Play/Pause

Gaudiya Acharyas

श्रील बलदेव विद्याभूषण

श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी के आविर्भाव के समय और स्थान के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं जाना जाता। ऐतिहासिक लोग महापुरुषों के स्थान, समय के निर्धारण के सम्बन्ध में ध्यान दें तो इन सब विषयों का अभाव दूर हो सकता है। श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी के पावन चरित्र के सम्बन्ध में जो थोड़ा-बहुत विवरण मिलता है उससे ऐसा अनुमान होता है कि वे 18वीं शताब्दी में आविर्भूत हुए थे। उपरोक्त विवृति से यह भी जाना जाता है कि चाहे इनके आविर्भाव स्थान के विषय में जाना नहीं जाता फिर भी यह उड़ीसा में बालेश्वर जिले के रेमुणा के पास के ही किसी गांव में आविर्भूत हुए थे। श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा रचित स्तव माला की श्री बलदेव भूषण जी द्वारा की गई ‘स्तवमाला-विभूषण’ नामक टीका की रचना में जो सन् दिया गया है उससे स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि बलदेव विद्याभूषण प्रभु सन्1757 में प्लासी युद्ध के बाद प्रकट हुए थे। इनकी विद्या विलास लीला के सम्बन्ध में ऐसा माना जाता है कि इन्होंने चिल्का हद के किनारे, पण्डितों के निवास स्थान किसी वर्दिध्ष्णु नामक ग्राम में व्याकरण, अलंकार और न्यायशास्त्र का अध्ययन करके उस में पारंगति प्राप्त की थी। कुछ दिन वेद अध्ययन करने के पश्चात आप वेदांत के विभिन्न आचार्यों द्वारा किए गए भाष्यों का अध्ययन करने के लिए महीशूर भी गए थे। उस समय यह मध्वाचार्य जी के शुद्धाद्वैत मत को युक्ति संगत समझ कर उस सम्प्रदाय के शिष्य बन गए एवं तत्ववादियों के मठ में रहने लगे। सन्यास लेने के बाद यह पुरुषोत्तम क्षेत्र में आए पण्डितमण्डली के साथ शास्त्र युद्ध किया और उन्हें परास्त कर दिया जिससे इनके अगाध पाण्डित्य की प्रतिभा चारों ओर फैल गयी।
बाद में इन्होंने कान्यकुब्ज देश के श्री राधा दामोदर जी से श्री जीव गोस्वामी जी द्वारा रचित षटसन्दर्भों का अति सूक्ष्मता से अध्ययन किया जिससे यह गौड़ीय वैष्णव धर्म की सर्वोत्तमता को समझ सके और यह उनके शिष्य बन गये।
श्री नित्यानन्द प्रभु जी की शिष्य परम्परा में श्री गौरी दास पण्डित, इन के बाद श्री हृदय चैतन्य प्रभु, इसके बाद श्री श्यामानन्द प्रभु, इसके बाद श्री रसिकानन्द देव गोस्वामी, इसके बाद श्री श्रीनयनानन्द जी से दीक्षित शिष्य थे – श्री राधादामोदर जी। श्री बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी ने पीताम्बर दास जी से भक्ति शास्त्र एवं श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी से श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया था। उस समय यह गौड़ीय वैष्णव समाज में ‘एकान्ती गोविंदास’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे।
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती जी के आदेश से ये श्री वृन्दावन धाम से जयपुर आए थे। जयपुर आकर इन्होंने श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा सेवित श्री गोविन्द जी का आशीर्वाद लेकर वेदान्त के ‘गोविन्दभाष्य’ की रचना कर श्री सम्प्रदाय की गलता गद्दी पर गौड़ीय वैष्णव धर्म की मर्यादा का संरक्षण किया था। तब से यह ‘विद्याभूषण’ की उपाधि से विभूषित हुये। ये प्रसंग इसी ग्रन्थ के श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी के पावन संक्षिप्तचरितामृत में वर्णित हुआ है। कहा जाता है कि इन्होंने गलता गद्दी पर ‘विजयगोपाल’ नामक विग्रह की प्रतिष्ठा की थी। उनके शिष्यों मेंश्री उद्धव दास और श्री नन्दन मिश्र का नाम प्रसिद्ध है।
श्री बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी द्वारा रचित ग्रन्थों की पालिका नीचे दी जारही है–
1.ब्रह्मसूत्रभाष्य–गोविन्द भाष्य,2. सिद्धान्त रत्न,3. वेदान्त स्यमन्तक,4. प्रमेय रत्नावली,5.सिद्धान्त दर्पण,6. साहित्य कौमुदी,7.काव्य कौस्तुभ,8. व्याकरण कौमुदी (दुष्प्राप्य),9. पद कौस्तुभ,10. वैष्णवानन्दिनी,11. गोपाल तापनी भाष्य,12. ईशादि-दशोपनिषद-भाष्य,13. श्री गीता भूषण भाष्य,14. श्री विष्णु सहस्त्र नाम भाष्य (नामार्थसुधा),15. श्री संक्षेप भागवतामृत टिप्पणी ‘सारंग रगदा’,16.तत्व सन्दर्भ – टीका,17. श्रील रूप गोस्वामी जी की स्तवमाला का ‘स्तवमाला- विभूषण’ भाष्य,18. नाटक चन्द्रिका टीका (दुष्प्राप्य),19.छन्द कौस्तुभ भाष्य,20. श्री श्यामानन्द शतक टीका,21. चन्द्रालोक टीका (दुष्प्राप्य),22. साहित्य कौमुदी टीका–कृष्णानन्दिनी,23. श्री गोविन्द भाष्य टीका–सूक्ष्मा।ऐसा कहा जाता है किे इनके अतिरिक्त श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी ने ‘ऐश्वर्याकादम्बिनी’ नामक एक ग्रन्थ लिखा है जो कि विश्वनाथ चक्रवर्तीपाद जी द्वारा लिखे ‘ऐश्वर्यकादम्बिनी’ ग्रन्थ से अलग है।
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी द्वारा लिखित ‘ऐश्वर्यकादम्बिनी’ में द्वैताद्वैत का प्रसंग है किन्तु बलदेव जी का कृत ‘ऐश्वर्यकादम्बिनी’ में वह प्रसंग नहीं है। श्री ब्रह्म-माधव-सारस्वत-गौड़ीय वैष्णवसम्प्रदाय की शुद्ध भागवत परम्परा या सद्गुरु परम्परा में श्री बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी नित्य स्मरणीय है। जैसे कि-

विश्वनाथ भक्तसाथ-बलदेव-जगन्नाथ
ताँर प्रिय श्री भक्ति विनोदा॥