बंगाब्द को पुन: उसकी स्थापना की। धीरे-धीरे इस स्थान पर समाधि मन्दिर का निर्माण हुआ और बाबा जी महाराज की श्रीमूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। तब से उस मन्दिर में नित्य पूजा चल रही है।
“नमो गौरकिशोराय साक्षाद्वैराग्य मूर्तये ।
विप्रलम्भरसाम्भोधे पादाम्बुजाय ते नम:” ॥
श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी के निजजनों से सुनीं बाबा जी महाराज की शिक्षामूलक कुछ अलौकिक-चरित्र-वैशिष्ट्य घटनायें निम्न प्रकार से हैं –
1॰ कुलिया नवद्वीप के एक वैष्णव वेशधारी व्यक्ति को साथ लेकर उसके कुछ साथी गौर किशोर दास बाबा जी के पास आए और बाबा जी को उसकी महिमा सुनाते हुए कहने लगे- “बाबा ! हमारे ये प्रभु पतित जीवों का उद्धार करने के लिए देश-विदेश में भ्रमण करते हुए कितना कष्ट सहन करते हैं, यदि ये अन्य स्थानों में न जायें तो उन जीवों की क्या गति होगी? ये सुनकर बाबा जी विरक्त हो उठे और उत्तर में उन्होंने कहा – “लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के उद्देश्य से जगत् का उद्धार होने की बात तो दूर, वे स्वयं ही पतित हो जायेंगे। उनका ये कार्य मात्र जगत को धोखा देना कहलाएगा ।
2॰ एक बार कुछ व्यक्तियों ने एक प्रसिद्ध भागवत की व्याख्या करने वाले पाठक की महिमा बाबा जी को सुनाई। बाबा जी तो अन्तर्यामी थे, वे उस पाठक के पैसे के बदले पाठ करने के उद्देश्य को जान गये और उन्होंने कहा- “वह भागवत शास्त्र की गोस्वामी शास्त्र की तरह व्याख्या नहीं करता है। वह तो हमेशा इन्द्रिय-तर्पण शास्त्र की व्याख्या करता है वह ‘गौर’‘गौर’,‘कृष्ण’‘कृष्ण’, का कीर्तन नहीं करता है, वह तो केवल ‘पैसा’‘पैसा’ ही कहता रहता है। ये कभी भी भजन नहीं है। ऐसा करने से तो वास्तविक वैष्णव धर्म ढक रहा है। उपकार के स्थान पर जगत् का अनिष्ट ही हो रहा है।”
3 ॰ एक दिन बाबा जी नवद्वीप मण्डल में बैठे हरिनाम कर रहे थे कि अचानक रात 10 बजे बोल उठे – देखा-देखा पावना ज़िले में इतनी रात को एक पाठ करने वाला एक विधवा का धर्म नष्ट कर रहा हैं । हाय ! हाय ! ये दुष्ट लोग धर्म के नाम पर कलंक लगा रहे हैं” बाबा वो बात इस प्रकार से बोल रहे थे जैसे वे सामने देख रहे हों।
4 ॰ नवद्वीप में धर्मशाला के अधिकारी गिरीशबाबू की स्त्री ने जब बाबा जी महाराज के लिए एक कुटिया बना कर देनी चाही तो बाबा जी महाराज ने कहा- “नाव की बनी छत के नीचे रहते हुए मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। मुझे तो एक कष्ट है। बहुत से कपटी व्यक्ति मेरे पास आकर हमेशा ‘कृपा करो’‘कृपा करो’ कहते हैं और मुझे भजन नहीं करने देते व अपना मंगल तो चाहते ही नहीं वरन दूसरों के भजन में विघ्न डालते हैं, यदि आप अपनी टट्टी घर मुझे दे दें तो मैं वहाँ निश्चिंत होकर भजन कर सकता हूँ। वहाँ मुझे कोई तंग नहीं करेगा। बाबा जी महाराज टट्टी घर में जायेंगे, ये सोच कर गिरीश बाबू ने उसी समय उसे गोबर से साफ करवाकर राजमिस्त्री द्वारा पूरी तरह नया बनवा दिया।
5 ॰ शीत में कष्ट होगा,ये सोचकर कोई बाबा जी महाराज जी को एक रजाई दे गया था।बाबा जी महाराज जी ने उसे छत पर लटका कर रख दिया। जब उस व्यक्ति ने उसका कारण पूछा तो बाबा जी ने कहा कि इसे देख कर ही ठंड भाग जायेगी।
6 ॰ एक बार कासिम बाज़ार के स्वनामधन्य महाराज सर श्रीमणीन्द्रचन्द्र नन्दीबहादुर ने गौर किशोरदास बाबा जी महाराज जी को कासिम बाज़ार में अपने महल में हो रही वैष्णव सभा में आमंत्रित किया तो बाबा जी ने महाराज जी से कहा – “आप यदि मेरा संग करने की इच्छा करो तो अपनी सारी धन-सम्पत्ति छोड़कर नवद्वीप में गंगा के किनारे छप्पर डालकर मेरे साथ रहो। आपको भोजन की चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी मैं माधुकरी मांग कर आपको खिलाऊँगा, किन्तु यदि मैं आपके निमन्त्रण की रक्षा करने के लिए आपके महल में जाऊंगा तो कुछ दिनों के बाद ही मुझमें विषय प्रवृत्ति आ जायेगी। मैं भी अधिक से अधिक ज़मीन जोड़ने के चक्कर में पड़ जाऊंगा। फल क्या होगा – मैं आपकी हिंसा का पात्र बन बैठूँगा।
आपके साथ हमेशा प्यार रखना हो एवं वैष्णव दोस्त के हिसाब से आप यदि मुझ पर कृपा करें तब तो हम दोनों का यहाँ अप्राकृत धाम में रहकर किसी प्रकार माधुकरी करके जीवन निर्वाह करते हुए हरिभजन करना ही कर्तव्य है।
नरोत्तम ठाकुर जी की पदावली कीर्तन बाबा जी महाराज जी को अत्यंत प्रिय थे। एक कीर्तन वे प्राय: ही करते थे। वह कीर्तन सारी शिक्षाओं का सार है–
“गोरा पंहु न भजिया मैनु ………”
प्रेमरतनधन हेलाय हाराइनु॥
अधने यत्न करि’ धन तेयागिनु ।
आपन करमदोषे आपनि डुबिनु ॥
सत्संग छाड़ि कैनु असते विलास ।
ते-कारणे लागिल ये कर्मबन्ध-फाँस ॥
विषय विषम – विष सतत खाइनु ।
गौरकीर्तन रसे मगन ना हैनु ॥
केन वा आछये प्राण कि सुख लागिया ।
नरोत्तमदास केन ना गेल मरिया ॥