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Gaudiya Acharyas

श्रीवास पण्डित

“पंचतत्त्वात्माकं कृष्णं भक्तरूप स्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्त शक्तिकम् ॥”
(श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी के कड़चा से उद्धृत)

पंचतत्त्वात्मक श्रीकृष्ण को अर्थात् श्रीकृष्ण के (1) भक्तरूप,(2) भक्त स्वरूप, (3) भक्तावतार, (4) भक्त और (5) भक्त शक्ति को मैं प्रणाम करता हूँ ।

    शक्तिमान वस्तु पाँच विभिन्न प्रकार के लीला परिचय से इन पाँच तत्वों में प्रकाशित है। वस्तु में द्वैतभाव होने के कारण एक होते हुए भी इसकी पाँच प्रकार की वैचित्री है। श्रीगौराङ्ग, श्रीनित्यानन्द, श्रीअद्वैत, श्रीगदाधर और श्रीवासादि, इन पंचतत्त्वों में वस्तुतः कोई भेद नहीं है परन्तु रसास्वादन के उद्देश्य से वह विचित्र लीलामय एक तत्त्व ही ‘भक्तरूप’,‘भक्त-स्वरूप’,‘भक्तावतार’,‘भक्तशक्ति’ तथा ‘शुद्ध भक्त’–इन पाँच विभिन्न रूपों में बंटा हुआ है। इन पाँच तत्त्वों में स्वयं भगवान् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भक्त-भाव अङ्गीकार करके श्रीगौरांग रूप में ‘भक्तरूप’, स्वयं-प्रकाश श्रीबलदेव जी भक्त-भाव ग्रहण करके श्रीनित्यानन्द रूप में ‘भक्त-स्वरूप’, महाविष्णु के अवतार भक्तभाव को अङ्गीकार करके श्रीअद्वैताचार्य रूप में ‘भक्तावतार’,के रूप में प्रकट हुए। यह सारे ही विष्णु तत्त्व हैं। ‘भक्तशक्ति’ और ‘शुद्ध भक्त’– वस्तु तत्त्व के अंतर्गत तदाश्रित अभिन्न शक्ति तत्त्व हैं। भक्त-शक्ति में श्रीगदाधर, श्रीस्वरूप दामोदर व श्रीरायरामानन्द आदि के नाम आते हैं जबकि शुद्ध भक्त – शान्त व दास्य आदि रसों के श्रीवास आदि भक्त हैं। अतएव श्रीवास पण्डित पंचतत्त्व के अन्तर्गत हैं।
                                     श्रीवास पण्डित जो पहिले श्रीहट्ट ज़िला में रहते थे, ने बाद में नवद्वीप में आकर गौरपार्षद रूप से गौर-लीला की पुष्टि की। इनके पिता श्रीजलधर पण्डित वैदिक ब्राह्मण थे। श्रीजलधर पण्डित के पाँच पुत्रों में श्रीवास अथवा श्रीनिवास द्वितीय पुत्र थे। इनके बड़े भाई का नाम श्रीनलिन पण्डित था तथा छोटे भाइयों के नाम श्रीराम पण्डित, श्रीपति पण्डित और श्रीकान्त पण्डित अथवा श्रीनिधि पण्डित था। इनके बड़े भाई श्रीनलिन पण्डित की पुत्री श्रीमति नारायणी देवी थी। इन्हीं श्रीमति नारायणी देवी के सुपुत्र श्रीवृन्दावनदास ठाकुर ही ‘श्रीचैतन्य भागवत’ के रचयिता थे। श्रीमती नारायणी देवी के पति का नाम श्रीवैकुण्ठदास पण्डित था। जब वृन्दावनदास ठाकुर माता के गर्भ में थे, उसी समय उनके पिता ने परलोक गमन किया। पति की मृत्यु के पश्चात् श्रीमती नारायणी देवी कुमारहट्ट (हालिशहर) स्थित पतिगृह को त्याग कर नवद्वीप स्थित श्रीवास पण्डित के घर में आकर रहने लगी। श्रीनारद मुनि ही गौर लीला में श्रीवास पण्डित रूप से अवतरित हुए। श्रीनारद के सखा पर्वत मुनि श्रीवास के छोटे भाई श्रीराम पण्डित के रूप में अवतरित हुए तथा श्रीवास-पत्नी श्रीमती मालिनी देवी श्रीकृष्ण को स्तन पान कराने वाली व्रज की एक धात्री थीं।

“श्रीवास पण्डितो धीमान् य: पुरा नारदो मुनि:।
पर्वताख्यो मुनिवरो य आसीन्नारदप्रिय:।
श्रीराम पण्डित: श्रीमान् तत् कनिष्ठ सहोदर:॥
नाम्नाम्बिका व्रजे धात्री स्तन्यदात्री स्थित पुरा।
सैवेयं मालिनी नाम्नी श्रीवास गृहिणीमता॥”
(गौ.ग.दी.-10)

श्रीमहाप्रभु जी का चार स्थानों में नित्य आविर्भाव है –

“शचीर मन्दिरे, आर नित्यानन्द नर्तने।
श्रीवास कीर्तने, आर राघव भवने॥
एइ चारि ठाञि प्रभुर सदा आविर्भाव।
प्रेमाकृष्ट-हय, प्रभुर सहज स्वभाव॥”
(चै. च. आ.  2/34-35)

अर्थात् शची-माता के भवन में, श्रीनित्यानन्द प्रभु के नृत्य में, श्रीवास पण्डित के कीर्तन में तथा श्रीराघव जी के भवन में – इन चारों स्थानों में श्रीमहाप्रभु नित्य विराजमान रहते हैं।


                   श्रीनिमाई विद्या-विलास लीला के समय श्रीमुकुन्द और श्रीगदाधर आदि भक्तों को लेकर तर्क-वितक किया करते थे तथा उनके विचारों का खण्डन करके उन्हें पुन: स्थापन भी किया करते थे। भक्तगण आश्चर्यचकित होकर विचार करते कि निमाई यदि कृष्ण-भक्त होता तो इसकी विद्या सफल हो जाती। निमाई जब श्रीवासादि भक्तों को देखकर प्रणाम करने की लीला करते तो वे लोग निमाई को कृष्ण-भक्ति लाभ होने का आशीर्वाद देते।
                          एक दिन श्रीवास ओनदीत ने श्रीमहाप्रभु को रास्ते में देखते ही कहा – “लोग कृष्ण-भक्ति प्राप्त करने के लिए पढ़ाई करते हैं। यदि पढ़-लिखकर कृष्ण में भक्ति ही न हुई तो ऐसी विद्या से क्या लाभ? अतएव समय नष्ट न करके तुम शीघ्र ही कृष्ण-भजन करना आरम्भ कर दो।” श्रीमन्महाप्रभु अपने भक्त के मुख से यह बात सुनकर प्रसन्नता पूर्वक बोले – “तुम भक्त हो, तुम्हारी कृपा से मुझे कृष्ण-भक्ति अवश्य ही प्राप्त होगी।” यह एक अद्भुत चमत्कारमयी लीला है कि श्रीमन् महाप्रभु जी की लीला शक्ति- योगमाया के प्रभाव से भक्त लोग महाप्रभु जी के प्रति स्वाभाविक रूप से आकृष्ट होने पर भी उनके परमेश्वर रूप को नहीं समझ पा रहे हैं।

गयासे लौटने के पश्चात्श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रेम-उन्मत होकर नाना प्रकार से विकार प्रदर्शन करने पर शची माता मन-मन में यह सोचकर कि उनके पुत्र निमाई को वायुरोग हो गया है – अत्यन्त दु:खित हुईं। श्रीवास पण्डित जब श्रीमन्महाप्रभु के पास गये तो श्रीमन्महाप्रभु ने उन्हें कहा कि मुझे सब लोग वायु-रोग से ग्रसित बता रहे हैं किन्तु आप बताइए कि मुझे क्या हो गया है”। उत्तर में श्रीवास पण्डित हंसते हुए कहने लगे – यह आपने अच्छी कही –

तोमाय जे मत वाइ, तांहा आमि चाई।
महाभक्ति योग देखि तोमार शरीरे॥
श्रीकृष्णेर अनुग्रह हइल तोमारे।

(अर्थात् आपको जैसा वायु-रोग हुआ है वैसा वायु-रोग तो मैं भी चाहता हूँ। तुम्हारे शरीर में महाभक्ति योग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं और आप पर श्रीकृष्ण का अनुग्रह हुआ है।)

                            श्रीमन्महाप्रभु श्रीवास पण्डित को आलिंगन करते हुए बोले कि आप भी यदि मुझे वायु रोग से ग्रसित बताते तो मैं निश्चय ही गंगा जी में कूद पड़ता।

                                 श्रीमन्महाप्रभु के घर में तथा श्रीवास पण्डित के गृह में उच्च संकीर्तन सुन कर पाखण्डी लोगों की निद्रा भंग हो जाती, जिस कारण वे लोग नाना-युक्तियों द्वारा इन लोगों को डराने लगे कि हरिनाम संकीर्तन की उच्च ध्वनि को सुनकर यवन राजा आकर उनको उपयुक्त दण्ड देंगे। सरल स्वभाव श्रीवास पण्डित उन पाखण्डियों की बातों का विश्वास करके बहुत भयभीत हुए एवं डरकर श्रीनरसिंह देव की पूजा करने लगे। भक्त की पीड़ा हरने वाले श्रीमन्महाप्रभु श्रीवास पण्डित को सशंकित देखकर उन्हें अभय प्रदान करने के लिए उनके घर में गये। दरवाज़ा बन्द देखकर महाप्रभु जी ने पाँव से आघात किया तथा दरवाज़ा खोलकर पण्डित से पूछने लगे कि तुम किस की पूजा करके ध्यान कर रहे हो। जिसकी तुम पूजा कर रहे हो, देखो! वह तो मैं ही हूँ। मैं साधुजनों का उद्धार करके दुष्टों का विनाश करूँगा, तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए।” ऐसा कहकर श्रीमन्महाप्रभु वीरासन से बैठ गये तथा उन्होंने श्रीवास पण्डित को शंख, चक्र, गदा, पद्माधारी अपने ईश्वर रूप का दर्शन कराया।

                                     श्रीमन्महाप्रभु का अति सुन्दर रूप का दर्शन करते हुए प्रेम में विभोर होकर श्रीवास पण्डित उनकी स्तुति करने लगे। श्रीवास पण्डित की स्तुति से सन्तुष्ट होकर श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीवास की स्त्री, पुत्र तथा समस्त सम्बन्धियों को अपने ईश्वर रूप का दर्शन कराया। श्रीवास की भतीजी नारायणी को भी अपना अवशिष्ट प्रसाद देकर कृपा पूर्वक उससे कृष्ण नाम का उच्चारण करवाया। भक्त जैसे भगवान को प्रिय हैं, भगवान भी उसी प्रकार भक्तों को अति प्रिय हैं।

                                     श्रीधाम मायापुर में जब श्रीगौर-नित्यानन्द की मिलन लीला का समय हुआ तो नन्दनाचार्य भवन में श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु को आया जानकर श्रीमन् महाप्रभु ‘श्रीनित्यानन्द तत्व’ को प्रकाशित करने के लिए सब भक्तों को लेकर वहाँ पहुँचे एवं श्रीवास को श्रीमद भागवत का कोई श्लोक उच्चारण करने के लिए कहा। श्रीवास पण्डित ने प्रभु का संकेत समझकर श्रीमद भागवत से कृष्ण ध्यान सम्बन्धी एक श्लोक उच्चारण किया –

बर्हापीड़ं नटवर वपु: कर्णयो: कर्णिकारं।
विभ्रदवास: कनककपिशं वैजयन्तीन्च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधर सुधया पूरयन् गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीत कीर्ति:*
(भा. 10/21/5)

*(उस समय नटवर वपु श्रीकृष्ण ने श्रीमस्तक पर मोर का पंख, दोनों कानों में कनेर के पीले पीले पुष्प तथा सुनहरा पीताम्बर वस्त्र एवं गले में वैजयन्ती माला धारण कर के अधरामृत के द्वारा वंशी के छिद्रों को भरते हुए शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि लक्षणों से युक्त अपने पाद पद्मों की रति अर्थात् लीला स्थली वृन्दावन में प्रवेश किया, तब गोपियाँ उनकी महिमा का कीर्तन कर रही थीं। )

श्लोक को श्रवण करने मात्र से ही श्रीनित्याननद मूर्च्छित हो गये और उनके अंगों में अष्टसात्विक विकार प्रकट होने लगे। तत्पश्चात श्रीविश्वम्भर जी ने नित्यानन्द जी को अपनी गोद में उठा लिया।

एक दिन श्रीमहाप्रभु जी ने नित्यानन्द जी को व्यास पूजा करने के लिए इशारा किया। श्रीमन् नित्याननद जी की व्यवस्था के अनुसार श्रीवास जी के गृह में ही व्यास पूजा का आयोजन हुआ। व्यास पूजा के अधिवास कीर्तन में महाप्रभु जी ने बलदेवावेश में नित्यानन्द जी के बलदेव स्वरूप का प्रदर्शन किया और श्रीअद्वैताचार्य जी को ‘नाड़ा नाड़ा’ कहकर पुकारने के छल से अपने अवतार का मर्म प्रकाशित किया। अगले दिन व्यास पूजा करते समय जैसे ही नित्यानन्द प्रभु जी ए अर्घ्य व माला महाप्रभु जी के मस्तक पर अर्पण की तो उसी समय महाप्रभु जी ने नित्याननद जी को अपना षड्भुज रूप दिखाया। हुआ ऐसा कि व्यास पूजा के आचार्य श्रीवास पण्डित जी ने जब नित्यानन्द जी के हाथों में माला देकर मन्त्रोच्चारण के साथ व्यासदेव जी को प्रदान करने के लिये कहा तो नित्यानन्द जी ने वह माला महाप्रभु जी के गले में डाल दी। श्रीवयस जी की पूजा समापन करने के पश्चात् महाप्रभु जी ने भक्तों को संकीर्तन करने का आदेश दिया। संकीर्तन के पश्चात् श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवास जी से व्यास जी का नेवैद्य मांग लिया और सब को अपने हाथ से प्रसाद दिया। भक्तों ने परमानन्द से उस प्रसाद का भोजन किया। श्रीवास के दास-दासियों को भी महाप्रभु जी ने प्रसाद दिया।

श्रीवास जी की नित्यानन्द जी में निष्ठा देखकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवास को वर प्रदान किया कि तुम्हारे घर में लक्ष्मी का कभी भी अभाव नहीं होगा और तुम्हारे घर में कुत्ते-बिल्ली तक की भी श्रीभगवान में अचला भक्ति होगी।

श्रीमन्महाप्रभु जी की इच्छा के अनुसार प्रति रात्रि श्रीवास के घर में संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। इसमें श्रीमन् महाप्रभु जी केवल अपने पार्षदों को लेकर ही संकीर्तन विलास करते थे। एक बार हरिवासर तिथि को जब श्रीवास आंगन में जब कीर्तन आरम्भ हुआ तो उस दिन महाप्रभु जी के शरीर में प्रेम के विविध विकार प्रकाशित होने लगे –

हरिवासरे हरि कीर्त्तन विधान।
नृत्य आरम्भिला प्रभु जगतेर प्राण॥
पुण्यवन्त श्रीवास-अंगने शुभारम्भ।
उठिल कीर्तन ध्वनि-गोपाल ‘गोविन्द’॥
हरि ओ राम-राम॥ध्रु॥
(चालीस पद कीर्तन चै.भा.म.8)

श्रीमन्महाप्रभु जी की आज्ञा के अनुसार द्वार बन्द करके संकीर्तन होता था। ऐसा होने से अर्थात् अन्दर प्रवेश न कर पाने के कारण पाखण्डी लोग कड़वी-कड़वी बातें कहकर महाप्रभु जी की निन्दा करते परन्तु महाप्रभु जी के भक्त उन सब बातों पर ध्यान न देते और कीर्तन विलास में मस्त रहते थे। रासक्रीड़ा की लम्बी रात्रि भी गोपियों को जैसे तिलार्द्ध की तरह अनुभव हुई थी उसी प्रकार श्रीमन्महाप्रभु के कीर्तन विलास में मत होकर भक्तों की रात्रि भी न जाने कैसे गुज़र जाती। एक दिन कीर्तन के पश्चात् महाप्रभु जी सारे शालिग्रामों को गोद में लेकर विष्णु आसान पर आसीन हो गये और अपने तत्व को प्रकाश करते हुये भक्तों द्वारा प्रदत सब उपहार भक्षण करने लगे।

इसी प्रकार एक दिन श्रीवास भवन में श्रीमन्महाप्रभु जी ने ‘महाप्रकाश लीला’ प्रकट की। इस दिन भक्तभव और आवेश भाव का संवरण  कर बिना किसी माया-आवरण के सात प्रहार तक अपने अप्राकृत स्वरूप में विष्णु आसन पर विराजमान रहे। उनके इंगित करने पर भक्तों ने श्रीगौरनारायण का राजराजेश्वर विधि से अभिषेक किया तथा पूजा की। श्रीगौरसुन्दर जी ने भी अपने चरण पसार कर सबकी अभीष्ट पूजा स्वीकार की और सब भक्तों को अपने अभीष्ट वर भी प्रदान किये। इस सात-प्रहरिया लीला में श्रीगौरसुन्दर जी ने विष्णु के समस्त अवतारों के रूपों को प्रकाशित किया था।

 

एक दिन श्रीवास जी की सास प्रभु के कीर्तन को देखने की आशा से एक कोने में छिपकर बैठ गयी परन्तु सर्वभूतान्तर्यामी महाप्रभु जी जान गये और उस दिन नृत्य में आनन्द न आने की बात पुन: पुन: बटलने लगे। इससे भक्तों के साथ श्रीवास भी अत्यन्त भयभीत व चिन्तित होकर खोजने लगे कि घर में कोई बाहर का व्यक्ति तो नहीं है। अपनी सास को घर में छिपी हुई देखकर श्रीवास अत्यन्त दु:खी हुये और उन्होंने उसे केशों से पकड़ लिया तथा घसीट कर घर से बाहर कर दिया। (कारण, महाप्रभु जी के कृपा प्राप्त व्यक्ति को छोड़कर और किसी को भी लीला के दर्शन का अधिकार न था।)

श्रीचन्द्रशेखर भवन में जब महाप्रभु जी ने व्रज लीला का अभिनय किया था तब श्रीवास जी ने नारद जी की भूमिका निभाई थी। श्रीअद्वैताचार्य ने महा विदूषक, हरिदास जी ने कोतवाल, स्वयं महाप्रभु जी ने पहले रुक्मिणी का और बाद में आद्या-शक्ति के रूप का और नित्यानन्द जी ने योगमाया का अभिनय किया था। ये ठीक है कि बाद में श्रीमन्महाप्रभु ने लक्ष्मी भाव से सिंहासन पर चढ़कर व स्नेहाविष्ट होकर जगतजननी रूप से सभी भक्तों को स्तनपान करवाया था।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवासांगन में पूरे एक वर्ष तक सारी-2 रात संकीर्तन किया था। श्रीवास भवन में जब द्वार बन्द कर संकीर्तन होता था तो उस समय अनेक बहिर्मुख ब्राह्मण लोग वैष्णवों का उपहास करने की चेष्टा करते थे। श्रीवास के घर में प्रवेश न कर पाने के कारण दुर्मुख वाचाल पाखण्डियों में प्रधान गोपाल-चापाल नाम के एक ब्राह्मण (भट्टाचार्य) ने श्रीवास को अपमानित करने के लिये जवाफूल (लाल फूल), लाल चन्दन, मदिरा के पात्र आदि देवी पूजा की सामग्री केले के पत्ते के ऊपर रखकर श्रीवास के घर के बन्द द्वार के सामने रख दी। प्रात: काल जब द्वार खोला गया और सामने यह सब देखा तो श्रीवास पण्डित हँसते हुये बोले – देखो- देखो, मैं प्रतिदिन रात के समय भवानी पूजा करता हूँ। अब तो तुम सब समझ गये कि मैं शाक्त हूँ।  किन्तु सज्जन लोग यह सब देखकर अत्यन्त दु:खी हुये और सफाई करने वाले को बुलवाकर उन्होंने उन सब मद्यादि गन्दी वस्तुओं को दूर गिरवाया और गोबर से लीपकर उस स्थान को पवित्र किया। उसी वैष्णव अपराध के कारण गोपाल चापाल को कोढ़ हो गया था। जब महाप्रभु जी गंगाघाट पर आये तो गोपाल चापाल ने उनसे रोग मुक्ति के लिये प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना सुनकर महाप्रभु जी क्रोधित होते हुये बोले:-

आरे पापी, भक्तद्वेषी, तोरे ना उद्धारिमु।
कोटि जन्म एइ मते कीड़ाय खवाइमु॥
श्रीवासे कराइल तुइ भवानी-पूजन।
कोटि जन्म हबे तोर रौरवे पतन॥
(चै.च.आ. 17/51-52)

(अर्थात्, अरे पापी, भक्त द्वेषी। तेरा उद्धार नहीं करूँगा। करोड़ जन्म तक तुझे इसी प्रकार कीड़ों से खिलवाऊंगा। तूने श्रीवास से भवानी पूजन करवाया, तेरे तो करोड़ों जन्मों तक रौरव नरक में पाटन होगा।) श्रीमन्महाप्रभु जी संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् जब नीलाचल से अपराध भंजनपाट-कुलिया (कोलद्वीप-वर्तमान शहर नवद्वीप) में आये तो उस समय जब गोपाल-चापाल ने रोग से मुक्ति के लिये प्रार्थना की तो श्रीमहाप्रभु जी को दया आ गयी और उन्होंने उसे श्रीवास पण्डित के पास जाकर क्षमा प्रार्थना करने के लिये कहा। जिस वैष्णव के चरणों में अपराध हो उसी भक्त के पास जाकर क्षमा याचना करनी होती है, तभी अपराध मार्जन होता है। श्रीवास पण्डित के चरणों में क्षमा याचना करके गोपाल चापाल पूर्व कृत अपराध से मुक्त हो गया।

श्रीमद भागवत के महाध्यापक होने पर भी देवानन्द पण्डित भाग्यदोष से भक्ति हीन थे। एक समय श्रीवास पण्डित देवानन्द पण्डित की भागवत व्याख्या श्रवण करने के लिये गये। भक्तराज श्रीवास भागवत श्रवण करके प्रेम में उन्मत हो गये व क्रन्दन करने लगे। उनके क्रन्दन करने पर देवानन्द के पाखण्डी छात्रों ने उनको सभा से बाहर निकाल दिया। देवानन्द पण्डित ने अपने छात्रों को ऐसा करने से माना भी नहीं किया, जिससे उसका वैष्णव अपराध हो गया था। बाद में सौभाग्य वशत: कुलिया में श्रीवाकरेश्वर पण्डित का संग प्राप्त होने से देवानन्द पण्डित श्रीमन्महाप्रभु जी के तत्व से अवगत हुये व अपने वैष्णव अपराध के लिये अनुतप्त हुये। इसके बाद उन्होंने भी श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा प्राप्त की। व्रजलिला में ये नन्दमहाराज के सभा-पण्डित – ‘भागुरि मुनि’ थे।

एक दिन एक दुग्धाहारी ब्रह्मचारी ने चिप कर प्रभु का कीर्तन विलास दर्शन करने के लिये श्रीवास जी का अनुरोध किया। ब्रह्मचारी और सात्विक आहारी जानकर श्रीवास जी उसे अपने घर में ले आये। श्रीवास की युक्ति के अनुसार ब्राह्मण घर में चिप कर बैठ गया किन्तु अन्तर्यामी महाप्रभु जान गये और बोले कि आज कीर्तन में आनन्द नहीं आ रहा है, ऐसा लगता है कि किसी बहिर्मुख व्यक्ति ने घर में प्रवेश किया है। महाप्रभु जी की बात सुनकर भयभीत भाव से श्रीवास पण्डित बोले कि एक दुग्धाहारी ब्रह्मचारी द्वारा आपके नृत्य के दर्शन करने के लिये विशेष आग्रह प्रकाशित करने पर उसकी तपस्या और आर्ति को देखकर मैंने उसे घर में स्थान दिया है। यह सुन महाप्रभु जी क्रोधित हो गये और बोले कि श्रीकृष्ण में शरणागति के अतिरिक्त दुग्धपान इत्यादि बहिर्मुख तपस्या द्वारा कृष्णभक्ति की प्राप्ति नहीं होती, उसको यहां से बाहर कर दो। ब्राह्मण भय से घर बाहर हो गया और बाहर से आंशिक दर्शन की सौभाग्य की प्राप्ति के लिये अनुरोध करने लगा। परमकरुण श्रीमन्महाप्रभु जी ने उसको बुलाकर अपने पादपद्म उसके मस्तक पर रख दिये और तपस्यादि की दाम्भिकता का प्रदर्शन करने के लिये निषेध किया।

श्रीमन्महाप्रभु द्वारा ‘अमानी मानद’ होकर सबको आलिंगन करते हुये व आर्ति के साथ हरिनाम संकीर्तन करने के लिये अनुरोध करने पर भी सभी भक्त मृदंग व शंखादि के साथ उच्च कीर्तन करने लगे। विषयी व्यक्ति इसको मनोरंजन के लिये होने वाला नाचना, गाना-बजाना समझकर अथवा बे-समय महामाया की पूजा समझकर कुटुक्ति द्वारा भक्तों की निन्दा करने लगे। दैवक्रम से उसी समय ज़िले का शासक काज़ी उसी रास्ते से गुज़र रहा था। उसने कीर्तन के शोर से परेशान व क्रुद्ध होकर श्रीवास-आंगन में आकर मृदंग तोड़ दी और किसी-2 व्यक्ति को मारा भी तथा भक्तों को चेतावनी देते हुये कहा कि यदि पुन: कीर्तन किया गया तो और अधिक सज़ा दी जायेगी। दुष्टों को लेकर काज़ी जब चारों तरफ कीर्तन को लेकर रोक लगाने लगा तो पाखण्डियों को खूब आनन्द हुआ और वे आनन्दित होकर नाना प्रकार से भक्तों का उपहास करने लगे। कीर्तन में बढ़ा उत्पन्न हो गयी है, सुनकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने क्रोध लीला का प्रकाश किया और सब भक्तों को निर्भया पूर्वक मशालें तथा कीर्तन के उपकरणों के साथ आने के लिये कहा। अलग-अलग मण्डलियों में कीर्तन की व्यवस्था कर श्रीमन्महाप्रभु नृत्य करते-2 गंगा के किनारे वाले रास्ते पर चलने लगे। लाखों स्त्रियाँ-वृद्ध-बालक सभी अपने-2 घरों के कामों का परित्याग कर संकीर्तन करते-2 श्रीमन्महाप्रभु जी के पीछे-पीछे चल पड़े। संकीर्तन की ध्वनि सुनकर पाखण्डियों के हृदय कांप उठे। लाखों-लाखों हिन्दू आ रहे हैं, जानकर सिराज्जुदीन चाँद काज़ी भयभीत होकर घर में घुस गया। श्रीमन्महाप्रभु जी उसके घर गये व बड़े प्यार से सभ्य व्यक्ति की तरह उसे बुलाने लगे। उनके प्रीतिपूर्वक बुलावे से आकृष्ट होकर चाँद काज़ी बाहर आया और नीलाम्बर चक्रवर्ती के साथ गाँव के सम्बन्ध के कारण महाप्रभु जी को भांजा सम्बोधन का परस्पर कुछ स्नेहपूर्ण आलोचना के पश्चात् बोला कि मैं मृदंग तोड़कर कीर्तन के लिये निषेध करके जिस दिन घर वापिस आया तो उसी दिन रात्रि को मैंने देखा कि एक भयंकर आधा नराकार व आधा सिंहाकार नरहरि रूप मेरे वक्षस्थल पर चढ़ बैठा और कहने लगा – मैं मृदंग के बदले तेरी छाती फाडूंगा। परंतु जब मैं डर गया तो उसने मुझे छोड़ दिया और कहा कि पुन: कीर्तन में बाधा न देने का संकल्प लेने पर मैं तुझे क्षमा कर दूँगा। काज़ी ने अपने वक्षस्थल पर श्रीनृसिंह देव के स्पष्ट निशान दिखाये। चाँद काज़ी शपथ लेते हुये बोला – अपने वंश में मैंने तलाक दे दिया है कि कोई भी तुम्हारे कीर्तन में बाधा नहीं देगा। इस प्रकार चाँद काज़ी महाप्रभु जी के भक्त हो गये। चाँद जी के स्वधाम को प्राप्त हो जाने पर ब्राह्मण पुष्करिणी ग्राम में उसकी समाधि बनी। उस समाधि क्षेत्र में एक प्राचीन गोलोक चम्पा का वृक्ष अभी भी विराजित है। उक्त चाँद काज़ी की समाधि में सभी हिन्दू-मुसलमान समान रूप से श्रद्धा करते हैं।

श्रीवास-आंगन में संकीर्तन के पश्चात्श्रीमन् महाप्रभु जी अपने गणों के साथ साथ गंगा स्नान करते थे। कभी-कभी भक्त प्रभु को श्रीवास आंगन में ही स्नान करवा देते थे। श्रीवास जी के घर की एक दासी जिसका नाम ‘दु:खी’ था, बड़े भाव के साथ सजल नेत्रों से महाप्रभु जी का नृत्य कीर्तन देखती थी और महाप्रभु जी के स्नान के लिये सभी घड़े गंगाजल से भर कर रखती थी। उक्त प्रकार की सेवा प्रचेष्टा देखकर व परम सन्तुष्ट होकर श्रीमन्महाप्रभु जी ने उस का नाम दु:खी के बदले सुखी रख दिया।

एक दिन श्रीवास के घर में रात्रि कीर्तन के समय उनका इकलौता पुत्र गुज़र गया। पुत्र के वियोग में घर की स्त्रियाँ रोने लगीं। स्त्रियों का क्रन्दन सुनकर श्रीवास जी तुरन्त अन्दर गये और क्रन्दन रोकने के लिये महिलाओं को प्रबोधन देने लगे। फिर भी शोकावेग के कारण क्रन्दन होता देख श्रीवास पण्डित द्वारा गंगा में प्राण विसर्जन करने का भय दिखने पर ही उन्होंने क्रन्दन बन्द किया।

काफी रात तक कीर्तन करने के बाद श्रीमन्महाप्रभु जी कहने लगे – “आज मेरा चित कैसे-कैसे करता है। पण्डित के घर में कोई दु:ख हुआ है क्या? ”

पण्डित बोले –

“प्रभु मोर कोन दु:ख।

यार घरे सुप्रसन्ने तोमार श्रीमुख”॥

अर्थात् श्रीवास जी कहते हैं – हे प्रभो! जिसके घर में आपका सुप्रसन्न श्रीमुख हो उसे भला क्या दु:ख हो सकता है।

बाद में भक्तों ने कहा – प्रभो! श्रीवास का एकमात्र पुत्र आधी रात को गुज़र गया है।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने कहा – “इतने समय से मुझे क्यों नहीं बताया?” प्रभु आपके कीर्तन में बद्धहोगी इसलिये श्रीवास पण्डित जी ने बताने के लिये मना किया था।

इस प्रकार के प्रेमिक भक्तों को मैं कैसे छोड़ कर जाऊँगा- ऐसा कहकर श्रीमन्महाप्रभु आँसु बहाने लगे। इसके पश्चात् मृत शिशु के पास आकर उन्होंने उससे पूछा – “ओहे बालक, तुमने श्रीवास जैसे भक्त के घर को छोड़ कर अन्यत्र जाने की इच्छा क्यों की?”

इस पर मृत शिशु बोला – जितने दिन मेरा श्रीवास जी के घर में रहने का समय था उतने दिन यहाँ गुज़ारे, अब आपकी इच्छा के अनुसार मैं अन्यत्र जा रहा हूँ। मैं आपका नित्यानुगत अस्वतन्त्र जीव हूँ। आपकी इच्छा के विरुध मैं कुछ भी नहीं कर सकता। आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मुझे कभी भी व किसी भी अवस्था में आपके पादपदमों की विस्मृति न हो।

मृत शिशु के मुख से इस प्रकार के ज्ञानगर्भित वाक्य सुनकर श्रीवास के परिवार वर्ग को दिव्य ज्ञान हुआ व उनका शोक दूर हो गया।

श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीवास से कहा – “अब से मैं और नित्यानन्द तुम्हारे दो पुत्र हैं। हम कभी भी तुमको छोड़कर नहीं जायेंगे।”
                                  श्रीमन्महाप्रभु जी के संन्यास ग्रहण के पश्चात् नीलाचल रहते समय प्रतिवर्ष श्रीवास पण्डित गौड़ीय वैष्णवों के साथ चातुर्मास्य के समय पुरी धाम में आते थे।
                                   श्रीवास पण्डित गुण्डिचा मन्दिर मार्जन लीला में व रथयात्रा में श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ रहते थे। रथ के आगे सात मण्डलियों के बीच में द्वितीय मण्डली के मूल गायक थे श्रीवास पण्डित और इस मण्डली के नर्तक थे- श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु।
                                    प्रथम मण्डली के मूलगायक श्रीस्वरूप दामोदर, नर्तक श्रीअद्वैताचार्य; तृतीय सम्प्रदाय (मण्डली) के मुकुन्द मूलगायक, नर्तक श्रीहरिदास जी; चतुर्थ मण्डली के मूलगायक थे गोविन्द घोष और नर्तक थे श्रीवक्रेश्वर पण्डित; पंचम मण्डली के गायक थे कुलीन ग्राम का कीर्तनीय समाज और नर्तक थे रामानन्द और सत्यराज; षष्ठ मण्डली में गायक था शान्तिपुर का भक्त समाज और नर्तक श्रीअच्युतानन्द; सप्तम मण्डली में गायक थे खण्डवासी भक्त; नर्तक थे श्रीनरहरि और श्रीरघुनन्दन। जब श्रीमन्महाप्रभु की नृत्य करने की इच्छा हुई तो सातों मण्डलियों को एकत्रित कर लिया गया।

                             एक बार राजा प्रताप रुद्र अपने सेवक हरिचन्दन के कन्धे पर हाथ रख कर श्रीमन्महाप्रभु जी का अलौकिक उदण्ड नृत्य कीर्तन देखने लगे। उसी समय श्रीवास पण्डित प्रेमाविष्ट होकर राजा के सामने आ गये और वहीं से श्रीमन्महाप्रभु जी के नृत्य का दर्शन करने लगे। राजा के आगे श्रीवास को देखकर व राजा के दर्शन में असुविधा होती देख हरिचन्दन ने श्रीवास के अंगो को स्पर्श करके उन्हें एक तरफ होने के लिये इशारा किया। हरिचन्दन के द्वारा बार-बार ऐसा करने पर श्रीवास जी के नृत्य दर्शन का भाव भंग होने लगा उयर उन्होंने हरिचन्दन को एक थप्पड़ मार दिया। हरिचन्दन क्रोध में कुछ बोल्न ही चाहता था कि राजा ने उसको रोक दिया और कहा कि बहुत भाग्य से तुम्हें श्रीवास जैसे भक्त के हाथों के स्पर्श की प्राप्ति हुई है।
                                श्रीमन्महाप्रभु जी के काटोया में संन्यास ग्रहण करने पर श्रीमन्महाप्रभु का विरह न सह पा सकने के कारण श्रीवास पण्डित नवद्वीप का परित्याग कर कुमार हट्ट में रहने लगे थे। श्रीईश्वरपुरी का आविर्भाव स्थान भी कुमार हट्ट में ही था। श्रीमन्महाप्रभु जी ने यहाँ पर आकर श्रीईश्वर पुरीपाद के जन्मस्थान की मिट्टी लेकर अपने बहिर्वास में बाँध ली थी। उसी समय से आगन्तुक यात्री भक्ति भाव से यहाँ की मिट्टी लेते हैं। लगातार वहाँ से मिट्टी लेते रहने से, वह स्थान एक खड्डे में परिवर्तित हो गया है और अब वह ही ‘चैतन्य डोबा’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘चैतन्य डोबा’ के पास ही श्रीवास पण्डित जी का श्रीपाट है। श्रीमन्महाप्रभु जी के सपार्षद श्रीवास पण्डित के गृह में आगमन करने पर श्रीवास तथा उनके परिवार के सभी लोग श्रीमन्महाप्रभु जी और वैष्णवों की सेवा में निमग्न हो जाते थे।
                                श्रीवास जी को हमेशा सेवा में लगा देख एक दिन श्रीमन्महाप्रभु जी श्रीवास से बोले कि तुम गृहस्थ हो, तुम्हारा अर्थ उपार्जन करने की चेष्टा करना उचित है। नहीं तो तुम्हारे कुटुम्ब का भरण-पोषण किस प्रकार होगा? श्रीवास ने कहा कि मेरी अर्थ उपार्जन कि इच्छा नहीं है और साथ ही साथ उन्होंने तीन तालियाँ भी बजायीं। श्रीमन्महाप्रभु जी द्वारा इस का अर्थ पूछने पर श्रीवास बोले – एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास, उसके पश्चात् गले में घड़ा बाँध कर गंगा में प्रवेश कर जाऊँगा। श्रीवास का वाक्य सुनकर श्रीमन्महाप्रभु जी हुंकार करते हुये बोले – हो सकता है कि कभी लक्ष्मी को भी भिक्षा करनी पड़े किन्तु तुम्हारे घर में कभी भी अभाव नहीं होगा। जो अनन्य चित से भगवान श्रीकृष्ण का भजना करते है उनका योगक्षेम श्रीकृष्ण स्वयं ही वहन करते हैं।
                     श्रीवास पण्डित अपने भाईयों के साथ प्रत्येक वर्ष कुमारहट्ट से नीलाचल जाते थे और शचीमाता के दर्शन करने के लिये मायापुर भी आते थे।

एक दिन नीलाचल में श्रीअद्वैताचार्य के नेतृत्व में श्रीवासादि भक्तों द्वारा परमोल्लास से श्रीमन्महाप्रभु जी के नाम-रूप-गुण लीला का कीर्तन करने पर श्रीमन्महाप्रभु जी ने क्रोध की उस लीला कर उस स्थान का त्याग कर दिया। परन्तु बाद में वे ही भक्तों के सामने झुक गये और उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की।
                     चैत्र कृष्णाष्टमी तिथि में श्रीवास पण्डित की आविर्भाव तथा आषाढ़ कृष्णादशमी तिथि में तिरोभाव मनायी जाती है।