श्री श्रीधर पंडित
श्रीकृष्ण लीला में जो द्वादश गोपालों के अन्यतम कुसुमासव गोपाल थे, वे ही श्री गौर लीला की पुष्टि के लिए श्रीधर पंडित के रूप में आविर्भूत हुए थे―
“खोलावेचातया ख्यात: पण्डित: श्रीधरे द्विज:।
आसीद् ब्रजे हास्यकरो यो नाम्ना कुसुमासव:॥”
(गौ. ग. दी. 133 श्लोक)
श्रीधर पंडित नवदीपवासी थे। नौ द्वीपों के समुदाय स्वरुप श्री नवद्वीप धाम के अंतर्गत अन्तर्द्वीप श्री मायापुर के शेष प्रांत में, चांद काज़ी की समाधि की दक्षिण पूर्व दिशा में, श्रीधर जी का निवास स्थान था, जो की श्रीधर आंगन के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीधर पंडित के आवास में केलों का कुंज था। वर्तमान समय में स्थूल रूप से देखने पर वह केलों का कुंज नजर नहीं आता।
श्रीधर ने केले के बगीचे से गुजारा करने वाले एक गरीब ब्राह्मण की लीला की थी। विश्वव्यापी श्री चैतन्य मठ और श्री गौड़ीय मठ समूह के प्रतिष्ठाता, नित्य लीला प्रविष्ट ऊँ विष्णुपाद 108 श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्रीधर पंडित की पुण्य स्मृति का संरक्षण करने के लिए, श्रीधर आंगन के स्थान को प्रकट किया। इस प्राकट्य से पहले भी श्रीधर आंगन के स्थान पर नियमित रूप से सेवा पूजा की व्यवस्था थी परंतु चारों ओर की प्रतिकूलताओं के कारण वर्तमान समय में यह पुनः संगोपित हो रही है। नवद्वीप-धाम की परिक्रमा के समय भक्तगण अभी वहां जाकर श्रीधर पंडित के लिए दंडवत प्रणाम करते हैं तथा श्रद्धा व पूजा की सामग्री भी निवेदित करते हैं। श्री भक्ति विनोद ठाकुर रचित श्री ‘नवद्वीप धाम महात्म्य’ में इस प्रकार लिखा है कि जुलाहों के गांव के बाद ही खोला बेचा श्रीधर जी का स्थान आता है। यहीं पर श्रीमन् महाप्रभु जी ने कीर्तन किया था व विश्राम भी किया था।
दुनियावी धन व ऐश्वर्य की प्राप्ति भगवत्कृपा का चिन्ह नहीं हैा जो भगवत्प्रेम के धन से मालामाल हैं, वे ही यथार्थ में भगवत कृपा प्राप्त व्यक्ति हैं। महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्रीधर के द्वारा यही शिक्षा प्रदान की है कि विष्णु भक्त निर्विशेष होते हैं जबकि देवी-देवताओं के भक्तों की अक्सर बाह्य सांसारिक उन्नति दिखाई देती है। श्रीमन् महाप्रभुजी ने श्रीधर द्वारा लोक शिक्षा के लिए श्रीधर के घर जाकर उनके दारिद्र्य दु:ख के कारण के संबंध में जिज्ञासा की। महाप्रभुजी ने श्रीधर को पूछा कि क्या बात है लक्ष्मी पति की सेवा करने पर भी आप को अन्न-वस्त्रादि का अभाव है व आपका मैला-कुचैला घर है जबकि दूसरे पक्ष में चंडी विषहरि की पूजा करके साधारण लोग सांसारिक वस्तुओं से मालामाल रहते हैं?
उतर में श्रीधर बोले- “राजा महलों में वास करके, उत्कृष्ट द्रव्यों का भोजन करके जिस प्रकार समय गुज़ारते हैं, पक्षी भी उसी भाव से वृक्ष पर घोंसले में वास करके नाना स्थानों से आहार संग्रह करके और उसे खाकर समय व्यतीत करते हैं। इससे राजा और पक्षी के बीच विषय सुख-भोग में कोई खास अंतर नहीं है।”
श्रीमन महाप्रभु जी ने श्रीधर से कहा – “बाहरी रूप से तुम दरिद्रता की लीला करते हुए भी असली धनी हो। वैष्णव वास्तव में सर्वोत्तम सर्वैश्वर्य के अधिकारी व समस्त वस्तुओं के मालिक होते हैं। इस बात को मैं शीघ्र ही सारे मूर्ख अनभिज्ञ जगत के समक्ष व्यक्त करूंगा।”
महाप्रभुजी के विद्या-विलास के समय श्रीधर केले के फूल और केले के पेड़ के भीतर का डंडा (जिसकी बंगाल में सब्जी बनाई जाती है) बेचकर जीवन-यापन करते थे। बिक्री द्वारा जो सामान्य धन की प्राप्ति होती थी, उसके आधे के द्वारा वे गंगा पूजा और आधे के द्वारा किसी प्रकार से अपना जीवन यापन करते थे। वे युधिष्ठिर की तरह महा-सत्यवादी थे। द्रव्यों के यथार्थ मुल्य ही बताते थे, नवदीप में उनकी यह बात सभी जानते थे। किंतु महाप्रभु श्रीधर के पास आकर श्रीधर के बताए मूल्य का आधा देकर उनसे थोर, केला, मोचा ले जाने के लिए खींचातानी, छीना-झपटी करके प्रतिदिन 4 दंड (डेढ़ घण्टा) उनसे झगड़ा करते।
एक दिन श्रीधर ने महाप्रभुजी से समझौता कर लिया कि वे उन्हें बिना मूल्य के ही लौकी, केले के थोर व मोचा आदि सब्जियां दिया करेंगे, तब से महाप्रभुजी श्रीधर के द्रव्यों से साग सब्जी बनाकर परितृप्ति के साथ अन्य खाते थे।
प्रभु वले भाल, भाल आर नाहि दाय।
श्रीधरेर खोले प्रभु प्रत्यह अन्न खाय॥
भक्तेर पदार्थ प्रभु हेन मते खाय।
कोटी हैलेओ अभक्तेर उलटी न चाय॥
(चै. भा. म. 9/184-186)
अर्थात महाप्रभु जी कहते हैं―बहुत बढ़िया-बहुत बढ़िया, अब कोई झमेला नहीं है। इस प्रकार महाप्रभुजी प्रतिदिन श्रीधर जी के यहां से लाई हुई सब्जी के साथ अन्न ग्रहण करते थे। भक्तों के पदार्थों को भगवान इसी प्रकार खाते हैं जबकि अभक्तों के द्रव्य संख्या में करोड़ों होने से भी वे उनकी तरफ मुड़ कर भी नहीं देखते।
श्रीधर अपने घर में सारी रात जाग कर उच्च स्वर से हरिनाम करते थे।
श्रीमन महाप्रभु चांद काज़ी के उद्धार की लीला के बाद संकीर्तन और नृत्य करते-करते (शंखो का व्यवसाय करने वाले) शंखवणिक नगर व जुलाहों के मोहल्ले को पार कर जब श्रीधर-आंगन में पहुंच गए, तो उन्होंने श्रीधर के घर के जल से भरे पुराने लोहे के बर्तन को उठा कर परम तृप्ति के साथ पानी पिया। टूटे हुए जल के पात्र में प्रभु को पानी पीते देखकर श्रीधर उच्च स्वर से रोते हुए मूर्छित होकर गिर पड़े। भक्त का जल पीने से भक्ति का लाभ होता है―श्रीमन् महाप्रभुजी ने आचरण करके इसकी शिक्षा दी।
“श्री धरेर लौहपात्रे कैल जलपान।
समस्त भक्तेरे दिल इष्ट वर दान॥”
(चै. च. आ. 17/70)
अर्थात भक्ति रत्नाकर ग्रंथ में श्रीधर जी के प्रसंग में लिखा है कि महाप्रभुजी जब अपने भक्तों को साथ लेकर जुलाहों के मोहल्ले को पार कर रहे थे तो वे अपने भक्तों को बड़े उत्साह के साथ वह मुस्कुराते हुए कहते हैं कि देखो, वह दूर टूटा सा श्रीधर का मकान दिखाई दे रहा है। शायद, इसी रास्ते से श्रीधर जी अपने साथियों के साथ घर गए होंगे। उनके घर के पास पहुंचकर महाप्रभु जी ने देखा कि उनके आंगन में एक लोहे का बर्तन पड़ा है और उसमें कुछ पानी भी है तो बड़े उल्लास के साथ महाप्रभु जी ने में बर्तन उठाया और गट् गट् करके सारा पानी पी गए। पानी पीकर भक्त-वत्सल महाप्रभुजी प्रेम में विह्वल हो उठे और गंगा की धारा के समान उनके नेत्रों से आंसू बहने लगे। उसके बाद श्रीधर जी के आंगन में अद्भुत संकीर्तन का प्रारंभ हुआ जिसमें नित्यानंद जी व श्रीअद्वैताचार्य आदि भक्त संकीर्तन करते-करते प्रेम आवेश में बहुत रोये। जो भी हो, श्रीधर के घर पर जो आनंद वितरित हुआ उसका वर्णन करना मुश्किल है।
श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखा है कि श्रीधर के लोहे के पात्र से जलपान करके महाप्रभु जी ने सभी भक्तों को उनके इच्छित वर प्रदान किए।
सन्यास ग्रहण के अभिप्राय से गृहत्याग से पूर्व श्रीधर जी के द्वारा दी हुई लौकी महाप्रभु जी ने प्रीति सहित ग्रहण की थी। श्रीमन् महाप्रभुजी की इच्छा के अनुसार शची माता ने श्रीधर द्वारा दी हुई लौकी और दूध द्वारा “दुग्ध-लौकी” पदार्थ की रसोई की थी।
“एक लाउ हाते करि सुकृति श्रीधर।
हेनइ समये आसि हइला गोचर॥
लाऊ भेट देखी हासे श्रीगौरसुंदरे।
कोथाय पाइला? प्रभु जिज्ञासे ताँहारे॥
निज मने जाने प्रभु कालि चलिवांग।
एक लाउ भोजन करिते नारिलांग॥
श्रीधरेर पदार्थ कि हइवे अन्यथा।
ए लाउ भोजन अाजि करिवे सर्वथा॥”
(चै. भा. म. 28/33-36)
अर्थात ठीक उसी समय परम सुकृतिवान श्रीधर जी हाथ में लौकी लिए खड़े दिखाई दिए.।लौकी को देखकर श्रीमन् महाप्रभु जी अपनी हंसी ना रोक पाए और हंसते हंसते कहने लगे – अरे, ये लौकी कहां मिली तुम्हें?
फिर महाप्रभुजी सोचने लगे कि ये श्रीधर मेरे लिए लौकी लेकर आया है परंतु कल तो मैं चला जाऊंगा तो क्या मैं इस लौकी का भोजन नहीं कर पाऊंगा? श्रीधर के द्वारा लाइ ये लौकी क्या बेकार चली जाएगी, कि तभी मन-ही-मन अपने निर्णय को बदला महाप्रभु जी ने और उसी दिन उस लौकी की रसोई बनाने का आदेश दिया; ये सोचकर कि श्रीधर की लौकी खा कर ही मैं यहां से जाऊंगा।
श्रीधर अन्यान्य गौड़ देशीय भक्तों के साथ हर वर्ष रथ-यात्रा के समय पुरी जाते थे।