श्रील नरोतम ठाकुर जी कृष्ण लीला में चम्पक मंजरी हैं । ये उनका सिद्ध परिचय हैं । श्री कृष्ण लीला की नित्यपार्षदा श्री रूप मंजरी की अनुगता चम्पक मंजरी जी हैं । जगत के जीवों का नित्य कल्याण करने के लिए नरोतम ठाकुर के रूप में आविर्भूत हुई थी । श्रील नरोतम ठाकुर जी राजसाही जिले के अंतर्गत गोपालपुर परगना (गड़ेरघाट या गराणहाट परगना ) में रामपुर वोयलियर से छ: कोस दूरी खेतुरी धाम में आविर्भूत हुये थे । आप पंचदश शकाब्दी के मध्य में माघी पूर्णिमा तिथि को आविर्भूत हुये थे । “माघी पुर्णिमाय जन्मिलेन नरोतम । दिने दिने वृद्धि हइलेन चन्द्रसम ।।” (भक्तिरत्नाकर 1/281) इनके पिता राजा श्री कृष्णानन्द दत् जी गोपालपुर परगना के अधिपति थे। आपकी माता जी का नाम श्री नारायणी देवी था । श्री कृष्णानन्द दत् के बड़े भाई का नाम श्री पुरुषोतम दत् । किसी-किसी का कहना हैं कि पुरुषोतम दत् इनके छोटे भाई थे । श्री पुरुषोतम दत् के पुत्र का नाम था श्री सन्तोष दत् । कृष्णपार्षद वैष्णव किसी भी कुल में आ सकते हैं – यही ज्ञान करवाने के लिए श्री कृष्ण की इच्छानुसार नरोतम ठाकुर जी की आविर्भाव लीला कायस्थ कुल में हुई ।
‘जातिकुल सब निरर्थक जानाइते ।
जन्माइलेन हरिदास म्लेच्छकुलेते ।।’
वैष्णव को प्राकृत जगत के अंतर्गत किसी एक जाती का समझने से नरक की प्राप्ति होती हैं । अर्च्ये विषणो ….वैष्णवे जाति बुद्धि ……….नारकी स: ।।’ (पद्मपुराण) बचपन से ही श्रील नरोतम ठाकुर जी के चरित्र में भावी महापुरुषोचित लक्षण प्रकाशित हो गए थे । वे सदा श्री गौर-नित्यानन्द जी की गुण-महिमा के ही चिन्तन में मग्न रहते थे । राज-ऐश्वर्य की तरफ उनकी बिन्दुमात्र भी आसक्ति नहीं थी । श्रीमन महाप्रभु जी ने पार्षदों के साथ उन्हे दर्शन दिये थे ।
“श्रीकृष्ण चैतन्य नित्यानन्दाद्वैतगणे ।
करये विज्ञप्ति अश्रु झरे दुनयन ।। ”
स्वप्नछले प्रभु गणसह देखा दिया ।
प्रिय नरोतमे स्थिर करिल प्रबोधिया ।।”
(भक्तिरत्नाकर 1/285-86)
ये बात उन दिनों की हैं कि जब नरोतम ठाकुर जी उपाय सोच रहे थे कि संसार किस प्रकार छोड़ा जाए । उसी समय एक दिन इनके पिता जी व चाचा जी सभी किसी राजकार्य के लिए किसी अन्य स्थान पर गए । इसे अच्छा समय जानकार इन्होने किसी प्रकार से माता जी को समझाया और अपने चौकीदार को धोखा देकर कार्तिक पूर्णिमा तिथि को संसार का त्यागकर निकाल पड़े ।
प्रेम विलास ग्रन्थ में इस प्रकार वर्णन हैं कि एक बार कानाई नाटशाला गाँव में आनंद से संकीर्तन और नृत्य करते-करते श्रीमन महाप्रभु अकस्मात ‘नरोतम’ नाम लेकर पुकारने लगे । महाप्रभु जी का भावावेश देखकर नित्यानन्द प्रभु जी ने इसका कारण पूछा तो महाप्रभु जी ने कहा – ‘देखो श्रीपाद , तुम अपनी महिमा स्वयं ही नहीं जानते हो’।। नीलाचल जाते समय आपने कई दिन आँसू बहाये थे । जानते हो आपने जो अश्रु बहाये थे वे मैंने इकट्ठे करके रखे हैं । वही ‘प्रेम’ नरोतम को देने के लिए मैं इसे पद्मानदी के किनारे रखूँगा ।’ उसके पश्चात नरोतम को प्रेम देने के लिए महाप्रभु जी कुतुबपुर आए ।वहाँ आकर उन्होने पद्मानदी से स्नान किया और उसके तट पर नृत्य कीर्तन करने लगे । महाप्रभु जी ने पद्मानदी को सम्बोधन करते हुये कहा- ‘लो ये प्रेम ले लो’ इसे छिपा कर रखना तथा नरोतम के आने पर उसको देना ।’ तब पद्मानदी ने कहा- मैं कैसे समझुगी कि नरोतम आया हैं ?’ इसके उतर में महाप्रभु जी ने कहा जिसके स्पर्श से तुममे ऊँची-ऊँची उछाल वाली लहरें उठने लगेगी तो समझ लेना कि नरोतम आया हैं । “ याहार परशे तुमि उछलिवा ।सोई नरोतम प्रेम तारे तुमि दिवा ।।”
जिस स्थान पर महाप्रभु जी ने नरोतम के लिए प्रेम रखा था वही स्थान बाद में ‘प्रेमतली’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । जब नरोतम ठाकुर जी की आयु मात्र 12 वर्ष की थी, तब नित्यानन्द प्रभु जी ने उन्हे स्वप्न में दर्शन देकर पद्मानदी के पास रखे प्रेम को लेने के लिए आदेश दिया था ।स्वप्न में आदेश प्राप्त कर नरोतम ठाकुर एक दिन अकेले ही पद्मानदी पर गए । उनके स्नान करने से उनके चरण स्पर्श से ही पद्मावती उछल उठी । तभी चैतन्य महाप्रभु जी की बात को स्मरण कर उनका रखा हुआ प्रेम पद्मानदी ने नरोतम को समर्पण कर दिया । प्रेम प्राप्त करते ही नरोतम का भाव, वर्ण सब परिवर्तित हो गया । नरोतम के प्रेम-विकारों को देख उनके माता पिता ने उन्हे सामान्य स्थिति में लाने के भरसक प्रयास किए किन्तु सभी प्रयास व्यर्थ साबित हुए । श्रीचैतन्य-नित्यानन्द जी के प्रेम की मदिरा पान कर, उनमत होकर व गृहबन्धन को काटकर नरोतम वृन्दावन की ओर दौड़ पड़े ।
राजपुत्र होते उए भी भगवदविरह में कातर नरोतम सब प्रकार के देहसुखों की परवाह न करते हुए भगवदप्रेम प्रेम में रोते रोते दिन रात नंगे पाँव चलते जा रहे थे । कई दिनों तक न तो उन्होने कुछ खाया और न ही सोये । परिणाम ये हुआ कि अंत में वे एक वृक्ष के नीचे बेहोश होकर गिर पड़े । तभी एक गोरे रंग का ब्राह्मण दूध लेकर वहाँ आया और उसने बड़ी ही मधुर और स्नेहभरी भाषा में कहा- ‘ओहे नरोतम! ये दूध पी लो, इससे तुम्हारे पाँव में पड़े छाले ठीक हो जाएंगे और फिर तुम सुखपूर्वक रास्ता तय करना ।’ इतनी बात कहकर ब्राह्मण अंतर्ध्यान हो गया और नरोतम जी को थकावट के कारण नींद आ गयी तथा वृक्ष के नीचे ज़मीन पर नरोतम जी सो गए । उसी समय नरोतम ठाकुर को श्री रूप गोस्वामी जी ने परम स्नेह के साथ नरोतम कि छाती पर हाथ रखकर चैतन्य महाप्रभु जी द्वारा लाया हुआ दूध पिलाया जिससे नरोतम जी का सारा कष्ट जाता रहा । प्रेमविलास ग्रन्थ में ऐसा भी वर्णन आता हैं कि किस-किस प्रकार से वृन्दावन में नरोतम जी ने लोकनाथ गोस्वामी जी की कृपा प्राप्त की । नरोतम ठाकुर जी का आविर्भाव माघी पूर्णिमा को हुआ था जबकि उनका संसार का त्याग कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । इनकी लोकनाथ गोस्वामी जी से दीक्षा भी श्रावण पूर्णिमा को हुयी थी । किसी-किसी के मतानुसार नरोतम ठाकुर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने बड़े भाई श्री पुरुषोतम दत् के पुत्र संतोष दत् को राज्यभार सौंपकर वृन्दावन गए थे । “श्रीनरोतमेर क्रिया कहिते कि पारि । सर्वतीर्थदर्शी आकुमार ब्रहमचारी ।” “आकुमार ब्रहमचारी सर्वतीर्थदर्शी । परमभागवतोतम: श्रील नरोतमदास: ।।” –भक्तिरत्नाकर 1/278-279
श्रील लोकनाथ गोस्वामी जी साक्षाद महाप्रभु जी के शिष्य एवं पार्षदों में गिने जाते हैं । गौड़ीय वैष्णवों में से सबसे पहले यही चैतन्य महाप्रभु जी के आदेश से श्रील भूगर्भ गोस्वामी जी को साथ लेकर वृन्दावन आए थे । श्रील लोकनाथ गोस्वामी जी ने श्रीव्रजमण्डल में रहते हुए तीव्र वैराग्य के साथ भजन किया था । वे विविक्तानन्दी वैष्णव थे । उन्होने ऐसा संकल्प लिया हुआ था कि वे किसी को भी शिष्य नहीं बनाएँगे । जबकि दूसरी ओर नरोतम ठाकुर जी का संकल्प था कि यदि वे बनेंगे तो लोकनाथ गोस्वामी जी के ही शिष्य बनेंगे । राजा के पुत्र होने पर भी लोकनाथ गोस्वामी जी की कृपा प्राप्त करने के लिए वे वृन्दावन में प्रतिदिन आधी रात के समय जाकर उनके प्रात: जंगल-पानी जाने के स्थान को साफ करते थे और साथ ही हाथ धोने के लिए साफ मिट्टी और जल भी रख देते थे । प्रेमविलास ग्रन्थ में ये प्रसंग इस प्रकार से वर्णित हैं :-
“ये स्थाने गोसाई जीउ यान बहिर्देश । सेई स्थान याई करेन संस्कार-विशेष ।। मृतिकार शौचेर लागि माटि छानि आने । नित्य नित्य एइमत करेन सेवने ।। झाटागाछि पुति राखे माटिर भितरे । बाहिर करि’ सेवा करे आनन्द अन्तरे ।। आपनाके धन्य माने , शरीर सफल । प्रभुर चरण प्राप्त्ये एई मोर बल ।। कहिते-कहिते काँदे झाटा बुके दिया । पाँच सात धारा वहे हृदय भासिया ।।”
अर्थात श्री लोकनाथ गोस्वामी जी जिस स्थान पर शौच आदि के लिए जाते थे नरोतम ठाकुर जी जाकर उस स्थान को साफ कर देते थे और हाथ साफ करने के लिए छानी हुयी मिट्टी लाकर वहाँ रख देते थे । वे सफाई करने के पश्चात झाड़ू को वृक्ष की ओट में मिट्टी नीचे छिपा कर रख देते थे । प्रतिदिन इसी प्रकार सेवा करते हुए आनन्द का अनुभव करते थे । अपने आप को धन्य मानते और समझते कि मेरा जन्म सफल हो गया । वे मानते थे कि प्रभु की प्राप्ति के लिए ये सेवा ही मेरा बल हैं । इतना कहकर वे झाड़ू को छाती से लगाकर क्रन्दन करते रहते और उनके नेत्रों से अश्रु की धारायेँ बहती रहती थी ।
प्रतिदिन शौच के स्थान को निर्मल और दुर्गन्धरहित देखकर श्री लोकनाथ गोस्वामी जी आश्चर्यान्वित हुये और सोचने लगे कि कौन व्यक्ति ये काम कर रहा हैं । ये देखने के लिए कि कौन मेरे शौच के स्थान की सफाई इत्यादि करता हैं एक दिन वे शौच क स्थान के पास ही गुप्त स्थान में छिपकर बैठ गए और हरिनाम करने लगे । उन्होने देखा एक व्यक्ति आधी रात को आया और उसने सफाई का कार्य करना शुरू कर दिया । अन्धेरे में दूर से ही उन्होने उसका परिचय पूछा । जब उन्हे मालूम हुआ कि राजपुत्र नरोतम का ही ये काम हैं तो लोकनाथ गोस्वामी जी अत्यंत संकुचित हो गए और उसे भविष्य में ऐसा घृणित कार्य करने के लिए मना किया । किन्तु नरोतम ठाकुर जी की ऐसी दीनता और व्याकुलता को देखकर लोकनाथ गोस्वामी जी का चित उनके प्रति स्नेह से भर आया और अपने संकल्प को छोड़कर उन्होने उसे दीक्षा प्रदान कर दी । इस प्रकार नरोतम ठाकुर जी ने स्वयं जगतवासियों को ये शिक्षा दी कि गुरु सेवा किस प्रकार की जाती हैं-
“हेनई समये नरोतम तथा गिया ।
गुरुसेवा यथोचित कैला हर्ष हैया ।।
सेवाय प्रसन्न हैया दीक्षा मन्त्र दिल ।
नरोतमे कृपार अवधि प्रकाशिल ।।”
भक्तिरत्नाकर 1/345-346
अर्थात उसी समय नरोतम जी ने वहाँ जाकर आनन्द के साथ यथोचित श्रीगुरु जी की सेवा की, उनकी सेवा से प्रसन्न होकर गुरुजी ने उन्हे दीक्षा प्रदान की तथा इसके द्वारा उन्होने नरोतम जी पर असीम कृपा प्रकाशित की ।
“किवा नव्य यौवन से परम सुन्दर ।
कार्तिक पूर्णिमा दिने छाड़िलेन घर ।।
भ्रमिया अनेक तीर्थ वृन्दावने गेला ।
लोकनाथ गोस्वामीर स्थाने शिष्य हैला ।।
श्रावण मासेर पौर्णमासी शुभक्षणे ।
करिलेन शिष्य लोकनाथ नरोतमे ।।”
भक्तिरत्नाकर 1/292-294
अर्थात : वे कितने नवयौवन सम्पन्न एवं परमसुन्दर थे उसका वर्णन करना मुश्किल हैं । वे कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन घर त्याग कर अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए वृन्दावन पहुंचे और वहाँ वे श्री लोकनाथ गोस्वामी जी के शिष्य बने । श्रावण मास की पूर्णमासी के शुभ क्षणों में श्री लोकनाथ गोस्वामी जी ने श्रील नरोतम दास जी को शिष्य बनाया था ।
श्रील नरोतम ठाकुर ही श्री लोकनाथ गोस्वामी जी के एकमात्र शिष्य थे । विश्वव्यापी श्री चैतन्य मठ और श्री गौड़ीय मठों के प्रतिष्ठाता नित्यलीला प्रविष्ट ॐ 108 श्री श्रीमद भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने भी नरोतम ठाकुर की तरह आचरण करके गुरूपादपदमों की कृपा प्राप्त करने के लिए असीम धैर्यशीलता की शिक्षा दी थी ।
श्रीलोकनाथ गोस्वामी जी की तरह गौर किशोर दास बाबा जी ने भी किसी को भी मन्त्र न देने का संकल्प लिया था । उन्होने प्रभुपाद जी को तीन बार अस्वीकार कर दिया था किन्तु प्रभुपाद जी ने इतने पर भी धैर्य नहीं खोया, परिणाम स्वरूप प्रभुपाद जी की दीनता और आतुरता को देख श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी ने अपना संकल्प छोड़ दिया और स्नेह से भरे चित से उन्हे मन्त्रदीक्षा प्रदान की थी । श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी के एकमात्र शिष्य थे- श्रीलप्रभुपाद । श्रीरूपसनातनादि के अप्रकट होने के पश्चात श्रीजीव गोस्वामी जी उत्कल – गौड़ – माथुरमण्डल के गौड़ीय सम्प्रदायों के सर्वश्रेष्ठ आचार्य के पद पर अधिष्ठित हुये थे एवं वे वृन्दावन में विश्ववैष्णव राजसभा के श्रेष्ठ पात्र राज थे । वृन्दावन में श्रील जीव गोस्वामी जी के माध्यम में ही श्रीनिवास, नरोतम और दु:खी कृष्णदास ने अध्यन्न और शिक्षा प्राप्त की थी । श्रील जीव गोस्वामी जी ने श्रीनिवास, नरोतम और दु:खी कृष्णदास को क्रमश: ‘आचार्य’ , ‘ठाकुर’ और ‘श्यामानन्द’ नाम प्रदान कर तमाम गोस्वामी ग्रन्थों के साथ गौड़ देश में नाम प्रेम का प्रचार करने के लिए भेजा था । बंगाल में राजा वीर वीहम्बीर द्वारा ग्रन्थों की चोरी करने एवं बाद में श्रीनिवासाचार्य जी द्वारा उनको ढूंढ निकालने का समाचार भी श्रीजीव गोस्वामी जी ने सुना था । वन-विष्णुपुर में ग्रन्थों के अपहरण और ढूंढने का प्रसंग इसी ग्रन्थ में श्रीनिवासाचार्य जी के चरित्र में वर्णन किया गया हैं । श्रील जीव गोस्वामी जी ने श्री निवास जी के शिष्य श्री रामचन्द्र सेन को और उनसे छोटे गोविन्द को भी कविराज की उपाधि प्रदान की थी । श्रील लोकनाथ गोस्वामी जी ने नरोतम ठाकुर जी में राजोचित, सामाजिक व राजनीतिक के अनुकूल व्यवहारादि में रूचि देख आर उन्हे उनके पारिवारिक स्थल खेतुरी में जाने का आदेश दिया था । लोकनाथ गोस्वामी जी का ये आदेश केवल श्रीकृष्ण में एकनिष्ठ विरक्त वैष्णवों के भजन के आदर्श को दिखाने के लिए था तथा साथ ही उत्तर बंगाल के कृष्णबहिर्मुख व्यक्तियों का अत्यंत कल्याण करने के उद्देश्य से दिया गया था । श्रील निवासाचार्य प्रभु ने भी लोकनाथ गोस्वामी जी के अभिप्राय को जानकर ग्रन्थों के चोरी हो जाने के बाद नरोतम ठाकुर जी को खेतुरी एवं उतरबंग में प्रचार करने के लिए कहा था । “खेतुरी ग्रामेते शीघ्र करिया गमन । प्रभु लोकनाथ आज्ञा करह पालन ||”
भक्तिरत्नाकर 7/119
अप्राकृत भूमिका में रहते हुए श्री हरि की अन्तरंग सर्वोतम सेवा में लगे विविक्तानन्दी वैष्णव सांसारिक अथवा नाशवान कल्याण करने वाले उन कार्यों को अधिक महत्व नहीं देते जो मायाबद्ध जीवों के प्राकृत देहाभिमान से भरे रहते हैं ।
श्री कृष्ण सेवा की प्राप्ति ही एकमात्र जीवन का उद्देश्य हैं – इसके विपरीत भावना होने पर ही जागतिक कल्याणकर कार्य अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं । बेटी को डांटकर बहू को शिक्षा देने की तरह लोकनाथ गोस्वामी जी ने अपने निजजन के माध्यम से जगतवासियों को शिक्षा प्रदान की हैं । श्रील नरोतम ठाकुर ने गुरुदेव के विरह में व्याकुल होने पर भी श्रील गुरुदेव जी के आदेश को शिरोधार्य किया तथा खेतुरी में आकर शुद्ध प्रेमभक्ति की वाणी का प्रचार करते हुए उत्तर बंगाल के नर-नारियों का कल्याण किया । श्रील नरोतम ठाकुर जी ने स्वरचित ‘प्रार्थना’ गीति में हृदय की दीनता और आक्षेप को प्रकाशित करते हुए लिखा हैं ।
अनेक दु:खेर परे , ल’येछिले ब्रजपुरे
कृपा-डोर गलाय बान्धिया ।
दैव-माया बलात्कारे , खसाइया सेई डोरे ,
भवकूपे दिलेक डारिया ।।
पुन: यदि कृपा करि; एजनारे केशे धरि’ ,
टानिया तुलह व्रजवामे ।
तबे से देखिये भाल , नतुवा पराण गेल ,
कहे दीन दास नरोत्तमे ।।
अनेक दु:खों के बाद मेरे गले में कृपारूपी डोरी बांधकर आपने मुझे ब्रजमण्डल में खींच लिया था परन्तु दैवी माया ने जबरदस्ती उस डोर को खिसकाकर मुझे संसार कूप में गिरा दिया । नरोतम ठाकुर जी कहते हैं हे प्रभो !पुन: यदि आप मुझपर कृपा करे और इस दास को बालों से घसीट कर ब्रजधाम में ले जाए तब तो ठीक हैं,नहीं तो मेरे प्राण पखेरू उड़ जाएंगे ।
श्रील नरोतम ठाकुर जी ने श्रील लोकनाथ गोस्वामी जी के आदेश से खेतुरी में श्री गौरांग, श्री बल्लभीकांत, श्रीकृष्ण, श्रीव्रजमोहन, श्री राधारमण और श्री राधाकांत – इन छ: विग्रहों की प्रतिष्ठा की थी । खेतुरी में श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा के उपलक्षय में नरोतम ठाकुर जी ने जो महोत्सव किया था वह आज तक वैष्णव समाज में प्रसिद्ध हैं ।
“ नरोतम ये समये गौड़देश आईला ।
प्रभुलोकनाथ से – समय आज्ञा कैला ।।
श्रीगौरांग कृष्णेर श्रीविग्रह- सेवन ।
श्रीवैष्णव सेवा श्रीप्रभुर संकीर्तन ।।
यैछे आज्ञा कैला , तैछे हइला तत्पर ।
कैला छय सेवा श्रीविग्रह मनोहर ।।
अति से तात्पर्य सदा निमग्न सेवाय ।
शुनिते से सब नाम पराण जुड़ाये ।।
गौरांग, वल्लभीकांत , श्रीकृष्ण, व्रजमोहन ।
राधारमण, हे राधे राधाकांत नमोस्तुते ।।
भक्तिरत्नाकर 1/422-26
अर्थात नरोत्तम जी जब गौड़देश में आए तो उस समय लोकनाथ जी ने उन्हे श्री गौरांग महाप्रभु व श्री कृष्ण के विग्रहों की सेवा, श्री वैष्णव सेवा और श्री प्रभु का नाम संकीर्तन करने का उपदेश दिया । जैसे गुरुजी ने नरोतम ठाकुर जी को आज्ञा दी, वैसे ही नरोतम ने सेवा में तत्पर होकर मन को हरण कर लेने वाली श्री विग्रह सेवा करनी प्रारम्भ कर दी । वे गौरांग, वल्लभीकान्त, श्रीकृष्ण, व्रजमोहन, राधारमण तथा राधाकान्त – छ: विग्रहों की सेवा करते थे । नरोतम ठाकुर जी हर समय उन सबकी सेवा करने में निमग्न रहते थे जिनके केवल मात्र नामों को ही सुन लेने से प्राणों को ठंडक पहुँचती हैं ।
महोत्सव करने से पहले नरोतम ठाकुरजी ने श्रीगौड़मण्डल और श्रीक्षेत्रमण्डल की परिक्रमा करते हुए विभिन्न स्थानों के दर्शन और गौर पार्षदों की कृपा प्राप्त की थी । उन्होने सप्तग्राम में श्रीउद्धारण दत् ठाकुर जी के श्रीपाट, खड़दह में श्री परमेश्वरीदास ठाकुर और श्रीनित्यानन्द शक्ति श्री वसुधा व श्रीजाहनवा देवी, खानाकुल कृष्णनगर में श्री अभिराम ठाकुर, श्रीनरसिहपुर में श्रीश्यामानन्द प्रभु, श्री खण्ड में श्री नरहरि सरकार ठाकुर और श्री रघुनन्दन ठाकुर जी के श्रीपाट एकचक्र धाम में श्री नित्यानन्द प्रभु जी के आविर्भाव स्थल एवं नीलाचल में श्रीगोपीनाथ आचार्य जी का स्नान, हरिदास ठाकुर जी की समाधि, गदाधर पंडित जी का स्नान, जगन्नाथ मंदिर, गुंडीचा मंदिर , जगन्नाथ बल्लभ उद्यान, नरेंद्र सरोवर इत्यादि का दर्शन किया था । खेतुरी में श्री विग्रह प्रतिष्ठा के महोत्सव में उस समय के लगभग सभी वैष्णव उपस्थित थे । नरसिंहपुर से श्रीश्यामानन्द प्रभु, खड़दह में श्री जाहनवा देवी के साथ श्री परमेश्वरीदास , कृष्णदास सरखेल, माधव आचार्य, रघुपति वैद्य , मीनकेतन रामदास , मुरारी चैतन्यदास, ज्ञानदास, महीधर, श्री शंकर , कमलाकर पिप्पलाई, गौरांगदास, नकड़ि, कृष्णदास, दामोदर, बलरामदास, श्री मुकुन्द और श्री वृन्दावनदास ठाकुर, श्री खंड से श्री रघुनंदन ठाकुर भक्तों के साथ, नवद्वीप से श्रीपति , श्रीनिधी इत्यादि भक्त , शान्तिपुर से श्री अद्वैताचार्य जी के पुत्र श्रीअच्युतानन्द , श्रीकृष्ण मिश्र, श्री गोपाल मिश्र इत्यादि; अम्बिका कालना से श्री हृदय चैतन्य प्रभु और अन्य-अन्य भक्तों के खेतुरी उत्सव में योगदान दिया था । श्रील निवासाचार्य प्रभु जी की उपस्थिती एवं पौरोहित्य में वहाँ श्रीविग्रह प्रतिष्ठा महोत्सव सुसंपन्न हुआ था । श्रीमन महाप्रभु जी भी अपने गणों के साथ खेतुरी में नरोतम ठाकुर जी के संकीर्तन महोत्सव में प्रकट हुए थे ।
“कहिते कि संकीर्तन सुखेर घटाय ।
गणसह अवतीर्ण हइला गौरराय ।।
मेघेते उदय विद्युतेर पुन्ज यैछे ।
संकीर्तन मेघे प्रभु प्रकट्ये तैछे ।।”
भक्तिरत्नाकर 10/571-572
“किवानन्दे विहल अद्वैत नित्यानन्द ।
किवा भक्तमण्डली मध्येते गौरचन्द्र ।।
प्रकाशिला प्रभु किवा अद्भुत करुणा ।
किवा ए विलास ! इहा बुझे कोन जना ।।
श्रीनिवास नरोतमे किवा अनुग्रह ।
दुहु अभिलाष पूर्ण कैला गण सह ।।”
श्रीभक्तिरत्नाकर – 10/605-607
अर्थात उस संकीर्तन रूप घटाओं का क्या कहना, हमारे यहाँ तो अपने पार्षदों के साथ स्वयं गौरचन्द्र ही प्रकट हो गए । घने बादलों के बीच जिस प्रकार बिजली चमकती हैं, ठीक उसी प्रकार संकीर्तन रूपी घने मेघों के बीच महाप्रभु श्री गौरचन्द्र सुन्दर जी प्रकट हो रहे थे ।
किस आनन्द में विहल हैं – श्री अद्वैताचार्य जी व नित्यानन्द जी तथा किस आनन्द में हैं भक्त मण्डली के साथ श्रीगौर चन्द्र जी, इसे समझना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी हैं। बस यही समझो कि महाप्रभु जी ने अपनी अद्भुत करुणा को प्रकाशित किया हुआ हैं । महाप्रभु श्री गौरहरि जी ने श्री निवास आचार्य और नरोतम ठाकुर जी पर कृपा करने के लिए व दोनों की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए ही अपने पार्षदों के साथ प्रकट होने की ये लीला की थी ।
खेतुरी में महोत्सव के पश्चात श्रील नरोतम ठाकुर जी का यश चारों ओर फैल गया । श्रीरामकृष्ण आचार्य , श्रीगंगानारायण चक्रवर्ती इत्यादि विशिष्ट ब्राह्मणगण श्रील नरोतम ठाकुर जी के शिष्य हो गए थे । श्रीनरहरि चक्रवर्ती ठाकुर (घनश्याम) जी द्वारा विरचित ‘नरोतम विलास’ में नरोतम ठाकुर जी का चरित्र विस्तृत रूप से वर्णित हुआ हैं । उसे पढ़ने से नरोतम ठाकुर जी की अलौकिक महिमा का पता लगता हैं । गोपालपुर ग्राम में श्रीविप्रदास ब्राह्मण के धान के खलिहान में एक भयंकर सर्प था । उसके भय से कोई भी वहाँ नहीं जाता था । परन्तु श्रील नरोतम ठाकुर जी के वहाँ जाने से वह सर्प वहाँ से गायब हो गया । उसी खलिहाल से गौर, विष्णुप्रिया जी का विग्रह प्रकट होकर नरोतम ठाकुर जी की गोद में आ गया । “गोला हैते प्रियसह श्रीगौरसुन्दर । क्रोड़े आईला हैल सर्व नयनगोचर ।।”
-भक्तिरत्नाकर 10/202
सभी ये देखकर आश्चर्यचकित हो गए । इस समय ये विग्रह गम्भीरा में हैं । कोई एक स्मार्त ब्राह्मण अध्यापक नरोतम ठाकुर को शूद्र समझता था जिसके कारण उसे कोढ़ हो गया । बाद में स्वप्न में भगवती देवी द्वारा आदेश करने पर उसके नरोतम ठाकुर जी के चरणों में गिर कर क्षमा मांगी तब जाकर उसका कोढ़ दूर हुआ ।
ब्राह्मण श्री शिवानन्द आचार्य के दो पुत्र हरिराम आचार्य और रामकृष्ण आचार्य अपने पिता जी के आदेश से देवी को बलि देने के उद्देश्य से बकरी लेकर जा रहे थे । रास्ते में श्रील नरोतम ठाकुर और श्रीरामचन्द्र कविराज के अपूर्व दिव्य रूप दर्शन कर वे आकर्षित हो गए । उन्हे बलि के लिए बकरी ले जाते देख श्रील नरोतम ठाकुर जी ने उन्हे राजसिक और तामसिक पूजा एवं हिंसा के अशुभ परिणामों के बारे में समझाया तथा यह भी समझाया कि वह ये सब छोड़कर निष्काम भाव से भगवान का भजन करें । निष्काम भाव से भगवान के भजन का फल यह हुआ कि उन्होने बकरी को छोड़ दिया और पद्मानदी में स्नान कर श्री नरोतम ठाकुर जी के पास आए और उनसे दीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर उन्होने कृष्ण एवं उनके भक्तों की सेवा का दृणव्रत ले लिया । नरोतम जी के इस कार्य से उनके पिता क्रुद्ध हो गए और वैष्णव सिद्धान्त का खण्डन करने के लिए मिथिला से मुरारी नाम के एक स्मार्त पंडित को ले आए । किन्तु हरिराम और रामकृष्ण नामक नरोतम ठाकुर के दो शिष्यों ने ही गुरुकृपा के बल से उस स्मार्त पंडित के सारे विचारों का शास्त्र की युक्तियों के साथ खण्डन कर दिया । तब शिवानन्द ने दुखी होकर रात के समय देवी के सामने अपना दु:ख निवेदन किया । देवी ने उसे स्वप्न में डांटते हुए वैष्णवों के विरुद्ध आचरण करने को मना किया ।
क्रमश: श्रीगंगानारायण चक्रवर्ती, श्री जगन्नाथ आचार्य इत्यादि प्रसिद्ध ब्राह्मण नरोतम ठाकुर जी के शिष्य होने लगे जिससे स्मार्त ब्राह्मणों ने ईर्ष्या परवश राजा नरसिंह के पास शिकायत लगाई कि नरोतम शूद्र होते हुए भी ब्राह्मणों को शिष्य बना रहा हैं, वह जादू द्वारा सब को मोहित कर रहा हैं, उसको ऐसा कार्य करने से रोकना ही उचित हैं । राजा के साथ परामर्श करने के उपरान्त ये फैसला हुआ कि महदिग्विजय पण्डित श्रीरूपनारायण के द्वारा नरोतम ठाकुर को हराना होगा । राजा स्वयं दिग्विजय पण्डित को साथ लेकर खेतुरी धाम की ओर चल पड़े । किन्तु उनके इस प्रकार दुष्ट अभिप्राय की बात सुनकर श्रीरामचन्द्र कविराज और गंगानारायण चक्रवर्ती अत्यंत दु:खी हुए । जब उन्हे ये सुनने को मिला कि राजा दिग्विजय पण्डित एवं पण्डितों के साथ एक दिन कुमारपुर के बाज़ार में विश्राम करने के बाद फिर खेतुरी में आएंगे तो ये सुनते ही दोनों कुमारपुर के बाज़ार में पहुंचे और वहाँ पर कुम्हार और पान-सुपारी की दुकानें लगा कर बैठ गए । स्मार्त पण्डित जब कुम्हार और पान सुपारी की दुकान पर आए तो रामचन्द्र और गंगानारायण उनके साथ संस्कृत में बात करने लगे । दुकानदारों का ऐसा पांडित्य देखकर वे आश्चर्यचकित हो गए । फिर छात्रों द्वारा तर्क शुरू करने पर नरोतम ठाकुर के दोनों शिष्यों ने उनके तर्कों का खण्डन कर दिया । ये घटना जब राजा ने सुनी तो राजा भी पण्डितों के साथ वहाँ आकार शास्त्रार्थ करने लगे । रामचन्द्र कविराज और गंगानारायण चक्रवर्ती ने बातों ही बातों में उनके सारे विचारों का खण्डन कर शुद्ध भक्ति सिद्धांतों की स्थापना कर दी । राजा और पण्डित सामान्य दुकानदारों का ऐसा अद्भुत पाण्डित्य देखकर स्तम्भित हो गए । राजा को जब ये मालूम हुआ कि ये दोनों नरोतम ठाकुर के शिष्य हैं तो राजा ने पण्डितों को कहा कि जिनके शिष्यों के सामने ही आप लोग परास्त हो गए हो तो उनके गुरु जी के पास जाने से क्या होगा । बाद में राजा नरसिंह और रूपनारायण ने देवी के द्वारा स्वप्न में आदेश पाने पर नरोतम ठाकुर जी से अपने किए अपराध के लिए क्षमा मांगी एवं राधाकृष्ण के भक्त बन गए । श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में ऐसा लिखा हैं कि राजधानी खेतुरी से एक कोस दूर ‘भजनटूली’ पर ठाकुर महाशय का आश्रम था । श्रील नरोतम ठाकुर जी ने कीर्तन के द्वारा ही प्रचार किया था । ठाकुर महाशय ने ‘गरानहाटी’ नामक कीर्तन के अपूर्व सुरों का प्रवर्तन किया था । उनके द्वारा रचित ‘प्रार्थना’ और ‘प्रेमभक्ति चन्द्रिका’ भक्तों के प्राणस्वरूप हैं । भक्तों की अलग-अलग अवस्था में हृदय के अलग-अलग भावों के अनुरूप कीर्तन उसमे विद्यमान हैं जो कि भक्तों के मर्मस्पर्शी हैं । नरोतम ठाकुर जी की ‘प्रार्थना’ और ‘प्रेम भक्ति चन्द्रिका’ भक्तों की इतनी प्रिय हैं कि उसके न जाने कितने संस्करण छप चुके हैं । सुदूर मणिपुर राज्य में आज भि नरोतम ठाकुर जी का अद्भुत प्रभाव देखने को मिलता हैं । वहाँ पर वैष्णव धर्म का प्रचार इन महापुरुष की अलौकिक शक्ति के प्रभाव से ही हुआ हैं , ये सब स्वीकार करते हैं । नरोतम ठाकुर जी के पदावली कीर्तन आज भि मणिपुर के घर-घर में गए जा रहे हैं ।
श्रीनिवास आचार्य के शिष्य श्री रामचन्द्र कविराज नरोतम ठाकुर जी के चिरसंगी और अंतरंग सुहृद थे । पहले श्री रामचन्द्र कविराज के बाद एवं बाद में श्रीनिवासाचार्य के अप्रकट का संवाद सुनकर नरोतम ठाकुर जी ने विरह सागर में निमज्जित होकर जिस भाव से गान किया था उसको सुनने से पाषाण हृदय भी पिघल जाते हैं ।
“ ये आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर ।
हेन प्रभु कोथा गेला आचार्य ठाकुर ।।
काहाँ मोर स्वरूप-रूप, काहाँ सनातन ?
काहाँ दास रघुनाथ पतितपावन ?
काहाँ मोर भटटयुग, काहाँ कविराज ?
एककाले कोथा गेला गोरा नटराज ?
पाषाणे कुटिब माथा अनले पशिव ।
गौरांग गुणेर निधि कोथा गेले पाव ?
से सब संगीर संगे ये कैल विलास ।
से संग ना पाइया कान्दे नरोतमदास ।।”
अर्थात अतिशय करुणा करके जो प्रेमधन को लाये थे, वे आचार्य ठाकुर कहाँ चले गए ? कहाँ मेरे वो स्वरूप दामोदर हैं, कहाँ वे रूप गोस्वामी जी हैं, कहाँ सनातन गोस्वामी जी हैं तथा कहाँ वे पतित-पावन रघुनाथ दास गोस्वामी जी हैं । कहाँ मेरे गोपाल भट्ट गोस्वामी जी हैं, कहाँ मेरे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी जी हैं तथा कहाँ मेरे वे कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी हैं । ये सभी के सभी गौरजन एक साथ कहाँ चले गए ?
मैं पत्थर पर अपना सिर पटक दूँ या आग में कूद जाऊँ ——मैं कहाँ जाऊँ——– वे गौरांग गुणनिधि मुझे कहाँ जाने से मिलेंगे । उन महाप्रभु जी के संगियों के संग जिन्होने लीला विलास की, उन सब को न पाकर श्रीनरोतमदास ठाकुर जी क्रन्दन करते हैं ।
श्रील नरोतम ठाकुर जी गौरांग महाप्रभु जी के निजजन एवं रूपानुगवर थे, ऐसा उनका रूप गोस्वामी जी के पादपद्मों में अनन्य निष्ठासूचक कीर्तन से जाना जाता हैं ।
श्री रूपमंजरी-पद, सेई मोर संपद,
सेई मोर भजन पूजन ।
सेई मोर प्राणधन, सेई मोर आभरण,
सेई मोर जीवनेर जीवन ।।
सेई मोर रसनिधि, सेई मोर वांच्छा सिद्धि,
सेई मोर वेदेर धरम ।
सेई व्रत, सेई ताप, सेई मोर मन्त्र जप,
सेई मोर धरम-करम ।।
अनुकूल हबे विधि, से पदे हइबे सिद्धि,
निरखिव ए दुइनयने ।
से रूपमाधुरीराशि, प्राण-कुवलय-शशी,
प्रफुल्लित हबे निशिदिने ।।
तुया-अदर्शन-अहि , गरले जारल देही,
चिरदिन तापित जीवन ।
हा हा प्रभु ! कर दया, देह मोरे पदछाया ,
नरोतम लइल शरण ।।
अर्थात श्री रूप मंजरी के श्रीचरण ही मेरी सम्पत्ति हैं, वे ही मेरा भजन-पूजन हैं । वे ही मेरे प्राणधन हैं, वे ही मेरे आभरण हैं । वे ही मेरे जीवन के जीवन हैं, वे ही मेरी रस-निधि हैं, वे ही मेरी वांच्छा-सीधी हैं, वे ही मेरे वेद-धर्म स्वरूप हैं । वे ही मेरा व्रत हैं । वे ही मेरी तपस्या हैं,वे ही मेरे मन्त्र जप हैं,वे ही मेरे धर्म-कर्म हैं, जब कभी विधि अनुकूल होगा, तब ही मेरा उन चरणों में सिद्धि होगी और तब उन्हे मैं इन दोनों नेत्रों से दर्शन करूंगा । उस अपार रूप माधुरी को देख कर मेरे प्राण रूप कुमुद रात-दिन प्रफुल्लित होंगे । आपके अदर्शन रूप सर्प के विष से यह शरीर जला जा रहा हैं जिससे मेरा ये जीवन चिरकाल से तापित हैं । श्रीनरोतमदास ठाकुर जी कहते हैं –हाँ ! हाँ ! प्रभो !! मुझ पर दया कीजिये , मुझे अपनी पदछाया प्रदान कीजिये ।मैंने आपकी शरण ग्रहण की हैं ।
श्रील नरोतम ठाकुर जी ने कार्तिकी कृष्णा पंचमी को तिरोधान लीला की थी ।
श्रीनरोतम – प्रभोरष्टकम
श्रीकृष्णनामामृतवर्षिवक्त्र – चन्द्रप्रभा – धवस्त – तमोभराय ।
गौरांग – देवानुचराय तस्मै नमो नम: श्रील नरोतमाय ।।
संकीर्तनानन्द मन्दहास्य दन्तद्युति – द्योतित – दिडमुखाय ।
स्वेदाश्रुधारा – स्नपिताय तस्मै नमो नम: श्रील – नरोतमाय ।।
मृदंग नाद – श्रुतिमात्र चंचलत पदाम्बुजामन्द – मनोहराय ।
सद्य: समुद्यत – पुलकाय तस्मै नमो नम: श्रील – नरोतमाय ।।
गन्धर्व-गर्व – क्षपण – स्वलास्य –विस्मापिताशेष -कृति – व्रजाय ।
स्वसृष्ट – गान- प्रथिताय तस्मै नमो नम: श्रील – नरोतमाय ।।
आनन्द-मूर्छावनिपात – भात – धूलि – भरालंकृत विग्रहाय ।
यददर्शनं भाग्यभरेण तस्मै नमो नं: श्रील – नरोतमाय ।।
स्थले स्थले यस्य कृपाम–प्रपाभि:कृष्णान्यतृष्णा जन– संहतीनाम।
निर्मूलिता एव भवन्ति तस्मै नमो नं: श्रील – नरोतमाय ।।
यदभक्ति – निष्ठोपल – रेखिकेवस्पर्श: पुन: स्पर्शगणीव यस्य ।
प्रामाण्यमेवं श्रुतिवद यदीयम । तस्मै नं: श्रील – नरोतमाय ।।
मूर्तैव भक्ति: किमयं किमेष वैराग्यसारस्तनुमान नृलोके ।
संभाव्यते य: कृतिभि: सदैव तस्मै नमः: श्रील – नरोतमाय ।।
अर्थात श्रीकृष्णनाम अमृत का वर्षण करने वाले जिनके श्रीमुखचन्द्र की छटा से जीव का अज्ञान रूपी अंधकार जड़ से ही विनष्ट हो जाता हैं, उन्ही श्रीगौरांग देव जी के अनुचर श्री श्री नरोतम ठाकुर जी को बारम्बार प्रणाम हैं । श्रीकृष्ण संकीर्तन के आनन्द के कारण मंद-मंद मुस्कराते समय जिनके दांतों की कांति की छटा से दिगवधुओं के मुख भी खिल उठते हैं एवं उस समय प्रेमविकार स्वरूप पसीने और अश्रुओं की धारा से अभिषिक्त या भीगे हुए रहते हैं उन श्रीश्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं । मधुर मृदंगध्वनि सुनते ही जिनके चंचल चरण-कमल सज्जनगणों के मन को हरण करते हैं एवं उसी समय जिनके श्रीअंग पुलकायमान हो उठते हैं, उन्ही श्री श्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं । जो गन्धर्वों के अभिमान को चूर करने वाले अपने नृत्य से अत्यंत दक्ष व्यक्तियों के मन में विस्मय पैदा करने वाले हैं और स्वरचित गीतावली के प्रभाव से जिनका यश चारों तरफ फैल गया हैं उन्ही श्रील नरोतम ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं। प्रेमानन्द की अधिकता से जो मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ते हैं, उड़ती हुई धूलि से जिनके श्रीअंग सुशोभित होते हैं और परम सौभाग्य होने से ही जिनके दर्शन होते हैं उन श्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं । जगह-जगह पर जिनके कृपा रूपी जल के प्याऊ लगे हुए हैं जिनके कारण लोगों की विषयों की प्यास समूल नष्ट हो रही हैं – उन्ही श्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं । जिनकी भक्ति में निष्ठा पत्थर पर खींची रेखा के समान दृण हैं, जिनके श्रीअंगों का स्पर्श करने से वैसे ही सारी वान्छायेँ पूर्ण हो जाती हैं जैसे पारसमणि को स्पर्श करने से, जिनके मुख से निकले हुए वाक्य वेद-वाक्यों की तरह ही प्रमाणित हैं, उन्ही श्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं । जिनके दर्शन कर पराविद्या में विशारद मनीषि लोग हमेशा मन-मन में ऐसा सोचते हैं, कि क्या ये मूर्तिमती भक्ति नरलोक में रह रही हैं ; या ये वैराग्य के सार के विग्रह स्वरूप हैं, उन्ही श्रील नरोतम दास ठाकुर महाशय को बारम्बार प्रणाम हैं ।